- दयाधर जोशी पंचमुखी हनुमान मंगलकरण , अमंगलहरण, सर्वसिद्धिदायक पंच मुखी हनुमानजी का अवतार मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को मंगल के दिन पुष्य ...
- दयाधर जोशी
पंचमुखी हनुमान
मंगलकरण, अमंगलहरण, सर्वसिद्धिदायक पंचमुखी हनुमानजी का अवतार मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को मंगल के दिन पुष्य नक्षत्र, सिंहलग्न में हुआ था। कहा जाता है कि एक पाँच मुंह वाले भयानक राक्षस ने घोर तपस्या की और ब्रह्माजी से वरदान मांगा कि मैं उसके द्वारा ही मरुं, जिसका रुप मेरे जैसा हो। ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर वरदान दे दिया। वरदान प्राप्त करने के बाद यह पंचमुखी राक्षस भयानक उत्पाती बन गया। इस राक्षस के उत्पात से सभी परेशान हो गये। सभी देवताओं ने मिल कर भगवान से प्रार्थना की कि इस भयंकर राक्षस के उत्पातों से सभी को शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा मिले, ऐसा उपाय अविलम्ब सुनिश्चित किया जाए। भगवान ने हनुमान जी को बुलाया। भगवान की आज्ञा पाकर वे तुरन्त उस राक्षस के पास गये। राक्षस को देखते ही उन्होंने विराट पंचमुखी रुप धारण कर लिया और वे पांच अवतारों की अपार शक्ति से ऊर्जावान हो गये। उन्होंने उस पांच मुँह वाले भयंकर राक्षस का संहार कर दिया। हनुमानजी के इस पंचमुख स्वरुप में पांच मुख, पंद्रह नेत्र व दस भुजाएँ शोभायमान हैं।
इस दिव्यस्वरुप में इनका उत्तरदिशा की ओर का मुख सूकर का है, जो 'वराह अवतार' की शक्ति को प्रदर्शित करता है। जो जल में डूबी हुई धरती का उद्धार करने के लिये प्रकट हुए थे। इनका दक्षिण की ओर का मुख 'नृसिंह भगवान' का है। भगवान का नृसिंह अवतार प्रहलाद की रक्षा एवं हिरण्यकशिपु के संहार के लिये हुआ था। इनका पूर्व की ओर का मुख बहुत ही विकराल वानररुप है व पश्चिम की ओर का मुख गरुड़ का है। इनका उर्ध्वमुख घोड़े का है, जो भगवान के 'हयग्रीव अवतार' को दर्शाता है।
भगवान ने ब्रह्माजी की प्रार्थना पर वेदों का उद्धार करने के लिये 'हयग्रीव स्वरुप' धारण किया था। देवी भागवत के अनुसार हयग्रीव नाम के एक भयंकर दैत्य ने वरदान माँगा था कि मेरी मृत्यु उसके हाथ से हो जो स्वयं हयग्रीवस्वरुप हो। इस भयानक दैत्य को मारने के लिये भी भगवान ने हयग्रीव स्वरुप धारण किया था। प@मुखी हनुमानजी का 'वराह स्वरुप'- दानवों, भूत पिशाच, सिंह एवं ज्वर रोगों से मुक्ति प्रदान करता है। नृसिंह स्वरुप - भयनाशक है, भयंकर वानरमुख -समस्त शत्रुओं का नाश कर भक्तों की रक्षा करता है, गरुड़मुख-सभी तरह के सर्पों एवं नागों से रक्षा करता है, भूतप्रेतनाशक है, हयग्रीवमुख -सभी भयंकर राक्षसों का संहारक है। पंचमुखी हनुमानजी की उपासना, नाम-स्मरण और नियमित पूजापाठ करने वाले भक्तों को नृसिंह, वराह, हयग्रीव, गरुड़ और भगवान शिव की उपासना का फल भी प्राप्त हो जाता है।
हनुमानजी का यह सुन्दर स्वरुप इच्छित फलों को देने वाला है, सर्वसिद्धिदायक है। इनकी उपासना करने से आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तापों से मुक्ति मिल जाती है। यह तभी सम्भव है जब उपासना करने वाले का अन्तःकरण शुद्ध हो। पांच अवतारों की शक्ति से ऊर्जावान पंचमुखी हनुमानजी खड्ग, त्रिशूल, खटवांग, पाश, अङ्कुश, पर्वत, स्तम्भ, मुष्टि, गदा और वृक्ष की डाली जैसे दस आयुधों से सुशोभित, सुसज्जित हैं। गरुड़जी विष्णुलोक में भगवान विष्णु की सेवा में लगे रहते हैं, भगवान विष्णु के वाहन हैं। इनकी पीठ पर भगवान विष्णु विराजमान होते हैं। गरुड़जी कश्यपमुनि के पुत्र हैं। इनकी माता का नाम वनिता है। कश्यप मुनि की दो पत्नियाँ थीं कद्रू और वनिता। कद्रू के एक हजार नाग पुत्र थे। वनिता के दो पुत्र हैं, वरुण और गरुड़। कद्रू और वनिता ने एक शर्त वदी और यह तय किया कि जो हार जायगा, वह विजयनी का दासीत्व स्वीकार करेगा। वनिता यह शर्त हार गई और उसे कद्रू की दासी बनना पड़ा। वनिता ने अपने पुत्र गरुड़ से कहा, 'मुझे इस दासीत्व से मुक्त कराओ।' इस सम्बन्ध में गरुड़ ने नागपुत्रों से बात की तो उन्होंने कहा, 'हमारे लिये स्वर्ग से अमृत लाकर दे दो तो हम तुम्हारी मां को दासीत्व से मुक्त कर देंगे।' गरुड़ ने अपनी मां से आज्ञा ली और अमृत लेने के लिये स्वर्ग पहुँच गये। वहाँ से उन्होंने अमृत प्राप्त कर लिया तो इन्द्र ने उन पर वज्र से प्रहार किया, लेकिन वज्र का उन पर कोई असर नहीं हुआ। यह सब देख कर इन्द्र ने गरुड़ को अपना मित्र बना लिया और सर्पभक्षी होने का वरदान दे दिया।
स्वर्ग से अमृतघट लाकर गरुड़ ने उसे नागों को सौंप दिया। गरुड़ की माता वनिता दासीत्व से मुक्त हो गयी। नाग अमृत पान नहीं कर सके, क्योंकि इन्द्र अमृतघट को उठा कर वापस स्वर्ग ले गये। कहते हैं, जब गरुड़जी अमृत ला रहे थे तो कुछ अमृत छलक कर उनके पंखों में गिर गया था, इसलिये उनके पंखों से अमृत टपकता है। गरुड़जी और हनुमानजी के बीच जो समानताएँ हैं उन्हें बताने के लिये ही यहां गरुड़जी का
विशेष उल्लेख किया गया है। वनितानन्दन गरुड़ पक्षी श्रेष्ठ हैं, पक्षीराज हैं, महावीर हैं, महावेग हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार गरुड़ के दोनों पंखों में जितना बल है उतना ही बल हनुमानजी की दोनों भुजाओं में भी है लेकिन हनुमानजी का तेज और विक्रम गरुड़ से बढ़ कर है। हनुमानजी गरुड़ की तरह ही
तीव्रगामी हैं, महावेग हैं, बल, बुद्धि, तेज और धैर्य में सब प्राणियों से बढ़ कर हैं। गरुड़जी वैकुण्ठधाम में विष्णु के वाहन हैं, सेवक हैं, तो हनुमानजी इस भवसागर में प्रभु श्रीराम के सेवक हैं। सुग्रीव के सचिव हनुमानजी जब विप्ररुप धारण कर श्रीराम लक्ष्मण से मिले तो उन्होंने अपने स्वामी को पहचान लिया और दोनों को अपनी पीठ पर बैठा कर सुग्रीव के पास ले गये, बाद में अपनी पीठ पर बैठा कर लंका ले गये। जब इन्होंने श्रीराम-लक्ष्मण को अहिरावण के बंधन से मुक्त कराया तो इन्हें अपनी पीठ पर बठा कर ही वापस लाये। हनुमानजी ने तो प्रभु श्रीरामजी के साथ शेषावतार लक्ष्मणजी के भार को भी अपनी पीठ पर वहन किया है। गरुड़जी ने स्वर्ग से अमृत लाकर अपनी माता को दासीत्व से मुक्त कराया। हनुमानजी ने द्रोणाचल पर्वत से संजीवनी बूटी लाकर मरणासन्न, मूर्छित लक्ष्मणजी के प्राणों की रक्षा की। लंका से वापस लौटते समय प्रभु श्रीराम ने माता अंजना के दर्शनों की इच्छा प्रकट की और पुष्पक विमान को का@नगिरी पर उतारने का आदेश दिया। प्रभु श्रीराम सहित सभी ने माता अंजना का चरण-स्पर्श किया। लेकिन जब हनुमानजी चरण छूने के लिये झुके तो माता पीछे खिसक गई। अंजना माता ने कहा, 'तूने मेरे दूध को लजाया है, तुझे मेरे पैर छूने का अधिकार नहीं है।' मां का प्रतिकूल व्यवहार देखकर हनुमानजी बहुत दुःखी हुए। लक्ष्मण व्यंगात्मक मुस्कान के साथ मन ही मन कह रहे थे माता को अपने दूध का इतना स्वगौरव! माता अंजना ने लक्ष्मण की मुस्कान को देख कर उनके मन के भाव को पढ़ लिया। माता ने सामने के एक विशाल पर्वत पर अपनी दूध की धार छोड़ी तो वह पर्वत टूट कर बिखर गया। हनुमान को मैंने यही दूध पिलाया था। हनुमान के रहते मेरे प्रभु श्रीराम को युद्ध करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? मां के दूध का प्रभाव देख कर चकित लक्ष्मण ने तुरन्त चरण-स्पर्श कर मां से क्षमा मांगी। हनुमानजी ने कहा, 'माते! मैं तो प्रभु का सवे क हूँ, मैंने वही किया जो प्रभु ने कहा। प्रभु श्रीराम का अवतार रावण व अन्य राक्षसों और दुष्टों के विनाश के लिये ही हुआ है। जो लीला उन्हें करनी थी उसे पूरा करने का साहस भला एक सवे क कैसे कर सकता था? आप ही सोचिये, क्या प्रभु की भूमिका एक सेवक निभा सकता है? मैंने हमेशा अपने प्रभु के आदेशों की पालना की है।' प्रभु श्रीराम ने कहा, 'हनुमान का कथन पूर्णसत्य पर आधारित है। इन्होंने सौंपे गये प्रत्येक कार्य को निष्ठापूर्वक पूर्ण किया है। निष्काम सेवाभावी हनुमान ने हमेशा आपके दूध की लाज रखी है।' प्रभु श्रीराम के मुंह से अपने पुत्र की बड़ाई सुन कर मां निरुत्तर हो गयी तो हनुमानजी उनकी चरणों में गिर गये।
गद्गद् होकर माता ने अपने पुत्र हनुमान को गले से लगा कर कहा, 'पुत्र माता से कभी उऋण नहीं होता। तू प्रभु को मेरे द्वार पर लेकर आया है। भगवान जगदीश्वर और माता जगदम्बा के साक्षात् दर्शनों से मैं धन्य हो गई हूँ। प्रभु का सामीप्य पाकर मेरा जीवन सफल हो गया है। हे पुत्र! तूने मेरा ही नहीं, अपना जीवन और जन्म भी सफल कर लिया है, और तू माता के ऋण से उऋण हो गया है।' गरुड़जी ने अपनी माता को दासीत्व से मुक्त करा कर अपना जन्म सफल किया और माता के ऋण से उऋण हो गये। विष्णुलोक में गरुड़ अजर-अमर हैं तो पृथ्वीलोक में हनुमानजी अजर-अमर हैं। इतनी समानताओं के साथ यदाकदा असमानताओं का भी जिक्र होता है -
एक बार श्रीकृष्ण ने गरुड़ से कहा, 'गंधमादन पर्वत जा कर हनुमानजी को लेकर आओ।' प्रस्थान से पहले हनुमानजी का स्तवन करते देख सुदर्शन ने पूछ ही लिया, 'हे महावेग पक्षीश्रेष्ठ! आज हनुमानजी का स्तवन क्यों?' गरुड़ ने उत्तर दिया, 'उन्हें लेने गंधमादन पर्वत जाना है।' सुदर्शन ने गरुड़ से कहा, 'सुना है हनुमानजी पवन से भी अधिक गतिशील हैं और उनकी गति तीनों लोकों में निर्विघ्न है।'
गरुड़ ने कहा, 'हनुमानजी संजीवनी बूटी लेने गये। अर्धरात्रि तक लौट कर नहीं आये तो प्रभु श्रीराम बेचैन हो गये। उस समय उनकी निर्विघ्न गतिशीलता को क्या हो गया था? मेघनाद ने उन्हें बंदी बनाया, रावण ने हंसी उड़ाई, रावण की भरी सभा में राक्षसों ने उनका अपमान किया, लातघूँसों से मारा, पूंछ में आग लगा दी। तब कहां खो गया था उनका अतुलित वेग, बल और पराक्रम?' सुदर्शन मन ही मन सोचते हैं, यह गरुड़ का अभिमान है या बड़बोलापन है! सुदर्शन ने हंसते हुए कहा, 'गरुड़ तुम सही कह रहे हो। वास्तव में हनुमान तुम्हारे बल और वेग की बराबरी कर ही नहीं सकते। तुम्हारा बल और वेग उनसे अधिक है।' संवाद के समय सुदर्शन को हँसता देख कर, गरुड़ को हनुमानजी का वह विराटस्वरुप और अट्टहास का स्मरण हो आया जो उन्होंने महाबली भीम को दिखाया था। गरुड़ हनुमानजी के पास पहुँचे, उन्हें प्रणाम किया और कहा, 'द्वारिकाधीश ने आपको तुरन्त बुलाया है।'
हनुमानजी ने बहुत ही विनम्र होकर कहा, 'प्रभु से कहना मैं शीघ्र आ रहा हूँ।' गरुड़ ने अपने अभिमान का प्रदर्शन करते हुए कहा, 'प्रभु की आज्ञा है कि मैं तुम्हें अपनी पीठ पर बैठा कर तुरन्त उनके पास ले चलूँ।' हनुमानजी पूजा-पाठ में विघ्न को सहन नहीं कर सकते हैं। उन्होंने कहा, 'मैं पूजापाठ समाप्त कर शीघ्र ही प्रभु के पास पहुँच जाऊँगा।' गरुड़ ने कहा, 'आपको मेरे साथ ही चलना होगा। विलम्ब होने पर प्रभु नाराज हो जायेंगे।' विनम्र हनुमान के लिये पूजापाठ में किया जा रहा व्यवधान असह्य हो गया। व्यवधान उत्पन्न कर रहे अभद्र गरुड़ को उन्होंने पर्वत के नीचे समुद्र में फेंक दिया। चोट के कारण गरुड़ को मूर्छा आ गयी। हनुमान प्रभु के पास पहुँचे, चरणों में गिर कर उन्हें प्रणाम किया। प्रभु ने पूछा, 'तुम्हें अन्दर आने में किसी ने रोका तो नहीं?' हनुमान ने कहा, 'रोका था प्रभु, मैंने उन्हें बताया कि प्रभु ने मुझे याद किया है। मैं हनुमान हूँ, मुझे प्रभु के दर्शनों से वंचित मत करो। मेरी अनुनय-विनय का उन पर कोई असर नहीं हुआ तो मैं उन्हें अपनी पूँछ में लपेट कर आपके पास ले आया हूँ।' प्रभु के कहने पर उन्होंने सुदर्शन को छोड़ दिया और धृष्टता के लिये माफी मांगी। तभी गरुड़ ने प्रभु के कक्ष में प्रवेश किया और कहा, 'प्रभो! हनुमान कुछ देर में आ रहे हैं।' इतने में गरुड़ की नजर हनुमानजी पर पड़ गयी। शारीरिक पीड़ा के कारण बल का व दरे से पहुँचने के कारण गरुड़ का अतितीव्रगामिता का अभिमान चूर-चूर हो गया।
हनुमान जी ने गरुड़ से कहा, 'जो कुछ भी हुआ उसके लिये क्षमा चाहता हूँ।' हनुमानजी गरुड़ के चरण छूने लगे तो गरुड़ ने उन्हें रोकते हुए कहा, 'क्षमाप्रार्थी तो मैं हूँ, क्योंकि मेरे अभिमान को चूर-चूर कर आपने मुझ पर बहुत बडा़ उपकार किया है।' सर्वशक्तिमान होते हुए भी निरीह एवं निरभिमान हैं, हनुमान।
काले हनुमान
सम्पूर्ण भारत में प्रत्येक हिन्दू, श्रीहनुमानजी की आराधना बहुत श्रद्धा से करता है। विदेशों में निवास करने वाले हिन्दू परिवार भी हनुमानजी की पूजा उपासना करते हैं। देश के प्रायः सभी गाँवों, कस्बों और शहरों में हनुमान मंदिर हैं। भव्य श्रीराम मंदिरों में तो हनुमानजी के दर्शन होते ही हैं, लेकिन इस देश में भव्य हनुमान मंदिरों की संख्या भी कम नहीं है। भारत के बाहर सुदूर देश इंडोनेसिया, मलेशिया, कम्बोडिया, लाआसे , लंका, बर्मा, थाइलैंड, बाली द्वीप, नेपाल एवं चीन के निवासी भी हनुमानजी के उपासक हैं। हनुमानजी के प्रति श्रद्धा, प्रगाढ़ निष्ठा व सम्मान की भावना प्रत्येक हिन्दू के मन में समाहित है। सच्चा हनुमान भक्त हनुमानजी के अर्चा-विग्रह का दर्शन करना चाहता है। उनके चारू-चरित्र की जानकारी प्राप्त करना चाहता है। उनके चारू चरित्र को अपने जीवन का आदर्श बनाना चाहता है, हृदयंगम करना चाहता है। बुद्धि एवं कौशल के निधान श्रीहनुमान साक्षात् सद्गुरूरूप हैं, जो हमेशा सत्य के मार्ग को अपनाने की शिक्षा प्रदान करते हैं। आपत्ति के समय सच्चे मन से स्मरण करते ही ये आपत्ति का हरण कर लेते हैं।
हनुमानजी संसार के सभी दुःखी प्राणियों का उद्धार करने वाले "जाग्रत देवता" हैं। हम पूजा-पाठ की विधि नहीं जानते। हमें भक्ति का ज्ञान भी नहीं है। लेकिन यदि हम निर्मल मन से हनुमानजी के गुण समूहों का गान करते हैं तो वे हमारी पुकार को सुनते हैं, हमें मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। जिस पर हनुमानजी कृपा करते हैं उस पर सभी देवताओं की कृपा हमेशा बनी रहती है। अधिकतम अर्चा-विग्रहों में हनुमानजी एक हाथ में चमत्कारी गदा व दूसरे हाथ में द्रोणाचल पर्वत लिये हुये होते हैं। इनका शरीर श्वते रंग का भी हो सकता है लेकिन मुख रक्त वर्ण ही होता है। हनुमानजी के लगभग सभी अर्चा-विग्रहों को शुद्ध घृत मिश्रित सिंदूर से अनुलेपन व चोला चढ़ाने की परम्परा है। नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले हनुमानजी को सिन्दूर अनुलेपन के समय शुद्धता का विशेष ध्यान रखना चाहिये। सिंदूर अनुलेपन के कारण हनुमानजी के अर्चा-विग्रह को "सिन्दूरारण विग्रह" भी कहते हैं। प्रत्येक गाँव और नगरों में हनुमानजी का अर्चा-विग्रह अवश्य होगा। क्योंकि ये गाँवों और नगरों के नगरग्रामपालश्रच् भी हैं।
यहाँ हनुमानजी के कुछ अलग स्वरूप धारण किये हुये वैशेषिक अर्चा-विग्रहों का विवरण-प्रस्तुत है-
एक हाथ में तलवार व दूसरे हाथ में काम-विजय ध्वज-हनुमानजी का यह अर्चा-विग्रह जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) के मुख्य मार्ग पर स्थित भव्य हनुमान मंदिर में स्थापित है। कहते हैं, जब कामदेव (मकरध्वज) ने इस क्षेत्र में प्रवेश का प्रयास किया तो उन्हें नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले हनुमानजी से युद्ध करना पड़ा। कामदवे पराजित हो गये। हनुमानजी के हाथ में जो ध्वज है, वह काम-विजय का प्रतीक है। इस अर्चा-विग्रह का दर्शन करने वाले प्रत्येक भक्त का हृदय काम-भाव से मुक्त हो जाता है। इसलिये इन्हें "मकरध्वज हनुमान" कहते हैं। काशी में "श्री संकट मोचन हनुमान"-दाहिने हाथ से अपने भक्तों को अभयदान कर रहे हैं। उनका बायाँ हाथ उनके हृदय पर स्थित है। जिसके दर्शनों का सौभाग्य सर्वांग स्नान के समय पुजारी को ही प्राप्त होता है। भक्तों को इस हाथ के दर्शन नहीं होते हैं।
चूरू जनपद (राजस्थान) के ग्राम सालासर में हनुमानजी का बहुत ही प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर में सोने के सिंहासन पर "दाढ़ी मूँछ वाले हनुमान जी" विराजमान हैं। तीर्थराज प्रयाग में त्रिवेणी संगम के पास स्थित भव्य मंदिर में हनुमानजी की मूर्ति पृथ्वी पर
शयित है। इसलिये इन्हें "भूशायी हनुमान" कहते हैं। वाराणसी में हनुमान फाटक में हनुमान जी का चित्ताकर्षक "बालरूप अर्चा-विग्रह" है, जिसकी प्रतिष्ठा स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी ने की थी। हनुमानजी के बालरूप अर्चा विग्रह प्रायः देखने में नहीं आते हैं।
सिंहासन सहित हनुमानजी के अर्चा-विग्रह की ऊँचाई लगभग बीस फुट है। यह अर्चा-विग्रह कन्याकुमारी से उत्तर में शुचीन्द्रम के भव्य मंदिर में स्थापित है। इन्हें "कनक भूधराकार हनुमान" कहते हैं। हनुमानजी का यह स्वरूप सीता माता ने अशोक वाटिका (लंका) में देखा था। नासिक (महाराष्ट्र) में "दो मुँह वाले हनुमान" का विशाल अर्चा-विग्रह है। इनका एक मुख पूर्व की तरफ व दूसरा मुख पश्चिम की तरफ है। इनके एक हाथ में गदा है व दूसरा हाथ ऊपर की तरफ उठा हुआ है। इनके पैरों के नीचे एक राक्षस पड़ा हुआ है। नासिक (महाराष्ट्र) से लगभग २९ कि.मी. दूर त्रयम्बकेश्वर में "दस हाथ वाले हनुमानजी" का
अर्चा-विग्रह है इन्हें "दशभुजी हनुमान" कहते हैं। सुदामापुरी, पोरबंदर (गुजरात) में "एकादशमुखी हनुमानजी" का अर्चा-विग्रह है। इस अर्चा-विग्रह के ग्यारह मुख, बाइस हाथ और दो पैर हैं। कहते हैं, हनुमानजी ने यह स्वरूप अहिरावण के वध के समय प्रकट किया था। हिमालय की टिहरी जनपद में त्रियुगीनारायण के पास पर्वत पर "वीर हनुमान" का मंदिर है। यहाँ, हनुमानजी के बायें हाथ में नंगी तलवार है और दाहिने हाथ में गदा है लेकिन इनका मुख सामने नहीं है।
इस अर्चा-विग्रह में बायाँ हाथ और दाहिना अंग ही दिखायी देता है। पूना में गणेश पीठ के "डुल्या मारूति" की पश्चिमाभिमुख पाँच फीट ऊँची काले पत्थर पर उत्कीर्ण अर्चा-विग्रह है। यह अर्चा-विग्रह काले पत्थर पर उत्कीर्ण क्यों है? क्या ये वास्तव में कृष्णायसवर्ण (काले) हनुमान हैं? हनुमानजी के कृष्णायस वर्ण को जानने से पहले हमें शनि देव और हनुमानजी से सम्बन्धित रोचक प्रसंग को पाठकों के सामने रखना होगा। सूर्यपुत्र शनि कहते हैं- "मेरी शक्ति अतुलनीय है। मैं सूर्य का परम तेजस्वी एवं अत्यन्त पराक्रमी पुत्र हूँ। मेरी अतुलनीय शक्ति के कारण बलवान देवता, दैत्य एवं अत्यन्त वीर पुरूष भी काँपने लगते हैं।" सूर्य पुत्र शनि अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहते हैं। सूर्यदेव अस्ताचल की ओर बढ़ रहे हैं। संध्या होने को है। रामसेतु के समीप हनुमानजी अपने प्राणाराध्य प्रभु श्रीराम के ध्यान में मग्न हैं। शनि एक भयानक आकृति की तरह हनुमानजी की तरफ बढ़ रहे हैं। हनुमानजी के पास पहुँचते ही शनि बहुत ही अहंकारपूर्ण, कटुवाणी में बोले-"हे वानर! परम् शक्तिशाली शनि तुम्हारे सामने खड़ा है। ध्यानावस्था का पाखंड छोड़ो और मुझसे युद्ध करने के लिये तैयार हो जाओ।" हनुमानजी ने आँखें खोली और बहुत धीर गम्भीर होकर पूछा-"महाराज आप कौन हैं? यहाँ किसलिये पधारे हैं? आप मुझसे युद्ध क्यों करना चाहते हैं?"
शनि ने पुनः बहुत ही कटु शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा- "मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा लेने आया हूँ। मैंने सुना है तुम बहुत बलवान हो। तुम्हारे बल की थाह पाने के लिये मैं तुम्हारी राशि पर आ रहा हूँ, इसलिये तुम्हें सावधान कर रहा हूँ। तुम्हारे बल-पौरूष की बहुत सी गाथा" मैंने भी सुनी हैं। यदि तुम वास्तव मे अतुलित बल के धाम हो तो मुझसे युद्ध करके देखो।" निरभिमान हनुमानजी ने बहुत विनम्र होकर कहा-"हे परम पराक्रमी शनि! मैं बूढ़ा हो गया हूँ। सदैव अपने प्रभु का ध्यान-स्मरण करता रहता हूँ। इस कार्य में कोई विघ्न मेरे लिये असहनीय हो जाता है। मुझे प्रभु का ध्यान करने दीजिये। मरे े कार्य में व्यवधान मत डालिये। आप कहीं अन्यत्र जाकर किसी अतुलनीय शक्ति सम्पन्न के साथ युद्ध कर शक्ति परीक्षण कीजिये। मेरे नम्र निवेदन को स्वीकार कीजिये और यहाँ से चले जाइये।"
शनि ने हनुमानजी से कहा-"तुम बहुत डरपोक हो। तुम्हारी दीनहीन दशा को देखकर मुझे दया आ रही है। कुछ भी हो जाए, मैं तुम्हारे बल पौरूष की परीक्षा अवश्य लूँगा।" दुष्टों एवं राक्षसों के प्राणान्तक हनुमानजी के हाथ को पकड़ कर शनि ने युद्ध के लिये ललकारा। हनुमानजी ने शनि से कहा- "मुझसे युद्ध करके आप क्या प्रमाणित करना चाहते हैं?" उन्होंने अपना हाथ छुड़ा लिया। अहंकारी शनि ने पुनः उनका हाथ पकड़ कर जोर से खींचा। हनुमानजी को क्रोध आ गया। उन्होंने मन ही मन सोचा, यह दुष्ट ग्रह मेरी राशि पर आना चाहता है! दुष्ट ग्रहों के निहन्ता हनुमानजी ने अहंकारी शनि को अपनी पूँछ में लपेट लिया। रामसेतु की परिक्रमा का समय हो गया था। वे अपनी पूरी शक्ति के साथ दौड़ लगा कर परिक्रमा करने लगे। परिक्रमा करते समय अपनी पूँछ को बार-बार जारे से पत्थरों पर पटकते। अपने आप को परम तेजस्वी, परम पराक्रमी कहने वाले अहंकारी शनि बंधन से मुक्ति पाने का प्रयास करते रहे। लेकिन उनकी शक्ति ने उनका साथ नहीं दिया।
बंधन की पीड़ा, शिलाखण्डों की चोट से परेशान, लहू-लुहान शनि देव कराहने लगे। शारीरिक पीड़ा के कारण अहंकारी, उदण्ड शनि भयभीत होकर कातर स्वर में पुकार करने लगे। "हे महावीर! हे मर्कटाधीश! मुझे मुक्त कीजिये। मेरा शरीर लहू-लुहान हो गया है। मेरे शरीर में असह्य पीड़ा हो रही है।" कुमति का निवारण कर सुमति का साथ देने वाले शरणागतवत्सल हनुमानजी को दया आ गयी। उन्होंने शनि से कहा-"तुम मुझे वचन दो कि तुम मेरे भक्तों की राशि में कभी नहीं आओगे। यदि तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें इससे भी कठिन यातना भुगतनी पड़ेगी।" शनि ने कहा- "मैं आपको वचन देता हूँ, आपके भक्तों की राशि पर कभी नहीं आऊँगा।" हनुमानजी ने शनि को बंधन से मुक्त कर दिया। शनि ने अहंकार का त्याग कर दिया और निरभिमान होकर न्याय के देवता बन गये। उन्होंने हनुमानजी को प्रणाम किया। असह्य पीड़ा से पीड़ित शनि देव बार-बार अपने शरीर को सहला रहे थे। उन्होंने बहुत ही विनम्र होकर हनुमानजी से तेल माँगा। निरभिमान हनुमान जी ने उनके शरीर पर तेल का लेप कर दिया। शनि दवे वहाँ से विदा हो गये। रास्ते में जिसने भी उन्हें तेल दिया या उनके शरीर पर तेल का लेप किया, उसे वे दिल से आशीर्वाद देते रहे। तेल का लेप करने से उनके घाव भर गये। शारीरिक पीड़ा दूर हो गई। कहते हैं, तभी से शनि देव को तेल चढ़ाया जाता है। भक्त, हनुमानजी का स्मरण कर, शनि देव को तेलाभिषेक करे तो शनि देव अपने सभी भक्तों को आशीर्वाद देते हैं, उनके सभी कष्टों का निवारण करते हैं। शनि दवे न्याय के देवता हैं, निरभिमान हैं और अपने सभी भक्तों को न्याय प्रदान करते हैं।
हनुमानजी का वर्ण कैसा है? इसका स्पष्ट उत्तर यही है कि हनुमान जी का स्वर्ण वर्ण निर्विवाद है। यह सुन्दर प्रभा उन्हें भगवान सूर्य ने प्रदान की है। हनुमानजी का वर्ण उद्दीप्त स्वर्ण के समान है। इन्हें "लालदेह" भी कहते हैं।
मुखं नासिकया तस्य ताम्रया ताम्रमाबभौ। संध्यया समभिस्पृष्टं यथा स्यात् सूर्यमण्डलम्।। बा.रा ५/१/६०
लाल नासिका के कारण हनुमानजी का मुख लालिमा से युक्त संध्याकालीन सूर्यमण्डल के समान रक्त वर्ण है। इनके मुख को ताम्र के समान लाल भी कहा गया है। इनके मुख की तुलना मूँगे के रंग से भी की गई है। अतः यह बात सुस्पष्ट है कि हनुमानजी का मुख उदयकालीन सूर्य के समान रक्तवर्ण है व इनके नेत्र करूणारस से परिपूर्ण हैं। पूना में गणेश पीठ के "डुल्या मारूति" कृष्णायस वर्ण क्यों हैं? "हनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्र" में हनुमानजी को स्वर्णवर्ण, रूक्मवर्ण और नीलवर्ण भी कहा गया है। रूक्म का अर्थ है स्वर्ण। रूक्म लौह को भी कहते हैं। रूक्मवर्ण के अनुसार हनुमानजी का वर्ण कृष्णायस भी है। हनुमानजी के कृष्णायस वर्ण को समझने के लिये हमें हनुमानजी और शनिदेव के विषय में प्रचलित रोचक प्रकरण को समझना होगा। काले हनुमानः- चाँदी की टकसाल, जयपुर (राजस्थान) में काले हनुमानजी का भव्य मंदिर है। अधिकतम मंदिरों में हनुमानजी के अर्चा विग्रह मानुष हैं, भक्तों के द्वारा प्रतिष्ठित हैं। चाँदी की टकसाल स्थित काले हनुमानजी की चित्ताकर्षक मूर्ति स्वयंव्यक्त है। काले हनुमानजी के चरणों के पास हनुमानजी का सिन्दूरारण विग्रह भी स्वयंव्यक्त ही बताया जाता है। कहते हैं, त्रैलोक्य विजयी रावण ने सूर्य पुत्र शनि को बंदी बना रखा था। मर्कटाधीश के पैर के आघात से बंदीग्रह की दीवार टूट गयी। शनिदवे बंधन से मुक्त हो गये। बंधन मुक्त होते ही क्रोधित शनिदेव के तेज की छाया हनुमानजी के शरीर पर पड़ी और उनका वर्ण काला हो गया। यह बात वास्तव में मनन करने योग्य है।
हनुमानजी ने शनिदेव के दर्शन किये और उन्हें रावण की काली करतूतों से अवगत कराया। "शनिदेव ने हनुमानजी से कहा-"हे परमवीर हनुमान! मैं आपका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। आपकी इस कृपा से मैं उऋण नहीं हो सकता। आपकी इस कृपा के लिये मैं सदा आपका उपकृत बना रहूँगा।" शनिदेव ने हनुमानजी को आशीर्वाद दते े हुए कहा-"अब लंका का विनाश सुनिश्चित है।" देखते ही देखते समूची लंका जल कर राख हो गयी। लेकिन अशोक वाटिका और विभीषण के घर को किसी भी तरह का नुकसान नहीं हुआ। लंकावासियों ने हनुमानजी की पूँछ में आग लगा दी और उन्होंने पूरी लंका को आग के हवाले कर दिया। क्या इन आग की लपटों के कारण हनुमानजी का वर्ण कृष्णायस हो गया था? लंका प्रस्थान से पहले प्रभु श्रीराम ने पाप, ताप और माया को मिटा देने वाले अपने कर-कमल हनुमानजी के मस्तक पर रख कर उन्हें आशीर्वाद दिया। इसके बाद उन्होंने समुद्र लंघन किया। उन पर प्रभु श्रीराम की कृपा यथावत बनी हुई थी। सीता माता की पातिव्रत्य की अमित शक्ति के प्रभाव से अग्निदेव, हनुमान जी के लिये शांत एवं शीतल हो गये, लेकिन लंका के विनाश के लिये अग्नि की ज्वाला भंयकर रूप धारण करती रही। पवन दवे से मित्रता के कारण अग्निदेव अतिशीतल हो गये। पवनदेव की कृपा से वायु अग्नि की लपटों को उनके शरीर से बहुत दूर रख रही थी। हनुमानजी की पूँछ का आघात वज्रपात के समान था। एसे ी पूँछ पर अग्नि का प्रभाव सम्भव ही नहीं था। उनके शरीर का एक रोम भी नहीं जला। एसे े में अतिशीतल अग्नि की लपटों के कारण उनके शरीर का वर्ण काला कैसे हो सकता है!
लंका-दहन के समय हनुमानजी राक्षसों के लिये कालस्वरूप हो गये थे। जो भी राक्षस वीर उनके सामने आया, बुरी तरह झुलस कर व्याकुल हो गया। रावण ने मेघों को वर्षा कर, आग बुझाने का आदेश दिया। लेकिन वर्षा का जल घृत बन कर अग्नि को और प्रज्वलित करने लगा। जो अग्नि हनुमानजी के लिये शीतल बनी हुयी थी वही अग्नि लंका का विनाश कर रही थी। रावण घबरा गया। उसने यम और लोकपाल को भेजा। लोकपाल, पराक्रमी हनुमानजी की पूँछ की चोट को सहन नहीं कर सके और प्राण बचा कर भाग छूटे। हनुमानजी ने यम को अपने मुँह में रख लिया। यम की अनुपस्थिति में मृत्यु सम्भव नहीं हो सकती। यम नहीं होंगे तो सृष्टि की सारी व्यवस्था अव्यवस्थित हो जायेगी। इसे ध्यान में रखते हुए ब्रह्माजी ने हनुमानजी से निवेदन किया तो उन्होंने यम को मुक्त कर दिया। भयभीत यम ने मन ही मन संकल्प ले लिया, कि भविष्य में, मैं प्रभु के अनन्य भक्तों के समीप नहीं जाऊँगा। यम को अपने मुँह में रखने वाले हनुमान जी अग्नि की शीतल लपटों से काले हो सकते हैं? इसका स्पष्ट उत्तर होगा, कदापि नहीं।
शनिदेव के तेज की छाया हनुमानजी के शरीर पर पड़ी तो उनका वर्ण काला हो गया, ऐसा विवरण-प्रस्तुत करने में संकोच भी हो रहा है।
"विभीषणकृत हनुमत्स्तोस्त्र" में हनुमानजी के मुख को श्याम वर्ण बताया गया है-
नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारूतसूनवे। नमः श्रीरामभक्ताय श्यामास्याय च ते नमः।।
हे हनुमते! हे मारूति नन्दन! हे श्रीराम के परम भक्त आपको नमस्कार है, आपको अभिनन्दन है। आपके मुख का वर्ण श्याम है। आपको नमस्कार है।
श्री विखनस (ब्रह्माजी) द्वारा प्रचलित वैखानस सम्प्रदाय अति प्राचीन है। इस सम्प्रदाय के प्रणेता, स्वयं ब्रह्माजी थे। ब्रह्माजी के पुत्र एवं शिष्य महर्षि मरीचि ने "विमानार्चनकल्प" नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रंथ में हनुमानजी के शरीर के वर्ण को काला एवं उनके चारूवेश को श्वेत रंग का बताया गया है। यह सम्प्रदाय श्वते चारूवेश धारित काले वर्ण के हनुमानजी की उपासना करता है। चाँदी की टकसाल, जयपुर स्थित काले हनुमानजी के कृष्णायस वर्ण के सम्बन्ध में कहा जाता है कि, त्रैलोक्य विजयी रावण ने शनिदवे को बाँध कर लंका के मुख्य द्वार पर अधोमुख लटका दिया था। हनुमानजी जब उन्हें छुड़ाने के लिये गये तो क्रोधित शनिदेव के तेज की छाया उनके शरीर पर पड़ी और वे कृष्णायस वर्ण हो गये। हनुमानजी ने शनिदेव के प्राणों की रक्षा की। शनिदेव ने हनुमानजी से कहा-"आपने मुझ पर जो उपकार किया है उससे मैं आजीवन उऋण नहीं हो सकता। मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, इसलिये मैं अपना साप्ताहिक वार, शनिवार आपको सौंपता हूँ। मंगलवार और शनिवार के दिन जो भक्त निर्मल मन से आपकी उपासना करेंगे, मैं उनकी राशि में नहीं जाऊँगा। सभी भ्रमणशील ग्रह विभिन्न राशियों में प्रवेश कर मनुष्य को शुभ और अशुभ फल प्रदान करते रहते हैं। जिन व्यक्तियों के लिये मरे ी ढय्या या साढ़ेसाती अशुभ फलदायी है, यदि वे सभी मंगलवार और शनिवार को आपकी उपासना करेंगे तो उन्हें सभी तरह के मानसिक और शारीरिक कष्टों से छुटकारा मिल जायगा।" शनि और राहु-केतु की प्रतिकूलता से छुटकारा पाने के लिये मंगलवार और शनिवार को काले हनुमानजी के दर्शन कर, उनकी उपासना करनी चाहिये। काले हनुमानजी की उपासना के साथ ही यदि शनिवार के दिन शनिदेव का तेलाभिषेक किया जाए तो सभी कष्टों का समाधान अतिशीघ्र हो जाता है। कैसे हैं हमारे हनुमान!
जन्ममृत्युभयघ्नाय सर्वक्लेशहराय च। नेदिष्ठाय प्रेतभूतपिशाचभयहारिणे।।
यातनानाशनायास्तु नमो मर्कटरूपिणे। यक्षराक्षसशार्दूल सर्पवृच्श्रिकभीहृते।।
जन्म-मृत्युरूपी भय के विध्वसंक, सम्पूर्ण क्लेशों के विनाशक, भूत, प्रेत और पिशाच के भय के निवारक, पीड़ा का निवारण करने वाले, यक्ष, राक्षस, सिंह, सर्प एवं बिच्छू के भय को मिटाने वाले, प्रभु श्रीराम के परम भक्त वानररूपधारी हनुमानजी को नमस्कार है। जो बच्चे भूत, प्रेत आदि बाधाओं से पीड़ित हों, जिन्हें नजर लग गयी हो, जो बच्चे अक्सर बीमार रहते हैं उन्हें काले हनुमानजी के मंदिर में झाड़ा लगाकर तावीज पहनाया जाता है। यहाँ शरारती, उदण्ड एवं हठी स्वभाव के बच्चों को भी झाड़ा लगाया जाता है, बड़ी उम्र की महिलाओं एवं पुरूषों को भी भूत-प्रेत बाधा एवं अन्य जटिल रोगों के लिये झाड़फूक एवं तावीज पहनाये जाने की व्यवस्था सुनिश्चित है। अधिकतम भक्त एकमुखी हनुमानजी की उपासना करते हैं। कुछ भक्त पंचमुखी व एकादशमुखी हनुमानजी की उपासना करते हैं। हनुमानजी के ये सभी अर्चा-विग्रह सिन्दूरारण ही होते हैं। कृष्णायस वर्ण हनुमानजी के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। चाँदी की टकसाल स्थित प्राचीन मंदिर में काले हनुमान जी का अर्चा-विग्रह वैशिष्ट्यपूर्ण अति चमत्कारी और चित्ताकर्षक होने के साथ ही स्वयंव्यक्त बताया जाता है। काले हनुमान सर्वाभीष्टदायक हैं, अपने प्रिय भक्तों को मनोवांछित फल देने वाले हैं।
चाँदी की टकसाल स्थित काले हनुमान जी से लगभग सभी हनुमान भक्त परिचित हैं। जयपुर में ही काले हनुमान जी का एक और मंदिर जो इससे भी प्राचीन एवं भव्य है, जलमहल के सामने, परशुरामद्वारा से पहले, पहाड़ की तरफ जाने वाले रास्ते में स्थित है। इस मंदिर में भी काले हनुमान जी का अर्चा-विग्रह अत्यन्त चित्ताकर्षक एवं चमत्कारिक है। यह स्थान पहाड़ के पास होने से अत्यन्त रमणीय लगता है। मंदिर के पास ही एक विशाल बावड़ी भी है। यहाँ आने वाले भक्तों की मनोकामनाएँ सहज ही पूर्ण हो जाती हैं।
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