डॉ. दीपक आचार्य बातों और काम में हमेशा से विरोधाभास रहा है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बातूनी लोग अक्सर किसी काम के नहीं होते। ये ल...
डॉ. दीपक आचार्य
बातों और काम में हमेशा से विरोधाभास रहा है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बातूनी लोग अक्सर किसी काम के नहीं होते। ये लोग दिखावों, अपनी ही अपनी मान-बड़ाई और स्वयं को श्रेष्ठ साबित करते हुए जमाने भर के उचित-अनुचित लाभ पाने की दौड़ में हमेशा आगे ही आगे रहते हैं।
बातूनी लोग अपनी लच्छेदार बातों को लेकर दूसरों को भरमाने और भ्रमित कर अपने उल्लू सीधे करने की कला में सबसे ज्यादा माहिर होते हैं। बातूनियों और स्वार्थ में गहरा संबंध होता है। एक तो बातूनी लोग अपने स्वार्थ के अलावा किसी भी बात में गंभीर नहीं होते वहीं दूसरी ओर अपने हित साधन के लिए ये किसी भी प्रकार के समझौते कर सकते हैं, कोई से समीकरण बिठा सकते हैं और अपने आपको ऊँचा दिखाने के लिए किसी भी स्तर पर झुक सकते हैं या नीचे गिर सकते हैं।
सारी लाज-शरम और मर्यादाओं को तिलांजलि देकर अपने काम निकलवाने के लिए किसी भी सीमा तक औरों के सामने पसर सकते हैं और हर प्रकार के पूर्ण समर्पण से भी इन्हें कोई परहेज नहीं होता। ये लोग ईश्वर के सामने भले ही कभी नत मस्तक न हुए हों, अपने काम आने वाले इंसानों के चरण स्पर्श और चापलुसी के साथ ही परिक्रमाई जयगान की परंपरागत संस्कृति को धन्य करते ही रहते हैं।
दुनिया में हर तरफ ऎसे बातूनियों का संसार भरा हुआ है। इनमें नॉन स्टॉप बोलने वालों से लेकर अपने स्वार्थ के अवसरों को पहचान कर बोलने वालों तक का समन्दर पसरा हुआ है। इन बातूनियों से कोई काम नहीं होता। काम करने को कहने पर कोई न कोई बहाने सामने ला देते हैं या किसी कोने में अधमरे और नीम बेहोशी ओढ़ इंसान की तरह ऎसे पड़े रहते हैं जैसे कि कई दिन से खाने को नहीं मिला हो या कि किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त ही हों।
जो इंसान बातें करने में विश्वास रखता है उसे या तो काम नहीं आता अथवा काम करने की इच्छाशक्ति का पूर्ण अभाव ही होता है। दुनिया में बहुत सारे बड़े-बड़े काम बातूनियों की वजह से बिगड़ जाते हैं।
इन बातूनियों के पास न तो किसी काम की गंभीरता या समझ होती है न कोई गोपनीयता। इन बातूनियों का उपयोग हमेशा तोप के रूप में किया जाना चाहिए। जो बात हम किसी के सामने नहीं कह पाने की स्थिति में हों, वहाँ इन तोपों में वह सब कुछ भर दो जो सामने वालों या जन सामान्य में परोसने और मजे लेने की इच्छा हो।
बातूनियों की उपेक्षा या अनादर करना ठीक नहीं है क्योंकि ये सारे बातूनी सदियों से उपयोग में आती रही तोपों के जीवन्त संस्करणों की तरह होती हैं। जो इन तोपों के इस्तेमाल की कला सीख जाता है वह निहाल हो जाता है। उसे अपने निजी और संस्थागत कामों को करने-करवाने में आसानी रहती है क्योंकि जहाँ जितनी अधिक तोपें होंगी वहाँ उनमें भरने के लिए गोला-बारूद भी कहीं न कहीं से आएगा ही, इसका उपयोग भी होगा और धमाकों की निरन्तरता बनी रहेगी। यही धमाके हमारे अपने वजूद को सिद्ध करने के लिए काफी होते हैं।
इसलिए बातूनी लोगों को प्रोपेगण्डिस्ट की तरह भरपूर इस्तेमाल करें। परमात्मा ने बिना पैसे के इतने सारे प्रचारक सब जगह दे रखें हैं। इनका उपयोग हम न कर पाएं और इन्हें आलसी व नाकारा मानकर उपेक्षित करते रहें, तो इसमें दोष हमारा ही है, भगवान का नहीं।
भगवान ने अपने मुफतिया प्रचार और मनोरंजन के लिए ही इन्हें हमारे युग में पैदा किया है। यों भी लीलावतारों से लेकर अंशावतारों तक की परंपरा रही है कि सभी प्रकार की किस्में एक साथ एक युग में पैदा होती हैं और परस्पर लीलाओं का आश्रय पाकर अपने लक्ष्य को पूरा कर लौट जाती हैं। विदूषकों और मसखरों की जात भी हर युग में यों ही पैदा होती है और मनोरंजन का धरम निभा कर सिधार जाती है।
आजकल तो तमाम बाड़ों में काम-धाम से ज्यादा बातों का ही चलन है। हर कोई दूसरे को बना रहा है। बातूनियों में बाजी वही मार लेता है जो अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से औरों को भ्रमित कर उनका दिमाग जीत लेता है या फिर जोर-जोर से चिल्लाता हुआ झूठ को भी सच बता देता है।
हर अविश्वसनीय और अकल्पनीय बात को विश्वास करने योग्य बनाने में जो सर्वाधिक माहिर है वही सच्चा और श्रेष्ठ बातूनी माना जाता है। यों बातूनियों के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि ये अकेले होते है। तब चुपचाप पड़े रहते है। जैसे कि साँप सूंघ गया हो। दो-चार मिल जाएं तब तो आसमान ही ऊँचा कर लें।
अधिकांश लोगों को लगता है कि हम जितना अधिक बोलेंगे उतना हमारे बारे में अच्छी धारणाएं बनेंगी और पूरी जानकारी संवहित होगी, सामने वाला प्रभावित होगा और उनके मोहपाश में आने लगेगा। जबकि यह भ्रम के सिवा कुछ नहीं है। अच्छा प्रस्तोता वह है जो कम शब्दों में पूरी बात कह देता है।
पर आजकल ऎसा नहीं है। कुछ लोग तो दो मिनट में समझ में आ जाने लायक बात को घण्टे भर में भी नहीं समझा पाते। बौद्धिक प्रखरता के लिए यह जरूरी है कि इंसान अधिक पढ़े, सुने और कम बोले। पर आजकल इसका उल्टा हो रहा है।
अधिकांश लोग मौके-बेमौके इतना बोल जाते हैं कि सामने वाले हैरान-परेशान हो जाते हैं, कान पक जाते हैं लेकिन इनका बोलना रुकता नहीं। फालतू की चर्चाएं करना और बेवजह बोलते रहना अपने आप में ऎसी बीमारी है जिसका कोई ईलाज नहीं है। यह दूसरी सारी लाईलाज बीमारियों से भी घातक है।
जो बातूनी स्वभाव पाल लेता है उसका भगवान ही मालिक होता है। जहाँ-जहाँ बातूनी लोगों का जमघट लगा हुआ है उनसे काम या परिणाम की उम्मीद त्याग दें। इन लोगों को उन्हीं काम-धंधों में लगाएं जहाँ कोई मजमा इकट्ठा करना हो या फिर इनका तोप की तरह कहीं इस्तेमाल करना हो।
इन तमाम प्रकार की तोपों को देखें और इनके उपयोग की कला को सीखकर जमाने भर में अपना डंका बजाएं, धमाके करें और अपने वजूद को दूर-दूर तक स्थापित करें। आजकल इन्हीं तोपों का जमाना है और भगवान की कृपा से हर क्षेत्र और बाड़े-गलियारे में ऎसी तोपों की जबर्दस्त भरमार है ही।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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