कविताएँ आपने पढ़ी होंगी. प्रेम कविताएँ भी. पर, कुछ अलग और मौलिक पढ़ना है? इन्हें पढ़ देखें - व्हीलचेयर के पहिये मैं जोकर का इक मुखौटा ...
कविताएँ आपने पढ़ी होंगी. प्रेम कविताएँ भी. पर, कुछ अलग और मौलिक पढ़ना है? इन्हें पढ़ देखें -
व्हीलचेयर के पहिये
मैं जोकर का इक मुखौटा पहन
तुम्हारी नस काटती यादों की व्हीलचेयर पर बैठा हूँ,
जिसे धकेलता है मेरा बीता हुआ वो कल
जिसमें हमने इक उजले शहर में घर बसाने के सपने देखे थे.
मैं बेवक़ूफ़ था,
एक चमकती गली में घुस आया
उसको उजला समझ,
और अपने आज की मरम्मत करते करते
अपनी बाहें कटवा बैठा.
अब मैं किराए पर हँसी बाँटता हूँ
चढ़ाकर अपनी खानाबदोशी का ज़िल्द,
पसीने को निचोड़ मिला लेता हूँ उसमें कुछ बोतल शराब,
और दुनिया कहती है
"वो देखो, नशे की राह चलता एक और सड़कछाप
कल रात व्हीलचेयर के पहियों तले कुचला गया."
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दूसरे शहर की मुस्कान
वो मुस्कान
जो मेरे चेहरे से तुम्हारे चेहरे तक चली जाती थी,
आज कल सोने नहीं देती.
सुना है,
कल रोज़ तुम खिलखिला कर हँस पड़ी थीं
मेरे दूर किसी शहर चले जाने की खबर सुनने के बाद
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दुनिया की आदत
मैं आदतों से लड़ रहा हूँ
दुनिया भर की आदतें
जिनकी आदत है कैद करना हमारी सोच को
आदतों की एक जेल में.
हमारी आदत है हर वो बात मान लेना
होती आ रही है जो सालों से यूँ ही
क्योंकि ऐसी बातों को बदलना
हमारी आदत नहीं.
हमने कही बातों को सच मान लिया
और बना लिया उन्हें अपनी आदत
जिनमे सच की मात्रा सिर्फ उतनी होती है
जितनी आदत होती है हमें आदतें बदलने की.
सूरज भी है इक क़ैदी इन आदतों की कैद में
कि मिलने को जिसे अपने मुलाकातियों से
मिलती है मोहलत सिर्फ कुछ घंटों की
और हम मान बैठे उसकी मजबूरी को आदत.
मेरी मानो तो बगावत की आदत डालो
और बदलो अपनी आदतों को
दुनिया को सिखाओ कि जीना क्या है
वरना साँस खींचना और छोड़ना तो सबकी आदत है.
मैं आदतों से लड़ रहा हूँ...
दुनिया भर की आदतें...
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चायपत्ती और साबुन की बट्टी
मैं अकेले में मिलना चाहता था तुमसे,
सूरज ढलने के बाद,
क्यूंकि लोग कहते हैं कि लड़के रोते नहीं,
उन्हें सह लेना होता है सब कुछ,
बिना आँसू टपकाये,
चुप-चाप.
मैं ये आँसू ही छुपाना चाहता था,
शाम के उस धुंधलके में,
जो निकल बहते हैं अनायास ही,
हर उस बात पर जो याद दिलाती है तुम्हारी,
और दे जाती है एक हल्की सी मुस्कान होठों पर साथ ही,
ठीक वैसे जैसे चायपत्ती के साथ मुफ्त हो
साबुन की बट्टी.
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एक और लड़का
आज एक और लड़का
कहता था जिसे सारा जहाँ आवारा
हरकतें थीं जिसकी कतई सड़कछाप
और जिसका कुछ नहीं हो सकने वाला था,
घर छोड़ कर भाग गया.
कहते हैं,
उसे शहर के कबाब बड़े अज़ीज़ थे
पर उस से भी ज्यादा लज़ीज़ थे उसकी माँ के हाथ के बने छोले
शहर में दोस्त कई थे उसके
पर हमराज़ कोई न था
थी उसकी भी एक महबूबा
जिसे अक्सर वो नींद से था जगाता देर रात
उसके मोहल्ले की वो भुरभरी सड़क
गवाह है वो उसकी आशिक़ी की, क्रिकेट से.
कहते हैं,
वो घर नहीं,
ये सब कुछ छोड़ के भागा है.
कहते हैं,
वो बेहद मजबूर था
वरना प्यार इन सब से उसे भी भरपूर था.
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माइनस आठ का चश्मा
दुनिया के एक उदास हिस्से में
लोहे की दो समानांतर पटरियों पर
एक मशीन भाग रही है.
जो लगातार तुमसे दूर दौड़ती ही जा रही है.
उस मशीन में बैठा एक शख्स
आँखों पर माइनस आठ का चश्मा चढ़ाए
खिड़की से बाहर देखता
सिर्फ़ यही सोच रहा है कि
अगर ये मशीन यूँ ही तेज़ी से
भागती ही रहे बिना रुके
तो शायद उसे तुमसे मिलने में
ज़्यादा देर नहीं.
क्यूंकी उसने किताबों में पढ़ रखा है
कि ये दुनिया गोल है.
ठीक उतनी ही गोल
जितनी उसकी दूसरे शहर में
तुमसे पहली मुलाकात की प्रॉबबिलिटी थी.
गोल ठीक वैसी ही,
जैसी उसकी सुबह वॉक करने की आदत थी.
गोल, उतनी ही गोल
जितनी उसकी सोच थी
जो आ रुकती थी हर बार बस तुम पर.
बस, इसी गोल दुनिया की गोल बातों में फँसा हुआ
वो शख्स देख रहा है खिड़की के बाहर,
आँखों पर माइनस आठ का चश्मा चढ़ाए.
और वो साली मशीन,
भागे ही जा रही है उन दो समानांतर पटरियों पर
जिन्हें इंसान गोलाई में बिछाना शायद भूल गया.
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डर लगता है
पिछले कुछ रोज़ से
खायी उस चोट से
जागती रातों को सोने में
कुछ डर सा लगता है.
तुम्हारी याद आने वाली हर इक बात पर
ओंठों पर चढ़ बैठी उस मुस्कान संग
बेबस आंसुओं के खुद ही लुढ़क जाने का
कुछ डर सा लगता है.
नींद से संग जाग देखे सपनों का
बस इक सपना ही बन कर रह जाने से
और अलसायी उन आँखों में
कैद इस सूनेपन के दिख जाने से
कुछ डर सा लगता है.
चलते चलते यूँ ही थामे इक हाथ से
बरसात की एक नम शाम के पहले स्पर्श मात्र से
किसी छाते तले दो अलग कांधों के भीग जाने से
कुछ डर सा लगता है.
हवा के तेज़ एक पागल झोंके से
तुम्हारे बालों में रमी खुशबू के
दौड़ कर दिल में मेरे घर कर जाने से
कुछ डर सा लगता है.
मेरे बेबाक यूँ ही कभी कुछ लिख जाने से
मेरे शब्दों में हर बार तुम्हारा ज़िक्र आने से
बाँधा है जो कैसे भी एक बाँध, वो खुल जाने से
अब कुछ डर सा लगता है.
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इंतज़ार तुम्हारे फ़ोन का
मैं जागता रहा उस रात
तुम्हारे फोन के इंतज़ार में
उसी अधबुनी कुर्सी पर बैठे
जिसके दायें हत्थे पर कुरेदा था मैंने तुम्हारा नाम
उसी पेंचकस से जिससे जी चाहता कि इन बाज़ुओं के पेंच खोलकर
फ़ेंक दूँ दूर कहीं जो कबसे बेताब हैं तुम्हें कैद कर लेने को.
मैं जागता रहा उस रात
तुम्हारे फ़ोन के इंतज़ार में
उस अधबुनी कुर्सी पर बैठे, ऊंघते,
जिसके बायें हत्थे पर तुमने था कुरेदा मेरा नाम
और मिला था अंग्रेजी के एक अक्षर को कुछ बाइनरी अंकों का सहारा.
मैं उस रात जागता रहा,
और घूरा किया अपने फ़ोन को
जो हमारा एक अकेला राज़-दार है.
जो गवाह है हर उस पल का जब मैंने तुम्हें ये बतलाया
कि मुझे तुमसे कितनी मुहब्बत है.
मैं आज भी हर रात जागता हूँ,
पर अब मेरा फोन हर रात सोता है,
उस रात के बाद से,
जब मैं जागता रहा था सारी रात,
तुम्हारे फ़ोन के इंतज़ार में...
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केतन के ब्लॉग हरामी मन (http://badkabukrait.blogspot.in) से साभार.
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