डॉ. दीपक आचार्य इन्हीं दिनों अगस्त क्रांति दिवस की कभी धूम रही थी। अंग्रेजों को हमने भारत छोड़ो कहकर भगाने की शुरूआत कर दी थी, यही दिन थ...
डॉ. दीपक आचार्य
इन्हीं दिनों अगस्त क्रांति दिवस की कभी धूम रही थी। अंग्रेजों को हमने भारत छोड़ो कहकर भगाने की शुरूआत कर दी थी, यही दिन थे वे। अंग्रेज चले गये, अर्सा हो गया लेकिन हम सभी में अंग्रेजियत और लाट साहबी का जो भूत सवार है वह अभी तक वैसा ही वैसा बना हुआ है, वह न गया है न जाने की कोई इच्छा रखता है। न हमारे भीतर अब कोई ऎसा ज़ज़्बा ही शेष रहा है जो कि इसे भगाने में कामयाब हो सके।
असल बात तो यह है कि हममें अब वह इच्छाशक्ति, बुद्धि-विवेक और सामर्थ्य ही नहीं रहा कि कुछ कर सकें, दिखा सकें और अपने आपको अंग्रेजीदाँ सँस्कृति से मुक्त कराने का साहस पा सकें। हमारे लिए अब न देश प्रधान रहा है, न समाज। हम सभी अब अपने लिए जीने लगे हैं और इसके लिए वह सब कुछ करने लगे हैं जो नहीं करना चाहिए।
पिछली सदियों में हमने जो पाप किए थे उनका प्रायश्चित भी अभी पूरा नहीं कर पाए कि मिश्रित संस्कृति और पाश्चात्यीकरण की हम सब भेंट चढ़ चुके हैं। जिन गलतियों में हमें लम्बे अर्से तक गुलाम बनाए रखा, आज वही गलतियां हम फिर दोहरा रहे हैं और वह भी किसी विवशता या विकल्पहीनता की वजह से नहीं, बल्कि विदेशियों के प्रति विनम्र श्रद्धा, गोरी चमड़ी के मायावी आकर्षण, सर्वस्व समर्पण और उनके सामने आस्थापूर्वक पसर जाने की भावना के साथ।
भारतीय संस्कृति, संस्कारों और परंपराओं की तमाम जड़ों से हमने नाता नोड़ लिया है और विदेशियों के इतने पिछलग्गू बन चुके हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता। हमने अपनी हालत उन निःशक्त पालतु श्वानों की तरह बना डाली है कि जो कुछ वे हमसे कराएंगे, हम सहर्ष करने - कराने को तैयार हो जाएंगे।
खान-पान से लेकर रहन-सहन, परंपराओं, भौतिकवादी मानसिकता, आचार-विचार, भोगवादी कुसंस्कारों आदि सभी मामलों में हम उनके गुलाम हो गए हैं। हमारे देश की मिट्टी हमें काटने दौड़ती है और इसीलिए विदेश यात्रा करते हुए फूले नहीं समाते, बरसों तक बखान करते रहते हैं, अपने आप पर गर्व करते हैं जैसे कि स्वर्ग जाकर लौट आए हों।
अंगे्रजी हम पर हावी है। बहुत सारे प्रतिभाशाली लोग सिर्फ अंग्रेजी की वजह से पिछड़ कर रह जाते हैं, मूल भारतीय संस्कृति से जुड़े लोगों के लिए अंग्रेजी आज भी अभिशाप बनी हुई है। नकल और अनुगमन के मामले में दुनिया भर को हमने पीछे छोड़ दिया है।
विदेशियों की अनुचरी और उनके प्रति सर्वस्व समर्पण का भाव हमारी रगों में आज भी इतना गहरा है कि हम हर मामले में उन विदेशियों को श्रेष्ठ और आदर्श मानने लगे हैं जिन्हेें हमारे पूर्वजों ने सभ्यता का पाठ पढ़ाया और रहन-सहन सिखाया।
हमारे मनीषी महापुरुषों की उक्तियों और बोध वाक्यों को स्वीकार करने में हमें मौत आती है लेकिन किसी विदेशी की दो पंक्तियां भी हमें लुभावनी लगती हैं और हम उसे तहेदिल से स्वीकार करने लग जाते हैंं। यही नहीं तो जहाँ मौका मिलता है, उनका बखान करने लग जाते हैं। जैसे कि उनकी पब्लिसिटी का हमें ठेका ही मिला हुआ हो।
हमारे काम-काज और अपने संस्थानों की आदर्श छवि को स्थापित करने के मामले में हमें विदेशियों के सर्टीफिकेट की जरूरत पड़ती है। इसके बगैर हम अपने आपको श्रेष्ठ मानते ही नहीं। विदेशियों का सर्टीफिकेट पाते ही हमें स्वर्गीय सुख और महान गर्व की ऎसी अनुभूति होती है कि हम से जिन्दगी भर का सबसे बड़ा तोहफा मानकर कई दिनों और महीनों तक फूले नहीं समाते।
यही स्थिति हमारे खान-पान की है। हमारे यहाँ हर प्रकार की वनस्पति, खाद्य सामग्री, पेय पदार्थ आदि सब कुछ पूरी शुद्धता के साथ मिलता है जो हमारे ही लिए बना है और हर तरह से ताजा तथा ताजगी देने वाला है। लेकिन हम डिब्बाबंद और पैक्ड़ चीजों, महीनों पुराने घातक रसायनों भरे ड्रिंक्स पीने के इतने आदी हो गए हैं हमें न अपनी सेहत की चिंता है, न दिल और दिमाग की।
न हमें भारतीय अर्थ व्यवस्था की पड़ी है, न अपने स्थानीय लघु, कुटीर तथा घरेलू उद्योगों की, जिनकी वजह से हमारी अर्थ व्यवस्था सदियों से पटरी पर रही है और गुलामी के बावजूद हर क्षेत्र में आंचलिक आत्मनिर्भरता बरकरार रही है।
ज्ञान-विज्ञान के मामले में भी हम विदेशियों के पिछलग्गू बने हुए हैं। हम हर मामले में विदेशियों के भरोसे अपने जीवन और बाजारों को चला रहे हैं। स्वदेशी के क्षेत्र में अभी बहुत करना बाकी है। बाबा रामदेव को धन्यवाद देना चाहिए जिन्होंने स्वदेशी आन्दोलन को जो गति दी है वह अपने आप मेंं भारतीय इतिहास की महान घटना है। प्रधानमंत्री का मेक इन इण्डिया इस दिशा में गहरी और दीर्घकालीन वैकासिक सोच का परिणाम है।
हर तरफ स्वदेशी ही स्वदेशी अपनाने की लहर आरंभ होनी जरूरी है ताकि भारतीय जनमानस में ठेठ भीतर तक विद्यमान विदेशी वायरस बाहर निकल सकें और हम सच्चे भारतीय के रूप में अपने आपको स्थापित तथा देश को विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित कर सकें।
विदेशी दासत्व अब प्रकारान्तर से हम पर हावी होता जा रहा है। आम इंसान के जगने से लेकर सोने तक सारी गतिविधियों में विदेशी प्रभाव साफ-साफ दिखाई दे रहा है। हम हर काम में अब विदेशियों के ही भरोसे हो गए हैं। जो वह कहेंगे, हम गुनगुनाने लग जाते हैं, जो वह भेजते हैं, हम खाने-पीने और जमा करने लग जाते हैं, कभी यह नहीं सोचते कि विदेशियों का भेजा हुआ ज्ञान और माल हमारे लायक है भी या नहीं।
अपने दिमाग का दही बनाने में हमें मजा आ रहा है और सेहत का कबाड़ा करके भी हम अपने अपने आपको अति आधुनिक और अभिजात्य मानकर राजी हो रहे हैं। यही कारण है कि हम परिवार, प्रकृति, मातृभूमि, संस्कारों, जमीन और जमीर आदि सब से दूर होते जा रहे हैं।
हमारी स्थिति न घर की न घाट की जैसी ही है जहाँ हम न उधर के रहे हैं, न इधर के। जहाँ मन लगता है उधर लपकने लगते हैं, मन भर जाने पर दूसरी ओर दौड़ लगानी शुरू कर दिया करते हैं। सब तरफ यही स्थितियां हावी हैं। भारतीय दृष्टि से सांस्कृतिक और उन्नतिकारी विज़न का सर्वथा अभाव दिख रहा है अथवा ये बातें केवल लुभावने भाषणों का हिस्सा बनकर ही रह गई हैं।
इन तमाम स्थितियों में अब हमें अपनी संस्कृति, संस्कारों और आदर्श परंपराओं के महत्त्व को समझने और आगे बढ़ने की जरूरत है। हर मामले में विदेशियों का अंधानुकरण करना न हमारे हित में है, न समाज या देश के।
जो अच्छा और अपने अनुकूल ग्राह्य है, उसे ग्रहण करने में कहीं कोई बुराई नहीं है लेकिन इसे भारतीय परिवेश में ढालने की आवश्यकता है। इंसान से लेकर दुनिया तक के लिए जो कुछ भी जरूरी है उसे हम अपने स्तर पर बनाने की तकनीक विकसित करें, हमारी मिट्टी की गंध सर्वत्र आनी चाहिए।
हर मामले में हम आत्मनिर्भर बनें और यह आत्मनिर्भरता गांव-कस्बों से लेकर महानगरों तक पूरे वैभव के साथ पसरी हुई होनी चाहिए तभी हमारे होने और अपने आपको देशभक्त या समाजसेवी कहलाने का अधिकार है।
आज संकल्प लें कि हम आत्महीनता, विदेशी अंधानुकरण, गोरों के प्रति सर्वस्व समर्पण और उन पर मोहित होने की व्यभिचारी भक्ति छोड़ें, अपने यथार्थ को पहचानें और विदेशियों के मानसिक दासत्व के खोल को बाहर फेंक कर भस्मीभूत कर डालें और जननी, जन्मभूमि और जगदीश्वर को प्रसन्न करें।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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