तरूण भटनागर जंगल के आदमी और औरत बाहर की आवाज़ सुन चुके थे। आदिम आदमी और आदिम औरत। नग्न आदमी और औरत। ......मित्रों नग्न एक क्रूर शब्द ह...
तरूण भटनागर
जंगल के आदमी और औरत बाहर की आवाज़ सुन चुके थे। आदिम आदमी और आदिम औरत। नग्न आदमी और औरत। ......मित्रों नग्न एक क्रूर शब्द है। बर्बर और कातिलाना। जंगल को देखता हूं तो लगता है, इसे हिंदी से बाहर खदेड़ दिया जाय। ...तो आदमी और औरत। सिर्फ आवाज और पुकार वाले आदमी और औरत, जिनकी भाषा आज भी कहां हो पाई।
बरसों बीते............।
आदमी और औरत के पास बाहर की कई-कई आवाज़ें आने लगीं। पृथ्वी के बहुत से इलाकों की आवाजें जंगल में तैरतीं। वे पूरे साल जंगल में ध्वनियाँ होतीं। पेड़ों, नदियों और आकाश से वे आतीं। आदमी और औरत सुनते। कभी अकेले में औरत उसे गुनती।
उन आवाजों पर वे नाचते। हँसते। दौड़़ लगाते। उदास होते। रोते। चीखते। .............वे आवाज़ें जीवन थीं। बस वे उन आवाजों को समझ भर नहीं पाये थे। वे आवाजें सांसें थीं। कदम-दर-कदम धड़कन। बस वे उनके लिए अबूझ और अभिव्यक्तिहीन थीं। उन आवाजों को उनके लिए कहना नहीं आता था।
बाहर की दुनिया ने कई साल इन्तजार किया। बरसों बीतता इन्तजार। पर जंगल उसकी बात नहीं सुन पा रहा था। आदमी और औरत के लिए बाहरी दुनिया की बात बस आवाजें थीं। सिर्फ आवाजें।
बाहर की दुनिया को कोई और तरीका ईजाद करना था।
एक दिन आदमी और औरत बहुत दूर निकल गये। वे जब-जब एक-दूसरे से टूटकर प्यार करते उनका मन जंगल की अनजान जगहों को जाने का हो आता। वे चलते गये। कई दिन बीते। जहाँ थक कर वे रुके वहाँ एक बड़ा सा पोखर था, थोड़ा सा आकाश और बाकी आकाश को अपनी देह में छिपाये पेड़।
उस चीज को सबसे पहले औरत ने देखा था। वह अक्सर कुछ-न-कुछ ढ़़ूँढ़़ती रहती थी। वह औरत जो थी। पेड़ों के नीचे-नीचे पत्तों से ढ़़ंकी दीमकों की बामियों के दोनों तरफ वहाँ कुछ-कुछ चमकता सा चूर्ण पड़ा था। औरत ने उसे अचरज से घूरा। जंगल में उसने इससे पहले वह चीज़ नहीं देखी थी। उसने कान लगाकर सुना, उसमें से कोई आवाज नहीं आ रही थी। फिर सूँघा, वह गंधहीन था। फिर उसे चाटा..... उसने एकदम से उसे थूक दिया। वह एक ऐसा स्वाद था जिसकी वह अभ्यस्त नहीं थी। एक स्वाद जो इसलिए तीखा और असह्य था क्योंकि वह ठीक से अपरिचित था। अनजाना। अचखा।
जिन चार मूल स्वादों के लिए जीभ बनी है, उसमें से एक अब तक बिना चखा रह आया था। वह जबान पर कभी ठीक से हुआ ही नहीं। वह स्वाद बहुत देर तक उसकी जबान में बना रहा। वह उस स्वाद को भूल ही गई थी। कितना कमतर तो था वह। इतना कम कि जीभ भूल गई थी। जंगल में जब कभी भूले बिसरे उसे उस स्वाद की याद आती, तो वह आदमी की पसीने से तर देह को चाटती। वह बेहद विरला स्वाद था, जो देह के अलावा और कहीं से नहीं आता था।
वे दोनों लौट रहे थे और वह स्वाद अभी-भी औरत की जीभ पर फैल रहा था। औरत को वह स्वाद अब कुछ-कुछ रुचिकर लग रहा था। उसने फिर उस हल्की चमकीली मिट्टी जैसी चीज को चखा। उसने वह आदमी को दिया। धीरे-धीरे वह स्वाद उन्हें जँचने लगा। वे उसके चटोरे होना चाहते थे। वह मीठे से कम चटकारेदार नहीं था।.....दुनिया में एक ही स्वाद है, जो इंसान ने ढ़़ूँढ़़ा और सँभाला बाकी तीन तो पहले से ही थे।
आदमी-औरत की दुनिया में यह नई चीज थी। उन्हें नहीं पता था कि एक परिचित फीकापन कितने दिनों से उनके साथ रह आया था। वे दोनों खुश थे। वे अक्सर उसे चाटते और खुश होकर चिल्लाते। फीकी दुनिया बदलने लगी। काफी दिनों बाद समझ आया कि वह हरचीज का फीकापन दूर कर सकती है। मांस से लेकर मन तक। पानी से लेकर देह तक। आँसुओं से लेकर जंगली फलों तक।
कुछ दिनों बाद जब वह चमकीली मिट्टी जैसी चीज खत्म हो गई तब वे दोनों फिर कई दिनों की यात्रा कर उसे फिर से उसी जगह से ले आये। वे बार-बार लाते रहे। मुट्ठी भर-भर लाते रहे। रहवास में सहेजकर रखते रहे।
पर एक दिन गड़बड़ हो गई।
उन्हें उसकी लत लग गई थी। उन्हें नहीं पता था कि यह नशा है। नशा जो खून में उतर चुका है। जो आँख छिपाकर आत्मा में प्रवेश करता है। कि वे गिरफ्त में हैं। कि स्वाद सबसे बड़ा नशा।
हुआ यूँ कि कई-कई दिनों के बाद दोनों वहां गये थे। वे वहां पहुंचे ही थे कि उन्हें वहाँ ठीक वैसा ही जन्तु दिखाई दिया जो कई दिनों पहले उन्होंने देखा था। हू ब हू उनके ही जैसा, पर कितना तो अलग। औरत घबराकर आदमी की पीठ से चिपक गई। आदमी ने उस बाहरी आदमी की तरफ भाला तान दिया। बाहरी आदमी ने उन दोनों को नहीं देखा था। वह जंगल की पत्तों और पौधों से अटी पड़ी जमीन पर बोरे से निकाल निकालकर वही चमकदार मिट्टी जैसी चीज बिखेर रहा था। आदमी भाला हिलाते हुए जोर से चिल्लाया। बाहरी आदमी डर कर एकदम खड़ा हो गया। उसने पल भर को उन दोनों को देखा। एक झटके में बोरे को वहाँ पटका और भाग खड़ा हुआ। औरत ने जल्दी से उस चूर्ण को अपनी मुट्ठियों में भरा। आदमी उस तरफ भाला ताने रहा जहाँ से वह बाहरी आदमी गया था। थोड़ी देर बाद दोनों लौटने लगे। उन्हें नहीं पता था कि बहुत दूर झाड़ियों में छुपे उस बाहरी आदमी ने औरत को वह पदार्थ मुट्ठी में भरते हुए देख लिया था।
कहते हैं बाहरी आदमी बहुत पहले से यहाँ आता रहा। उस समय से जब बस्तर में एक अंग्रेज रहता था। अंग्रेज को पता था कि जंगल का मामला एक दूसरी दुनिया का मामला है। एक ऐसी दुनिया जो धरती पर नहीं। इसलिए उन चीजों से काम नहीं चलेगा जिनसे यह दुनिया चलती है। उसने अपने मुलाजिमों से कहा था कि अगर जंगल को गुलाम बनाना है तो पहले जंगली जानवरों को जानना-पहचानना पड़ेगा। उन दिनों वन विभाग एक नया-नया विभाग था। दुनिया में अंग्रेजों के पास अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में ऐसे बहुत से देश थे जहाँ बस्तर से कहीं ज्यादा सम्पन्न जंगल थे। इसलिए उन्हें बस्तर के जंगलों की उस तरह जरूरत नहीं थी जिस तरह खनिज, मसाले और चाय वगैरा की। वे जंगल की चिन्ता नहीं करते थे। वह अंग्रेज पहला ऐसा आदमी था जिसने इस जंगल को झाँक कर देखने की कोशिश की। जाने किस उम्मीद में चहकती आँखों से वह अंगरेज दुनिया के हर तिक्त और अनजान कोनों को झाँकता रहता था। झाँकने के बाद अंगरेज बहुत सँभलकर निर्णय लेता है। उस दिन भी उसने निर्णय लिया कि, वन विभाग में जंगली जानवरों का एक अमला बना दिया जाय।
जानवर विभाग के सरकारी मुलाजिम चीतल, साँभर और हिरणों के लिए जंगल में नमक के ढ़़ेले डाल आते। जानवर उसे चाटते। समय बीतता गया। घने जंगलों में नमक डालने की जगह तय सी हो गई। ज्यादातर जगहें जंगलों के बाहरी हिस्सों में थीं। जानवरों को नमक की लत लग गई। तब यह तय नहीं था, कि कौन जानवर ही है और कौन इंसान ही।
जंगल के उन बाहरी हिस्सों में जहाँ तक बाहरी आदमी पिछले पैंतीस सालों में जा पाया था, जानवरों का नमक भी वहीं तक पहुँचा था। आदमी और औरत को नहीं पता था कि वे वहाँ तक चले आये थे जहाँ से थोड़ा आगे जाने पर जंगल खत्म हो जाना था। थोड़ा आगे जहाँ पृथ्वी खत्म होती है। बस दो कदम जहाँ खत्म होता है दावा। बस जरा सा दूर जहाँ खड़ा है आखिरी पेड़ और रुकी है आखिरी हवा। उन्हें नहीं पता था कि जरा सा आगे जाने के बाद जंगल पर से उनका विश्वास हमेशा के लिए उठ जाता।
''सॉल्ट।''
बड़े सरकारी मुलाजिम ने उन्नीस सौ पचपन में मातहत से कहा।
'सॉल्ट।''
लॉर्ड इर्विन ने उन्नीस सौ तीस में डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस से कहा।
''जी, सर नमक।''
''ठीक है। इस तरह जंगल में नमक बिखेरना बंद कर दिया जाय। पहले सांभर, चीतल और हिरणों के लिए नमक की जरूरत पर आवश्यक विचार कर लिया जाय। इस तरह नमक बिखेरने पर होने वाला खर्च भी रुकेगा।''
मुँह में सिगार दबाये बड़़े मुलाजिम ने कहा।
मुँह में सिगार दबाये लॉर्ड इर्विन के सामने
खड़े एक छोटे मुलाजिम ने उन्नीस सौ तेईस के नमक कानून की एक लाइन दिखाई -
'द पर्सन एक्सेप्ट द पर्सन हू इज गैटिंग सैलरी फ्रॉर्म एक्सचेकर ऑफ क्राउन और ऑडर्स बॉय द गवर्नमेंट ऑफ हिज हाइनेस, शैल नॉट कलेक्ट, प्रोड्यूज एण्ड सैल द सॉल्ट। वन हू विल डिसओबे द सैड लॉ और प्रिटेण्ड टू डू सो विल बी पनिशेबल विद अ मैक्जिमम ऑफ सिक्स मंथस् इम्प्रिजिनमेंट एण्ड ए फाईन ऑफ फिफ्टी रूपीज़ और बोथ.......।'
लॉर्ड इर्विन को अचानक ही इस अनाम और अक्रियाशील कानून को जानने की ज़रूरत आन पड़ी थी।
बड़े मुलाजिम ने छोटे मुलाजिम से कहा-
''वहाँ एक दुकान बना दो। नमक की सरकारी दुकान।''
अबूझमाड़ से लगी नारायणपुर की मड़ई साल में एक बार भरती है। मड़ई कैसे शुरू हुई, इसकी एक छोटी सी कहानी है। कहाँ जाता है कि, शुरूआत नमक की एक दुकान से हुई थी। तब वहाँ सिर्फ एक दुकान थी। सरकार की पहली दुकान। तब तक वहाँ घने जंगल थे। उससे थोड़ी ही दूर जंगलों की सीमा टूटती थी। कहते हैं सबसे पहले सिर्फ दो लोग ही उस दुकान आते थे। एक आदमी और एक औरत। आदिम आदमी और आदिम औरत। नग्न आदमी और औरत। .....माफ करें नग्न का प्रयोग एक मजबूरी है। हिंदी में सिकुड़ती गुंजाइश की मजबूरी।
......और फिर महीनों, बरसों बाद कुछ और लोग भी आने लगे। वे बढ़़ते गये। एक अनजाना स्वाद उन्हें खींच ही लाता था। अबूझमाड़ के अनजाने, असंभव ओरों से निकलकर वे बड़ी लम्बी यात्रा करते थे। नग्न और ललचाये। वे बस चलते जाते। बरसों से एक ही जगह जमे कठोर पत्थर, साˇप, बिच्छू, गुहेरा, जंगली जानवर, डूबता-उगता सूरज, काˇटे-झाड़ियाˇ - अनंत पेड़, बीमारी, मौत .......कुछ भी उन्हें रोक नहीं पाता था। वे आते रहे। नमक की दुकानें बढ़़ती गईं। दुकानों पर सरकार का एकाधिकार बना रहा। दुकानों के लिए पेड़ काटे गये। जंगल की जगह मैदान निकल आया। वे आते रहे। जंगल की सीमा पीछे सरक गई। वे टूटकर आते। देर रात तक नाचते। जलती आग के चारों ओर। उनकी आवाजें अब जंगल के बाहर आ चुकी थीं। बाहर की दुनिया उनकी आवाजों को समझना चाहती थीं।
वे जहाก से आते थे वे जगहें आज भी पता नहीं। किसी जगह को अगर पता करना हो तो उसके लिए आपको किसी आदमी और औरत के पैरों के निशान ढ़़ूंढ़़ने होेंगे। अबूझमाड़ के जंगलों में वे निशान आज भी हैं। हर एक निशान। जंगल की छाती पर बेतरह जज्ब।
उसने कहा था एक बार। वह ऑस्ट्रेलिया से आता था। हर साल। हर मड़ई में। वह इथनोलॉजिस्ट था। वह खुद को इथनोलॉजिस्ट कहे जाने पर चिढ़़ता था। वह गोरा लंबा था और उसके सुनहरे मटमैले बाल उसके कंधे पर बेपरवाह झूलते थे। उसके पास से बदबू आती थी, मानो वह कई दिनों से नहाया ना हो। वह हर साल की मड़ई की एक डायरी बनाता था। उसके पास पिछली सोलह मड़ई की डायरियाँ थीं। वह मड़ई में ही रहता था। वह रात को जंगल के लोगों के साथ, उनकी ही तरह अर्धनग्न होकर नाचता। उनके साथ लांदा और सल्फ़ी पीता। वह एकमात्र था, जो उनसे बात कर सकता था। उसके पास उनकी आवाजों के मतलब थे, जो उसने एक डायरी में लिखे थे। जाने क्यों तो वह यहाँ आता था ? पता नहीं ? वह बताता, कि एक माड़िया गीत है, जिसमें उन निशानों का हवाला है। उन निशानों को सही सही पता करने के लिए माड़िया जाननी पड़ेगी और वह गीत भी, जिसमें उन पैरों की आवाज आती है। उनके चलने और ठिठकने, चौंकने और दौड़़ने की आवाज़ और सन्नाटा बोलता है। बरसात का लदबद पानी उन पर से बहता गया और वे बने रहे। समय की परतों के बीच वे निशान आज भी वहां तक जाते हैं जहाँ थोड़ा सा जंगल ठिठक जाता है और पेड़ों के बीच हठात् मिलता है एक रहवास।
'झोंपड़ी से भी आदिम चीज। क्या उसे रहवास भी कह सकते हैं?'
वह पूछता। मैं पूछता कि वह क्यों आता है ? वह बताने की को`ि談談 करता। उसका बताना इतना अस्पष्ट रहा, कि वह अब याद नहीं। वह मेरे 'क्यों' पर अपना 談ब्दको談 टटोलता - '....इट इज़ लाइक ए पज़ल, आई हैवेन्ट साल्वड यट। वन काण्ट बी एबल टू कन्वे द थिंग ही वान्टेड टू कन्वे द मोस्ट। इज़न्ट इट।'
अगर वह मरा नहीं होगा, तो आज भी नारायणपुर की उस मड़ई में जरूर आता होगा।
'हाउ लाกग विल ही वॅाक।'
लॉर्ड इरविन ने डायरेक्टर जनरल आफ पुलिस की आँखों में झाँकते हुए पूछा। उसके माथे पर एक स्थायी लंबी लकीर हमेशा रहती थी और वह कहने से पहले अपने शब्दों को सँभालता थूक गटकता था।
टू हंड्रेड फोर्टी माइल्स सर।'
डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस ने लॉर्ड इर्विन से कहा।
'........बट ही मे नॉट बी एलोन। वैन ही विल स्टार्ट, पीपुल मे ज्वाइन हिम एण्ड.....एण्ड इट कुड बी वैल एज्यूम्ड दैट दे माइट बी थाउजेंट्स इन नम्बर्स।'
'इट्स ए लाँग वे। थर्टी टू माइल्स जस्ट फॉर सॉल्ट.......।'
वे सब खिलखिला कर हंस दिये। वाइसराय हाउस के उस हॉल में जिसे आज हम अशोका हॉल के नाम से जानते हैं, वे देर तक हँसते रहे।
'इज इट द बेस ऑव देअर........।'
लॉर्ड इरविन ने अपने सिर के पास अपनी तर्जनी कर सोचते हुए कुछ कहना चाहा। वह एक शब्द पर अटक गया था।
'व्हाट्स दैट काल्ड....।'
'स्वराज सर स्वराज।'
'ओ यस। स्वराज, यू सैड, जैंटलमैन।'
कुछ लोग मुस्कुराये। एक ने आँख दबाते हुए दूसरे की तरफ देखकर शराब का प्याला ऊँचा किया।
इग्नोर हिम।'
कुर्सी पर अधलेटे लॉर्ड इर्विन ने बहुत धीमे से कहा। सभी मुलाजिमों ने गौर से सुना। बरसों बाद ये शब्द उस कमरे से बाहर आये। रिचर्ड एटनबरो की गाँधी में। इतिहास की किताबों में अभी इन दो शब्दों को लिखा जाना है।
लॉर्ड इर्विन ने इग्नोर किया और गाँधी एक लंबे धूल भरे रास्ते पर चलते - चलते दांडी पहुँच गये। गाँधी को वहाँ अरब सागर मिला। नमक से बेपनाह भरा सागर।
बस्तर का कोई सागर नहीं। भूगोल में उसकी जमीन इस तरह बरती हुई है कि उसके हिस्से कभी कोई नमकीन सागर नहीं होगा।
हजारों, लाखों किलोमीटर की वे जंगली दुर्गम पहाड़ी दूरियाँ कभी नापी नहीं जा सकीं जिनसे चलकर उतरना बीमार होना था, मौत था........और इस तरह बरसों तक पहुँचते रहना था नमक की एक दुकान तक।
दांडी का इतिहास हुआ।
इतिहास, बस्तर के जंगल के बहुत बाहर पड़ा एक तुच्छ शब्द।
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