- राम नरेश 'उज्ज्वल' (एक) शरीफों के मोहल्ले में शराफत अब नहीं रहता। हुआ है दूर नजरों से किसी को कुछ नहीं कहता।। ज़मान...
- राम नरेश 'उज्ज्वल'
(एक)
शरीफों के मोहल्ले में शराफत अब नहीं रहता।
हुआ है दूर नजरों से किसी को कुछ नहीं कहता।।
ज़माना है बुरा लेकिन जड़ें अपनी जमाने को,
गले से वो लगाता है जो ईदें तक नहीं मिलता।
किसी की आबरु लूटें , किसी का वो करें सौदा,
दिलों का दर्द जो सुनकर कभी भी चुप नहीं रहता।
हक़ीकत है जो बोया वही काटेंगे हम लेकिन,
लगाता वृक्ष है जो भी उसे क्यों फल नहीं मिलता।
समन्दर आँख का आँसू लगाओ थाह कितनी भी,
मगर वह प्रेम का मोती, सभी को मिल नहीं सकता।
(दो)
निकम्मे व्यक्ति को ताकत भला हनुमान क्या देगा।
जिसे है फिक्र अपनी ही कभी बलिदान क्या देगा।।
सिपाही बन खड़ा जो देश की सीमा पे पहरा दे,
किसी दुश्मन सिपाही को वो जीवन-दान क्या देगा।
लबों तक जाते-जाते भी भरा प्याला छलक जाता,
नहीं जो भाग्य में तेरे तुझे सुलतान क्या देगा।
समन्दर दे दिया जिसने तेरी इक बूँद के बदले,
चढ़ा कर फूल-माला तू उसे अब दान क्या देगा।
ज़रा-सी रौशनी करके बहुत इतरा रहा है क्यों,
दिया कुदरत ने जो सबको तेरा विज्ञान क्या देगा।
(तीन)
मुद्दतों के बाद ऐसे मुस्कुराए क्यों जनाब।
आज मिलने के बहाने पास आए क्यों जनाब।।
दूसरों पे दागते आए हमेशा गोलियाँ ,
वार उल्टा हो गया तो तिलमिलाए क्यों जनाब।
बेरहम होकर उजाड़े कितने फूलों के चमन,
शूल चुभने जब लगे आँसू बहाए क्यों जनाब।,
मेरे घावों पर छिड़क कर नमक तुम हँसते रहे,
कट गई उँगली तनिक तो तड़फड़ाए क्यों जनाब।
लूटते अब तक रहे हो दूसरों का कारवाँ,
लुट गए खुद एक दिन तो बौखलाए क्यों जनाब।
सूर्य पर उँगली उठा कर दी हमेशा गालियाँ,
आज नन्हें जुगनुओं से गिड़गिड़ाए क्यों जनाब।
(चार)
उसूलों पर चलोगे तो ज़माना क्या कहेगा।
शराफत से रहोगे तो ज़माना क्या कहेगा।।
मुहब्बत में लिखी जिसने तुम्हें हर साँस, हर धड़कन,
न उसको भी छलोगे तो ज़माना क्या कहेगा।
तुम्हारे नाम से ही काँप जाती रूह तक सबकी,
खुदा से तुम डरोगे तो ज़माना क्या कहेगा।
प्राण हैं कीमती अपने करो बस फिक्र इसकी ही,
वतन पर मर मिटोगे तो ज़माना क्या कहेगा।
नहीं कुछ होश अपना है, नशे में धुत्त हैं सारे,
सम्भल कर तुम चलोगे तो ज़माना क्या कहेगा।
सूख कर गिर गए पत्ते, ठूँठ बनकर खड़े हैं हम,
जड़ों अर्घ्य दोगे तो ज़माना क्या कहेगा।
भूख से बिलबिलाना और रोना भाग्य है जिनका,
दया उन पर करोगे तो ज़माना क्या कहेगा।
यहाँ है बोलबाला आजकल तो देवदत्तों का ,
अगर गौतम बनोगे तुम ज़माना क्या कहेगा।
(पाँच)
किस्मत की रेखा बदलने लगी।
खुशियों की प्याली छलकने लगी।।
कलियों को किसका फरमान है,
किसकी इजाजत से खिलने लगी।
बेशर्मी कहो या कहो बेबसी,
पर्दे से अब वह निकलने लगी।
विश्वास का ही नतीजा है जो,
हुकूमत गैरों की चलने लगी।
आँखों में देखो जरा गौर से,
तस्वीर किसकी उभरने लगी।
(छः)
बीती बात पुरानी होगी।
लेकिन बहुत सुहानी होगी।।
जंजीरों में जकड़ा हूँ मैं,
अपनी कुछ नादानी होगी।
कौन कहाँ से गुजरा था कब,
इसकी एक निशानी होगी।
पंछी उड़ने से कतराए,
पिंजड़े को हैरानी होगी।
बहुत छुपाया गैरों से, पर
अपनी तो निगरानी होगी।
मिलने से कतराता है वह,
मन में कुछ बेमानी होगी।
घर में आटा-दाल नहीं, पर
कहने से बदनामी होगी।
धीरे-धीरे तेरी-मेरी,
सच्ची प्रेम कहानी होगी।
(सात)
उल्टा लगा जमाना बेटा।
मुफ्त सभी का खाना बेटा।।
कभी वक्त पर काम न आना,
ठेंगा बस दिखलाना बेटा।
जिसका लेना, कभी न देना,
दुनिया से है जाना बेटा।
उल्टे-सीधे जैसे भी हो,
अपना काम बनाना बेटा।
तड़प रहा जो उसे मारकर,
अपना फर्ज निभाना बेटा।
भूखे को रोटी मत देना,
दिखा-दिखा तरसाना बेटा।
अंधे को तू हाथ पकड़ कर,
उल्टी राह दिखाना बेटा।
जख़्म किसी का गहरा हो तो,
उस पर नमक लगाना बेटा।
मरने वाले मरा करेंगे,
दुनिया आना-जाना बेटा।
मुर्दे को कंधा मत देना,
जिन्दे को दफनाना बेटा।
(आठ)
कभी शहर से आना गाँव।
साथ सभी को लाना गाँव।।
अपराधों से दूर बहुत है,
भोला और सयाना गाँव।
स्वागत करते पंछी सुन्दर,
गाता मधुर तराना गाँव।
मिट्टी से सोना उग आए,
ऐसा एक खजाना गाँव।
शहरों से अब ऊब चुके जब,
भाये वही पुराना गाँव।
सारी उमर यहीं गुजरी है,
मेरा ठौर-ठिकाना गाँव।
ममता के आँचल-सा लगता,
है जाना-पहचाना गाँव।
(नौ)
कभी-कभी खुद को तड़पाना अच्छा लगा हमें।
सच्चाई को झूठ बताना अच्छा लगा हमें।।
कभी अचानक खुशियाँ हमको जब-जब ढेर मिलीं,
जाने क्यों आँसू छलकाना अच्छा लगा हमें।
जिनसे मिलने को हम व्याकुल हो-हो उठते थे,
उनसे ही अब आँख चुराना अच्छा लगा हमें।
हम दोनों की एक दिशा थी, एक थी मंजिल पर
अलग-अलग राहों पर जाना अच्छा लगा हमें।
बहुत दिनों के बाद हमारे दिन जब बहुरे तो
पिछले सारे दर्द जगाना अच्छा लगा हमें।
जीवन के हर पल को हमने कोसा पल-पल पर,
जाते-जाते सफ़र यहाँ का अच्छा लगा हमें।
कितनी दूर-दूर से पंछी आए-गए मगर,
ठहरा हुआ मुसाफ़िर खाना अच्छा लगा हमें।
आज ज़रूरतमंदों की हमने फरियाद सुनी,
क्योंकि ऐसे दिल बहलाना अच्छा लगा हमें।
दर्द कभी जब बढ़ते-बढ़ते हद से अधिक बढ़ा,
उस पल अपने में खो जाना अच्छा लगा हमें।
खेल-खेलते बच्चों को जब देखा घूरों पर,
बचपन तब जाना-पहचाना अच्छा लगा हमें।
चलते-चलते सड़कों पर जब थक कर चूर हुए,
खुद को हिम्मत-धैर्य बँधाना अच्छा लगा हमें।
शायद बड़ा खजाना अगले पल में हाथ लगे,
सोच-सोच यूँ समय बिताना अच्छा लगा हमें।
जिसको काट-काट कर हमने ठूँठ बनाया था,
उस पौधे का फिर हरियाना अच्छा लगा हमें।
(दस)
दीपावली मनाना होगा।
कुछ तो रस्म निभाना होगा।
घर में राह तकेंगे बच्चे,
कुछ न कुछ ले जाना होगा।
अन्दर से रोयें कितना भी ,
होठों से मुस्काना होगा।
पूजा करना है लक्ष्मी की,
घर-आँगन चमकाना होगा।
चूरा, गट्टा, खील, पटाखा,
कर्जा लेकर लाना होगा।
मन में है घनघोर अँधेरा,
बाहर दीप जलाना होगा।
(ग्यारह)
पंछियों के 'पर' कतरते जा रहे हैं।
और उड़ने को भी कहते जा रहे हैं।।
साथ चलने में कोई ख़तरा नहीं,
बेवजह ही आप डरते जा रहे हैं।
सोचना होगा हमें विस्तार से,
इस तरह हम क्यों पिछड़ते जा रहे हैं।
आप हैं नादां निकल कर भीड़ से,
भीड़ में वापस उतरते जा रहे हैं।
आज प्रतिभा के धनी जो हैं नहीं,
वे दिखावा खूब करते जा रहे हैं।
मार डाले न कोई अपना हमें,
सच अदालत में उगलने जा रहे हैं।
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जीवन-वृत्त
नाम : राम नरेश 'उज्ज्वल'
पिता का नाम : श्री राम नरायन
विधा : कहानी, कविता, व्यंग्य, लेख, समीक्षा आदि
अनुभव : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पाँच सौ
रचनाओं का प्रकाशन
प्रकाशित पुस्तकें : 1-'चोट्टा'(राज्य संसाधन केन्द्र,उ0प्र0
द्वारा पुरस्कृत)
2-'अपाहिज़'(भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से पुरस्कृत)
3-'घुँघरू बोला'(राज्य संसाधन केन्द्र,उ0प्र0 द्वारा पुरस्कृत)
4-'लम्बरदार'
5-'ठिगनू की मूँछ'
6- 'बिरजू की मुस्कान'
7-'बिश्वास के बंधन'
8- 'जनसंख्या एवं पर्यावरण'
सम्प्रति : 'पैदावार' मासिक में उप सम्पादक के पद पर कार्यरत
सम्पर्क : उज्ज्वल सदन, मुंशी खेड़ा, पो0- अमौसी हवाई अड्डा, लखनऊ-226009
मोबाइल : 09616586495
ई-मेल : ujjwal226009@gmail.com
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