हास्य-व्यंग्य : राज की बात

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- प्रमोद यादव । एक तल्ख़ हकीकत बता रहा हूँ..अगर आप आम आदमी हैं तो समझिये आपका बेडा गर्क है..इस मुल्क में आम आदमी का जीना दुश्वार ही नहीं ...

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- प्रमोद यादव

एक तल्ख़ हकीकत बता रहा हूँ..अगर आप आम आदमी हैं तो समझिये आपका बेडा गर्क है..इस मुल्क में आम आदमी का जीना दुश्वार ही नहीं बल्कि हराम भी है..कदम-कदम पर रिश्वतखोरी..बेईमानी है..धोखे और फरेब है..एक बहुत पुराना गाना है -‘ बाबूजी धीरे चलना..प्यार में जरा सम्हलना..बड़े धोखे हैं इस राह में..’ तब उस जमाने में निश्चय ही यह प्रणय-गीत रहा होगा पर आज के सन्दर्भ में ये आम आदमी का गीत है..अब यहाँ “प्यार” का अर्थ थोडा बदल गया है..इश्क-मुश्क वाला न होकर केवल “लगाव” (अटेचमेंट) रह गया है..कवि वार्न कर रहा है -ऐ बाबू धीरे चलो..और सम्हलकर चलो..ऊँचे तबके के अवसरवादी लोगों के (नेताओं के) झांसे में मत आओ..ये समय-बेसमय (चुनाव-उप चुनाव के दिनों) आपसे प्रगाढ़ प्रेम का नाटक करेंगे.. हाथ मिलायेंगे.. गले मिलेंगे (फिर काटेंगे भी).... इनसे बच के रहो या दूर ही रहो..इनके चक्कर में आओगे तो ढूँढ़ते रह जाओगे (अपना वजूद).. जब सौ साल बाद भी आपको आम ही रहना है..कोई “ख़ास” नहीं तो जल्दबाजी क्यों ? हाय तौबा क्यों? जिंदगी की राह को धीरे-धीरे ही नापो वर्ना हाथ-पाँव जल्दी फूल जायेंगे..भागम-भाग तो जिंदगी भर है..

 

कभी इस विभाग से उस विभाग..तो कभी इस दफ्तर से उस दफ्तर...कभी भाई के लिए तो कभी भांजी के लिए..कभी राशन के लिए तो कभी गैस के लिए..बस उसे तो दौड़ना ही है..बड़े लोग तो नौकर-चाकर को दौड़ा लें..आम आदमी किसे दौडाए ? हास्पिटल भी उसे ही जाना..कोर्ट-कचहरी भी उसे ही जाना..निगम-नलघर उसे ही जाना है..टेलीफोन बिजली बिल उसे ही पटाना है..और जब तक इन जगहों पर आप किसी को पटाकर नहीं रखेंगे आपका भला (काम) होने वाला नहीं ..हास्पीटल में काम है तो डाक्टर न सही पर वार्ड ब्वाय को जरूर पटाकर रखे..डाक्टर परिचित होकर भी परेशान कर सकता है पर वार्ड ब्वाय नहीं..बस..उसकी मुट्ठी थोड़ी जरुर गर्म करनी होगी..थाने का काम हो तो टी.आई.या इन्स्पेक्टर से परिचय किसी काम का नहीं..वो सीधे-सीधे आपका काम नहीं करेगा..वह मुंशी के मार्फ़त ही आपको मारेगा.. मुंशी ही अनुमानित खर्च बतायेगा..कोर्ट का काम हो तो अपर कलेक्टर या डी.जे. भले परिचित निकले पर सीधे काम नहीं करेगा..बड़े बाबू से संपर्क साधने कहेगा..फिर बड़ा बाबू ही साधकर बतायेगा कि केस में कुल कितना कैश लगेगा...कुल मिलाकर कहानी ये कि आम आदमी की कहीं भी खैर नहीं..जेब ढीली करेगा तभी काम होगा..कितने दिनों में होगा उसका कोई खुलासा नहीं..पेमेंट के पश्चात भी काम होगा ही… इसकी कोई गारंटी नहीं..

 

दुर्भाग्य से मैं भी इसी कैटेगरी से ताल्लुक रखता हूँ..सरकारी हाई स्कूल में गणित का टीचर (लेक्चरार) हूँ..गुणा-भाग में तो एक्सपर्ट हूँ पर जिंदगी के गुणा-भाग में बिलकुल ही सिफर..जब कभी भी उपरोक्त विभागों अथवा दफ्तरों से पाला पड़ा..चारों खाने चित्त हुआ..एक तो रिश्वत खोरी से ही मुझे एलर्जी है..और फिर तनख्वाह से बचते ही क्या हैं कि किसी को कुछ दे ?..आम आदमी की बीबी एक बनारसी साडी की फरमाईश में बेचारी बूढ़ी हो जाती है..एक सोने की लटकन की आस में आखिरी सांस तक अटकी रहती है..ऐसे में इनकी फरमाईशें कैसे पूरी करे ? लेकिन जिंदगी में कई बार कुछ काम ऐसे आन पड़ते हैं कि उसका क्रियान्वयन जरूरी हो जाता है.. ऐसे ही एक कार्य में एक बार उलझ गया..मामला कोर्ट-कचहरी से सम्बंधित था..

 

पहले तो आस जगी कि रेखराम के होते मेरा काम हो जाएगा..पर उसकी फितरत से वाकिफ होते शंका भी बनी रही कि बिना लिए-दिए वो कुछ करेगा नहीं..अब जमीन का मामला था तो उससे मिलना भी जरूरी था..पत्नी को पहले ही बता दिया था कि मेरा सहपाठी जरूर रहा है..और एक जमाने में दोस्त भी..पर जबसे कोर्ट में घुसा है..घूसखोर हो गया है.. हरामखोर हो गया है..बिना लिए-दिए किसी का भी काम नहीं करता..कलेक्टर के यहाँ बड़े बाबू होने का भरपूर फायदा उठाता है..कोर्ट-कचहरी के सारे कामों का ठेका ले रखा है..किसी जमाने में जो टूटे-फूटे कच्चे मकान में दुबका रहता वो आजकल थ्री बी.एच.के. अपार्टमेन्ट में पसरा रहता है..स्कूल के दिनों के बाद उससे यदा-कदा ही भेंट हुई ..पर जब कभी मिला -ये जरुर कहा कि कोर्ट का कोई काम निकले तो याद कर लेना..करवा दूंगा..

 

पत्नी बार-बार कह रही कि आपके साथ पढ़े हैं.. बचपन के दोस्त है तो आपसे पैसे थोड़े ही लेंगे ?और लेंगे भी तो औरों से कम ही लेंगे..एक बार मिल तो लो..आखिर काम तो वहीं से होना है..न चाहते हुए भी मिलना मजबूरी हो गया.. मैं उस हरामखोर दोस्त को अच्छी तरह जानता हूँ..वो पैसे के लिए अपने सगे बाप को भी न छोड़े तो मैं भला किस खेत की मूली ? फिर भी पत्नी के कहने पर एक दिन उससे मिलने कलेक्टोरेट चला गया..बहुत देर तक तो उसने जानबूझकर मुझे नहीं देखने का नाटक किया..नजर अंदाज करता रहा..बेवजह ही इधर की फाईल उधर और उधर की फाईल इधर पटकता रहा.. पास खड़े लोगों को सलाह –मशविरा देता रहा..किसी को लाख की बात कहता तो किसी को हजार की..मैं चुपचाप खड़ा उसके दांव-पेंच देखता रहा..जब सब चले गए तो मेरी ओर देखते बड़ी एक्टिंग के साथ कहा- ‘ अरे ? कब आये ?बैठो..बैठो..बताना तो था...कि आये हो..हाँ बोलो कैसे आये..? सब खैरियत तो है ? ‘ मैं चुप रहा..

 

वही फिर बोला-‘ अच्छा चलो चाय का वक्त हो गया है..कैंटीन चलते हैं..वहीँ बातें करेंगे..’ मैं उसके पीछे-पीछे हो लिया..चाय की चुस्की लेते उसने पूछा - ‘ हाँ बताओ..क्या बात है ? कैसे आना हुआ ?’ तब मैंने सारी बातें उसे विस्तार से बता दी..सुनकर एकदम गंभीर हो गया..चुप्पी साध गया..मैंने पूछा- ‘ क्या बात है यार ? काम हो जाएगा न ? ‘ उसने बड़ी देर बाद लम्बी चुप्पी तोड़ते कहा- ‘ केस बहुत पेचीदा है यार..सामनेवाला मुक़दमा ठोक देगा तो मिनटों में हार जाओगे..’

 

मैंने पूछा- ‘ तो फिर ? ‘

‘ तो फिर क्या ?..कुछ ज्यादा ही खर्च करोगे तभी उबर पाओगे..मुझे तो उम्मीद नहीं दिखती..पर बचपन के दोस्त हो तो कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा..मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी जेब ढीली हो..पर इस केस में बहुत सारे लोगों को पटाना पड़ेगा..उन्हें खिलाना-पिलाना पड़ेगा..बोलो तो आगे बात करूँ ? ‘

‘ कितना लग जाएगा यार ?’ मैंने धड़कते दिल से पूछा.

 

‘ वो कल ही बता पाऊंगा यार..बड़े अधिकारियों से बात करनी होगी..वैसे तुम एक आवेदन बनाकर रखो..कल शाम तक बताता हूँ..’ इतना कह वह उठ गया.. मुझे उसकी बातों पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ..उसकी बातों में साफ़ मक्कारी झलक रहा था..

दूसरे दिन शाम को उसके अपार्टमेन्ट में गया तो उसने जो इस्टीमेट बताया उसे सुन मैं मटियामेट होते-होते बचा..पूरे एक लाख अस्सी हजार का खर्च बताया..ऊपर से ये एहसान भी जताया कि अपना हिस्सा वो नहीं ले रहा..इसलिए बीस हजार कम.. अन्यथा पूरे दो लाख....मैंने तुरंत ही अपनी असमर्थता जाहिर कर दी..इतने रूपये नहीं होने का रोना रोया तो उसने कहा- ‘ कोई बात नहीं यार..जब हो तो आ जाना..मैं कौन सा आज ही रिटायर हो रहा..’ मैं हामी भरते लौट आया..पत्नी को बताया तो बोली- ‘ सचमुच ही पेचीदा मामला होगा जी तभी इतना खर्च बताया..आखिर दोस्ती की खातिर अपना हिस्सा तो बेचारे छोड़ ही रहे..अब दोस्त है तो कोई लाख-दो लाख तो अपनी जेब से कुर्बान नहीं करेगा न ? ‘ न जाने क्यूँ मुझे उसकी मीठी-मीठी बातों पर कतई विशवास नहीं था..वह मक्कार तो स्कूल के ज़माने से ही था...

 

इस घटना को बीते पंद्रह-बीस दिन ही हुए थे कि एक दिन अचानक वो घर आ धमका..आते ही कहने लगा- ‘ यार..खूब छकाया तुमने.. काफी ढूँढ़ते- ढूँढ़ते मुश्किल से घर मिला.. यहाँ कबसे आ गए भई ? पुराने घर गया तब पड़ोसियों ने बताया कि आजकल इधर आ गए हो..बैठने नहीं कहोगे ? ‘

‘ अरे आओ रेख...आज रास्ता कैसे भूल गए ? ‘ मैं भी आश्चर्य चकित था कि ये मक्कार अचानक यहाँ कैसे ?

 

‘ अरे तुम्हें शायद मालूम नहीं..सप्ताह भर पहले ही यहाँ नई कलेक्टर साहिबा आ गई हैं..पुराने का ट्रांसफर हो गया..जब से आई है ,तुम्हें याद कर रही है..परसों शाम उन्होंने तुम्हें भाभी जी के साथ बंगले पर डिनर में बुलाया है..और हाँ..तुमने आवेदन लिखा था क्या ? नहीं लिखे होगे तो एक कोरे पेपर पर साइन भर करके दे दो..आवेदन मैं बना लूंगा..मैंने “ऊपर वालों” से बात कर ली है..कल शाम तक तुम्हारा काम हो जाएगा..’

‘ और पैसे ? ‘ मैंने पूछा.

 

‘ कौड़ी भर भी नहीं यार..तुमसे पैसे लूँ तो दोस्ती किस बात की ? मैंने बात कर ली है..सबको पटा लिया है..मामला सुलझा लिया है..’

‘ अरे वाह.. अचानक ये कैसा चमत्कार हो गया भई ? और ये तो बताओ कौन कलेक्टर आई है और क्यों मुझ पर मेहरबान हैं ? ‘

तभी दरवाजे के पीछे खड़ी पत्नी बाहर निकल आई और नमस्ते कर धन्यवाद देने लगी कि दोस्ती के चलते आपने बिना कुछ लिए-दिए काम करने का जो बीड़ा उठाया वह स्तुतनीय है.. आपका मुंह मीठा कराती हूँ..इतना कहते वो मिठाई लेने चली गई..

‘ अबे बता न कौन आई है ? ’ मैंने धीरे से पूछा.

‘ अम्बिका यार...’ उसने भी धीरे से मुंह खोला.

‘ अम्बिका ?..अम्बिका शर्मा ?..जो हमारे साथ पढ़ती थी ? ए.डी.एम.शर्मा की बेटी...? ‘

 

‘ हाँ यार.. वही..उसने ज्वाइन करते ही मुझे अपने कार्यालय में देखी तो घंटों हंसती रही..फिर तुम्हारे बारे में पूछी कि कहाँ है ? मैंने बताया कि यहीं मास्टरी कर रहा है तो खुश हुई और बोली कि किसी दिन उन्हें बंगले में सपरिवार आमंत्रित करो खाने पर...और तुम भी अपनी फैमिली के साथ पधारो..’

‘ हूँ..तो ये बात है जनाब..’ मैं तुरंत ही समझ गया कि मेरा मामला एक दिन में कैसे सुलझने वाला है ..वो भी बिना कोई लेन-देन के..

मैंने कहा- ‘ ठीक है यार..जब अम्बिका यहाँ आ गई है तो अब तुमसे अक्सर मुलाकात होती ही रहेगी..चलो परसों वहीँ मिलते है..’

तभी पत्नी मिठाई लेकर आ गई..रेखराम को खिलाते बोली- ‘ भैया..मैं जानती थी कोई काम आये न आये पर बचपन के दोस्त जरुर एक दूजे के काम आते हैं..आप लाखों का काम फ्री में करा रहे ..आपका ये एहसान हम कभी नहीं भूलेंगे..’

 

‘ अरे नहीं भाभी जी ये तो मेरा फर्ज है..दोस्त के लिए इतना कुछ भी न करूँ तो लानत है मेरी नौकरी पर..’ कहते, हें-हें करते और मुझे देख झेंपते वह चला गया.

पत्नियाँ सबकी एक जैसी ही होती हैं- सीधी-सादी और मूर्ख..अब भला मेरी पत्नी को कौन बताये कि ये मामला फ्री में कैसे निपट रहा ? इसके पीछे की कहानी ये है कि स्कूल के दिनों में अम्बिका से मेरी अच्छी दोस्ती थी..वो हर मामले में उस्ताद थी..पढाई-लिखाई..खेलकूद..नाच-गाना..वाद-विवाद..सब में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती..मैं भी उससे इतर नहीं था इसलिए उससे अच्छी पटरी बैठती..रेखराम भी मेरे ग्रुप में था..उसे लड़कियों के सानिध्य में उठने-बैठने का बड़ा ही शौक था..जबकि लड़कियां उसे दुत्कारती थी..अक्सर लड़कियां जानबूझकर उससे काम करवाती..ताकि दूर रहे..अम्बिका तो उससे इतना काम लेती कि कभी-कभी झल्लाकर वह कहता— ‘ यार..ये साली हमेशा मुझसे नौकरों की तरह काम करवाती है..कभी कापी मंगवाती है तो कभी पुट्ठा ..कभी समोसे तो कभी भुट्टा ..’

 

एक दिन का वाकया है..बरसात के दिन थे..हम सब फिजिक्स लेब में बैठे थे..कि अम्बिका बोली- ‘ रेख.. मेहरबानी करके एक गिलास पानी पिलाओगे क्या ? बड़ी प्यास लगी है.. ‘ वो इतने प्यार से बोली कि रेखराम को उठना ही पड़ गया..वह पानी लेने चला गया और दस मिनट बाद गिलास भर पानी ले लौटा .. गिलास थामते अम्बिका बोली- ‘ पानी लेने नदी चले गए थे क्या ? बड़ी देर कर दी लाने में..’ रेखराम चुप रहा...दो घूँट पीते ही अम्बिका मुंह बनाते बोली- ‘ यार..बड़ा ही कसैला है पानी का स्वाद..अजीब सा कैसे लग रहा है..’

रेख ने तुरंत ही जवाब दिया- ‘ अरे बरसात में क्लोरिन मिलाते हैं न पानी में..कभी-कभी ज्यादा मात्रा में घुल जाता है तो स्वाद कसैला हो जाता है..’

अम्बिका ने किसी तरह नाक-भौं सिकोड़ गिलास खाली की.

 

छुट्टी के बाद घर लौटते-लौटते रेख ने अम्बिका के विषय में बाते करते कहा- ‘ साली..रोज-रोज काम करवाती है..आज मैंने ऐसा काम किया कि जिंदगी भर याद करेगी ? ‘

मैंने पूछा- ‘ क्या किया बे ?’ तब उसने कसैले पानी का राज बताया जो अम्बिका पी गई थी..बताया कि उसने पानी में थोड़ी अपनी पेशाब भी मिला दी थी..कहने लगा-‘ साली याद करेगी कि किससे पाला पड़ा था..’

तब मैंने चिल्लाते हुए उसे कहा था - ‘ बेवकूफ..वो क्यों तुम्हें याद करेगी ? उसे तो इस बात का इल्म भी नहीं ..लेकिन जिस दिन भी तुम्हारी इस नीच हरकत से वाकिफ होगी वो तुझे छठी का दूध जरुर याद दिला देगी..’

आज बरसों बाद शायद मेरी बातें उसे याद आ गई..वह जान गया कि छठी के दिन आ गए..तभी मेरा मुंह बंद करने “होम डिलवरी” कर रहा है.. मेरे काम को प्राथमिकता के साथ मुफ्त में करा रहा है..मुझ नाचीज को आम से ख़ास बना रहा है..

अब ऐसी उटपटांग बातें मैं पत्नी को बता भी नहीं सकता..कहीं ये बातें वो जान गई तो रेखराम के पेट में हाथ डाल मिठाई निकाल लेगी..इतनी वीरांगना तो है मेरी पत्नी..ईश्वर करे ये राज की बात..हमेशा राज ही रहे.. इसी में भलाई है... रेखराम की भी .. और मेरी भी..

 

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प्रमोद यादव

गया नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

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रचनाकार: हास्य-व्यंग्य : राज की बात
हास्य-व्यंग्य : राज की बात
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