डॉ. दीपक आचार्य सेवा और परोपकार ऎसे क्षेत्र हैं जो स्वैच्छिक हैं और इनके लिए किसी को कभी भी बाध्य नहीं किया जा सकता। सेवा की भावना सं...
डॉ. दीपक आचार्य
सेवा और परोपकार ऎसे क्षेत्र हैं जो स्वैच्छिक हैं और इनके लिए किसी को कभी भी बाध्य नहीं किया जा सकता। सेवा की भावना संस्कारों से जुड़ी है और इसका सीधा संबंध आनुवंशिक संस्कारों, पारिवारिक परंपराओं और हृदय से है।
दिली भावना होने पर ही कोई इंसान सेवा या परोपकार में प्रवृत्त हो सकता है। इसके बिना संभव है ही नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि सेवा और परोपकार जैसे क्षेत्र किसी के बस में हों। दुनिया भर के दूसरे सारे काम-काज कोई भी कर सकता है लेकिन सेवा और परोपकार वे ही कर सकते हैं जिनके भाग्य में लिखा हो, जिन पर भगवान की अतिशय कृपा हो। अन्यथा किसी भी इंसान के पास अकूत संपदा क्यों न हो, वह चाहते हुए सेवा-परोपकार की प्रवृत्तियों में ध्यान दे ही नहीं सकता।
बहुत सारे लोग हैं जो हर दृष्टि से सम्पन्न और परम वैभवशाली हैं, वे चाहते भी हैं कि सेवा का कोई सा कार्य हाथ में लें और इसे अपनाते हुए जीवन को सफल बनाएं। लेकिन इनमें से बहुत से लोग सिर्फ सोचते ही रह जाते हैं, उनसे कुछ हो ही नहीं पाता।
ईश्वर को पाने के लिए दो ही रास्ते हैं। एक तो साधना करें और दूसरा सेवा का मार्ग अपना लें। यह जरूरी नहीं कि भगवान को पाने के लिए घण्टों मन्दिरों में या मूर्तियों के सामने बैठकर पूजा-पाठ किया जाए, घण्टे-घड़ियाल और ताल-मंजीरें बजाए जाएं और गला फाड़ फाड़कर स्तुतियों, श्लोकों और मंत्रों-ऋचाओं का गान किया जाए, भजनों में रमे रहें या और कुछ करें।
इनसे तो भगवान खुश होता ही है। लेकिन इससे भी बड़ा एक विकल्प और भी है। और वह है निष्काम सेवा और परोपकार के कार्यों में भागीदारी। लेकिन इसमें न अपना कोई स्वार्थ होना चाहिए, न किसी भी प्रकार की कोई आशा-आकांक्षा या अपेक्षा।
ईश्वर को पाने और प्रसन्न करने की ये दो धाराएं ही मुख्यतः चली आ रही हैं। लेकिन दोनों में दिखावा और आडम्बर घुसा हुआ है। धर्म के नाम पर जो कुछ भी गोरखधंधे चल रहे हैं उनके बारे में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है, सभी लोग अच्छी तरह वाकिफ हैं।
दूसरी ओर सेवा क्षेत्रों में भी भौतिकता हावी होती जा रही है। धर्म ध्यान और सेवा दोनों ऎसे क्षेत्र हैं जिनमें रुपए-पैसों का कोई महत्त्व नहीं है। इससे अधिक जरूरी है भावना। जितनी अधिक हमारी यह भावना दृढ़ होगी उतनी ही हम जल्दी सफलता प्राप्त करेंगे।
पैसे लेकर या दे कर सेवा करना-कराना तो सहज है लेकिन बिना किसी कामना के सेवा और पारमार्थिक कार्र्यो में भागीदारी निभाना बिरले लोग ही कर सकते हैं। इन्हीं के लिए कहा जाता है - जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ।
निष्काम सेवा और परमार्थ के कार्यों में धन-संपदा की कामना व्यर्थ है लेकिन इससे जो आनंद आता है, संतुष्टि प्राप्त होती है वह अपने आपमें अनिर्वचनीय है। जो काम करोड़ों-अरबों रुपए रखने और पाने वालों को नहीं मिल सकता, वह आनंद निष्काम सेवा के किसी भी काम से प्राप्त हो सकता है और इसका कहीं कोई मुकाबला नहीं। इस आनंद को पाना वैभवशालियों के भाग्य में भी नहीं है।
सेवा और परमार्थ का रास्ता कठिनाइयों, अभावों, समस्याओं और इतने अधिक उतार-चढ़ावों से भरा है कि आसानी से इसे पार पाना सामान्यजनों के बूते में नहीं होता। इसके लिए भगवदीय कृपा और दृढ़ इच्छाशक्ति का होना जरूरी है।
सेवा के क्षेत्र में सबसे बड़ी बाधा हमारे अपने लोग ही खड़ी करते हैं। हमारे आस-पास खूब सारे आवारा किस्म के नुगरे और नालायक लोग ऎसे होते हैं जिन्हें समाज, सेवा और परमार्थ, देश और देशभक्ति या राष्ट्रीय चरित्र से कोई मतलब नहीं होता। ज्ञान, हुनर और अनुभव शून्य ये लोग बिना परिश्रम के पैसा और प्रतिष्ठा दोनों पाना चाहते हैं और साथ में यह भी चाहते हैं लोग उनका हर कहीं आदर-सम्मान और अभिनंदन करें और उनकी महानता को स्वीकारते भी रहें।
ये लोग अपने समाज या क्षेत्र के लिए एक धेला भर भी खर्च करने का साहस नहीं रखते लेकिन हर कहीं इनकी दखलंदाजी इतनी कि कुछ कहा नहीं जा सकता। बहुत सारे लोग हम ऎसे देखते हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे समाजसेवी हैं लेकिन कोई इनके बारे में यह पूछे कि समाज के लिए अपनी व्यक्तिगत कमाई में से कितना पैसा खर्च करते हैं तो शून्य का आंकड़ा ही सामने आएगा।
इस समाजसेवा का क्या औचित्य है जिसमें हमारी एक पैसे की भागीदारी नहीं हो, और हम समाजसेवी के रूप में पूजे जाएं। हर समाज में कुछ लोगों का समूह ऎसा होता है जो अपने पद और कद का इस्तेमाल करता हुआ हर समूह, संगठन और मंच में घुसपैठ कर लेता है और अपनी ओर से एक पैसा तक खर्च किए बगैर दूसरों को उल्लू बनाता हुआ प्रतिष्ठित और पूज्य बना रहता है।
यह तो गनीमत है कि हम लोग इन्हें अनुकरणीय नहीं मानते हैं अन्यथा क्या से क्या हो जाए। पूरी की पूरी फसल ही बर्बाद हो जाए और सारे लोग इन्हीं की तरह निकल जाएं। सेवा के तमाम आयामों पर नज़र डालें तो यही सामने आएगा कि सच्ची सेवा करने वाले लोग उन नाकारा लोगों से परेशान रहते हैं जिनका सेवा से कोई लेना-देना नहीं होता।
हर समुदाय और क्षेत्र में ऎसे खूब सारे लोग रहते हैं जो अपने जीवन में सिर्फ और सिर्फ विरोध ही करना जानते हैं और जिन्दगी भर किसी न किसी अच्छे आदमी या रचनात्मक कर्म का विरोध करते रहते हैं। ऊपर से हमारा दुर्भाग्य यह है कि ऎसे लोग न तो समझाईश के स्तर तक पढ़े-लिखे हैं, न कोई हुनर जानते है। और न इन्हें समाज या देश से कुछ भी लेना-देना होता है।
ये लोग अपनी चवन्नियां चलाने, किसी न किसी तरह पराये धन पर कब्जा करते हुए मौज उड़ाने और सेवाव्रतियों को तंग करने जैसे कामों में भिड़े रहते हैं। इसके बिना इनकी जिन्दगी चलाने का और कोई आधार ही नहीं होता। इसलिए इनकी मजबूरी भी है कि चाहे जिस तरह भी हो इन्हें बिना कुछ किए प्राप्त होता रहे और अपने नाम जमा करते रहें।
समाज में जो लोग सेवा और पारमार्थिक कार्यों में जुटे हुए हैं उनकी जी भर कर आलोचना करें, इससे उनमें सुधार भी आएगा और सेवा कार्यों में गुणवत्ता भी दिखेगी। लेकिन निन्दा से बचें। जो लोग जहां कहीं अच्छा काम कर रहे हैं उनका विरोध न करें बल्कि उन्हें प्रोत्साहित करें, उनके कार्यों में सहभागी बनें। सेवा और परोपकार के कार्यो में जुटने का साहस या माद्दा भले न हो, कम से कम अच्छे कार्यों के विरोध से अपने आपको दूर रखें।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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(ऊपर का चित्र - अरविंद शर्मा की कलाकृति)
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