डॉ.चन्द्रकुमार जैन आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह माने जाने वाले प्रेमचंद की पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के 1915 के दिसंबर अंक में स...
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह माने जाने वाले प्रेमचंद की पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के 1915 के दिसंबर अंक में सौत नाम से प्रकाशित हुई और 1936 में अंतिम कहानी कफन नाम से। महज दो दशक की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं, जिनमें उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग करके जीवन के यथार्थ और अपने प्रगतिशील विचारों को समाज के सामने प्रस्तुत किया।
प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरुआत की। उनका पहला उपलब्ध लेखन उनका उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद' है। इसके बाद प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन नाम से आया। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेज़ी सरकार ने रोक लगा दी और इसके लेखक को भविष्य में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा।
1921 में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन का भार संभाला और फिर छह साल तक माधुरी नामक पत्रिका का संपादन किया। 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्रिका हंस को शुरू किया। प्रेमचंद ने कुल मिलाकर करीब तीन सौ कहानियां, लगभग एक दर्जन उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और कुछ अनुवाद कार्य भी किए। प्रेमचंद के कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ।
गोदान उनकी कालजयी रचना है। कफन उनकी अंतिम कहानी मानी जाती है। उन्होंने हिंदी और उर्दू में पूरे अधिकार से लिखा। उनकी अधिकांश रचनाएं मूल रूप से उर्दू में लिखी गई हैं, लेकिन उनका प्रकाशन हिंदी में पहले हुआ। प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए।
प्रेमचंद के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तव को मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय नाम से भी जाना जाता है। प्रेमचंद का जन्म वाराणसी के निकट लमही गांव में हुआ था। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा।
उनकी प्रमुख रचनाओं में सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान, मंगलसूत्र आदि हैं। अभी-अभी उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की 135 विन जयन्ती मनाई गई। यहाँ हम उनके कृतज्ञ स्मरण के साथ उनकी कुछ कहानियों के संवाद सविनय प्रस्तुत कर रहे हैं -
एक
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रग्घू ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा- मैं तो हूँ ही काकी, डर किस बात का है?
बड़ा लड़का केदार बोला- काकी, रग्घू दादा ने हमारे लिए दो गाड़ियाँ बना दी हैं। यह देख, एक पर हम और खुन्नू बैठेंगे, दूसरी पर लछमन और झुनिया। दादा दोनों गाड़ियाँ खींचेंगे।
यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गाड़ियाँ निकाल लाया। चार-चार पहि्ये लगे थे। बैठने के लिए तख्ते और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे।
पन्ना ने आश्चर्य से पूछा- ये गाड़ियाँ किसने बनायी?
केदार ने चिढ़कर कहा- रग्घू दादा ने बनायी हैं, और किसने! भगत के घर से बसूला और रुखानी माँग लाए और चटपट बना दी। खूब दौड़ती हैं काकी! बैठ खुन्नू मैं खींचूँ।
खुन्नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। चर-चर शोर हुआ मानो गाड़ी भी इस खेल में लड़कों के साथ शरीक है।
लछमन ने दूसरी गाड़ी में बैठकर कहा- दादा, खींचो।
रग्घू ने झुनिया को भी गाड़ी में बिठा दिया और गाड़ी खींचता हुआ दौड़ा। तीनों लड़के तालियाँ बजाने लगे। पन्ना चकित नेत्रों से यह दृश्य देख रही थी और सोच रही थी कि यह वही रग्घू है या कोई और।
थोड़ी देर के बाद दोनों गाड़ियाँ लौटीं; लड़के घर में जाकर इस यानयात्रा के अनुभव बयान करने लगे। कितने खुश थे सब, मानों हवाई जहाज पर बैठ आये हों।
खुन्नू ने कहा- काकी सब पेड़ दौड़ रहे थे।
लछमन- और बछिया कैसी भागीं, सबकी सब दौड़ीं!
केदार-काकी, रग्घू दादा दोनों गाड़ियाँ एक साथ खींच ले जाते हैं।
झुनिया सबसे छोटी थी। उसकी व्यंजना-शक्ति उछल-कूद और नेत्रों तक परिमित थी-तालियाँ बजा-बजाकर नाच रही थी।
खुन्नू- अब हमारे घर गाय भी आ जायगी काकी! रग्घू दादा ने गिरधारी से कहा है कि हमें एक गाय ला दो। गिरधारी बोला, कल लाऊँगा।
केदार- तीन सेर दूध देती है काकी! खूब दूध पीयेंगे।
इतने में रग्घू भी अंदर आ गया। पन्ना ने अवहेलना की दृष्टि से देखकर पूछा- क्यों रग्घू तुमने गिरधारी से कोई गाय माँगी है?
रग्घू ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा- हाँ, माँगी तो है, कल लावेगा।
पन्ना- रुपये किसके घर से आयेंगे, यह भी सोचा है?
रग्घू- सब सोच लिया है काकी! मेरी यह मुहर नहीं है। इसके पच्चीस रुपये मिल रहे हैं, पाँच रुपये बछिया के मुजरा दे दूँगा! बस, गाय अपनी हो जायगी।
(अलगोझया )
दो
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महमूद ने कहा- हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।
मोहसिन बोला- चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ काँपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तले अँधेरा आ जाय।
महमूद- लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
मोहसिन- हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गयी थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्माँ इतना तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।
हामिद को यकीन न आया- ऐसे रूपये जिन्नात को कहाँ से मिल जायेंगे?
मोहसिन ने कहा- जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहैं चले जायँ। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गये, उसे टोकरों जवाहरात दे दिये। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जायँ।
हामिद ने फिर पूछा- जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?
मोहसिन- एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाय तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाय।
हामिद- लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।
मोहसिन- अब यह तो मै नहीं जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाय चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गये। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।
( ईदगाह )
तीन
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सहसा गुमानी ने आकर पुकारा- क्या सो गये तुम, नौज किसी को ऐसी राक्षसी नींद आये। चलकर खा क्यों नहीं लेते ? कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे ?
हरिधन उस कल्पना-जगत् से क्रूर प्रत्यक्ष में आ गया। वही कुएँ की जगत थी, वही फटा हुआ टाट और गुमानी सामने खड़ी कह रही थी, कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे !
हरिधन उठ बैठा और मानो तलवार म्यान से निकालकर बोला- भला तुम्हें मेरी सुध तो आयी। मैंने तो कह दिया था, मुझे भूख नहीं है।
गुमानी- तो कै दिन न खाओगे ?
'अब इस घर का पानी भी न पीऊँगा, तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं ?'
दृढ़ संकल्प से भरे हुए इन शब्दों को सुनकर गुमानी सहम उठी। बोली- कहाँ जा रहे हो।
हरिधन ने मानो नशे में कहा- तुझे इससे क्या मतलब ? मेरे साथ चलेगी या नहीं ? फिर पीछे से न कहना, मुझसे कहा नहीं।
गुमानी आपत्ति के भाव से बोली- तुम बताते क्यों नहीं, कहाँ जा रहे हो ?
'तू मेरे साथ चलेगी या नहीं ?'
'जब तक तुम बता न दोगे, मैं नहीं जाऊँगी।'
'तो मालूम हो गया, तू नहीं जाना चाहती। मुझे इतना ही पूछना था, नहीं अब तक मैं आधी दूर निकल गया होता।'
यह कहकर वह उठा और अपने घर की ओर चला। गुमानी पुकारती रही, 'सुन लो', 'सुन लो'; पर उसने पीछे फिर कर भी न देखा।
(ठाकुर का कुआँ )
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प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, शासकीय
दिग्विजय महाविद्यालय,राजनांदगांव
mo.9301054300
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