अतुल्यकीर्ति व्यास नवगीत : एक परिचय ‘‘मानवीय जीवन की भूमिका और परिवेश के बदलने के साथ उसके अनुभव के प्रकार, सन्दर्भ और विधान भि...
अतुल्यकीर्ति व्यास
नवगीत : एक परिचय
‘‘मानवीय जीवन की भूमिका और परिवेश के बदलने के साथ उसके अनुभव के प्रकार, सन्दर्भ और विधान भिन्न हो जाते हैं, और साहित्यकार जब उनको रचनात्मक अभिव्यक्ति देता है तो उसको नया रचना-विधान खोजना होता है।’’ 01
भक्तिकाल और रीतिकाल की परम्परा से प्रकाश में आयी गीत विधा जब अत्यधिक माँसल सौन्दर्य सापेक्ष, भावुकता, तुकाग्रही, वायवी रीतिकालीन भाषा के चक्र में गुंफित हो गई तो प्रतिक्रिया स्वरूप साहित्य में प्रयोगवाद के साथ नई कविता का प्रादुर्भाव हुआ।
नई कविता जब भाव-जगत् से विद्रोह करती हुई अत्यधिक बौद्धिकता के आवरण में गुम होने लगी तब सन् 1960 के मध्य में पुनः गीत के प्रति आग्रह ज़ोर पकड़ने लगा। इस बार यह ‘गीत’, ‘नवगीत’ बनकर उभरा, जिसके सृजन में ‘नई कविता के नये उपकरणों 02 का प्रयोग उचित माना गया।
परन्तु, नई कविता के नये उपकरणों से सृजित इस नवगीत में रचनाकार कहीं न कहीं अधूरापन महसूस करता रहा, और इस कारण इसे सदैव नये - नये अंदाज़ों, भावबोधों, तार्किकताओं एवं बौद्धिकताओं से नवाज़ा जाता रहा। नई कविता की बौद्धिकता, और तार्किकता से अघाया यह नवगीत पारम्परिक गीतों की विशेषताओं को रूढ़ि का नाम देकर उन्हें पूरी तरह अपनाने से भी इन्कार करता रहा, परिणामस्वरूप आज तक यह विधा कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं पा सकी है।
कोई उसे अनूभूत्यात्मक स्तर पर आज भोगी जा रही ज़िन्दगी की सहज और लयात्मक अभिव्यक्ति मानता है तो कोई इसे जीवन और जीवनगत परिवेश की निकटता का केन्द्र बिन्दु मानता है। कोई इसे नये लहजे में कथ्यों का सम्प्रेषण स्वीकारता है तो कोई स्वरों में विकास की एक कड़ी कहता है।
डॉ. कृष्णकुमार शर्मा नवगीत को एक अलग तरह से परिभाषित करते हैं - ‘‘नवगीत और पारम्परिक गीत में एक अन्तर उसकी गेयता को लेकर है। नवगीत गाया न जाकर भी गीत है। नवगीत की कथन शैली में ही उसका गीतत्त्व है।’’ 03
इधर दूसरी तरफ़, बनारसवासी नवगीत के पुरोधा पुरुष डॉ. शम्भुनाथ सिंह, जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से नवगीतिकारों की एक पूरी पीढ़ी को सामने लाने का बीड़ा उठाते हुए, ‘‘नवगीत दशक - एक’’, ’’नवगीत दशक - दो’’, तथा ‘‘नवगीत दशक - तीन’’ का सम्पादन किया और कुछ वर्षों पूर्व ‘‘नवगीत अर्द्धशती’’ में नवगीत के पचास वर्षों के इतिहास को अपने में समाहित करनेवाले कवियों को सम्मिलित कर एक प्रकार से नवगीत की विजय का उद्घोष ही कर दिया है, कहते हैं - ‘‘जितनी आसानी से कोई समकालीन कवि बन सकता है उतनी आसानी से नवगीतिकार नहीं। नवगीत में छन्द लिखना ज़रूरी है, छन्द लिखना आसान नहीं है। छन्द नहीं होगा तो वह नवगीत होगा ही नहीं।’’ 04
नवगीत में छन्द की अनिवार्यता प्रतिपादित कर डॉ. शम्भुनाथ सिंह नवगीत को व्यावहारिक रूप से ‘गीत’ से जोड़ देते हैं और इसी के साथ वे गेयता को भी समर्थन दे देते हैं। किन्तु, डॉ़ कृष्ण कुमार शर्मा नवगीत में गेयता का अभाव बताकर उसे छन्द से हीन नई कविता की शैली में स्वीकार कर लेते हैं और नई कविता से उसे एक तथाकथित लय के आधार पर अलग मानते हैं। प्रश्न यह है कि छन्द और गेयता के अभाव में लय कहाँ से होगी? और छन्दहीन गीत में लय की कल्पना भी करें तो किसी ‘सम’ के अभाव में यह ‘विषम’ लय ही होगी।
प्रश्न वहीं का वहीं है कि नवगीत में चूँकि ‘नव’ के साथ ‘गीत’ भी है, जिसे डॉ. शम्भुनाथ सिंह छन्द की अनिवार्यता के आधार पर मान्यता भी देते हैं लेकिन यह ‘नव’ तत्त्व है क्या? इस प्रश्न पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए प्रो. विद्यानन्दन राजीव ने कहा है कि - ‘‘हम उस गीत को नवगीत कहेंगे जो परम्परागत भावबोध से अलग, नवीन भावबोध तथा शिल्प द्वारा प्रस्तुत किया गया हो।’’ 05
जहाँ पारम्परिक गीतों का रचना-बोध सौन्दर्य सापेक्ष भावुकता, जड़ रूढ़ियों, तुकाग्रह और वायवी सांकेतिक रीतिकालीन भाषा की सीमाओं में ही आबद्ध रहा, वहीं नवगीत का नवीन रचना-बोध अपने तीन प्रमुख तत्त्वों के कारण बदलते समय के साथ अपनी सार्थकता सिद्ध करता रहा है। ये तीन प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं - पहला, गीत का मूल भाव सत्य पर आधारित हो, जिसे सहज और स्वाभाविक शैली में अभिव्यक्त किया जाए। दूसरा, गीत-रचना में भी नवीन शिल्प-विधान का समावेश किया जाए, और तीसरा, समाज के उपेक्षित वर्ग को भी अभिव्यक्ति में प्रर्याप्त स्थान प्राप्त हो।
इस प्रकार नवगीत में ‘नव’ को अनुभूत और अभिव्यक्त किया जा सकता है। लेकिन अक्सर ऐसा हुआ है कि नवगीत में ‘नव’ तत्त्व को अधिक मुखर करने के प्रयास में उसके ‘गीत’ तत्त्व की उपेक्षा होती गई और इस कारण यह विधा अपने उपयुक्त ‘व्याकरण’ के अभाव में विकसित हो होती रही, परन्तु विखण्डित रूप में।
शायद इन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए प्रो. विद्यानन्दन राजीव डॉ. शम्भुनाथ सिंह के विचारों 06 का समर्थन, नवगीत में लय के निरन्तर निर्वाह, उसकी कर्णप्रियता, जहाँ-तहाँ छन्द के बंधन में शिथिलता और नए छन्दों के प्रयोगों के रूप में स्वीकारते हैं। 07
यहाँ जहाँ-तहाँ छन्द की शिथिलता भी मात्र गीत की भावान्विति के विस्तार के सन्दर्भ में स्वीकार की गई है। ध्यान देने योग्य बात है कि यहाँ छन्द को नकारा न जाकर नए छन्द के प्रयोग की बात भी कही गई है।
अर्थात्, नवगीत में ‘नव’ का सन्दर्भ नवीन भावबोध से है और गीत का सम्बन्ध गीत की मौलिक विशेषताओं को यथारूप स्वीकारने के साथ मात्र नवीन रूपों को खोजने, अपनाने और प्रस्तुत करने से है।
नवगीत के इस मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए यहाँ हरिवंशराय बच्चन के विचारों के अवश्य समझना चाहिये। इस सन्दर्भ में उनका कहना है कि - ‘‘मेरी राय में गीत के लिये पुराने उपकरण ही अधिक उपयोगी होते हैं। नये उपकरणों के साथ जब सन्दर्भ, राग, भावनाएँ जुड़ जाती हैं तभी वे गीतों में काम आ सकते हैं, तभी उनमें भावोद्बोधक शक्ति आ जाती है। गीत का काम है तुरन्त भावों को उद्बुद्ध कर देना। नये उपकरणों का अर्थ लगाने में बुद्धि फँस गई तो गीत गया, गीत का प्रभाव गया।.......नई अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में सहज ही जो ‘नया’ आ जाए उसका मैं विरोधी नहीं हूँ। परख यही होगी कि ‘नये’ में भावों को उद्बुद्ध करने की शक्ति है या नहीं। नहीं है तो ऐसी अभिव्यक्ति को मैं सफल गीत नहीं मानूँगा।’’ 08
डॉ. शम्भुनाथ सिंह भी, जिन्होंने नवगीत के पचास वर्षों के इतिहास को अपनी कृति ‘नवगीत : अर्द्धशती’ में समाहित किया है, वे नवगीत के सन्दर्भ में हरिवंशराय बच्चन की अवधारणा को ही स्पष्ट करते हुए कहते हैं - ‘‘प्रत्येक युग में गीत ने अपने आपको बदला है। अपने युग की आवश्यकतानुरूप जब गीत बदलता है तो हम उसे ‘’नवगीत’’ कह सकते हैं।.......गीत की कुछ रूढ़ियाँ हो जाती हैं, लीक बन जाती है और कवि उस लीक से नहीं हटते हैं तो उन्हें पारम्परिक गीतकार कहा जाता है। इनसे हटकर जब कवि आवश्यकताओं के अनुरूप नये काव्य को, नये बिम्बों और नये प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हैं तो उसे नवगीतकार कहते हैं। यही पारम्परिक और नवगीत की विभाजक रेखा है।’’ 09
संभव है, डॉ. शम्भुनाथ सिंह के उक्त कथन के उस भाग से, जहाँ वे गीत की रूढ़ियों और लीक की बात करते हुए, इन आधारों पर लिखे कुछ गीतों को पारम्परिक गीतों की श्रेणी में शामिल करते हैं, इस कथन के बादवाले उस भाग को आधार बनाकर जहाँ डॉ. शम्भुनाथ सिंह नये काव्य को नये बिम्बों और नये प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करने की बात कहते हैं, उस भाग के मूल भाव को उपेक्षित करते हुए कुछ कवि व आलोचक बंधु जो अपने भीतर से, छन्द के भार को उठा पाने में स्वयं को असमर्थ पाते रहे हों वे छन्द और गेयता को ही रूढ़ि बताने लगे। परन्तु, यहाँ उन्हें यह जानना होगा कि छन्द और गेयता तो गीत के लिये शरीर और आत्मा हैं। जब आज हम सुनते हैं कि ‘‘आज का आदमी बहुत बदल गया है,’’ तो इसके मायने उसके सींग उग आने या उसकी आँखों के सिर के पीछे निकल आने से कदापि नहीं लिया जा सकता, वरन् उसकी सोच में फ़र्क़ आने से ही लिया जाएगा। यहाँ आदमी का शरीर भी वैसा ही है जैसा पहले था, और आत्मा भी।
इस स्पष्टीकरण के बाद नवगीत के सन्दर्भ में खड़ी होनेवाली सभी शंकाओं और प्रश्नों का समाधान हो जाता है। लेकिन, एक प्रश्न फिर भी बचा रह जाता है, वो यह कि - ‘‘नवगीत अद्धशती’’ में लगभग सत्तर वर्ष पुराने गीत को ‘नवगीत’ कैसे कहा जाए?
प्रो. विद्यानन्दन राजीव इस प्रश्न का उत्तर इस तरह देते हुए कहते हैं - ‘‘हम उस गीत को नवगीत कहेंगे कि जो परम्परागत भावबोध से अलग, नवीन भावबोध तथा शिल्प द्वारा प्रस्तुत किया गया हो।’’ 10
इस बात को हम इस प्रकार से, और अधिक स्पष्ट रूप में समझ सकते हैं कि ‘‘नवगीत : दशक एक’’, ‘‘नवगीत : दशक दो’’, नवगीत : दशक तीन’’ और ‘‘नवगीत अर्द्धशती’’ में जिन गीतों की बात है वे गीत उस समय के पारम्परिक गीतों के सापेक्ष नये कथ्यों, बिम्बों, प्रतीकों, छन्दों आदि के माध्यम से व्यक्त किये गये गीत रहे हैं। फलतः वे नवगीत कहे गये।
आज अगर उन्हीं सत्तर या पचहत्तर बरस पहले लिखे गीतों के आधार पर गीत लिखे जाएँ तो वे क़तई नवगीत नहीं होंगे, जबकि ये सत्तर या पचहत्तर बरस पहल लिखे गीत आज भी नवगीत हैं। आज के ‘नवगीत’ को आज के सन्दर्भ में, स्वयं को नये रूप में प्रकट करने की आवश्यकता है। इसका यह अर्थ नहीं कि वे अपने छन्द-विधान और गेयता के गुण का त्याग कर दें, अपितु, उन्हें अपनी इन्हीं विशेषताओं के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति में नवीनता लानी होगी, सार्थक परिवर्तन लाना होगा तभी वे सही अर्थों में नवगीत कहे जा सकेंगे।
वर्तमान में नवगीत के सही स्वरूप को समझे बग़ैर लिखी जा रही रचनाओं को नवगीत की श्रेणी में रखा जा रहा है। यह स्थिति भविष्य में नवगीत और नई कविता के विवाद को और उलझा सकती है। सार्थक कथ्य और दृष्टिकोण की दृष्टि से परम्परा के विरुद्ध जाना उचित है, परन्तु कलेवर, शिल्प और संवेदना की दृष्टि से ऐसा करना पहचान को गुम कर देना है।
निष्कर्षतः हम नवगीत की एक सार्थक परिभाषा देते हुए कह सकते हैं कि - ‘‘नवगीत वह गीत है जो गीत की शाश्वत विशेषताओं के साथ, समय की सापेक्ष आवश्यकताओं के अनुरूप सार्थक कथ्य को नये बिम्बों, प्रतीकों, उपमाओं व उपमानों के माध्यम से, सहज बनाकर स्वयं को अभिव्यक्त करे।’’
नवगीत का ‘गीत’ होना उसकी पहली शर्त है। नवगीत के सन्दर्भ में उसकी यह शर्त उसमें गीत के समस्त तत्त्वों यथा-भावमयता, मनोवैज्ञानिक आधार, भावान्विति, संक्षिप्तता, सहज अन्तःप्रेरणा, गेयता और ग्राह्य भाषा-शैली का समावेश कर देती है, और अगर ऐसा नहीं है तो वह गीत, नई कविता या अकविता बन जाएगा, और इस तरह का तथाकथित नवगीतिकार हजा़र ढोल पीट-पीट कर कहे कि वह एक ‘नवगीत’ प्रस्तुत कर रहा है, साहित्य उसे अस्वीकार करेगा।
साररूप में नवगीत को इस प्रकार से सहजतापूर्वक समझा जा सकता है कि भावों की अभिव्यक्ति में गीत जब नवीनता को स्वीकार कर लेता है तो वह ‘गीत’ ‘नवगीत’ की श्रेणी में सम्मिलित हो जाता है। नवीनता का तात्पर्य यहाँ नवीन छंद-योजना, नवीन शब्द-योजना, नवीन उपमा-उपमानों से है जो परम्परा से आगे जाते हुए प्रतीत होते हैं। अपनी इसी विशिष्ट शिल्पकला के कारण ‘गीत’ ‘नवगीत’ बनता है। भाषा के कुशल प्रयोग से कथ्य में धार जाग्रत होती है और भाषा की सरलता और सहजता में जब जनजीवन के मुहावरे छंदों में ढलते हैं तो ‘नवगीत’ अपनी विशिष्टता का परिचय स्वयं ही दे देता है। लेकिन, इतना सब कुछ होने के साथ वह न तो अपने माधुर्य को खोता है, और न ही अपने शिल्पगत मूलस्वरूप को। वह ‘गीत’ ही रहता है।
साहित्यिक जगत् के नवगीत आंदोलन के प्रभाव से हिन्दी चित्रपट गीतिकाव्य भी अछूता नहीं रह पाया है। इस शैली और तेवर के गीत हिन्दी चित्रपटों में भी दिखाई पड़ते रहे हैं जो अपने समय के हिसाब से नवगीत की श्रेणी में ही अपना स्थान सुरक्षित रखते हैं। वैसे हिन्दी चित्रपट गीतिकाव्य, मान्य गीतिकाव्य की दृष्टि से सरलता, सहजता, शिल्प और अभिव्यक्ति के सन्दर्भों में ‘अस्वीकृत श्रेणी’ का ‘नव’ ही रहा है, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं।
‘‘ए भाई, ज़रा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी।’’ (मेरा नाम जोकर - 1970)11 पारंपरिक गीतिकाव्य के शिल्प से अलग रहकर, भावाभिव्यक्ति के अनूठेपन और मानव प्रवृत्ति की कमज़ोरियों को जिस तरह ज़ाहिर करता हुआ एक शाश्वत दार्शनिक भाव पर अपनी पूर्णता पाता है, सहज ही ‘नवगीत’ की विशेषताओं के साथ स्वयं को नवगीत घोषित कर देता है।
इसी तरह ‘‘कई बार यूँ भी देखा है, ये जो मन की सीमा-रेखा है, मन तोड़ने लगता है।’’ (रजनीगंधा - 1974)12 मानव मन की प्यास को ‘नव’ अभिव्यक्ति देता है। दूसरी ओर मात्र संवादों के ज़रिये सामाजिक बंधनों के प्रति युवा प्यार की गेय अभिव्यक्ति, ‘‘खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों, इस दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों।’’ (खेल-खेल में - 1975)13 रचना भी एक ‘नव’ शैली की परिचायक ही बनती है। और, साथी का साथ छूट जाने पर विरही मन, पारंपरिक विरह शैली में, सावन में तरसता नहीं वरन् ‘नव’ शैली में अपने विरह की व्याख्या करता है, ‘‘न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िन्दगी के साथ, अचानक ये मन, किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद, छोटी-छोटी सी बात, न जाने क्यूँ।’’ (छोटी सी बात - 1976)14
महानगरीय जीवन की आपाधापी में प्यार के साथ और भी कई प्रश्न सहज ही जीवन का हिस्सा बन जाते हैं, ‘‘दो दीवाने शहर में, रात में या दोपहर में आबोदाना ढ़ूँढ़ते हैं, आशियाना ढ़ूँढ़ते हैं।’’ (घरौंदा - 1977)15 यह भी एक ‘नव’ अभिव्यक्ति है।
भीड़ भरे शहर में, अकेलेपन के दर्द कौन नहीं जानता और समझता है? और इस दर्द की अभिव्यक्ति होती है, ‘‘...दिन ख़ाली-ख़ाली बर्तन है, रात है जैसे अंधा कुँआ, इन सूनी अँधेरी आँखों में आँसू की जगह आता है धुँआ...,’’ (घरौंदा - 1977) 16 और गीतिकाव्य की परंपरा में प्यार को स्वीकृत होने की अभिव्यक्ति तो बहुत सहज ही मिल जाती है परन्तु प्यार का अस्वीकार बिना लाग-लपेट के सीधे-सीधे मात्र ‘नव’ शैली में ही संभव है, ‘‘तुम्हें हो ना हो, मुझको तो इतना यक़ीं है, मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है।’’ (घरौंदा - 1977) 17
इसी तरह जीवन में संतोष धन की व्याख्या इससे ज़्यादा सहज रूप में नहीं की जा सकती है कि, ‘‘थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है। ज़िन्दगी फिर भी अहा! ख़ूबसूरत है।’’ (खट्टामीठा - 1977)18 इतनी ही सहज परिभाषा ‘नव’ शैली में जीवन को दी गई है, कि ‘‘ये जीना है अंगूर का दाना, कुछ कच्चा है कुछ पक्का है, जितना खाया मीठा था, जो हाथ न आया खट्टा है।’’ (खट्टामीठा - 1977)19
प्यार को पाने की उमंग और ख़ुशी से जो बात निकल कर आती है वह है, ‘‘आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे, बोलो, देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए?’’ (घर - 1978) 20 दूसरी तरफ़ मन, ज़िन्दगी को अपने घर को बुला रहा है और, उसे अपना पता बता रहा है, ‘‘...मेरे घर का सीधा सा इतना पता है, ये घर जो है चारों तरफ़ से खुला है, न दस्तक ज़रूरी, न आवाज़ देना, मेरे घर का दरवाज़ा कोई नहीं है, हैं दीवारे गुम और छत भी नहीं है, बड़ी धूप है दोस्त...तेरे आँचल का साया चुरा के जीना है जीना।’’ (दूरियाँ - 1979) 21
इसी तरह जीवन के आकस्मिक प्रश्नों के प्रति अभिव्यक्त प्रतिक्रिया इससे बेहतर और क्या हो सकती है, ‘‘तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी, हैरान हूँ मैं। तेरे मासूम सवालों से परेशान हूँ मैं।’’ (मासूम - 1982) 22
जब सच्चा साथ, साथ में हो, जीवन, आनंद और प्रेम से भरा हो तो रहने का स्थान एक ‘मकान’ न होकर ‘घर’ हो जाता है और घर को कैसे देखा जाता है? इस सवाल का जवाब इस तरह मिलता है, ‘‘ये तेरा घर, ये मेरा घर, किसी को देखना हो गर, तो पहले आ के माँग ले, मेरी नज़र तेरी नज़र।’’ (साथ-साथ - 1982) 23
और, जब किन्हीं जाने-अनजाने कारणों से, किसी घनिष्ट रिश्ते में अलगाव हो जाता है तो एक मन अपने दर्द को दबाकर बिना शिकायत किये कहता है, ‘‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, सावन के कुछ भीगे-भीगे दिन रखे हैं, और मेरे एक ख़त में लिपटी रात पड़ी है, वो रात भुला दो, मेरा वो सामान लौटा दो।’’ (इज़ाज़त - 1987) 24
लेकिन जब प्यार मन में जागता है तो, पहले सवाल ख़ुद से ही पूछा जाता है, ‘‘बादलों से काट-काट के, काग़ज़ों पे, नाम जोड़ना, ये मुझे क्या हो गया है। डोरियाँ बाँध-बाँध के, रातभर चाँद तोड़ना, ये मुझे क्या हो गया है।’’ (सत्या - 1998) 25
इसी तरह घोर परेशान दिमाग़ को शांत करने का, और दुनियादारी सिखाने का इतना आसान नुस्ख़ा इस ‘नव’ शैली से ही मिल सकता है कि ‘‘गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है। भेजे की सुनेगा तो मरेगा कल्लू, अरे, तू करेगा, दूसरा भरेगा कल्लू।’’ (सत्या - 1998) 26
जीवन में अभाव हैं पर मन, भावों से भरा है, तो इससे ज़्यादा और क्या कहा जा सकता है, सिवाय इसके कि ‘‘इक बग़ल में चाँद होगा, इक बग़ल में रोटियाँ। इक बग़ल में नींद होगी, इक बग़ल में लोरियाँ। हम चाँद पे रोटी की चादर डाल के सो जाएँगे।’’ (गैंग्स ऑफ़ वासेपुर - 2012) 27
इस प्रकार से हिन्दी चित्रपट गीतिकाव्य ने अपनी भावाभिव्यक्ति को नये भाषिक मुहावरों में ढ़ालकर, नयी शब्द व छंद-योजना के साथ स्वयं को ‘नवगीत’ की समस्त विशेषताओं से भरपूर आप्लावित तो किया ही है, साथ ही अपने प्रेक्षकों व दर्शकों को भी इस आनंद का भागीदार बनाते हुए, उन्हें काव्य को सुनने व समझने की एक ‘नवदृष्टि’ भी प्रदान की है।
सन्दर्भ -
01 राज.पत्रिका/ दिनांक 17 जून, 2001 में प्रकाशित ‘‘नवगीत’’ लेख से।
02 हिन्दी साहित्यकारों से साक्षात्कार/ डॉ. रणवीर सिंह राणा द्वारा हरिवंशराय बच्चन के साक्षात्कार आलेख ‘तीर पर कैसे रूकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण’ में हरिवंशराय बच्चन कहते हैं कि - ‘‘नई कविता के नये उपकरणों का प्रयोग करके गीत अपना काम नहीं कर सकता। मेरी राय में गीत के लिये पुराने उपकरण ही अधिक उपयोगी है।’’
03 स्वातन्त्र्योत्तर राजस्थान का हिन्दी इतिहास/ सं. राजेन्द्र शर्मा/ पृष्ठ-43.
04 राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका ‘मधुमती’/ मार्च, 1991/ पृष्ठ-07.
05 राज. पत्रिका/ ‘कविता का एक जीवन्त रूप : नवगीत’ लेख से/ दिनांक - 17 जून, 2001.
06 राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका ‘मधुमती’/ मार्च, 1991/ पृष्ठ-07.
07 राज. पत्रिका/ ‘कविता का एक जीवन्त रूप : नवगीत’ लेख से/ दिनांक - 17 जून, 2001.
08 हिन्दी साहित्यकारों से साक्षात्कार/ डॉ़ रणवीर सिंह राणा द्वारा हरिवंशराय बच्चन के साक्षात्कार आलेख ‘तीर पर कैसे रूकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण’ से/पृष्ठ-122.
09 राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका ‘मधुमती’/ मार्च, 1991/ पृष्ठ-07.
10 राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका ‘मधुमती’/ मार्च, 1991.
11 चित्रपट - मेरा नाम जोकर (1970)/ गीतकार - नीरज (गोपालदास)/ संगीतकार - शंकर
जयकिशन/ स्वर - मन्ना डे। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=2nRzs4BHzxY
12 चित्रपट - रजनीगंधा (1974)/ गीतकार - योगेश/ संगीतकार - सलिल चौधरी/ स्वर - मुकेश। पूरे
गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=BS9mCRinBtA
13 चित्रपट – खेल-खेल में (1975)/ गीतकार - गुलशन बावरा/ संगीतकार - राहुलदेव बर्मन/ स्वर –
आशा भोंसले, किशोर कुमार। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - http://www.youtube.com/watch?v=AS04060-y1Y
14 चित्रपट - छोटी सी बात (1976)/ गीतकार - योगेश/ संगीतकार - सलिल चौधरी/ स्वर - लता
मंगेशकर। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=NC1yM-9Jwrk
15 चित्रपट - घरौंदा (1977)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - जयदेव/ स्वर - भूपेन्द्र, रुना लैला। पूरे
गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=Wm06_ywhDEc
16 चित्रपट - घरौंदा (1977)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - जयदेव/ स्वर - भूपेन्द्र। पूरे गीत के
लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=ZuhTNEmIs0s
17 चित्रपट - घरौंदा (1977)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - जयदेव/ स्वर - रुना लैला। पूरे गीत के
लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=xt7hl4fYjMY
18 चित्रपट - खट्टामीठा (1977)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - राजेश रोशन/ स्वर - लता मंगेशकर, किशोर कुमार। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=I92xNYsYqu4
19 चित्रपट - खट्टामीठा (1977)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - राजेश रोशन/ स्वर - किशोर कुमार, उषा मंगेशकर। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=SwDzEGATQGI
20 चित्रपट - घर (1978)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - राहुलदेव बर्मन/ स्वर - लता मंगेशकर।
पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=YZrulV-5zcM
21 चित्रपट - दूरियाँ (1979)/ गीतकार - सुदर्शन फ़ाकिर/ संगीतकार - जयदेव/ स्वर - भूपेन्द्र,
अनुराधा पौडवाल। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - http://www.youtube.com/watch?v=7aPdnrGizYY
22 चित्रपट - मासूम (1982)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - राहुलदेव बर्मन/ स्वर - लता
मंगेशकर, अनूप घोषाल। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ -
(अनूप घोषाल) https://www.youtube.com/watch?v=W-iyNg4IhW4
(लता मंगेशकर) https://www.youtube.com/watch?v=9KbhG64nLaM
23 चित्रपट - साथ साथ (1982)/ गीतकार - जावेद अख़्तर/ संगीतकार - कुलदीप सिंह/ स्वर –
जगजीत सिंह, चित्रा सिंह। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - http://www.youtube.com/watch?v=UOMjKWrfI0U
24 चित्रपट - इज़ाज़त (1987)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - राहुलदेव बर्मन/ स्वर - आशा
भोंसले। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=f7W1xgeJjKI
25 चित्रपट - सत्या (1998)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - विशाल भारद्वाज/ स्वर - भूपेन्द्र। पूरे
गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=-dhI0HzHI_I
26 चित्रपट - सत्या (1998)/ गीतकार - गुलज़ार/ संगीतकार - विशाल भारद्वाज/ स्वर - मानो व
साथी। पूरे गीत के लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=HP0GggefRUY
27 चित्रपट - गैंग्स ऑफ़ वासेपुर (2012)/ गीतकार, संगीतकार व स्वर - पीयूष मिश्रा। पूरे गीत के
लिये यहाँ जाएँ - https://www.youtube.com/watch?v=XUjPo2UMxKk
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परिचय
(1) नाम - अतुल्यकीर्ति व्यास
(2) माता-पिता - श्रीमती मंजुप्रभा-अनंतकीर्ति व्यास
(3) शिक्षा - हिन्दी साहित्य में एम.ए., एम. फ़िल्., एवं पत्रकारिता में
स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
(4) सहशैक्षिक - पाँच-छः राष्ट्रीय नाट्य समारोहों में प्रतिभागिता, कई
नाटकों (मंचीय व ध्वनि) का लेखन, निर्देशन, अभिनय एवं कई कार्यक्रमों हेतु मंच संचालन।
(5) आकाशवाणी हेतु कम्पीयर, उद्घोषक, प्रस्तुति सहायक, प्रस्तुतकर्ता तथा बी-हाई ग्रेड नाटक कलाकार के रूप में कई कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी। आकाशवाणी द्वारा अनुमोदित गीतकार।
(6) इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जयपुर दूरदर्शन व ज्ञानदर्शन के लिये कुछ डॉक्यूमेण्ट्री व टी.वी. कार्यक्रमों हेतु लेखन, निर्देशन एवं अभिनय।
(7) तक़रीबन पन्द्रह वर्षों से फ़्री लासिंग पत्रकारिता में सक्रिय। दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं एवं इन-फ्लाईट पत्रिकाओं यथा सरिता, मुक्ता, गृहशोभा, स्वागत्, नमस्कार आदि के साथ कई समाचार पत्रों में कई लेख व फ़ोटोग्राफ़ प्रकाशित।
(8) पुरस्कार - महाराणा मेवाड़ फ़ाउण्डेशन का ”राजसिंह अवार्ड,“ राजस्थान साहित्य अकादमी का ”चन्द्रदेव शर्मा पुरस्कार,“ उदयपुर ज़िलाधीश सम्मान, राष्ट्रीय फ़िल्म लेखन प्रतियोगिता में पुरस्कृत।
(9) सम्प्रति - स्वतंत्र पत्रकारिता-लेखन एवं मीडियाकर्मी।
(10) सम्पर्क - 09, सूर्यमार्ग, जगदीश चौक, उदयपुर
(राज.) 313001.
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