दुनिया की पीर, जज्बात और मन की बात कुछ दुनिया की पीर थी. कुछ मेरे जज्बात। मन में आयी बात तो, कह दी मन की बात।। दो पक्तियों ...
दुनिया की पीर, जज्बात और मन की बात
कुछ दुनिया की पीर थी. कुछ मेरे जज्बात।
मन में आयी बात तो, कह दी मन की बात।।
दो पक्तियों में संवेदना के सारे आयाम समेटने की महारत कितना कठिन है, विजेंद्र शर्मा के दोहों की सीडी जीने के आदाब को सुनते हुए समझा जा सकता है । दोहों के लिए बिहारी ने लिखा था, देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर। कविता के कई आलोचक दोहा को सीमित अभिव्यक्ति की विधा मानते हैं, लेकिन रचनाकर वही है जो सीमा को शक्ति बना ले। विजेंद्र ने 51 दोहों में यही किया है।
हिन्दी के महान कथाकार अमरकांत कहते थे कि साहित्य मुझे आदमी होने की तमीज देता है। विजेन्द्र ने अपनी सीडी का नाम ही रखा है-जीने के आदाब, जहां दोहे जिन्दगी के अलग-अलग रंगों की संगत बैठाकर कविता के आकाश में इंद्रधनुष रचते हैं।
दोहाकार विजेंद्र शर्मा अपनी रचना-यात्रा को भी अपने ही एक दोहे से परिभाषित करते हैं। विजेंद्र के रचना संसार से गुजरते हुए इस खालिस सच का साक्षात बार-बार होता है। विचारधारा के आग्रह से मुक्त यह दोहाकार अपने समय का सच बयान करता है, रिश्तों के बीच की दरकन को देखता है, अपने शब्दों से उसे भरने की कोशिश करता है। लेकिन इस अलगाव और बिखराव के जिम्मेदार लोगों से टकराना हो तो सीधे-सीधे हमलावर भी हो जाते हैं विजेंद्र शर्मा।
अपने समय समाज के सवालों से दूर अमरता का साहित्य रचने वाले मुझे कभी समझ नहीं आए। मोक्ष की कविताएँ भी कम समझ में आती हैं। हां, कविता अगर जीवन के संघर्ष पथ पर साथ खड़ी हो तो शक्ति देती है। मेरे लिए असली रचनाकार आम आदमी के पक्ष में ता-उम्र सृजन युद्ध लड़ता है। सर्जनात्मकता के हथियार से वे हर गलत बात से लोहा लेता हैं। विजेन्द्र के संदर्भ से इसे जो़ड़ते चलें तो यह भी बताना जरूरी होगा कि वे सीमा सुरक्षा बल के बा-वर्दी अफसर भी हैं। जो समय की नब्ज पर हाथ रखते हैं, गलत की गरदन पकड़ते हैं। वे लिखते हैं-
पहरेदारी मुल्क की, सौंप हमारे हाथ।
सारा भारत चैन से, सोये सारी रात।।
अब कवि विजेंद्र की जि्म्मेदारी में स्तरीय कविता की रक्षा करना भी शामिल है। जीने के आदाब एक सबूत भी है कि वह ऐसा कर भी रहे हैं। हरीश चंद्र पाण्डे ने अपनी एक कविता में लिखा था कि - सच को सिंहासन तक पहुंचाने और झूठ को पाताल में दफ्न करने के साहस की एक उम्र होती है। विजेंद्र शर्मा के दोहों के अर्थों में लिखना चाहूंगा कि उनकी पक्तियों में यह स्थायी भाव है। वह अपने को अपेक्षा की परिधि से बाहर रखते हैं, यह गुण उनके व्यक्तित्व को कई गुना ब़ड़ा बना देता है। वे कहते हैं-
देना है तो दे खुदा, ऐसा हमें मिजाज।
खुद्दारी सर पर रहे, ठोकर में हो ताज।।
किसी रचनाकार को समग्रता में पढ़ते सुनते अक्सर एक खतरा रहता है कि वह अक्सर अपने को दोहराता हुआ नजर आता है। ऐसा होने का मतलब यह होता है कि वह अपनी यात्रा के ठहराव का पता देता है। अगर शब्दों के चखने का मजा आपको महसूस होता है तो विजेंद्र के इन ५१ दोहों मेंल हर एक का स्वाद अलग मिलेगा। रिश्तों को लेकर तो ऐसे-ऐसे दृश्य वे सामने रखते हैं कि दो पक्तियां पूरा उपन्यास कह देती है।
इक रिश्ता बेनाम सा, चला थाम के हाथ।
इक रिश्ता घुटता रहा, लेकर फेरे सात।।
एक और चित्र देखें-
रिश्ते में रौनक रही, जब तक बोला झूठ।
सच बोला तो पड़ गई, संबंधों में टूट।।
विजेंद्र भौतिकता के संसार में मौजूद होते हुए, अपने रचनाकार की रूहानी शक्ति से भी संवाद करते रहते हैं। इस तरह से वह जीवन के सच्चे अर्थों की भी पड़ताल कर पाते हैं। अपने लिए खुद मानक बनाते हैं, उसकी पैरोकारी में खड़े होते हैं। उसके महत्व को समझाते हैं। यह सबकुछ दोहे में ढालकर वह कहते हैं-
मस्ती एक फकीर की, पढ़ा गई ये पाठ।
गांठ में जिसके कुछ नहीं, उसके हैं बस ठाठ।।
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चार दिनों में रूह ने बांध लिया सामान।
कहां कहा था जिस्म ने,खाली करो मकान।।
कविता की खूबी यह होती है कि वह अपने कहे से कहीं आगे बयान होती है, किसी भी गहराई मे झांककर वहीं का सच समझा जा सकता है। किसी यात्रा की निहितार्थ हमारे सामने मौजूद मिलता है। कविता अपने इसी गुण के कारण ठेठ गद्य होने से बची भी रहती है। यही कहने का तरीका ही कविता को धारदार हथियार बनाता है।
दरिया तेरा दायरा, बढ़ तो गया जरूर।
मगर किनारे हो गए, पहले से भी दूर।।
विजेंद्र शर्मा के भीतर उनका स्वाभिमानी गांव रहता है, जो हर नकलीपन का मुखौटा नोचने को तत्पर दिखता है। इस काम में वे अनावश्यक शिष्टाचार नहीं निभाते। जैसे,पैथालाजी की मशीन देह के भीतर की कमी-बेसी का हाल बताती है, यह दोहाकार भी साफ-साफ शब्दों में समूचा सच बयान करता है। महानगरों में रिश्तों के भीतर का रस सूखने और बाहर का आवरण और गहरा होने को तरह-तरह से बयान किया गया है, विजेंन्द्र अपने अंदाज में लिखते हैं-
जग जाहिर होती नहीं, इस रिश्ते की थोथ।
भीतर हैं कड़वाहटें, बाहर करवा चौथ।।
यहीं हम कवि की भाषा पर भी बात करते चलें। विजेंद्र हिन्दी और उर्दू दोनों में समान दक्षता रखते हैं, इसके साथ वे लोक के शब्द भी अपनी रचनाओं में लाकर उसे और भी अर्थपूर्ण बनाते हैं। थोथ शब्द को ही लीजिए,कविता में यह शब्द बमुश्किल कहीं आपको नजर आएगा।
कहे चांदनी चांद से, तब आवे है लाज।
जब जमना की ओट से, मोय निहारे ताज।।
आवे और मोय क्या खूबसूरत अर्थ देते हैं इस दोहे को। यह हर रचनाकार की जिम्मेदारी है कि लोक भाषा के शब्द भंडार को समकालीन साहित्य से जोडे रखे। हमारी इसी कोताही का परिणाम यह हुआ है कि अंगरेजी के शब्द तो भाषा में बढ़ गए, जिस कारण कई जगह अभिव्यक्ति रूखी भी नजर आती है। विजेन्द्र की भाषा में उर्दू की अधिकता है, यह पता चो चलता है, लेकिन अखरता बिलकुल नहीं। इसी प्रयोग में वह हिन्दी के शब्दों को ऊर्दू की तरह लिखते हैं।
इस्टेशन पर रह गए हम लहराते हाथ ।
कोई खुद को छोड़कर हमें ले गया साथ ।।
विजेंद्र शर्मा सिर्फ समाज की व्याख्या के कवि नहीं है। सरल प्रेम और मन का राग से रिश्ता भी वे बखूबी पकड़ते हैं। ठहरते हैं, उस अहसास को बयान ही नहीं करते जीते भी हैं। प्रेम की बारीक अनुभूतियों को बड़े सलीके से दोहे में ढालते हैं।
कभी ठहरते ही नहीं, जीवन के दिन रात।
पर ठहरा वो एक पल, जिसमें तुम थे साथ।।
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महक रहा है आज तक सूखा हुआ गुलाब।
पर उसने इक बार भी, खोली नहीं किताब।।
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कभी बरसते मेघ से, दिल की बातें बोल।
भीग जरा बरसात में, मन के छाते खोल।।
विजेंद्र शर्मा लगातार लिख रहे हैं। इसलिए यह उनका प्रमुख पड़ाव तो हो सकता है, बेहतरीन कतई नहीं। यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि दोहा को आधुनिक अर्थ विजेंद्र जैसे रचनाकार ही देंगे, जो प्रतिबद्धता के साथ उसे जीने में लगे हैं। बहुत से बड़े रचनाकारों ने स्वाद बदलने के लिए दोहे कहे हैं, वह उनके लिए बदलाव हो सकता है,दोहों की दुनिया में नहीं। ईने-गिने दोहे मशहूर भी हो जाएँ लेकिन किसी फार्म को लगातार साधने वाले रचनाकार ही उसमें कुछ बड़ा बदलाव कर सकते हैं। ऐसे में यह उम्मीद स्वाभाविक है कि वे अपने रचना भंडार के समतुल्य दोहों की दुनिया को और खूबसूरत बनाने का महायज्ञ जारी रखेंगे।
अब सीडी की प्रस्तुति के बारे में। 11 पेजों में 51 दोहों की प्रस्तुति का अंदाज इसलिए मोहक है कि हर पेज दोहों की प्रकृति के हिसाब से सहेजा और सजाया गया है। पृष्ठ के परिदृश्य में आपको गालिब, मीरा, बुल्ले शा तो मिलेगें ही। गांव और शहर भी नजर आएगा। डा. प्रेम भंडारी और पामिल मोदी की आवाज इतनी मोहक है कि वे दोनों हर दोहे को दो-चार परत और अपनी गायकी से खोल देते हैं। टोकनें लायक बात सिर्फ इतनी है कि दोहों से पहले परिचय का संबोधन सरस तो है, थोड़ा लंबा हो गया है। इस सीडी की प्रस्तुति कवयित्री सुमन गौड़ की है, इसलिए उन्हें भी ढेरों बधाई।
प्रताप सोमवंशी
सम्पादक “हिन्दुस्तान “
नई दिल्ली
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