- दिनेश कुमार माली चीन में सात दिन पहला अध्याय से जारी... दूसरा अध्याय : पहला दिन (20.8.14) यह दिन था दिल्ली इन्दिरागांधी अंतरराष्ट्...
- दिनेश कुमार माली
चीन में सात दिन
दूसरा अध्याय : पहला दिन (20.8.14)
यह दिन था दिल्ली इन्दिरागांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सभी प्रतिभागियों से मिलने का। सारी सुचारु व्यवस्था को देख रहे थे, स्वयं जय प्रकाश मानस जी तथा टूर मैनेजर रिक्की मल्होत्रा। और वैसे भी बीस से ज्यादा प्रतिभागी जुड़े हुए थे मेरे व्हाट्स अप्प ग्रुप 'हिन्दी सम्मेलन,चीन' पर। मुझे तो बहुत ही फायदा हुआ था इस ग्रुप से। मेरा टिकट था भुवनेश्वर से दिल्ली जाने वाली रात को नौ बजे की फ्लाइट से। वह साढ़े ग्यारह बजे दिल्ली के टर्मिनल-1 पर पहुँचती है और वहाँ से टर्मिनल -3 जाने में एक घंटे से कम नहीं लगता। ये सारी बातें मुझे व्हाट्स अप्प ग्रुप में सेवाशंकर अग्रवाल ने पहले ही बता दी तो मैंने फ्लाइट को रिशेड्यूल कर दिया, 6 बजे वाली फ्लाइट में।
भुवनेश्वर में बीजू पटनायक अंतर-राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ओड़िशा से चीन जाने वाले बहुत बड़े दल से मेरी मुलाक़ात हुई। आइए, आप का परिचय करवा दूँ। आप,झिमली पटनायक व आपका परिवार, पुरी से आ रहे हैं। ओड़िया थिएटर से जुड़ी विख्यात संस्कृतिकर्मी,रोटेरियन व लब्ध-प्रतिष्ठित आकर्षक समाज सेविका श्रीमती झिमली पटनायक ओड़िया व हिन्दी दोनों भाषाओं में धारा-प्रवाह व मृदुभाषी वक्ता है। आप डॉ। एन॰सी॰दास सपरिवार- कटक से। ओड़िया साहित्य अकादमी से पुरस्कृत साहित्यकार व देश-विदेश की अनेक तकनीकी संस्थाओं से जुड़े सेवानिवृत्त इलेक्ट्रिकल इंजीनियर डॉ॰ एन॰ सी॰ दास व उनकी सहधर्मिणी। आप हैं प्रो॰ धरणीधर साहू व हिन्दी से ओडिया में अनुवाद करने वाली रचनाकर उनकी पत्नी कनक मंझरी साहू भुवनेश्वर से। अँग्रेजी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं धरणीधर साहू साहब । डॉ सुदर्शन पटनायक भी कटक के सुविख्यात साहित्यकारऔर तालचेर से मैं -दिनेश कुमार माली , महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड में काम करता हूँ। इस प्रकार बन गया उत्कल का एक विशेष दल।
भुवनेश्वर के बीजू पटनायक हवाई अड्डे से उड़ान भरने से पूर्व झिमली मैडम ने जैसे ही व्हाट्स अप्प पर हम सभी का सामूहिक फोटो अपलोड कर दिया यह लिखते हुए ओड़िशा से नौ लोगों का दल दिल्ली के लिए रवाना हो रहा है, वैसे ही सेवाशंकर अग्रवाल ने अपने समूह का फोटो अपलोड करते हुए प्रत्युत्तर में लिखा रायपुर से डबल डिजिट अर्थात दस जन दिल्ली के लिए रवाना। फोटो में कुछ चेहरे जाने-पहचाने भी थे जैसे डॉ जे॰ आर॰ सोनी,गिरीश पंकज,डॉ॰ सुधीर शर्मा,राकेश मिश्रा,सेवा शंकर अग्रवाल आदि। शायद यह संयोग ही था कि दोनों भुवनेश्वर व रायपुर की फ्लाइटें दिल्ली के टर्मिनल-एक पर एक ही समय पहुंची। बेल्ट कन्वेयर से अपना-अपना सामान उठाकर सभी ने एक दूसरे का अभिवादन किया और अनजान चेहरों से जानने वाले एक दूसरे का परिचय कराने लगे। एक 'इंटेक्चुयल मास' को एक अच्छे साहित्यिक मिशन के लिए इकट्ठा होता देख बहुत अच्छा लग रहा था ।
द्रूतगामी रफ्तार से विकास पथ पर दौड़ते चीन जैसे पड़ोसी देश की यात्रा सभी के लिए न केवल आनंद का विषय थी, वरन साहित्यकारों के सीने की धड़कनों में अपनी कविताएं,कहानियाँ,रचनाएँ ,वृतांत,संस्मरण व अंतस के झरोखे की अनेकानेक अनुभूतियाँ एक अच्छे अवसर की तलाश में बहुत कुछ दबी हुई थी। टर्मिनल-तीन पर डॉ॰जयप्रकाश मानस,टूर मैनेजर रिक्की मल्होत्रा व उनके दो-तीन सहयोगी, सभी प्रतिभागियों के वहाँ पहुँचने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। हर पल-हर प्रतिभागी की गतिविधियों पर सतर्क नजर थी उनकी। डॉ॰ मीनाक्षी जोशी कहाँ से आ रही है, उद्भ्रांत साहब कहाँ तक पहुँच गए हैं, डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर किस गेट पर खड़े हैं इत्यादि। व्हाट्स अप्प पर लगातार संदेश जारी हो रहे थे। देखते-देखते एक कारवां जुटता गया और इसी कारवां में मेरी मुलाक़ात होती है, मध्यप्रदेश के डिंडोरी गाँव के प्रसिद्ध लोक-संस्कृति के लेखक व होम्योपैथिक डॉ॰ विजय कुमार चौरसिया से, जिनकी मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित पुस्तक "प्रकृतिपुत्र:बैगा" रिलीज होने जा रही थी इस अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में। बासठ वर्षीय हंसमुख चौरसिया कुछ ही पलों में मेरे आत्मीय बन गए। धीरे-धीरे इमाइग्रेशन फॉर्म पर हस्ताक्षर सहित अन्य सिक्यूरिटी चेक की सारी औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद हम सभी अपने गंतव्य गेट पर जाकर बैठ गए और इंतजार करने लगे भारतीय समय के अनुरूप ढाई बजे उड़ने वाली 'चाइना ईस्टर्न' की बीजिंग जाने वाली फ्लाइट का। बहुत बड़ा विमान था यह, लगभग तीन सौ यात्रियों के बैठने की व्यवस्था होगी। लगभग सोलह फीसदी तो हम लोग ही थे।
बैठने के लिए दो श्रेणियाँ-एक वीआईपी और दूसरा इकॉनोमी -जिसमें एक पंक्ति में आठ लोग। सुपरसोनिक स्पीड से चलने वाला यह विमान छ घंटे लेता है दिल्ली से चीन की दूरी तय करने में। ग्रीनविच मीन टाइम (जीएमटी) के आधार पर चीन का समय इंडियन स्टेंडर्ड टाइम (आईएसटी) से दो घंटा तीस मिनट आगे रहता है। दिल्ली में रात के तीन बजने का अर्थ था चीन में भोर के साढ़े पाँच। आठवीं कक्षा की भूगोल में पढ़ाई जाने वाली देशांतर व अक्षांश रेखाओं की समय निर्धारण में भूमिका का प्रत्यक्ष अनुभव पहली बार हुआ कि पृथ्वी गोल है और सूर्य के सापेक्ष अपने अक्ष पर चक्कर लगा रही है। यह थी यथार्थता, अनुभवजन्य ज्ञान के पुस्तकीय ज्ञान से बेहतर होने की। फ्लाइट में मेरे पास कुछ अन्य भारतीय लोग बैठे हुए थे ,जिनका चीन के गुयाङ्ग्जाऊ जिले में कुछ व्यवसाय था और वे लोग शंघाई,सिंगापुर और मकाऊ के किसी बड़े व्यापारिक दौरे पर निकले हुए थे।
बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा,"क्या आपको चीनी भाषा सीखने में कोई कठिनाई नहीं आती?"
मेरे चेहरे की तरफ देखते हुए उनमें एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति कहने लगा," बहुत कठिन भाषा है। लिखना-पढ़ना तो दूर की बात बोलने में भी बहुत दिक्कत आती है। कुछ काम चलाऊ शब्द जरूर सीख लेते है। जैसे 'हेलो' या 'आप कैसे हो ?" को " नि हाऊ ?" और "मैं ठीक हूँ।" को " वो हेन हाऊ।"; इसी तरह 'सॉरी’,'गुड बाय' को 'दुईबुकी' 'जै जिआन' कहकर पुकारते हैं। ऐसे ही कुछ बिजनेस से संबन्धित वाक्यांश हम लोग याद कर लेते है।"
" फिर आप सामान खरीदते समय बारगेनिंग कैसे करते हो?" मैंने जिज्ञासावश पूछा उनसे।
तभी एक यात्री ने अपनी जेब से एक स्मार्टफोन इस तरह निकाला मानो कोई सँपेरा अपने पिटारे में से बीन बजाकर साँप निकाल रहा हो। उसने अपने मोबाइल से सामने की सीट पर लटकाए हुए एक रुमाल जैसे कागज पर चीनी भाषा में लिखे एक विज्ञापन का फोटो लेते कहा, "देखिए मेरी तरफ, मैं इस विज्ञापन का गूगल ट्रांसलेट सॉफ्टवेयर पर स्कैनिंग कर रहा हूँ। जैसे ही स्कैनिंग कंप्लीट होगी ,वैसे ही कन्वर्ट का बटन दबाकर हिन्दी भाषा सलेक्ट कर उसका मशीनी अनुवाद पढ़ सकते हो। कम से कम 100 से ऊपर भाषाओं का अनुवाद हो जाएगा इसमें।"
किसी ने ठीक ही कहा था,आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। जिस तरह बचपन में सुनी हुई कहानी में प्यासा कौआ मटकी में कंकड़ डालकर पानी के ऊपर उठने पर अपनी प्यास बुझाता है, उसी तरह यह व्यापारी वर्ग अपने व्यापार में वृद्धि करने के लिए आधुनिक सूचना तकनीकी की क्रांति का फायदा उठाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। भारत सरकार के गृह-मंत्रालय के राजभाषा विभाग की वेबसाइट से 'मंत्रा' सॉफ्टवेयर या गूगल की साइट पर ट्रांसलेट पर मैंने अँग्रेजी से हिन्दी अथवा हिन्दी से अँग्रेजी के अनुवाद कार्य को अवश्य देखा था, मगर इस स्कैनर की जानकारी नहीं थी। यह बात अलग थी,राजभाषा कार्यालीन कामकाज के दौरान कभी-कभी मशीनी अनुवाद अत्यंत ही निरर्थक, ऊँटपटांग और संवेदनहीन प्रतीत होता था,तो कभी-कभी उस अनुवाद पर हँसना भी आता था। अगर आप "इट रेन विथ डॉग एंड केट्स" का अनुवाद पढ़ेंगे तो स्वयं हंसने लगेंगे' कुत्ते और बिल्लियों की बरसात"। आप समझ गए होंगे, चीनी भाषा में भी तो मुहावरें,लोकोक्तियाँ या कहावतें तो अवश्य होंगी। चीन का साहित्य भी तो विश्व के समृद्ध साहित्य में से एक है। आगे जाकर आपको पता चलेगा कि किस तरह गूगल ट्रांसलेट का आविष्कार इस यात्रा में मेरा सहारा बना।
हमें पहुँचना था शंघाई से होते हुए बीजिंग,मगर रुकना पड़ा शंघाई में। मौसम की खराबी के कारण हमारा विमान शंघाई से आगे नहीं बढ़ा। हम सभी को अपने लगेज समेत वहाँ बाध्य होकर उतरना पड़ा। उसी टिकट में दूसरी फ्लाइट पकड़कर बीजिंग जाना था। शंघाई के पुडोंग अंतर-राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हमारे पासपोर्टों की जांच-पड़ताल व लगेजों की स्कैनिंग की जाने लगी। मेरी भी किस्मत देखिए, पासपोर्ट के फोटो में चेहरे पर चश्मा नहीं लगा हुआ था और इस समय बड़े-बड़े लेंसों वाला स्पेक्ट पहना हुआ था। मुझे रोक दिया गया पूछताछ के लिए। ऐसे उन्होने मुझसे कुछ भी पूछ-ताछ नहीं की ,मगर कुछ समय के लिए एक अलग रूम में रोका गया,जब तक कि फोटो की माइक्रो-स्कैनिंग कर चेहरे से मिलान नहीं कर लिया गया। मुझे छोड़ दिया गया। यह तो गनीमत थी कि दूसरे लोगों की तरह उन्होंने मुझे कोई संदिग्ध अपराधी नहीं समझा और हाथ हिला-हिलाकर टूटी-फूटी अँग्रेजी में 'आने का उद्देश्य,गंतव्य स्थान या वहाँ रुकने की समायावधि' के बारे में कोई भी पुलिसिया सवाल नहीं दागा। बाद में मुझे बताया गया कि वे लोग यादृच्छिक तरीके से यात्रियों की सैंपल-चेकिंग करते है, कहीं कोई तस्करी करने तो नहीं आया। आखिर शंघाई दुनिया का एक बड़ा व्यापारिक केंद्र जो है!
पता नहीं ,दिन ही कैसा था वह! जैसे-तैसे वहाँ से छूटे तो दूसरी अनचाही घटना घट गई एस्केलेटर पर। रनिंग एस्केलेटर में दो बड़े बैगों के बीच पाँव फंस गया रिक्की मल्होत्रा का और वह आगे बढ़ नहीं पा रहा था। जैसे-जैसे एस्केलेटर आगे बढ़ता जा रहा था, वैसे-वैसे हमारे साथी एक दूसरे के ऊपर गिरते हुए वहीं ढेर हो जा रहे थे। और एस्केलेटर रुकने का नाम नहीं, पीछे के पीछे मुमताज़ और डॉ॰ जय प्रकाश मानस भी अपने सामानों समेत! जान का भय किसे नहीं होता? मैं रेलिंग से कूदना चाहा बाहर की ओर, मगर प्रयास व्यर्थ था।यह तो अच्छा हुआ डॉ॰ सुधीर शर्मा या डॉ॰ विजय चौरसिया में से किसी ने फंसे हुए एकाध बैग को बाहर ज़ोर से खींच कर निकाल दिया तो रिक्की मल्होत्रा पाँव में लगी कैंची से मुक्त हो गए और पीछे-पीछे हम सभी। ज्यादा नुकसान तो कुछ नहीं हुआ, मगर कुछ अनहोनी घटना भी तो घट सकती थी।
ऐसे ही घटनाओं के दौर से गुजर रहे थे हम। इधर पेट में चूहे भी कूदने लगे थे। दिल्ली के वरिष्ठ कवि उद्भ्रांत जी व चंडीगढ़ के कहानीकार जसवीर चावला जी का भूख के मारे हाल-बेहाल हो रहा था । दोनों की तबीयत नरम लग रही थी। हमें अपना नया बोर्डिंग पास बनवाना था बीजिंग के लिए। सुविधानुसार अलग-अलग विमानों में हमें दस-पंद्रह के ग्रुप में भेजा जा रहा था। मन में आशंका थी , कहीं कोई छूट न जाए। हुआ भी कुछ ऐसा ही, आठ-दस साथी नहीं पहुँच पाए थे शंघाई से। छूटे हुए लोगों में श्री एन॰सी॰ दाश व डॉ सुदर्शन पटनायक जैसे बुजुर्ग लोग भी शामिल थे। डॉ॰ जय प्रकाश मानस इस टीम के मुखिया होने के नाते अपनी चिंता को छुपाने का असफल प्रयास कर रहे थे।
: " क्या करें? सभी तो पढे-लिखे लोग हैं। सभी को कहा हुआ है, अपना ग्रुप न छोडें। अगर इधर-उधर जाते भी हैं,तो किसी न किसी को कहकर जाएँ। घबराने की बात नहीं है, सभी के पास उनके पासपोर्ट,टिकट,यात्रा का पूरा वर्णन,होटलों के फोन नंबर,नाम सभी दिया हुआ है। सभी होशियार हैं, आ जाएंगे टैक्सी से होटल में।" जितने सहज भाव में भले ही उन्होंने कहा था, मगर भीतर से वह इतने सहज नहीं थे। आखिरकर उनके कंधों पर ही तो दल की सुरक्षा का भार था। डॉ॰ जय प्रकाश मानस कोशिश कर रहे थे कि उनके चेहरे पर चिंता की कोई लकीर न दिखें,मगर उत्तरदायितत्व का बोध रह-रहकर उनके होठों और ललाट पर अव्यक्त तौर पर उभर आता था। दिल के दर्द को समझे कौन ? मगर मैं दीर्घकाल से जुड़े रहने के कारण आसानी से उनकी हृदय की भाषा को पढ़ सकता था कि वह किस असमंजस के दौर से गुजर रहे है उस समय।
ईश्वर को अवश्य धन्यवाद देना चाहूँगा कि उसने शंघाई में बिछुड़े हुए आठ साथियों को सकुशल हमसे पहले बीजिंग की निर्धारित होटल बिजनेस टानसुन में पहुंचा दिया। भगवान के घर देर जरूर है ,मगर अंधेर नहीं।बीजिंग एयरपोर्ट पर एक दुबली पतली स्मार्ट लड़की, जो हमारी गाइड थी, इंतजार कर रही थी। अपना परिचय देते हुए वह कहने लगी," माई नेम इज नीना। वेलकम टू बीजिंग। आई एम योअर गाइड।" अपने हाथ में लाल रंग की तिकोनी छोटी-सी पताका वाली लोहे की छड़ी को ऊपर-नीचे करती हुई कहने लगी,"फोलों मी। इफ एनीवन ऑफ यू वांट टू टाक टू इंडिया,प्लीज कम, आई हेव चाइना यूनिकोम सिम्स। इट कॉस्ट वन फिफ्टी यूआन। यू गिव मी आइदर डॉलर ऑर यूआन। इफ यू हेव योअर इंडियन करेंसी,प्लीज कन्वर्ट थ्रू देट विंडो।" उसने एयरपोर्ट पर थोड़े से दूर करेंसी एक्सचेंज सेंटर की ओर ईशारा करते हुए उसने कहा।
हमारे कुछ साथी अपने साथ डॉलर लाए थे, फिर भी वहाँ यूआन में बदलवा रहे थे। उस समय मेरे पास न तो डॉलर थे,और न हीं कोई यूआन। समय भी कहाँ मिला था दिल्ली में? सोचा था रिक्की से चेंज कर लूँगा। मगर रिक्की तो अपने काम में लगा हुआ था। मुझे इंडिया बात करने के लिए सिम खरीदनी जरूरी थी। एक दो चेहरों को छोडकर सब लोग तो अनजान थे, कहता भी तो किससे? डॉ॰ चौरसिया व झिमली मैडम अवश्य आत्मीय लग रहे थे,मगर उनसे भी कहने का मन नहीं हो रहा था । काउंटर पर जाकर मैंने पूछा," विल इंडियन करेंसी बी कनवर्टेड?"
" यस" उसने खोजी निगाहों से मेरी तरफ देखते हुए कहा।
" हाऊ मच यूआन फॉर इलेवन थाउजेंड रूपीज़,प्लीज?" मैंने दूसरा सवाल पूछा।
उसने अपने केलकुलेटर में सात सौ सत्तर लिखकर दिखाते हुए कहा," सेवन हंड्रेड सेवन्टी।"
कुछ समय तक मैं निरुत्तर रहा। मुझे पता था, एक यूआन में दस रुपए की विनिमय दर के हिसाब से ग्यारह हजार के ग्यारह सौ यूआन आने चाहिए, मगर वह तो सिर्फ सात सौ सत्तर दे रहा है , बाकी ?
उसने अँग्रेजी में कहा," इफ यू वांट टू चेंज ,देन इट इज ओके। ओनली सेवन हंड्रेड सेवन्टी।....फाइनल ।'
समय की नजाकत को देखते हुए मैंने लगभग साढ़े तीन हजार के घाटे के सौदे को तुरंत स्वीकृति दे दी और सबसे पहले नीना से डेढ़ सौ यूआन की सिम खरीदकर तालचेर,ओड़िशा फोन लगाकर अपनी सकुशलता से बीजिंग पहुंचने का घर पर संदेश दे दिया।
उसके बाद गाइड नीना "फोलों मी" कहकर अपनी पताका हिलाते हुए हमें उस बस की ओर ले गई , जो हमें पहले खाना खाने के लिए इंडियन रेस्टोरेन्ट और फिर रहने के लिए तीनतारा होटल बिजनेस टानसुन ले जाने वाली थी।
बस में जाते समय चाइनीज गाइड का नामकरण नीना भले ही आत्मीय अवश्य लग रहा हो, मगर दिलोदिमाग में राजस्थान के मशहूर साहित्यकार व सुखाडिया यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ॰ विजय कुलश्रेष्ठ की बात याद आने लगी, जो उन्होंने अखिल भारतीय राजभाषा संस्थान,देहरादून द्वारा मदुरै,तमिलनाडु में आयोजित एक संगोष्ठी में कहा था,"हिन्दी को प्रयोजनमूलक होना चाहिए। जब तक कोई भी भाषा किसी भी प्रकार के रोजगार से नहीं जुड़ेगी तब आम जनता उसे अपने सिर पर नहीं बैठाएगी। अब तमिलनाडु के माचिस व पटाखों की नगरी शिवकाशी का ही उदाहरण ले लीजिए,पहले यहाँ के लोग अपना सामान उत्तरभारतीयों को बेचने के लिए संकेतों का सहारा लेते थे, मगर अब 'बीस रुपए में',दस रुपए में'या ' आप कित्ता में लोगे?" जैसे टूटी-फूटी हिन्दीभाषा का प्रयोग करने लगे हैं। कोई भी भाषा तभी जिंदा रह सकती है,जब तक उसमें किसी न किसी प्रयोजन का प्राण छिपा हो।"
'नीना' नाम का अर्थ यहाँ पर आपसे साहित्यिक संबंध बनाने के लिए नहीं है,मगर इसमें उसका भारत के साथ व्यापार निहित स्वार्थ छिपा हुआ है। हो न हो, हिन्दी भाषी लोगों के साथ सफलतापूर्वक व्यापार करने के उद्देश्य से शायद यहाँ के भाषाविद या प्रबंधनगुरु टूरिस्ट गाइडों के लिए हिन्दी से मिलते-जुलते नामकरण रखने की सलाह देते होंगे। वास्तव में, चाइनीज भाषाविद कितने प्रज्ञावान हैं! प्रोफेसर कुलश्रेष्ठ ने ठीक ही कहा था,चीन,अमेरिका जैसे देश समय रहते हिन्दी के बाजार को समझने लगे हैं, अन्यथा अपने विश्वविद्यालयों में हिन्दी विषय के अध्ययन पर इतना महत्त्व नहीं देते और तो और चीन ने अपने देश में "चिंदुस्तान" जैसी जगह का विकास किया है,जहां न केवल भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया जाता हैं, वरन भारतीय सभ्यता,संस्कृति व रीति-रिवाजों पर भी अनुसंधान किया जा रहा हैं। अवश्य ही, चीन न केवल व्यापार की कलाओं में दक्ष हैं, बल्कि दूरदर्शिता की भी एक पराकाष्ठा हैं उनमें! चीन में भारतीय व्यंजन व भोजन भी मिलता है।
चीन आने से पहले किसी ने कहा था, वहाँ केवल मेंढक,साँप,केंकड़े यहाँ तक कि कीड़े-मकोड़े खाए जाते हैं। ऐसा तो मुझे नहीं लगा। हो सकता हैं, कुछ भारतीय लोग यहाँ आकर बस गए हो और उनके अघुलनशील संस्कार और संस्कृति के प्रति अक्षुण्ण आस्था की वजह से' द गंगा' जैसे भोजनालयों में अभी भी केवल शाकाहारी भोजन बनाया जाता हो। मनपसंद खाना खाकर मन तृप्त भले हो गया था, मगर यात्रा की थकान,कानों में दूर से सुनाई पड़ने वाली साँय -साँय की आवाज और सिरदर्द की प्रबलता से ऐसा लग रहा था,मानो कहीं प्राण न निकल जाएँ। जैसे-जैसे रात गहराती जा रही थी, मेरा कर्णशूल भी उतना ही बढ़ता जा रहा था।अगर तालचेर में होता तो किसी को भी आधी नींद से उठाकर नेहरू शताब्दी हॉस्पिटल ले जाता। मगर यह बीजिंग था। पूरी तरह से विदेश। अपने आपको नए वातावरण में संयमित रखते हुए बिना किसी को कुछ बोले नहा-धोकर सोने का प्रयास किया। पता नहीं कब,नींद की आगोश में समा गया था।मगर सुबह जब उठा, तो सफ़ेद चद्दर और तकिए पर चारों तरफ खून के निशान थे।
स्वपनावस्था या तंद्रावस्था में मैंने कान से कुछ द्रव निकलना अवश्य अनुभव किया था। मगर रक्त की बूंदें? क्या कान का पर्दा फट गया? मगर क्यों? छ घंटे लगातार हवाईयात्रा करने के कारण प्रेशर डिफरेंस की वजह से कान के कमजोर पर्दे में खिंचाव आया होगा, इसी वजह से वह फट गया होगा। सुबह के आठ बज चुके थे, सूरज की किरणें काँच की खिड़कियों से चिपके रंगीन पर्दों के पीछे से फैल रही थी। मानो ऐसा लग रहा था ,जैसे कोई पर्दे के पीछे छुपकर टार्च जला रहा हो। डॉ॰ चौरसिया मेरे रुममेट थे, अभी भी वह सो रहे थे।
मेरे चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई देने लगी थी। शायद ब्रेन हेमरेज का भय। खून क्यों निकला कान से? क्या उच्च रक्तचाप? ऐसी बीमारी तो कभी नहीं थी मुझे। रामपुर कोलियरी में मेरे पड़ोसी डाक्टर शरण को कान फटने की वजह से लकवा मार दिया था । मुझे भी पैरालायसिस हो जाएगा? डॉ शरण का चेहरा याद आने लगा, जब वह संबलपुर के बुरला सरकारी अस्पताल में कोमा की अवस्था में एक बेड पर पड़े सैलाइन लगे सात साल पहले मैंने देखा था। अगर मुझे ऐसा हो गया तो इस कार्यक्रम में भयंकर व्यवधान पड जाएगा। इतनी उम्मीदों के साथ आए हुए साहित्यकारों के लिए मैं एक समस्या बन जाऊंगा और ये लोग मुझे इंडिया कैसे ले जाएंगे? तरह-तरह के नकारात्मक विचार मेरे मन मस्तिष्क में उथल-पुथल करने लगे और कुछ ही समय में आयोजित होने जा रहा था,अंतर-राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का प्रथम सत्र -'उदघाटन-विमोचन-अलंकरण सत्र'।
(क्रमशः अगले अंक में जारी...)
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