निरभिमान हनुमान का क्षणिक अभिमान

SHARE:

- दयाधर जोशी सीता माता की खोज कर हनुमान वापस आ रहे हैं। 'मैंने'विशाल समुद्र को लांघा, भक्ति माता की खोज की, अशोक वाटिका उजाड़ी, राव...

- दयाधर जोशी

bajarangi bhaijaan raam rasayan

सीता माता की खोज कर हनुमान वापस आ रहे हैं। 'मैंने'विशाल समुद्र को लांघा, भक्ति माता की खोज की, अशोक वाटिका उजाड़ी, रावण-पुत्र अक्षय कुमार को मारा, लंका-दहन कर रावण का मद-मर्दन किया।' इस 'मैं' को प्रभु ने ताड़ लिया है। उन्हें लगा हनुमान को कुछ अहंकार हो गया है। हनुमानजी को प्यास लगी। उन्होंने महेन्द्राचल पर एक ऋषि को देखा तो उनके पास चले गये। उन्हें प्रणाम किया और कहा, 'मैं भक्ति माता की खोज करके आया हूँ, मुझे जोर की प्यास लगी है।' ऋषि ने इशारे से जलाशय बता दिया। हनुमानजी ने चूड़ामणि, मुद्रिका आदि ऋषि के पास छोड़ दी और जलाशय की ओर चल दिये। इतने में एक बंदर आया। उसने उनकी सब चीजें ऋषि के कमण्डलु में डाल दीं। वापस लौटने पर हनुमान ने अपनी चीजों के बारे में पूछा तो ऋषि ने कमण्डलु की ओर इशारा कर दिया। कमण्डलु में राम-नाम अंकित सहस्त्रों मुद्रिकाओं को देख कर वे चौंक गये। उन्होंने ऋषि से पूछा, 'आपको इतनी सारी मुद्रिकाएँ कहां से मिली और इनमें से मेरी मुद्रिका कौन सी है?' धीर-गम्भीर ऋषि ने मौन तोड़ा और कहा 'जब-जब भी श्रीरामावतार होता है, सीताहरण भी होता है। हनुमान सीतामाता की खोज कर वापस लौटते हैं और मुद्रिका यहां छोड़ जाते हैं। मुद्रिकाओं की गणना करके देख लो, अब तक कितनी बार रामावतार हुआ है और कितने हनुमान सीतामाता की खोज कर वापस लौटे हैं।' सीता माता की खोज करने वाला मैं पहला हनुमान नहीं हूँ। मुझसे पहले हजारों ने यह कार्य पूर्ण किया है। यह सब देख कर उनके मन में उत्पन्न हुआ क्षणिक अभिमान का अंकुर तुरन्त समाप्त हो गया। वापस आकर हनुमान पहले रामदल के वरिष्ठों से मिले। इसके बाद प्रभु श्रीराम से मिले और उनके चरणों में गिर कर माफी माँगी। डरते हुए बोले, 'प्रभु मुझसे एक अपराध हो गया है।' प्रभु श्रीराम ने हँसते हुए कहा, 'डरो मत, ध्यान से देखो, जिस मुद्रिका को तुम ऋषि के कमण्डलु में ढूंढ़ रहे थे वह मेरी अँगुली में लगी है।' वह ऋषिरुप और वह कमण्डलु जिसमें सहस्त्रों राम-नाम अंकित मुद्रिकाएँ थी मेरे द्वारा रचा गया कौतुक था। यह कौतुक मैंने तुम्हारे कल्याण के लिये ही रचा था। इस तरह प्रभु श्रीराम ने उनके अभिमान, अहंकार को उत्पन्न होते ही नष्ट कर दिया और इन्हें श्रीराम के विष्णु स्वरुप का ज्ञान हो गया। प्रभु श्रीराम ने कहा, 'अहंकार दुर्गति का कारण होता है। मैं अपने जन में अहंकार, अभिमान के बिरवे को पनपते नहीं देख सकता। तुम्हारे अभिमान को समूल नष्ट करने के लिये मुझे यह कौतुक रचना पड़ा।' हनुमान पुनः प्रभु के चरणों में गिर कर बोले, 'धन्य हैं प्रभु! आपने मुझे उबार लिया।'

युद्धभूमि में मेघनाद की वीरघातिनी शक्ति लक्ष्मण जी की छाती में लगी, जिससे उन्हें मरणासन्न मूर्छा आ गयी। हनुमानजी लंका के राजवैद्य सुषेण को उसके घर समेत उठा लाये। वैद्य ने लक्ष्मणजी को देखा और चिकित्सा के लिये औषधि का नाम बताया। उन्होंने उस पर्वत का नाम

भी बताया जहाँ यह औषधि मिलती है। प्रभु श्रीराम ने कहा, 'हे पवनसुत औषधि लेने जाओ।'

राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी।। रा.च.मा. ६/५६/१

श्रीरामचन्द्रजी के चरण-कमलों को हृदय में रख कर पवन पुत्र हनुमान अपना बल बखान कर अर्थात् मैं अभी लिये आता हूँ, ऐसा कह कर चले। हनुमानजी संजीवनी बूटी लेने जा रहे थे। रास्ते में कालनेमि राक्षस ऋषि का कपटवेश धारण कर एक सुन्दर आश्रम में बैठा था। उसका उद्देश्य हनुमानजी के कार्य में विघ्न उत्पन्न करना था, ताकि संजीवनी बूटी के अभाव में लक्ष्मणजी की मृत्यु सुनिश्चित हो सके।  हनुमानजी ने सोचा इस आश्रम में थोड़ी देर रुक कर अपनी थकान दूर कर लूं, स्वच्छ जल पीकर अपनी प्यास बुझा लूं। ऋषिवेश में कालनेमि शिवजी का पूजन कर रहा था। हनुमानजी ने उसे प्रणाम् किया, रामदूत कह कर अपना परिचय दिया और अपनी यात्रा का प्रयोजन भी बता दिया। सब कुछ जानने के बाद कालनेमि ने कहा, 'मैं अपने योगबल से देख रहा हूँ कि लक्ष्मण स्वस्थ हो गये हैं। तुम किसी तरह की चिन्ता मत करो, आराम से जलपान करो, कमण्डलु में जल भरा है, पीलो।' उन्होंने ऋषि से कहा, 'मैं थोड़े जल से तृप्त नहीं हो सकता। मुझे तो आप ऐसा जलाशय बता दीजिये जहाँ मैं अपनी थकान मिटाने के साथ ही अपनी इच्छानुसार जल पी सकूँ।' कालनेमि यही चाहता था। मन ही मन प्रसन्न होकर उसने तुरन्त उन्हें जलाशय का रास्ता बता दिया और कहा, 'तुरन्त लौट कर आना, मैं तुम्हें दीक्षा दूंगा।' वे जल पीने के लिये जलाशय में पहुँचे तो एक मकरी ने उनका पैर पकड़ कर उन्हें निगलना शुरु कर दिया। उन्होंने जैसे ही मकरी का मुंह फाड़ा वह एक अप्सरा बन गयी। उसने हनुमानजी से कहा, 'मरे ा नाम धान्यमाली है, मैं ऋषि के शाप से मकरी बन गई थी। आपने मेरा शाप-मोचन कर दिया है। यहां ऋषिवेश में रावण का मित्र कालनेमि आपके कार्य में बाधा उत्पन्न करने के लिये बैठा है।' शापमुक्त अप्सरा इतना बता कर

स्वर्गलोक को चली गई। हनुमानजी ने कालनेमि का वध कर दिया। मरते समय कालनेमि के मुख से राम-नाम का

उच्चारण सुन कर उन्हें खुशी हुई और वे तुरन्त संजीवनी बूटी लेने द्रोणाचल की आरे चल दिये। द्रोणाचल पहुँचने पर वे औषधि को पहचान नहीं पाये तो उन्होंने पर्वत को ही उखाड़ लिया।

द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर। कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो।। तुलसीदास ने हनुमानबाहुक में लिखा है- हनुमानजी ने द्रोण-जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गैंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल-फल के समान क्रीड़ा की सामग्री बन गया। इस द्रोणाचल पर्वत को लेकर रात्रि में हनुमानजी अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गये तो -

देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।

बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि।। रा.च.मा. ६/५८

भरतजी ने आकाश में अत्यन्त विशाल स्वरुप देखा, तब मन में अनुमान किया यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींच कर बिना फल का एक बाण मारा। बिना फल का बाण लगते ही 'बलभाषी हनुमान' राम-राम रघुपति का उच्चारण करते हुए मूर्छित हो कर पृथ्वी पर गिर पड़े। कहाँ चला गया बलभाषी का बल! प्रिय वचन राम-नाम सुन कर भरतजी उठ कर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमानजी के पास पहुँचे। राम-नाम की महिमा ने

'बलभाषी' को जीवनदान दे दिया। हनुमानजी को व्याकुल देखकर भरतजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया पर वे जागते न थे। दुःखी भरत नेत्रों में जल भरकर बोले, जिस विधाता ने मुझे श्रीराम से विमुख किया, उसी ने यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीर से श्रीराम के चरण-कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो और यदि रघुनाथ मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाय! यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमानजी 'कोसलपति श्रीराम की जय हो, जय हो' कहते हुए उठ बैठे। भरतजी ने उनसे अपने भाइयों और सीता माता की कुशलक्षेम पूछी। उन्होंने संक्षेप में सब कुछ बता दिया। कथा सुन कर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे और हनुमानजी से बोले -

तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता।। चढ़ु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता।।

रा.च.मा. ६/६०क/५-६

हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सवेरा होते ही काम बिगड़ जायगा। अतः तुम पर्वत

सहित मेरे बाण पर बैठ जाओ, मैं तुमको वहां भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्रीराम हैं।

'बलभाषी' का अहंकार अभी भी बना हुआ है। वह यह नहीं समझ पा रहा है कि बल बाण में नहीं बाण चलाने वाले में है। 'बलभाषी' बिना फल के बाण से मूर्छित हुआ, यदि फल वाला बाण लगता तो क्या होता!

सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना।

राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बंदि चरन कह कपि कर जारे ी।।

रा.च.मा. ६/६0क/७-८

भरतजी की यह बात सुनकर एक बार तो हनुमानजी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? किन्तु फिर श्रीरामचन्द्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़ कर बोले-

तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउं नाथ तुरन्त।

अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।।

भरत बाहुबल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार। मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवन कुमार।। रा.च.मा. ६/६0क-६0ख

'हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रख कर तुरन्त चला जाऊँगा।' ऐसा कह कर आज्ञा पाकर भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमानजी चले। भरतजी के बाहुबल, शील (सुन्दर स्वभाव) गुण और प्रभु के चरणों में अपार प्रेम की मन ही मन बारंबार सराहना करते हुए मारुति श्री हनुमानजी चले जा रहे हैं।

'बलभाषी' का अभिमान भरतजी ने तोड़ दिया है। बलभाषी की जगह पुनः हनुमानजी ने ले ली है। अभिमान से मुक्ति प्रदान करने के लिये प्रभु श्रीराम ने स्वयं को हनुमान के हृदय से हटा कर वहां भरत की भक्ति, निष्ठा, श्रद्धा और समर्पण को स्थान दे दिया। हनुमानजी ने समय पर पहुँच कर लक्ष्मणजी के प्राणों की रक्षा करने का सौभाग्य प्राप्त कर

लिया है। हनुमानजी ने अपने बल का बखान कर ''मैं'' अभी लिये आता हूँ कहकर प्रस्थान किया। कुछ देर के लिये यह मान लिया जाए कि उन्होंने जो कहा, यह उनका भोलापन ही था, लेकिन गोस्वामी तुलसीदासजी इस बात को मानने के लिये कतई तैयार नहीं हैं। ये वही तुलसीदासजी हैं, जिन्हें 'मान' की अवज्ञा करने वाले हनुमान के साथ 'मान' का रहना बहुत कचोटता है। 'जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत'। यहां मान शब्द को हटा कर वे हनुमान को गौरवान्वित करते हैं। उन्होंने निरभिमान हनुमान को 'हनू' कहा है। दूसरी तरफ यही तुलसीदासजी कह रहे हैं, 'चला प्रभंजन सुत बल भाषी'। 'सुन कपि मन उपजा अभिमाना'। मोरे भार चलहि किमि बाना'।। लगता है तुलसी के विनम्र और निरभिमान हनुमान से गलती अवश्य हुई है। उनके मन में क्षणिक अभिमान उत्पन्न हुआ। वे अपने अहंकार को याद कर पछता रहे हैं। विनम्र और निरभिमान होकर कह रहे हैं 'तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरन्त'-'हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपके प्रताप को हृदय में रख कर चला जाऊंगा।' यहां हे नाथ! हे प्रभो! का सम्बोधन निश्चितरुप से पछतावे का प्रतीक है। वे हे नाथ! हे प्रभो! कह कर पुनः विनम्र एवं निरभिमान हो गये हैं। उनके हृदय, मन और वाणी वो स्थान हैं, जहां प्रभु श्रीराम निवास करते हैं, लेकिन फिलहाल यहां भरतजी बैठ गये हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी की उत्कृष्ट लेखन शैली से तो यही प्रतीत हो रहा है कि उनके अभिमान को दंडित करने के लिये ही प्रभु श्रीराम ने यह व्यवस्था सुनिश्चित की है। संजीवनी बूटी लाने के लिये हनुमानजी ने श्रीरामजी के चरण-कमलों को हृदय में रखकर ही प्रस्थान किया था, लेकिन अपना बलबखान कर- 'मैं' अभी लिये आता हूँ कहना उनके लिये अभिमान का सूचक बन गया।

'राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहाँ विश्राम', कहने वाले हनुमान ने कार्य पूर्ण होने से पहले ही कपटी कालनेमि के आश्रम में थकान मिटाने के लिये विश्राम का निर्णय ले लिया। लक्ष्यानुगामी हनुमान ने अनजान को अपनी असली पहचान एवं कार्य के प्रयोजन से भी अवगत करा दिया। यदि समय पर संजीवनी बूटी नहीं मिलती तो क्या लक्ष्मण जीवित रहते? लक्ष्यानुगामी हनुमान ने कार्य पूर्ण होने से पहले ऐसी गलती क्यों की? यह वास्तव में एक विचारणीय प्रश्न है। हनुमानजी ने भी इस पर विचार किया होगा? निश्चित रुप से किया, तभी तो उन्हें पछतावा हुआ।

भरतजी ने बिना फल का बाण मारा तो उन्हें गहरी मूर्छा आ गयी। यदि फल वाला बाण मारा होता तो क्या होता? भरतजी ने कहा, 'मेरे बाण पर बैठ जाओ मैं तुम्हें तुरन्त पहुँचा देता हूँ।' मेरे व पर्वत के भार से बाण कैसे चलेगा? बिना फल के बाण से गहरी मूर्छा को याद करते ही वे समझ गये कि बल बाण में नहीं बाण चलाने वाले में है। इस सत्य का ज्ञान होते ही उनके मन में बड़ी ग्लानि हुई, तभी तो वे हे प्रभो! हे नाथ! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरन्त चला जाऊंगा कहते हैं।

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मारे सिखावन।।

रा.च.मा. ५/२२/७ हे रावण! मैं तुमसे हाथ जोड़ कर बिनती करता हूँ। तुम अभिमान छोड़ कर मेरी सीख सुनो, अहंकार को हृदय से निकालो और सीख को हृदय में उतारो कहने वाले हनुमान को वास्तव में अभिमान हुआ होगा? महाभारत के युद्ध में भीम दुःशासन की छाती पर बैठ कर घोषणा करते हैं कि इस दुःशासन ने जिन हाथों से द्रोपदी को भरी सभा में नंगा करने की कोशिश की थी आज मैं उन हाथों को तोड़ने जा रहा हूँ। दोनों ओर की सेनाओं में जो भी अपने आप को परम बलशाली समझता है इसकी प्राणों की रक्षा के लिये आगे आये। इस घोषणा को सुन कर अर्जुन इन्हें 'बलभाषी' मान कर कहते हैं, मुझे इस बलभाषी के अहंकार को चूर करना ही होगा। वे अपने रथ से उतरे तो श्रीकृष्ण ने मुस्करा कर कहा, 'तुम उससे मुकाबला नहीं कर पाओगे। तुम अपने आपको परमवीर समझ कर रथ से उतरे हो, लेकिन भीम तुम्हारी वीरता के अहंकार को चूर-चूर कर देगा।' अर्जुन तुरन्त ही अपने रथ पर बैठ गये। यहां श्रीकृष्ण ने अर्जुन के कथन को भी अहंकार ही माना है। श्रीकृष्ण भीम को बलभाषी नहीं मानते हैं। वे कहते हैं, यह भीम का अहंकार नहीं है। वह तो अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने जा रहा है। यहाँ भीम नहीं बोल रहा है मैं बोल रहा हूं, प्रतिज्ञा पालन के लिये भीम के हृदय में मैं बैठा हूँ।

यहां भी कौतुक रचनेवाले स्वयं भगवान ही हैं। भीम के हृदय में बैठ कर, की गई प्रतिज्ञा का पालन करा रहे हैं। हनुमानजी ने मैं अभी लिये आता हूँ कह कर जो भी चूक की उसे समय रहते सही करने के लिये प्रभु श्रीराम ने भरत की निष्ठा, भक्ति, श्रद्धा और समर्पण को हनुमान के हृदय में बैठा दिया और स्वयं उनके हृदय से हट गये। प्रभु श्रीराम अपने जन में अहंकार, अभिमान के बिरवे को पनपते हुए नहीं देख सकते, क्योंकि अहंकार दुर्गति का कारण होता है। हनुमानजी की छोटी सी चूक को अभिमान कह कर प्रभु श्रीराम ने लौकिक जन को संदेश दिया है कि मैं अपने जन में अहंकार नहीं देख सकता।

 

फिर चूक गये हनुमान

 

मैंने सीता माता की खोज की। अपना बल बखान कर 'मैं' अभी लिये आता हूँ द्रोणाचल पर्वत से संजीवन बूटी, कार्य पूर्ण होने से पहले कपटी ऋषि कालनेमि के आश्रम मं विश्राम का निर्णय, अनजान को रामदूत कह कर अपना परिचय देने व कार्य प्रयोजन की जानकारी देने के साथ ही भरतजी से यह कहना, कि मेरे भार से बाण कैसे चलेगा, जैसी चूक ने हनुमानजी को क्षणिक अभिमानी, अहंकारी और बलभाषी बना दिया। विनम्र एवं निरभिमानी हनुमानजी के लिये बलभाषी, अभिमानी, अहंकारी जैसे शब्दों का प्रयोग उचित नहीं लगता। लेकिन मान की अवज्ञा करने वाले हनुमान के नाम के साथ 'मान' शब्द जिन्हें बहुत कचोटता है उन्होंने ही इनके लिये इस तरह की शब्दावली का प्रयोग किया है। हनुमानजी से चूक अवश्य हुई है। लेकिन इस चूक को बलभाषी या अभिमानी कहने में बहुत संकोच हो रहा है। प्रभु श्रीराम भरतजी को कितना याद करते हैं, उनकी याद में कितना रोते हैं, दिन भर में उनके गुण-समूहों का कितनी बार जिक्र करते हैं, यह बात हनुमानजी बहुत अच्छी तरह जानते हैं। द्रोणाचल से वापस आते हुए अयोध्या में उनसे मिल चुके हैं। उनकी भक्ति, निष्ठा, श्रद्धा, समर्पण और प्रेम से पूरी तरह परिचित हैं, प्रभावित हैं। उनकी भक्ति के सामने अपनी भक्ति को बहुत ही तुच्छ मानते हैं। लंका-विजय के बाद अयोध्या लौटने से पहले प्रभु श्रीराम हनुमानजी से कहते हैं, 'विप्रवेश में अयोध्या जाओ। भरतजी से मिलो, उन्हें हमारी कुशल सुनाओ और उनके व अयोध्यावासियों के समाचार लेकर वापस आओ।' प्रभु श्रीराम के आदेश की पालना करते हुए वे अयोध्या पहुँचे। हनुमानजी भरतजी के प्रताप से परिचित थे। यहां अयोध्या पहुँच कर उन्होंने उन्हें भक्ति में लीन देखा। भरत कह रहे हैं, 'मैं पापी हूँ मुझ में बहुत सी कमियाँ हैं।' वे रो रहे हैं। हनुमान मन ही मन में कह रहे हैं, 'इनका प्रताप तो मैं पहले ही देख चुका हूँ आज इनकी भक्ति भी देख ली है।' भरतजी को प्रभु श्रीराम की भक्ति में लीन देख कर उन्हें बहुत हर्ष हो रहा है। फिर चूक गये हनुमान हनुमान, भरत को समाचार देते हैं, 'हे भरतजी! आप जिन्हें रात दिन याद करते रहते हैं वो रघुनाथजी सकुशल वापस अयोध्या आ रहे हैं। प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी सकुशल हैं और अपने अन्य सभी सहयोगियों के साथ वापस आ रहे हैं।' इस सुखद समाचार को सुन कर भरतजी का शरीर पुलकित हो गया है। वे भाव विभारे होकर पूछते हैं, 'हे सुखद समाचार देने वाले विप्र! आप कौन हैं, कहां से आये हैं?' हनुमानजी ने उत्तर दिया, 'हे कृपानिधान सुनिये, मैं पवन का पुत्र और जाति का वानर हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं श्रीरघुनाथजी का दास हूँ।' यह सुन कर भरतजी आदर सहित हनुमानजी से गले लग कर मिले। दो परम राम-भक्तों का आपस में मधुर मिलन हुआ। भरतजी कह रहे हैं, तुम्हारे दर्शन से मेरे  सारे दुःख समाप्त हो गये हैं। तुम्हारे रुप में मुझे आज मेरे प्रभु श्रीराम मिल गये हैं। मैं तुमसे उऋण नहीं हो सकता। अब तुम मुझे प्रभु का हाल सुनाओ। उन्होंने प्रभु श्रीराम की सारी गुणगाथा सुनाई लेकिन उसमें भरतजी के नाम  का उल्लेख नहीं था। तब बहुत ही दुःखी मन से भरत पूछते हैं-

कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं।।

रा.च.मा. ७/२क/१६

'हे हनुमान! कहो, कृपालु स्वामी श्रीरामचन्द्र कभी मुझे, अपने दास की तरह याद करते हैं?'

भरतजी के इन शब्दों को सुन कर हनुमानजी को अपने आप पर बड़ी ग्लानि हुई। भरतजी को सारी गुणगाथा सुनाई, लेकिन सब कुछ जानते हुए भी उनके नाम का उल्लेख करना भूल गये। इस भूल के कारण उन्हें कितनी मानसिक पीड़ा हुई होगी, मन ही मन कितना दुःख हुआ होगा! इस अपराध की क्षमा के लिये वे तुरन्त भरतजी के चरणों में गिर गये। हनुमानजी एक बार फिर चूक गये। हनुमानजी ने अशोक वाटिका में सीताजी को प्रभु श्रीराम का संदेश कुछ इस तरह सुनाया था कि वे अपना दुःख भूल गयी थीं। लंका से वापस लौट कर प्रभु श्रीराम को सीताजी का संदेश भी कुछ इस तरह सुनाया कि उनका अशांत मन शांत हो गया था। लेकिन भरतजी से मिलने पर वे इस संदेश कौशल को भूल गये। उन से चूक हो गई। भरतजी से मिलने पर उन्होंने अपना परिचय रामदूत कह कर नहीं दिया। अपना पूरा परिचय देने के बाद कहते हैं, 'मैं दीनों के बंधु श्रीरघुनाथजी का दास हूँ।' चूक तो चूक ही है, भक्तिभाव से पुलकित होकर भरतजी के चरणों में गिरने के सिवाय उनके पास और कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था। अपनी गलती के लिये क्षमा के साथ ही भरत जी के प्रति श्रीराम के मन में कितना प्रेम है का वर्णन वे कुछ इस तरह कर रहे हैं-

राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।

पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात।।

रा.च.मा. ७/२क

'हे नाथ! आप श्रीराम को प्राणों से प्रिय हैं। हे तात! मेरा वचन सत्य है। यह सुन कर भरतजी हनुमान से बार-बार मिलते हैं, हृदय में हर्ष समाता नहीं है।' हनुमानजी भरतजी के चरित्र से, भक्ति से, श्रद्धा और समर्पण से एवं साधु समान स्वभाव से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि मरे ी भक्ति भरतजी की भक्ति के सामने बहुत तुच्छ है। ऐसी भक्ति जिसने प्रभु श्रीराम को चौदह वर्ष तक अपने हृदय में बंदी बना कर रखा। हृदयरुपी बंदीगृह के दरवाजों को हमेशा बंद रखा, उन्हें अपने हृदय से बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया। उन्हें भरतजी के हृदयरुपी दर्पण में प्रभु श्रीराम की छवि स्पष्ट दिखायी दे रही है, लेकिन वे दुःखी हैं तो केवल अपनी चूक से।

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: निरभिमान हनुमान का क्षणिक अभिमान
निरभिमान हनुमान का क्षणिक अभिमान
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1nU9V5fAepESJ-GH0RhN8p9gU28Mjq1miRvwbYk_iK9BUzShu9-J7uM3AYGXoke5mDJ64QRjARiXbvQxsc_E07S9EESM8AU4Vius_0dDp-PysTtOFecdeVgojWnH-mkrq7dYV/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1nU9V5fAepESJ-GH0RhN8p9gU28Mjq1miRvwbYk_iK9BUzShu9-J7uM3AYGXoke5mDJ64QRjARiXbvQxsc_E07S9EESM8AU4Vius_0dDp-PysTtOFecdeVgojWnH-mkrq7dYV/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2015/07/blog-post_86.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2015/07/blog-post_86.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content