डॉ. दीपक आचार्य इंसान सब कुछ पा सकता है। उसमें सभी प्रकार का सामथ्र्य भरा पड़ा है। लेकिन पाने की अपनी-अपनी सीमाएँ और मर्यादाएं हैं। ...
डॉ. दीपक आचार्य
इंसान सब कुछ पा सकता है। उसमें सभी प्रकार का सामथ्र्य भरा पड़ा है। लेकिन पाने की अपनी-अपनी सीमाएँ और मर्यादाएं हैं। सामान्य मनुष्य एक समय में एक को ही पा सकता है। या तो संसार को पा ले या फिर भगवान को। जो लोग स्वार्थ और कामनाओं के वशीभूत हैं वे दोनों में से किसी को भी एक समय में पा सकते हैं। संसार को पा लेंगे तो ईश्वर दूर रहेगा, ईश्वर का सामीप्य महसूस करेंगे तो संसार दूर रहेगा।
यह स्थिति उन लोगों की है जो दोनों से ही स्वार्थ, भोग या ऎषणाओं से जुड़े होते हैं। संसार से होकर ईश्वर को पाने का प्रयास करेंगे तो फिर संसार में आनंद नहीं आएगा क्योंकि ईश्वरीय आनंद के आगे सब गौण है। एक ही समय में दोनों का ही सामीप्य और आनंद वे ही पा सकते हैं जो लोग संसार के प्रति अनासक्त हैं तथा ईश्वर को स्वार्थ की पूर्ति के लिए नहीं भजते, संसार से ऊपर उठे रहकर निष्काम जीवनयापन करते हैं।
इस किस्म के लोग न संसार से भोग चाहते हैं न ईश्वर से अपने लिए कुछ मांगते हैं बल्कि ईश्वर को ही प्राप्त करने की तमन्ना रखते हैं इसलिए इन लोगों पर ईश्वरीय कृपा बनी रहती है और ये संसार के बीच रहते हुए सांसारिक भोग भोगते हुए दैवी सम्पदा प्राप्त करते हैं।
यह दैवी सम्पदा उन लोगों को प्राप्त होती है जो अपने आपको ईश्वरार्पण कर दिया करते हैं। फिर इन लोगों के योगक्षेम की चिन्ता भगवान की हो जाती है और वही इनकी जरूरतों का ध्यान रखता है। यह वह अवस्था है जिसमें यह विलक्षण भावों से परिपूर्ण लोग दिव्यता और दैवीय भावों का अनुसरण करते हुए ईश्वर, प्रकृति और जगत सभी के बीच रमण करते हुए भी इन सभी से विरक्त रहा करते हैं। यही जीवन्मुक्ति की परमावस्था कही जा सकती है। पर ऎसा कोई भी सामान्यजन नहीं कर सकता।
यह शाश्वत सत्य और तथ्य है कि ईश्वर और संसार दो पृथक मार्ग हैं लेकिन सामान्य बुद्धियों के लिए। विलक्षण वैचारिक धाराओं वाले समर्थ व्यक्तित्व इनमें भेद नहीं करते बल्कि दोनों में ईश्वर को देखते हैं। संसार से होकर ईश्वर को पाने की कला बिरले ही जानते हैं। यह मार्ग अत्यन्त कठिन और श्रम साध्य, समय साध्य है। संसार से ऊपर उठना अत्यन्त दुश्कर है, यह समत्व और विरक्ति भाव भी तभी आ सकता है जबकि भगवान की अतीव कृपा हो तथा भगवान उद्धार चाहे।
हम सभी लोग भगवान की कृपा चाहते हैं। कुछ हैं जो खुद भगवान या मोक्ष पाने को उतावले हैं, अधिकांश संसार के समस्त वैभव को पाने के लिए भगवान का सहारा चाहते हैं। अनगिनत ऎसे हैं जो कि ग्रह-नक्षत्रों के अनिष्ट व अपने पापों से मुक्ति चाहने, बीमारियों के निवारण और आसन्न भय हटाने जैसे कामों के लिए भगवान को खुश रखना चाहते हैं। इन सभी में एक-दो फीसदी को छोड़ दिया जाए तो बाकी सारे भटकाव के दौर में गुजर रहे हैं।
हम सभी लोग अपनी-अपनी उपासना पद्धतियों के माध्यम से रोज कुछ न कुछ साधना-उपासना करते ही हैं। ऎषणाओं की प्राप्ति या खतरों के निवारण के लिए न्यूनाधिक रूप से हर इंसान ईश्वरोन्मुख होता है। यहाँ आस्तिक और नास्तिक का सवाल नहीं है। प्राप्ति को सरल बनाने और भय से बचने के लिए हर कोई यही करता रहा है।
कोई बताता है, कोई चुपचाप करता है। सब तरफ धर्म और उपासना के नाम पर रोजाना समय देने के बावजूद न तो हम संसार को पाने में सफल हो रहे हैं, न ईश्वर को पाने में। सोचना होगा कि आखिर हमारी सफलताएं हमसे दूर क्यों रहती हैं।
कई सारे लोग दशकों से घण्टियां हिला रहे हैं, गला फाड़-फाड़ कर भगवान को पुकार रहे हैं, कितने टन घी होम चुके हैं, जाने कितनी कथाएं सुन चुके हैं, लाखों मंत्र कर चुके हैं, सैकड़ों सत्संग में जा चुके हैं, ढेरों बाबाओं को गुरु बना भी चुके हैं और कई सारे गुरु बदलते भी रहे हैं। कितने तीर्थों की खाक छान चुके हैं, कितने आश्रमों में कई-कई दिन व्यतीत कर चुके हैं। बावजूद इसके जहाँ हैं वहीं के वहीं हैं।
इनसे कोई पूछे कि क्या पाया तो शायद ही इनके पास कोई ठोस जवाब होगा। इनकी पूजा और उपासना जीवनचर्या के दूसरे कामों की ही तरह औपचारिक होकर रह गई है। इसके मूल में जाएं तो हम पाएंगे कि हम सभी ने कभी संसार और कभी ईश्वर को पाने की इच्छा तो जरूर की, मगर उसके अनुरूप व्यवहार नहीं किया।
यह स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे कि किसी माँसाहारी दुकान पर लिखा होता है वेज एण्ड नॉन वेज होटल। इस दुकान पर कोई भी शाकाहारी कभी नहीं जाएगा, सिर्फ माँसाहारी ही जाएंगे। हम सभी की स्थिति भी इसी तरह है। हमने कभी यह नहीं सोचा कि दोनों में से एक को ही पाया जा सकता है।
जब हम संसार में रहें तब सांसारिक कर्म के प्रति पूर्ण समर्पित होकर काम करें। लेकिन जब ईश्वरीय साधन-भजन और उपासना आदि में बैठें तब संसार को भुला दें। इस समय केवल भगवान का ध्यान करें, संसार को फटकने नहीं दें, कोई विचार आ भी जाए तो उसे प्रेमपूर्वक बाहर का रास्ता दिखा दें।
हमारी सारी साधनाओं और पूजा-पाठ की विफलता का यही मुख्य कारण है कि हम संसार में रहते हैं तब तो भगवान को भुल जाते हैं, भूल से भी हमें भगवान की याद नहीं आती। और जब भगवान की पूजा करने बैठते हैं तब पूरा का पूरा संसार साथ रहता अथवा याद आता रहता है।
साथ में मोबाइल भी होता है, संसार भर के कामों का विचार भी होता है। बात भी करते जाते हैं और जब कोई हमारी ओर देखने लगता है तब सिद्ध या साधक होने का दिखावा भी बड़ी अच्छी तरह कर दिया करते हैं। उस समय हम यह कभी नहीं सोचते कि यह समय सिर्फ परमात्मा के लिए समर्पित है और ऎसे में संसार को कुछ समय के लिए दूर रखें।
यह याद रखें कि जब हम भगवान का स्मरण करते हैं तब वह हमारे सामने सूक्ष्म रूप में हाजिर रहता है। हमारी दिव्यता में कमी के कारण में दिखाई नहीं देता। इस समय हम उसकी उपेक्षा कर दूसरे कामों, विचारों और लोगों में लग जाते हैं तब उसका नाराज होना स्वाभाविक है। वहीं हमारे भजन-पूजन का एकतानता भरा क्रम टूट भी जाता है।
यही कारण है कि सांसारिक विचारों और कर्मों में हस्तक्षेप के कारण हमारी साधनाएं विफल हो रही हैं। और हमारी स्थिति ‘‘दुविधा में दोनों गए - माया मिली न राम’’ जैसी हो गई है। एक समय में एक ही कर्म करें और पूरी एकाग्रता, अनन्य भाव के साथ।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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