अशोक गुजराती उनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं था. वे ऊपर के फ़्लैट में रहते थे. पति-पत्नी दोनों चालीस-पैंतालीस की उम्र को छूते हुए, लेकिन न...
अशोक गुजराती
उनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं था. वे ऊपर के फ़्लैट में रहते थे. पति-पत्नी दोनों चालीस-पैंतालीस की उम्र को छूते हुए, लेकिन निसन्तान. पत्नी का विवाह के बाद से दो-तीन मर्तबा चेक-अप करवा चुके थे. हर डाक्टर ने अपना अंतिम निष्कर्ष यही दिया था कि वे मां नहीं बन सकतीं. पति ने अपना भी परीक्षण करवा लिया था- उनमें कोई कमी नहीं थी. बावजूद इसके उनके दाम्पत्य में कहीं-कोई ज़रा-सा भी शिगाफ़ नहीं आया था. वे दोनों प्यार को पूरी शिद्दत से जी रहे थे. शिकवा-शिकायत का नामो-निशान भी ढूंढे नहीं मिल पाता इसका एक ही कारण था- अपनी मौजूदा हक़ीक़त से समझौता.
नीचे के फ़्लैट में भी इत्तिफ़ाक़ से ऐसे ही दम्पती थे, जिनका कोई बच्चा नहीं था. यह अलग बात कि वे युवा थे. और... यहां उलटी समस्या थी. पत्नी ठीक थी- उर्वर परन्तु पति के साथ शुक्राणु की दिक़्क़त थी. इलाज न करवाया हो ऐसा नहीं पर सफलता नहीं मिली. जन्म के समय ही टेस्टिज़ का पूरी तरह नीचे न उतर अण्डकोश को ख़ाली और निरर्थक बना देना इसके पीछे था. क्या करते दोनों, हालांकि ऊपर के फ़्लैट के पड़ोसी का इस वय तक संतानहीन रहे चले आना और फिर भी ख़ुश रहना- उनके लिए एक उदाहरण था लेकिन उनको यूं ज़िन्दगी गुज़ारना नागवार लगा. गये वे सबसे बड़े और प्रसिद्ध बाल-विकास गृह में ताकि बच्चा गोद ले सकें.
सम्बन्ध नहीं था पर था बहुत नज़दीकी. जी हां, उन दोनों फ़्लैटों के बाशिन्दों के बीच रिश्ता नहीं था कोई- ख़ून का- मगर लगाव बेहद यानी सीमा लांघता हुआ. यूं समझे कि नीचे वाले ऊपर वालों को अपने मां-बाप से ज़्यादा इज़्ज़त देते थे. इसीलिए हुआ यह कि न सिर्फ़ गोद लेने की सलाह उनसे ली गयी, बल्कि उन्हें अपने साथ लेकर गये- नीचे वाले.
ये ऊपर-नीचे का लफड़ा सुलझाना पड़ेगा कि उन लोगों के कुछेक नाम तो होंगे- ताकि सारी बात समझने में आसानी हो... उस दो मंज़िला इमारत के मालिक प्रथम तल पर रहते थे. अर्थात् नीचे वाले थे उनके किरायेदार. मालिक थे प्राध्यापक जीवशास्त्र के और उनकी पत्नी गृह-स्वामिनी. किरायेदार पति थे कम्प्यूटर इंजीनियर एमएनसी में और उनकी पत्नी जीवन बीमा निगम में अधिकारी. नाम... हां, मालिक और मालकिन के राकेश तथा मंदाकिनी जबकि किरायेदार के नये-नवेले नाम- निर्भीक एवं सदया.
तो गोद लेने के अभियान में चारों गये. वहां कई बच्चों को उनके सम्मुख प्रस्तुत किया गया. एक बच्ची थी- मासूम-सी -सबसे जुदा. मुस्कराती हुई वह तीन वर्षीय लड़की अपनी निगाहें ज़मीन से टिकाये कुछ यों खड़ी थी कि कोई भी स्वयं-स्फूर्त उसे बांहों में उठा ले और चूम ले. बस उन चारों की दृष्टि उसी पर अटक गयी. वे सभी नये ख़यालात के थे- पढ़े-लिखे -कि वंश का नाम चलाने हेतु लड़का ही चाहिए, इस सोच को न मानने वाले. बेटी को गोद लेकर वे समाज में इस प्रकार का संदेश पहुंचाने को तत्पर ही नहीं, व्याकुल भी थे. परिणाम यही हुआ कि उस प्यारी-सी कन्या को वे सारी क़ानूनी औपचारिकताएं पूरी कर घर ले आये.
अब वह बच्ची हो गयी दोनों घरों की. वैसे भी निर्भीक और सदया सवेरे नाश्ते के पश्चात टिफ़िन लेकर जो अपनी ड्यूटी पर निकलते तो देर शाम को ही वापिस आ पाते. उनकी अनुपस्थिति में उस नन्ही-सी परी की ज़िम्मेदारी ले ली राकेश और मंदाकिनी ने. उनके लिए किसी वरदान से कम न था कि उन्हें बैठे-बिठाये इस उम्र में दिल बहलाने को एक लाड़ली यूं ही उपलब्ध हो गयी थी. निर्भीक और सदया को यह अहसास था कि वे उन्हें अपने हिस्से का दायित्व देकर बहुत तकलीफ़ दे रहे हैं लेकिन उनके व्यवहार में कोई शिकन न देखकर वे उनके कृतज्ञ बने इसी दिनचर्या को चलने दे रहे थे याकि विवश थे चलने देने के लिए.
ख़ैर! सब कुछ सही चल रहा था. राकेश और मंदाकिनी तो उन दोनों का शुक्रिया अदा करते न अघाते कि उन्हें जीवन में जिस ख़ुशी की क़तई उम्मीद नहीं थी, वह उनके चलते सम्भव हो गया...
और उन सबने उसका वही नाम रख दिया जो उसके लिए अनुकूल था- परी! हां, परी का अपने दादाजी और दादी मां के प्रति जो मन का शदीद झुकाव था, वह अपने मम्मी-पापा की तुलना में बीसा ही कहेंगे. और हो भी क्यों ना, वह अपना अधिकांश समय जो उनकी सोहबत में गुज़ारती थी. निर्भीक-सदया के घर लौटने पर ना दादा-दादी का दिल भरता था कि उसे अपने से दूर करे, ना ही परी का.
इस तरह दो अलग-अलग परिवार, जिनका कोई रक्त का नाता नहीं था और वह, जो पता नहीं किसने पैदा होते ही उसे कूड़े पर डाल दिया था, इन चारों से किसी भी सूत्र से जुड़ी नहीं थी- वह भी, मतलब वे पांचों ज्यों किसी बाग़ के भिन्न-भिन्न पौधों से तोड़े गये फूल एक माला में यों सुशोभित हो रहे थे कि किसी संयुक्त परिवार के सदस्य भी उनकी निस्बत को देख शरमा जाएं.
उस दिन मम्मी-पापा के जाने के बाद दादी जब परी को लेकर ऊपर आयीं, वह नींद में से उठी-उठी ही थी. बहुधा ऐसा ही होता था. रात में मम्मी-पापा दिन भर की अपनी प्यार जताने की क़सर पूरी करना चाहते और परी भी उनके लाड़ में देर तक उधम करती रहती. सुबह वह उनके बारहा उठाने को बिलकुल तरजीह न देती और बिस्तर में पड़ी रहती- कुछ जागती, कुछ सोती. वे बेचारे उसकी पप्पी ले-लेकर उसे दादी मां को सौंपकर उससे विदा लेने को मजबूर हो जाते कि समय से अपने आफ़िस पहुंच सकें.
फिर शुरू होता परी को ब्रश कराने, दूध पिलाने, नाश्ता खिलाने, नहलाने, कपड़े पहनाने आदि प्रक्रियाओं का दीर्घ अनवरत क्रम. इसमें दादी का घुटनों का दर्द चाहते हुए भी यह सब निपटाने में विद्रोह कर जाता परन्तु दादाजी बड़े शौक़ से इन सारे कामों में सहयोग देते रहते. परी के तैयार हेाने तक उसकी बाल-सुलभ शरारतें बढ़ते-बढ़ते इति को स्पर्श करने लगतीं. दादा-दादी उनका मज़ा लेते हुए अपने इस निर्वात जीवन में औचक आ गये इस समीर से तृप्त हो उस से और-और लड़ियाते रहते. फिर राकेश जी अपने कालेज निकल जाते. दादी उसे नई-नई बातें सिखातीं, खाना बनाते हुए भी उससे चुहल करती रहतीं, तत्पश्चात उसे खिलाते हुए उसके नटखट नखरों को मुस्कराकर सहतीं. जब परी की आंखें नींद से बोझिल होने लगतीं, वे उसे कंधे से चिपकाये थपकते हुए लोरी सुनातीं.
परी कुछ देर से ही उठती- छोटी थी ना और उसे रात में अधूरी रही नींद भी पूरी करनी होती. उसे उठाने के लिए हाज़िर हो जाते उसके दादाजी. कालेज में प्रोफ़ेसर को कार्य ही कितना होता है. प्रति दिन दो-चार पीरिएड लिये-लिये कि दादाजी घर दौड़े-दौड़े चले आते. ऐसा ही था परी का आकर्षण. उसके मुंह-हाथ धुलाकर तीनों शाम में पार्क की सैर को निकल पड़ते. वहां दादा-दादी उसे झूले में झुलाते, फिसलनी पर फिसलाते, उसके आगे-पीछे दौड़ते और अन्य बच्चों के संग वह खेल रही होती तो किसी रक्षा-कर्मी की मानिन्द उसका ध्यान रखते.
उन्हें पार्क से लौटने के बाद आपस में परी की खिलन्दड़ी छवि की चर्चा करते हुए नींद आने तक रात काटनी पड़ती क्योंकि परी अपने मम्मी-पापा के पास चली गयी होती. ऐसा ही कुछ प्रेम का विभाजन चला परी का लोअर केजी में दाख़िला होने तक. अब मम्मी-पापा की दिनचर्या वही थी किन्तु दादी उसकी निकटता से ज़रा वंचित रहने लगीं. उन्हें परी को दादाजी के साथ उसके स्कूल भेज देना पड़ता लेकिन उसे लेने वे स्वयं जातीं. इस वापसी के दौरान वे अपने व्यर्थ गये समय की भरपाई करने में कोई कोताही न करतीं.
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वक़्त को रोकने की भला कोई लगाम ईजाद हुई है... वैसे ही प्रेम को उसके समान्तर चलते हुए कम या अधिक होने देना इनसान के बस में क़तई नहीं है. वह तो बुलबुले-सा कभी भी फट सकता है अथवा पृथ्वी की सघनता-सा बरसों बदस्तूर बना रह सकता है. यानी प्रेम भी जीवन जैसा ही है, कब ख़्त्म हो या न हो, आप तय नहीं कर सकते.
यहां वह आकाश-सा ही बना हुआ है, वितान-सा छाया हुआ. इतने साल बीत गये- सब कुछ वैसी ही निरन्तरता लिये हुए. मम्मी-पापा की वही श्रद्धा दादाजी-दादी के वास्ते और दादा-दादी की वही स्नेह-सिक्तता उनके लिए. रह गयी परी- वह अब सोलह वर्ष की हो रही है. कभी ऊपर, कभी नीचे- इनकी प्रीति से आप्लावित, कभी उनके. दसवीं में पढ़ रही थी पर थी वैसी ही छुई-मुई लेकिन शोख़ और चंचल. उसके बोलते रहने को चुपचाप सुनते रहना बेहतर इतना कि चारों प्राणी उसकी बतकही का आनन्द लेने में खोये रहते. उसकी काया- अपनी वक्रताओं के सन्तुलन से लबालब; उसका वर्ण- हल्की हल्दी मिले दूध-सा; उसका चेहरा ज्यों ज्यामितीय कोणों को ध्यान में रखकर तराशा हुआ और उसका तेज़ सूरज की धूप से होड़ लेता हुआ. व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली मानो कस्तूरी की ख़ुशबू और केसर का रंग घोला हुआ हो सही अनुपात में.
बचपन से वह दादाजी और दादी मां के पहलू में बैठी रोती रही, हंसती रही; रूठती रही, मान जाती रही; उछलती रही, कूदती रही- उनके स्नेह से सराबोर उम्र की दहलीज़ें पार करती हुई. इससे हुआ यह कि स्कूल में पढ़ते हुए वह उनके ही मशविरों पर अधिकतर अमल करती रही. मम्मी-पापा से वह जुड़ी नहीं थी, ऐसा नहीं पर उनसे उसका संपर्क तुलनात्मक कम ही रहा और मम्मी-पापा भी उसे दादा-दादी की सलाह लेने को हरदम प्रोत्साहित करते रहे. विशेषतः दादाजी की. दादाजी चूंकि कालेज में पढ़ाते थे, इन मामलात में सही परामर्श देने में सक्षम थे.
परी जब दसवीं में पढ़ रही थी एक दिन हुआ यह कि वह स्कूल से लौटी तो अन्यमनस्क थी. ज़ीना चढ़कर ऊपर गयी. दादाजी ने ज्यों ही दरवाज़ा खोला, 'दादाजी!' -चीत्कार-सा करती, सुबकती हुई सीधे जाकर उनके गले लग गयी और ज़ोर से रोने लगी.
'अरे...रे... क्या हो गया मेरी परी को ?' चिन्तित दादाजी ने उसे अपने सीने से सटा लिया और उसके चिबुक को उठाते हुए पूछा, 'रो क्यों रही हो ?...'
परी ने उनके आगोश में बिसूरते हुए बताया- 'मेरी क्लास का एक लड़का है न... मुझ पर वो... अश्लील फ़िक़रे कसता रहता है... जब देखो तब...'
दादाजी ने उसकी पीठ सहलाते हुए उसे आश्वस्त किया- 'बस! इतनी-सी बात... इसमें क्यों इतनी परेशान हो रही हो... कल ही तुम्हारे साथ स्कूल चलूंगा. फ़ादर से मेरा परिचय है. उस लड़के का नाम तुम बता दो, फ़ादर के सामने उसकी परेड हो जायेगी. नहीं माना तो उसके पेरेन्टस् को बुला लेंगे.' दादाजी ने परी के अश्रु पोंछे- 'इतनी छोटी-सी समस्या और मेरी परी की आंखों में आंसू... चलो, अब हंस दो...'दादाजी ने उसके कपाल पर पप्पी लिया और उसे साथ लेकर दादी के पास किचन में गये- 'सुना श्रीमती जी, हमारी परी का नादानी भरा शिकवा... जैसे पहाड़ टूट गिरा हो... वाह रे मेरी डरपोक परी...!'
परी ने नकली ग़ुस्से से दादाजी को धीरे से चपत लगाते हुए डांटा-- 'आप भी ना दादाजी!' और भागते हुए नीचे अपने कमरे तक जाकर ही दम लिया.
अगले दिन दादाजी उसके संग स्कूल गये. उन्होंने फ़ादर के आफ़िस में जाकर उन्हें संक्षेप में सारी जानकारी दी. फ़ादर ने उस लड़के को बुलाने तुरंत चपरासी को भेजा. लड़का आया तो दादाजी का डिल-डौल, उनकी आयु से कहीं कम लगता उनका तेजस्वी व्यक्तित्व और भूरे नैनों की मारक शक्ति से वह छोकरा यूं ही सहम गया. फ़ादर ने उसे जब उसकी ग़लत हरकतों के लिए फटकारा तो रोनी सूरत बनाकर उसने माफ़ी मांग ली. फ़ादर ने उसे आगाह किया कि यदि उसने दोबारा ऐसा कुछ किया तो उसके मां-बाप को सूचित कर उसे स्कूल से रस्टिकेट कर दिया जायेगा.
इसके पश्चात परी को कोई शिकायत न रही. वह अच्छे अंक लेकर दसवीं उत्तीर्ण हुई तो दादाजी ने उसका एडमिशन अपने ही कालेज में ग्यारहवीं में करवा दिया. उनका कालेज एक नामी कालेज था, जिसके न केवल जूनियर कालेज के विद्यार्थी मेरिट में आते थे अपितु डिग्री कालेज के भी. अब परी रोज़ दादाजी के साथ ही उनकी कार में कालेज जाती. उसके भावी जीवन की सारी ज़िम्मेदारियां दादाजी को सौंपकर निर्भीक और सदया निश्चिन्त हो गये थे.
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दो साल बाद एकाएक तूफ़ान आ गया. ज़िन्दगी का ग्राफ़ भी सेन्सेक्स की तरह रोज़ाना चढ़ता उतरता रहता है. वहां तो रुपयों की आवाजाही- चढ़-उतर -होती रहती है पर ज़िन्दगी के हर दिन के सुख-दुख के उतार-चढ़ाव न सिर्फ़ आर्थिक लाभ-हानि से सम्पृक्त होते हैं बल्कि उससे भी कहीं ज़्यादा मानसिक व अन्ततोगत्वा शारीरिक त्रास के जनक होते हैं. सेन्सेक्स भी नुक़सान के परिणाम में यही असर डालता है लेकिन जीवन से मिली इसी प्रकार की आंदोलित परिणति बेहद ख़तरनाक साबित होती है. मनुष्य को कहीं का नहीं रखती. वह पैसों का अभाव एकबारगी सह भी जाता है- अक्सर -मगर अपनों के खोने की रिक्तता उसे झंझोड़कर रख देती है.
यही हुआ. परी खो गयी. हां, वही परी जो दो परिवारों के बीच सेतु-सी बनी हुई सब का जीने का मक़सद बनी हुई थी. वही ग़ायब हो गयी. सुबह कम्प्यूटर क्लास के लिए निकली थी. लौटकर नहीं आयी. वह रविवार था. मम्मी-पापा उसकी प्रतीक्षा करते रहे. जब उन्हें कुछ गड़बड़ी-सी लगी तो निर्भीक फ़ौरन दादाजी के पास गये और उन्हें बताया कि परी कम्प्यूटर क्लास से ग्यारह तक वापिस आ जाती है, दोपहर का एक बज गया है, उसका अभी तक कोई पता नहीं. वह अपना मोबाइल भी ले जाना भूल गयी है.
दादाजी ने उन्हें तसल्ली देने का प्रयास किया- 'तुम क्यों इतनी फ़िक्र कर रहे हो. क्लास से किसी सहेली के घर चली गयी होगी. आ जायेगी. हमारी परी बहुत समझदार और हिम्मत वाली है....'
'लेकिन बाबूजी, हर इतवार को वह समय से आ जाती है.' निर्भीक ने रुआंसे होकर कहा.
दादाजी ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए उन्हें दिलासा दिया- 'अरे भई, अब वो बड़ी हो गयी है. अपना भला-बुरा ख़ुद समझती है. कुछ देर में आ जायेगी. क्या कहीं से उसने फ़ोन भी नहीं किया ?...'
निर्भीक ने उदास लहज़े में जवाब दिया- 'नहीं... इसीलिए तो हम लोग बेचैन हो गये...'
'चलो, थोड़ी देर और देखते हैं... वह निश्चित ही रास्ते में होगी... अगर न आये तो मुझे आवाज़ देना. मैं नीचे आ जाऊंगा. तुम इतना भी मत घबराओ...'
निर्भीक नीचे आ गये. सदया को सांत्वना दी. दोनों व्याकुल-से परी की राह तकते रहे. जब तीन बजे तक वह नहीं आयी तो उनके सब्र का बांध टूट गया. तभी दादाजी भी उतर कर आये. उनके रिक्त चेहरे देख वे वस्तुस्थिति जान गये. तीनों की सलाह-मसलत हुई. तय हुआ कि पुलिस से संपर्क किया जाये. दादाजी और निर्भीक पुलिस स्टेशन गये. एफ़आईआर दर्ज़ की. उनसे परी को जल्द तलाश करने की गुज़ारिश की.
शाम हुई. रात भी आ गयी. परी का कोई अता-पता नहीं था. उसकी चन्देक सहेलियों से भी पूछताछ की. निर्भीक-सदया इस सदमे को झेल नहीं पा रहे थे. क्या हुआ कि वह उनकी गोद ली हुई लड़की थी... अठारह वर्षों के अटूट लगाव के बनिस्बत पराये से भी प्रेम की घनिष्टता हो जाती है. फिर जिसे अपनी बेटी मान तहे-दिल से चाहा हो, वह तो जिगर का टुकड़ा हो जाती है. वे रात भर सो नहीं पाये. दादा-दादी भी कई बार नीचे आ-आकर पूछते रहे.
ऐसी कई रातें उनकी क़िस्मत में लिखी हुई थीं. महीने से ज़्यादा हो गया पर पुलिस की निष्क्रियता वैसी ही बनी हुई थी.अंततः निर्भीक ने दादाजी सेचिन्ताकुल हो अपनी व्यथा को शब्द दिये- 'बाबूजी, अब तो अति हो गयी. पुलिस भी कुछ नहीं कर पा रही है. हमारा जीना मुश्किल हो गया है. हमारा वही तो एक सहारा थी...'
दादाजी ने भी अवसन्न मन से उनकी बेबसी का समर्थन किया- 'तुम सही कह रहे हो निर्भीक... हमारा भी यही हाल है... जैसे अपने बदन का एक अंग कटकर कहीं रास्ते में गिर गया हो... एक काम करते हैं. मैं एक महिला जासूस को जानता हूं, जो इन दिनों काफ़ी सक्रिय है. उसने कई दुश्वार केसेस हल की हैं और अपराधी ढूंढ निकाला है. क्यों न हम उसे...'
'आप एकदम ठीक कह रहे हैं. हम उसीसे कल मिल लेते हैं. शायद वही...'
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वे दूसरे दिन निहारिका नाम की उस प्राइवेट जासूस से मिले. उसने सम्पूर्ण घटना सुनी और उन्हें भरोसा दिलाया कि गुनहगार को वह जल्द ही अपने शिकंजे में कसकर उनके सामने पेश कर देगी.
निहारिका ने कई फ़िल्मी सितारों के लिए काम किया था. अधिकतर तो प्रेमी या प्रेमिका अपने साथी के विषय में जानना चाहते रहे थे कि वह एकनिष्ठ है अथवा नहीं. फिर चोरी और हत्या की कतिपय वारदातों में अपराधी को कठघरे में खड़ा करने में वह सफल रही थी. पति-पत्नी के एक-दूसरे पर शक करने की बिनाह पर उसने कुछ सच्चे-झूठे कारनामों पर से परदा उठाने में क़ामयाबी पायी थी. लेकिन... परी के प्रसंग में वह भी नाकाम सिद्ध हो रही थी.
पांच महीने बीत चुके थे. सभी ने तक़रीबन अपने मन को समझा लिया था कि अब परी के लौटने की कोई उम्मीद नहीं बची. दादाजी इस बीच सेवा-निवृत्त हो गये थे. उन्होंने तीर्थ-स्थलों के भ्रमण का दो महीनों का लम्बा कार्यक्रम बनाया. दादी को बताया तो उन्होंने अपनी तबीयत- जो कम-अधिक चल ही रही थी -की वजह से जाने से मना कर दिया. वे बोलीं- मैं अपने घुटनों के दर्द के कारण इन स्थानों पर क्या तो चल पाऊंगी, चढ़ना-वढ़ना तो मेरी कल्पना से परे है. आप अकेले घूम आओ.'
दादाजी ने उन्हें मनाने की कोशिश की- 'मैं हूं ना. तुम्हें सम्भाल लूंगा. यहां तुम्हारा कौन ख़याल रखेगा ?...'
'क्यों ?... निर्भीक-सदया नहीं हैं क्या ?...' दादी ने प्रतिप्रश्न किया. फिर ज़िद कर ली- 'मेरी क़सम है आपको... आप चले जाओ. अगली बार चलूंगी ठीक हो जाने पर.'
निर्भीक-सदया ने भी दादी का समर्थन किया. सदया ने तो यह भी कह दिया- 'क्या आपको हम पर यक़ीन नहीं है कि दादी के स्वास्थ्य का हम ध्यान रख पायेंगे. बाबूजी, आप हो आइए. हम आपकी वापसी पर अम्मा को इससे बेहतर हालत में आपको लौटा देंगे.'
दादाजी ने ज्यों अपनी पराजय स्वीकार कर ली- 'अच्छा बाबा, मैं हारा आप सब जीते. बस!'
लेकिन उनके जाने के एक दिन पहले दादी को बुख़ार आ गया. निर्भीक-सदया के ज़ोर देने पर उन्होंने दादी के लिए नर्स का इन्तज़ाम कर दिया क्योंकि वे दिन भर तो आफ़िस में रहते थे. उनके और दादी के आश्वस्त करने पर बुझे-बुझे वे पर्यटन पर निकल पड़े.
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दो दिनों पश्चात ही निहारिका ने परी के पापा को फ़ोन कर तुरंत एक पते पर पहुंचने के लिए कहा.
निर्भीक और सदया मीरा रोड की गौरव वैली के टुलिप-ई विंग के फ़्लैट नं. 701 के लिए सातवीं मंज़िल पर लिफ़्ट से बाहर आये तो वहां निहारिका उनके इंतज़ार में खड़ी थी. उसने उन्हें अपने साथ आने का इशारा किया. फ़्लैट के भिड़े दरवाज़े को तनिक धक्का देकर उसने जब खोला तो निर्भीक-सदया को बैठक में सोफ़े की कुर्सी पर दादाजी बैठे दिखाई दिये. निर्भीक ने आश्चर्य जताया- 'बाबूजी आप ?... आप तो तीर्थ-यात्रा पर...'
निहारिका ने उन्हें बैठने को कहा और फिर विस्मित कर दिया- 'ये ही हैं आपके अपराधी- मि. राकेश गुप्ता उर्फ़ दादाजी...'
'क्या!...' निर्भीक-सदया अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे. सदया ने तो निहारिका को डांटने के-से अंदाज़ में कहा, 'निहारिका जी, आप क्या बकवास कर रही हैं... बाबूजी, और...'
'मैं सत्य बता रही हूं, सदया जी...'
सदया ने बीच में ही उसे टोका- 'तो फिर हमारी परी कहां है ?...'
निहारिका ने अन्दर के कमरे की तरफ़ संकेत किया- 'वह भीतर सो रही है, प्रेग्नंट है न... आइए. उससे मिल लीजिए...' सदया हड़बड़ी में निहारिका के पीछे चलते हुए बुदबुदायी- 'प्रेग्नंट!... कैसे ?...'
उस कमरे में परी बेड पर सोयी हुई थी. नज़दीक ही स्टूल पर दवाइयां रखी थीं. सदया ने उसे हिलाया- परी... परी... क्या हो गया तुझे...'
परी गहरी नींद में से चौंक कर उठी. सदया को देखा- 'मम्मी... मैंने आपको ब.. बहुत सताया... मुझे... माफ़..'
'पर बच्ची... तूने ये क्या कर लिया. शादी से पहले ही...'
उसकी आंखों में आंसू थे पर वह दृढ़ शब्दों में बोली, 'हां मम्मी, मुझसे यह हो गया... पता नहीं अवैध या क्या... हम दोनों उस समय अपना होश खो बैठे थे... इसमें मैं भी बराबर की अपराधी हूं. '
सदया ताज्जुब से उसे देखती रह गयी. उसके पार्श्व में भौंचक खड़े निर्भीक को भी यह सब विचित्र-सा लग रहा था. वह थर-थर कांपते हुए बैठक में आया- 'बा... मि. राकेश यह सर्वथा असभ्यता है... असांस्कृतिक है... अपनी नासमझ पोती को बहकाकर आपने उसके साथ दुष्कर्म किया... आपको शर्म नहीं आयी...'
राकेश जी ने कुछ शर्मिन्दा होते हुए कहा, 'बेटा, ऐसा हो जाता...'
'आप मुझे बेटा मत बुलाइए, वह रिश्ता ख़त्म हो गया है...' निर्भीक का ग़ुस्सा उफान पर था.
निहारिका ने निर्भीक को पकड़कर ज़बरन सोफ़े पर बैठाया- 'निर्भीक जी, माना कि दादाजी की ग़लती है पर उनका पक्ष तो आप सुन लीजिए...'
दादाजी ने दो बार ज़ोर से सांस खींचकर अपने फेफड़ों में भरी., रूमाल से अपना चेहरा पोंछा, फिर थम-थमकर अपना बयान दिया- 'निर्भीक, तुमने परी का सारा उत्तरदायित्व मेरे कंधों पर डाल दिया था. मैं उसे अपनी पोती जैसा ही स्नेह देता रहा. जब वह जवान हुई, उसका बर्ताव मुझे कहीं अमर्यादित लगा तो मैं उसे समझ भी देता रहा. वह मुझे उसी जोश से बांहों में भरती रही, मेरे गालों पर चुम्मे लेती रही... मैंने इसे उसका बचपना ही माना. फिर अकस्मात् हमारा दादा-पोती का प्रेम स्त्री-पुरुष प्रेम में अंतरित हो गया...'
दादाजी सांस लेने रुके. टेबिल पर रखे गिलास से दो घूंट पानी पीया- 'एक दिन ऐसा कुछ हुआ कि परी आयी और मुझसे लिपटकर बुरी तरह रोने लगी. मैं उससे कारण पूछूं, उससे पहले ही वह बोल पड़ी- 'दादाजी, मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है... मैं बिलकुल अकेली हूं... मेरे सगे-सम्बन्धी भी कोई नहीं... मैं तो किसीके द्वारा दुत्कार कर छोड़ी गयी एक बदनसीब लड़की हूं...' मैंने उसे अपनी देह से और सटा लिया और सांत्वना दी- 'मूरख छोकरी, कैसी बेतुकी बातें कर रही हो... क्या हम तुम्हारे नहीं हैं, तुम हमारी नहीं हो...' उसने मुझे अपने आलिंगन में कस लिया और उसासें ले-लेकर विलाप करने लगी. मैंने उसके माथे पर चिपके बालों को सहेजा; उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में थामा; उसकी आंखों को, जो आंसुओं से लबालब थीं, अपने होंठों से चूम लिया. प्रत्युत्तर में उसने मेरे होंठों का चुंबन लिया और हम नहीं जान पाये कि कैसे हम पर काम हावी हो गया... अनायास ही हम नर-मादा बन गये... देर तक एक-दूजे को चूमते रहे और हमारे शरीर वासना की लय में संचारित होते गये... योग ऐसा हुआ कि उस वक़्त मेरी पत्नी सब्ज़ी ख़रीदने बाज़ार गयी हुई थी. हम एक-दूसरे को बांहों में जकड़े पता नहीं कब बिस्तर पर चले गये...'
निहारिका ने उन पर फ़ौरी आरोप लगाया- 'अनायास !... हुंह... अनायास कैसे हो गया... आप बड़े थे, आपको संयम बरतना चाहिए था. उस बच्ची को रोकना चाहिए था.'
इस वार्तालाप के मध्य परी आकर दरवाज़े का सहारा लेकर खड़ी हो गयी थी. वह धीर-गंभीर स्वर में बोली, 'एक तरह से राकेश जी ने मुझे रोकना ही चाहा था. मैं स्त्री थी फिर भी स्वयं को बहने से रोक न सकी.'
'मैं स्वीकार करता हूं, मुझे स्थितियों पर क़ाबू करना था लेकिन दिमाग़ पर हवस की धुंध छा गयी थी...'
'लेकिन राकेश जी, आपने जो पत्नी के होते हुए उसे गर्भवती किया, अपहृत किया, यहां छुपाकर रखा- यह गुनाह ही हुआ ना...' निहारिका ने अपनी दलील दी.
'मुझे इसके लिए बेहद पश्चाताप है... मैं तो यह भी नहीं जानता कि मैं अपनी पत्नी को कैसे-क्या सफ़ाई दूंगा... असल में परी के मां बनते ही सबको सच्चाई बताकर क्षमा मांगने का मेरा प्लान था. आपने उससे पहले ही हमें पकड़ लिया... बहरहाल, मैं अपने ज़ुर्म को क़ुबूल करता हूं. आप लोग जो चाहें सज़ा दें.'
निहारिका ने सभी पर एक भरपूर दृष्टि डाली और बोली, 'यह सारा परिस्थितियों का खेल है. इच्छा न होते हुए भी रिश्तों की असलियत को हम कई मर्तबा भुला बैठते हैं. किसीको भी कामाग्नि में यह होश नहीं रहता कि क्या उचित है, क्या अनुचित... यह समाज-सम्मत है भी या नहीं... स्त्री तो वहीं पर दिल दे बैठती है, जहां उसे किसीसे ज़रूरत से ज़्यादा विश्वसनीयता मिलने की आस मज़बूत होती दिखाई देती है. वहां उम्र कोई मायने नहीं रखती. और... बचपन से जिसे गोद खिलाया, बहुत-बहुत प्रेम दिया, वह बहन-बेटी नहीं है तो यह प्रेम दीर्घ समीपता के पश्चात अचानक कामोन्माद में तब्दील हो सकता है.'
सबको चुप देखकर उसने संजीदगी से कहा- 'निर्भीक जी, यह सर्वथा आपका पारिवारिक मामला है. मैं स्वयं इसे पुलिस में देने की तरफ़दार नहीं हूं. आगे आपकी मर्ज़ी...'
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अशोक गुजराती
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