डॉ. दीपक आचार्य जिसके पास दौलत है वह एक न एक दिन नष्ट हो जाने वाली है अथवा चुरा ली जाने वाली है जबकि ज्ञान ऐसी दौलत है जिसे को...
डॉ. दीपक आचार्य
जिसके पास दौलत है वह एक न एक दिन नष्ट हो जाने वाली है अथवा चुरा ली जाने वाली है जबकि ज्ञान ऐसी दौलत है जिसे कोई चुरा नहीं सकता, न खर्च होने पर इसमें कोई कमी आती है। बल्कि जितनी अधिक खर्च होती चली जाती है उतनी ही अधिक बढ़ती ही जाती है और यह भण्डार हमेशा बढ़ता रहता है।
आमतौर पर लोग सरस्वती और लक्ष्मी में वैर मानते हैं जबकि ऎसा है नहीं। सरस्वती और अलक्ष्मी में वैर है। अलक्ष्मी वह है जिसमें कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती अथवा पाप कर्म से पैसा आता है। या फिर उन लोगों के वहाँ से पैसा आता है जो दुष्ट हैं, अन्याय, अनीति और हराम की कमाई वाले है अथवा यह पैसा किसी न किसी प्रकार की हिंसा से अर्जित है।
यह भी सत्य है कि ऎसे अलक्ष्मी वाले लोगों से सरस्वती नाराज रहती है और अपनी मंदबुद्धि, अंधबुद्धि या दुर्बुद्धि के कारण उन्हें औरों की बुद्धि पर निर्भर होने को विवश होना पड़ता है। सरस्वती और अलक्ष्मी का यह वैर हमेशा रहा है और रहेगा। और यही नहीं तो लक्ष्मी और अलक्ष्मी में भी हमेशा शत्रुता रहती है।
एक बार किसी के पास बिना मेहनत की, औरों से हड़पी हुई, चुराई हुई अथवा गुमराह कर प्राप्त की गई सम्पत्ति स्वाभाविक रूप से अलक्ष्मी की श्रेणी में आता है। तमाम प्रकार के गलत रास्तों से आने वाला धन और बिना किसी मेहनत के आया हुआ धन अपने आप में अलक्ष्मी है और इससे लक्ष्मी की शत्रुता है।
यही कारण है कि जहाँ अलक्ष्मी का भण्डार होता है, इसके दास होते हैं, उनका पूरा जीवन उल्लूओं की तरह बीतता है और जीवन के आदि से अन्त तक अंधेरों के सायों से होकर गुजरता रहता है जहाँ बाहर की सभी प्रकार की चकाचौंध तो है मगर भीतर सब कुछ खोखला ही खोखला है। न भीतरी आनंद और सुकून है, न चेहरे की स्वाभावित चमक-दमक और मन-मस्तिष्क की असीम शांति।
हर वक्त चौकीदार की तरह चौकन्ने रहने की मजबूरी और हर क्षण कोई न कोई भय, आशंका या भ्रम का माहौल हावी रहता है। फिर जो लोग भण्डारण का काम करते हैं उनके साथ दुविधा यह होती है कि संग्रहण की भावभूमि इतनी अधिक ठोस हो जाती है कि ये चाहते हुए भी कुछ भी अपने लिए खर्च नहीं कर पाते हैं। इनके भीतर कृपणता की जड़ें इतने गहरे तक घुसी होती हैं कि इन्हें अपनी इच्छाओं को दबा देना पड़ता है, मन को मारना पड़ता है और वह सब कुछ करना पड़ता है जिसकी वजह से प्रसन्नता दूर भागती रहती है।
यही कारण है कि अलक्ष्मीवान तमाम लोगों के चेहरों से चमक-दमक, प्रसन्नता और आत्मसंतोष हमेशा गायब मिलता है। इसके स्थान पर श्वानों की तरह भटकन, उद्विग्नता, मलीनता और असंतोष इनके जीवन भर के लिए संगी साथी हो जाते हैं। इन लोगों को अपने समृद्ध होने का एकमात्र भ्रम और गौरव हमेशा हर पल बना रहता है, इसके सिवा सुकून का कोई दूसरा कारक इनके पास नहीं होता।
इस स्थिति में इन तमाम अलक्ष्मीवान लोगों को अपने काम-काज के लिए बुद्धिजीवियों की जरूरत पड़ती ही है। बुद्धिजीवियों में कुछ तो ऎसे होते हैं जो किसी भी कीमत पर खरीदे नहीं जा सकते, न किसी के प्रलोभन या दबाव में आते हैं। जबकि बहुत सारे लोग बुद्धि बेचकर जीवन चलाते हुए अपने बुद्धिजीवी शब्द को सार्थक करते हैं। बुद्धिजीवी इन दोनों में से किसी भी किस्म के क्यों न हों, इनका दूसरे लोग शोषण करते ही करते हैं।
कुछ लोग संबंधों या प्रेम से रीझ जाते हैं और बहुत सारे ऎसे हैं जो किसी न किसी लोभ-लालभ या आकर्षण के किसी न किसी मायाजाल में आकर उन लोगों के साथ नत्थी हो जाया करते हैं जो बुद्धिजीवियों के शोषण में माहिर होते हैं।
बुद्धिजीवियों में से खूब सारे नाम और तस्वीर पिपासु होते हैं, कुछ को बड़े लोगों के साथ घूमने-फिरने और उनके आदमी या पालतु कहलाए जाने का शौक होता है। बुद्धिजीवियों में एक किस्म ऎसी भी होती है जिसका अपना कोई धर्म नहीं होता, हराम का खाने-पीने मिल जाए, पैसा मिल जाए तो चाहे जिस किसी का गुणगान करने, लिखने और गाने में न कोई परहेज करें न ना नुकर। इन लोगों को अपने उल्लू सीधे होने से मतलब है फिर चाहे किसी भी उल्लू की गरज क्यों न करनी पड़े।
समाज और देश का दुर्भाग्य यही है कि बुद्धिजीवी कौम में बहुत सारे बिकने वाले हो गए हैं, जब आदमी खुद बिकने को तैयार रहे तो खरीदने वाले को काहे की शरम। आदमियों की मण्डी में सब जायज है। बिकने वाले भी तैयार हैं और खरीदने वाले भी। और लोग तो सभी का भाव तौल कर ही लिया करते हैं।
कुछ लोग जिन्दगी भर किसी न किसी के हाथों बिकते रहते हैं। इनके मालिक कहलाने का गर्व करने वाले लोगों को निश्चित संख्या में गिना नहीं जा सकता। खूब सारे विद्वजन बेचारे हद से अधिक भोले होते हैं। लोगों के लिए इनको उल्लू बनाना आसान होता है। सरल, निष्कपट और सामाजिक सेवा भावी होने की वजह से किसी के भी झाँसे में आसानी से आ जाते हैं। जब तक काम होता है, बहुरूपिये लोग इनके आगे-पीछे घूमते रहकर सम्मान, आदर और श्रद्धा की चादर बिछाते रहते हैं, काम निकल जाने के बाद इन्हें कोई पूछता तक नहीं। इस किस्म के लोग हर युग में हुए हैं जिन्होंने भगवान को हाजिर-नाजिर मानकर काम किया और बदले में कुछ भी पाने की आशा कभी नहीं रखी।
आज भी बुद्धिजीवियों की स्थिति बड़ी ही विचित्र है। कहीं कंचन-कामिनी के मोह में, कहीं बिना परिश्रम किए प्रतिष्ठा और लोकप्रियता पाने के मद की चाह में, कहीं छपास की कुंभकर्णी भूख और प्यास मिटाने तथा कहीं अपने आपको लोकप्रिय, प्रतिष्ठित और महान कहलवाने के चक्कर में बुद्धिजीवियों की पूरी की पूरी नस्ल प्रदूषित हो रही है।
पहले बुद्धिजीवी अपने बुद्धिबल और अर्जित अनुभवों का उपयोग कर अच्छे-बुरे की समझ बनाता था, आज लाभ-हानि की गणित को देखकर वह किसी का भी चमचा या चापलुस बन जाता है और पिछलग्गू हो जाता है। तमाम प्रकार की विकृतियों भरे प्रदूषित माहौल के बीच बुद्धि की शुचिता को बनाए रखना आज की प्राथमिक जरूरत हो गया है।
हम सभी को चाहिए कि बौद्धिक खरीद-फरोख्त से बचें, पवित्रता बनाए रखें, समाज के लिए अच्छे-बुरे की समझ को सामने रखें और अपनी आत्मा की आवाज को सुनकर ही कोई काम करें। बौद्धिक शोषण से बचने की आज जरूरत है।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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