डॉ. रामवृक्ष सिंह पीछे भवानी भाई की जन्म-शती मनाई गई। वे मध्यप्रदेश में पैदा हुए और स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेकर जेल यात्राएं कीं। आम ...
डॉ. रामवृक्ष सिंह
पीछे भवानी भाई की जन्म-शती मनाई गई। वे मध्यप्रदेश में पैदा हुए और स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेकर जेल यात्राएं कीं। आम आदमी की जबान में आम आदमी के दिल को छू लेनेवाली लाइनें लिखीं, जिनको लोगों ने कविता कहा। ऐसी ही एक लाइन में भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा कि दूध का धुला कोई नहीं है। क्योंकि दूध किसी का धोबी नहीं है। हो.. तो भी नहीं है। देश और काल का प्रभाव हमारे कृतित्व पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। भवानी भाई के साथ भी निश्चित ही ऐसा हुआ। मालवा के पठारों में कहाँ से आता दूध? जहाँ बच्चों को पीने के लिए दूध न हो, वहाँ किसी को सरापा धोने भर का दूध कहाँ से जुटता? उस इलाके में तो पीने का पानी तक नहीं है। जो लोग न मानें वे बुंदेलखंड और उसके आस-पास के इलाके में जाकर देख लें। न जा सकें तो अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में ही पढ़ लें। खैर.. भवानी भाई के इलाके में दूध देखने को मयस्सर नहीं होता था। हाँ कहावत जरूर थी अलबत्ता। तो कवि ने लिख दिया कि दूध का धुला कोई नहीं है। कवि के अगले बयान को जातिसूचक टिप्पणी न माना जाए। उनका कहना बस इतना है कि दूध का काम घर-घर जाकर हर किसी की सफाई करना नहीं है। जिसमें योग्यता होती है, यानी जो दूध जुटा सकता है, वही दूध से खुद को धो सकता है।
भवानी भाई की बात आई-गई हो गई। सारे कवि, नेता, अफसर, धंधेबाज, यानी वे सब लोग जिनको दूध और उससे निकलनेवाली मलाई पीने, खाने और उसमें डुबकी लगाने की तमीज थी, वे सब के सब दिल्ली-मुंबई की ओर भाग छूटे। देश-दुनिया से बटोर-बटोरकर दूध भरे टैंकर दिल्ली-मुंबई पहुँचने लगे। अपने कुरियन साहब ने देश के किसानों, और खासकर महिलाओं के साथ मिलकर एक मुहिम छेड़ी और देश में दूध की बाढ़ आ गई। लो जिसको जितना पीना है पियो, जिसे नहाना है नहाओ, दूध के धुले बनना है तो वह भी बन जाओ और दूध गरमाकर मलाई निकालो, जितनी मलाई उड़ानी है उड़ाओ। भैंसों और गायों का दूध कम पड़ जाए तो वैज्ञानिकों ने सोयाबीन के दूध की भी खोज कर डाली। कहने का मल्लब ये कि दूध और मलाई की कोई कमी नहीं रह गई।
हालत ये हो गई कि इफरात में दूध की उपलब्धता के कारण हर कोई दूध का धुला हो गया। लेकिन किसी-किसी बकवादी टाइप आदमी के मन में अपने गीत-फरोश कवि यानी भवानी भाई की लाइनें फंसी रह गईं। नहीं निकलीं तो फिर समझिए कि नहीं ही निकलीं। उनमें से कुछ लोग कभी रामलीला मैदान में जा बैठते हैं तो कभी जंतर-मंतर और चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं- दूध का धुला कोई नहीं है। दूध का धुला कोई नहीं है। विडंबना तो यह है कि उनकी सुनने वाला भी कोई नहीं है। क्योंकि इस देश में कोई भी भला आदमी/ दूध का धुला होने की आकांक्षा पालनेवाला/ मनोरोगी नहीं है। हो.. तो भी नहीं है। जिन लोगों को वे अपनी कविता सुनाना चाहते हैं, उनकी आँखों पर दूध की मलाई की मोटी परत चढ़ गई है। उनके कानों में दूध की मलाई का खोंट इतनी गहराई तक बैठ गया है कि किसी अग्नि-शामक नोजल की तेज धारा से हाइड्रोजन पैरोक्साइड डालने पर भी न निकले।
दूध का धुला होने की सबसे बड़ी निशानी यह है कि आदमी सफेद दिखे, उजला दिखे। अब ये तो हो नहीं सकता कि भले लोग दूध का लेप लगाए-लगाए घूमें और पूरे देश-दुनिया को अपने दूध के धुला होने का प्रमाण देते फिरें। लिहाजा, उन्होंने दूध से भी उजले कपड़े पहनना शुरू कर दिया। यह पक्का जानिए कि जिसने इस देश में जितने सफेद कपड़े पहने हैं, वह उतना ही ज्यादा उत्तम क्वालिटी के दूध का धुला है। जरा सोचिए कि ये लोग जब एक-दूसरे से मिलते होंगे तो क्या बातें करते होंगे? एक पूछता होगा- “क्या बे, तेरा कुर्ता-पाजामा मेरे कुर्ते-पाजामे से सफेद कैसे है बे?” तो वह उत्तर देता होगा- “मैं दूध का धुला हूँ बे। तुझे मालूम नहीं क्या? पर ये बता यार, तेरे कपड़ों में ये पीलापन क्यों है?” इस पर पहले वाला खींसें निपोरते हुए उत्तर देता होगा- “क्या बताऊं यार... दूध से धुल-धुलकर मेरा मन भर गया, तो आजकल मैं मलाई मार रहा हूँ...तुझे चाहिए हो तो बता, तेरे लिए भी कुछ इंतजाम कर दूँ।”
भवानी भाई यदि दिल्ली में पले-बढ़े होते तो कभी नहीं कहते कि दूध का धुला कोई नहीं है। बल्कि तब वे शायद ऐसा कुछ लिखते- देश और दुनिया से/ जो भी दिल्ली में आया है/ वह दूध का नहाया है/ अब यहाँ यमुना बहे न बहे/ किसी को खाने को रहे न रहे/ यहाँ हर किसी के हिस्से अपनी-अपनी मलाई है/ जिसकी फिसलपट्टी पर गिरने से कोई नहीं बचा/ यहाँ कोई चोर नहीं/ हर कोई सिपाही है/ और यदि कोई चोर है भी/ तो वह सिपाही का मौसेरा भाई है।
भवानी भाई ने ही लिखा था- फूल लाया हूँ कमल के/क्या करूँ इनका/पसारें आप आँचल/छोड़ दूँ हो जाए जी हलका…/ ये कमल के फूल लेकिन मानसर के हैं/ इन्हें हूँ बीच से लाया/ न समझो तीर पर के हैं। कमल अपने यहाँ शुद्धता, शुचिता, समृद्धि और क्रान्ति का प्रतीक है। भगवान विष्णु जब अवतरित होते हैं तो कमल के पत्ते पर अपने पाँव का अँगूठा मुख में लेकर चूसते हुए शिशु रूप में दिखाई पड़ते हैं। माता लक्ष्मी कमल पर अवस्थित हैं। माता दुर्गा को कमल प्रियतर पुष्प है, इसलिए स्वयं भगवान राम जब शक्ति-पूजा करते हैं और अर्पित करने के लिए कमल नहीं पाते तो अपने कमल रूपी नयन ही अर्पित करने को उद्यत हो उठते हैं।
सन् सत्तावन की क्रान्ति के समय हिन्दुस्तानी क्रान्तिकारियों ने कमल को ही अपनी क्रान्ति का प्रतीक माना। लेकिन मज़े की बात है कि कमल उगता है कीचड़ में। इसलिए उसका नाम पड़ा पंकज। कमल दूध में नहीं उगता। दूध को ज्यादा देर रख दीजिए यानी समय रहते साफ न कीजिए तो एक अजीब तरह की बास आने लगती है। दूध से नहाने के बाद भी पानी से नहाना ही पड़ता है। जस का तस तन पोंछने से नहाने की क्रिया पूरी नहीं होनेवाली। दूध को जिस कपड़े से पोंछा जाता है, उसे पानी से धोए बिना निस्तार नहीं। यानी दूध गंदा करता है, जबकि पानी साफ। कोई-कोई लोग पानी को दुनिया का सबसे बड़ा और कारगर डिटर्जेंट कहते हैं। इस मायने में पानी की उपयोगिता दूध की अपेक्षा कहीं अधिक है।
जो लोग दूध-मलाई की वांछा में दर-दर की ठोकरें खाते हैं और अपनी दुर्गति कराते हैं, उनके लिए अपना यह विनम्र संदेश है- दूध के धुले न सही, पानी के धुले बन जाओ, यह भी काफी है। बल्कि यही काफी है। पर धुले-पुँछे रहो।
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(डॉ. रामवृक्ष सिंह)
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