समीक्षा - तल्ख अहसासों की अभिव्यक्ति- ''भींग गया मन''

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  वीरेन्द्र सरल । यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो साहित्यकार समाज का सजग प्रहरी। समय के नब्ज पहचानने में सिद्धहस्त साहित्यकार की सजग दृष्...

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वीरेन्द्र सरल ।


यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो साहित्यकार समाज का सजग प्रहरी। समय के नब्ज पहचानने में सिद्धहस्त साहित्यकार की सजग दृष्टि सदैव समसामयिक घटनाओं पर होती है। वह घटनाओं में अर्न्तनिहीत कारणों का विश्लेषण करता है, उसके दूरगामी परिणामों को भाँपता है और समाज में चैतन्यता का संचार करता है। साहित्यकार संसार में वसुधैव कुटुम्बकम्' तथा सर्वजन हिताय बहुजन सुखाय के भाव को साकार होते देखना चाहता है इसलिए वह वृहत्तर समाज के साथ खड़े होकर दमन, शोषण, अमानवीयता और अत्याचार के विरोध में शंखनाद करता है। अपनी लेखनी की मशाल से अंधेरे जीवन में रोशनी भरने के लिए प्रतिबद्ध साहित्यकार समाज में प्रेम, सहानूभूति, दया, करूणा, सहयोग जैसे मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है।

मगर आज जिन्दगी जिस रफ्तार से दौड़ रही है, उसमें मानवीय मूल्य बहुत पीछे छूटते जा रहे है। आज अंधिकांश लोगों के लिए जीवन का मतलब पैसा हो गया है। आधुनिकता की अंधी दौड़ और धन के पीछे पागल हुई जिन्दगी के लिए रिश्ते, नाते ,घर-परिवार समाज सब कुछ बेमानी होने लगे है। संवेदना का ऐसा हा्रस हो रहा है कि जिन्दगी मशीन और हृदय पत्थर में तब्दील होने लगा है। ऐसे माहैल को देखकर किसी भी संवेदनशील कवि का मन व्यथित हो जाना और मन का भींग जाना स्वाभाविक ही है


'भींग गया मन' वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न प्रवासी भारतीय कवि श्री हरिहर झा जी, जो वर्तमान में मेलबोर्न के मौसम विभाग में वरिष्ठ सूचना अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं की कृति है। जिसमें कवि ने अपने छै दशकीय जीवन यात्रा के सुदीर्घ अनुभवों को वैज्ञानिक चिन्तन तथा तर्क की कसौटी पर कसकर और शब्दों में ढालकर कागज पर उतारने का विन्रम प्रयास किया है। इस कृति की कविताएं अति क्लिष्टता से दूर अपनी सरल भाषा में सहज सम्प्रेषणियता के कारण सीधे पाठकों के दिमाग के रास्ते दिल में उतरती चली जाती है और हृदयग्राही और मर्मस्पर्शी बन पड़ती है। कृति प्राप्त होने और पढ़ने का सौभाग्य मिलने पर मुझे आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई कि अपने वैज्ञानिक प्रतिभा का मनुष्यता के लिए समुचित उपयोग के लिए अपने वतन से दूर रहकर भी श्री झा साहब हिन्दी के माध्यम से अपनी अनूभूतियों को व्यक्त करने का और हिन्दी के प्रचार-प्रसार कर राष्ट्रभाषा के भंडार को समृद्ध करने का स्तुत्य एवं अनुकरणीय प्रयास कर रहे हैं।


कृति का शुभारंभ करते हुए झा साहब अपने अनुभव के आधार पर कविता को परिभाषित करने का प्रयास करते हुए कविता के गुण-धर्म और तत्वों की ओर नवलेखकों का ध्यान आकर्षित करते हैं। निःसंदेह यह नव लेखकों के लिए उपयोगी परिभाषाएं है। मगर कवि स्वयं  इन परिभाषाओं से संतुष्ट नहीं है क्योंकि असंतुष्टि ही सृजन की पहली शर्त है। संतोष जीवन के लिए तो ठीक है पर सृजन के लिए संकट ही है। सत्य का अनवेषण सतत जारी रहने वाली प्रक्रिया है। जैसे-जैसे जीवन के अनुभव में परिपक्वता आती जाती है तो निर्धारित की हुई परिभाषाएं भी समय सापेक्ष बदलती चली जाती है। कवि के मन का अर्न्तद्वन्द कृति में इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है।


''शब्दों के नर्तन से शापित
अंतर्मन शिथिलाया
लिखने को तो बहुत लिखा पर
कुछ लिखना बाकी है।''


     अपनी जड़ों से जुड़े रहना जीवन्तता की निशानी है। आदमी शरीर और दिमाग से चाहे दुनिया के किसी भी कोने पर रहे पर दिल की धड़कन में सदैव मातृभूमि का प्रेम समाया हुआ रहता है।  जन्मभूमि की उस माटी की सौधी महक जीवन के आँगन को सुरभित करता है जहाँ हम जन्म लेते है, जिसकी गोद में खेलकर पले और बढ़े होते हैं। प्रवासी भारतीय के नजरिये से कवि ने  वतन से दूर रहने के दर्द को इन पंक्तियों में व्यक्त किया है-


''छूटा देश तो जीना दूभर, दुखड़ा किससे कहना
माया मोह की गठरी लादे, सुख-दुख इसके सहना''


कवि हमेशा सामाजिक समरसता और साम्प्रदायिक सौहार्द तथा समानता का पक्षधर होता है। धर्मान्धता के आड़ में स्वार्थ की रोटी सेंकने वाले स्वार्थी तत्वों से समाज को सचेत करते हुए कवि लिखते है कि-


''भेष आदमी का धर कर आया जहरीला साँप
उगले जहर घृणा का कितना नाप सके तो नाप
नीच इरादा पूरा करने लिया धर्म का डंडा
निर्बल का लहू चूस रहा हट्टा-कट्टा मुस्टंडा''


समाज में व्याप्त असमानता और जीवन के विरोधाभाष को व्यक्त करते हुए कवि लिखते हैं कि'' डकार ली गड्डी नोटों की, फाँका चूरण थोड़ा'' तथा '' बम विस्फोट में नींद आई, बंशी ने झकझोरा। उमड़-घुमड़ कर भींगे बादल, मेरा पानी कोरा।''
और अन्त में झा साहब अपने लेखन का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए  लिखते हैं कि-


''कीचड़ न हो नदियाँ निर्मल, दूर हो भष्ट्राचार।
कोयल खुद अंडे सेये, निर्मल कर दे आचार।
श्रम को स्वर दे बाग-बगीचे, घर-आँगन हर मोड़।
खुशियों के सिक्के बाँटे हम लोभ पचासो छोड़''


     जीवन के विविध रंगों की अनुभूतियों का सुन्दर समन्वय इस कृति में समाहित है। कवि  जिस आदर्श समाज की कल्पना करते हुए सतत लेखन कर रहे हैं, उसका आदर्श स्वरूप उक्त पंक्तियों में परिलक्षित होता है। कवि का स्वप्न शीघ्र साकार हो इस मंगलभावना के साथ एक समाजोपयोगी उत्तम कृति के लिए कवि को हार्दिक बधाई।


वीरेन्द्र 'सरल'
ग्राम-बोड़रा( मगरलोड़)
जिला-धमतरी( छत्तीसगढ़)
पिन-493662

email - saralvirendra@rediffmail.com

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