- दयाधर जोशी गोवर्धन गिरे तुभ्यं गोपानां सर्वरक्षकम्, नमस्ते देवरूपाय देवानां सुखदायिने॥ उत्तराखण्ड में हिमालय के पास अक्षयलोक से...
- दयाधर जोशी
गोवर्धन गिरे तुभ्यं गोपानां सर्वरक्षकम्,
नमस्ते देवरूपाय देवानां सुखदायिने॥
उत्तराखण्ड में हिमालय के पास अक्षयलोक से एक शिखर उस समय अवतरित हुआ जब प्रभु श्रीराम ने इस धरा पर अवतार लिया था। इस शिखर का नाम गोवर्धन था। जब प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया था तब अक्षयलोक से सभी दवे ता उन्हें अपना सहयोग प्रदान करने एवं उनकी लीलाओं का आनन्द लेने के लिये पृथ्वी पर आये थे। लंका पहुँचने के लिये समुद्र पर रामसेतु का निर्माण हो रहा था। दक्षिण के सभी पर्वतों एवं वृक्षों को सेतु निर्माण हेतु समुद्र में डालने के बाद वानर पर्वतों की खोज में निकल गये। श्रीराम की आज्ञानुसार, "जय श्रीराम" का सिंहनाद करते हुए हनुमानजी हिमालय की तरफ चले गये। वहाँ उन्होंने सात कोस का एक विशाल पर्वत शिखर देखा। उन्होंने मन ही मन सोचा, यह विशाल शिखर सेतु निर्माण के लिये उपयुक्त रहेगा। हनुमानजी ने इस शिखर को उठाना चाहा। अपनी पूरी शक्ति लगा कर शिखर को उठाने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। उन्होंने प्रभु श्रीराम का स्मरण किया तो उन्हें पता चला कि इस शिखर की प्रत्येक शिला विष्णु स्वरूप है, कृष्णस्वरूप है।
यह पूरा शिखर साक्षात विष्णु का विग्रह "गोवर्धन" है। गोवर्धन की महत्ता का ज्ञान होते ही हनुमानजी ने उन्हें प्रणाम किया और उनके समक्ष बहुत ही विनम्र होकर अपना निवेदन प्रस्तुत करते हुए कहा- "हे गिरि श्रेष्ठ गोवर्धन! मैं आपको प्रभु श्रीराम के साक्षात दर्शन कराना चाहता हूँ। आपको उनके चरणों में प्रस्तुत करना चाहता हूँ। वहाँ पहुँचने पर आपको प्रभु के दर्शनों का लाभ तो मिलेगा ही, प्रभु आपके ऊपर अपने अपार सुख-प्रदाता चरण कमलो को रख कर समुद्र को पार करेंगे। लंका पहुँच कर अहंकारी रावण का वध करेंगे। अखिल भुवन की स्वामिनी माता सीता को लंका से सकुशल वापस लाने के लिये ही रामसेतु का निर्माण किया जा रहा है। सब कुछ जानते हुए भी आप हठ क्यों कर रहें है?" हनुमानजी के मधुर वचन सुनकर गोवर्धन को परम आनन्द की अनुभूति हुई। भगवान के साक्षात् दर्शन होंगे, प्रभु श्रीराम मुझ पर अपने तारणहार चरणों को रखकर समुद्र को पार करेंगे! प्रभु की कृपा के कारण ही मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। हे मर्कटाधीश, "आप मुझे तुरन्त प्रभु के पास ले चलें। मैं सदैव आपका आभारी रहूँगा।" जो गोवर्धन टस-से मस नहीं हो रहे थे वे हनुमानजी के वामहस्त में एक साधारण पुष्प की तरह समा गये हैं। प्रभु के पास शीघ्र पहुँचने के लिये मन ही मन प्रार्थना कर रहे हैं। "हनुमानजी की कृपा से मेरी मनोकामनापूर्ण होगी, प्रभु के दर्शन होंगे, प्रभु के चरणों के स्पर्श-का सौभाग्य प्राप्त होगा। लम्बे समय तक कमल नयन प्रभु के सानिध्य एवं चरण स्पर्श का चरम सुख प्राप्त होगा"!
यहाँ हनुमानजी गोवर्धन को अपने वाम हस्त पर धारण कर उड़ रहे हैं लेकिन वहाँ प्रभु श्रीराम मन ही मन विचार कर रहे हैं कि अक्षयलोक में गोवर्धन को मेरा बंशीधर रूप बहुत प्रिय लगता था। मेरे मुरलीमनोहर रूप का अनन्य भक्त है गोवर्धन। क्या उसे मेरा यह मर्यादा पुरूषोत्तम रूप उचित लगेगा? यदि गोवर्धन मुझसे मुरलीमनोहर के रूप में ही दर्शन का आग्रह करेगा तो क्या होगा? हनुमानजी ने गोवर्धन को मेरे साक्षात दर्शन एवं चरण स्पर्श का वचन तो दे दिया है, लेकिन यदि गोवर्धन मोरमुकुट बंशीधर रूप में ही दर्शन का हठ कर बैठा तो क्या हनुमानजी की उपस्थिति में मुझे अपनी मर्यादा का त्याग करना पड़ेगा? क्या मर्यादा का त्याग करना उचित होगा? इस दुविधा का अन्त कैसे हो सकता है? हनुमानजी के पहुँचने से पहले ही प्रभु श्रीराम को यह अवगत करा दिया गया कि सेतु निर्माण का कार्य पूर्ण हो गया है। सत योजन लम्बा सेतु बनकर तैयार हो चुका है।
इस खबर को सुनकर प्रभु श्रीराम चिन्तामुक्त हो गये। उनकी दुविधा का अन्त स्वतः ही हो गया। असमंजस की स्थिति समाप्त होते ही उन्होंने सभी वानरों को आदेश दिया कि अब सेतु निर्माण हेतु सामग्री की आवश्यकता नहीं है। जिस किसी के हाथ में पर्वत, पेड़ आदि हैं उन्हें वहीं स्थापित कर, सभी मेरे पास पहुँचें। वानरों ने प्रभु की इस आज्ञा को तुरन्त प्रसारित कर दिया। सभी ने पर्वत आदि को अपने हाथ से छोड़ दिया और प्रभु के पास पहुँच गये। ये सभी पर्वत आज भी दक्षिण भारत में मौजूद हैं। जब यह आकाशवाणी हुई तब हनुमान व्रजभूमि के ऊपर थे। उन्होंने तुरन्त गोवर्धन को ब्रजधरा पर रखकर प्रभु के आदेश की पालना की। गोवर्धन निराश हो गये। हे पवन पुत्र हनुमान,! यह क्या हो गया! मैं तो कहीं का नहीं रहा। प्रभु का सानिध्य एवं चरणों का स्पर्श पाने की प्रबल इच्छा के कारण मैं भगवान शिव से भी दूर हो गया हूँ।" हनुमानजी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैंने आपको जो वचन दिया है प्रभु उसे अवश्य ही पूरा करेंगे। आप मुझ पर भरोसा रखें।
हनुमान व्रजधरा को छोड़कर तुरन्त प्रभु श्रीराम के पास पहुँच गये। प्रभु को प्रणाम करने के बाद उन्होंने गोवर्धन को दिये गये वचन की जानकारी देते हुये कहा-"प्रभु, गोवर्धन बहुत निराश हो गये हैं। मैंने उन्हें पुनः आपके दर्शनों का भरोसा दिया है।" प्रभु श्रीराम ने हनुमान से कहा-"गोवर्धन को मेरे दर्शन अवश्य होंगे। नित्य दर्शन लाभ के साथ ही मैं उस पर अपने चरणों से नित्य क्रीड़ा भी करूँगा। लेकिन यह द्वापर में सम्भव होगा। द्वापर में मोरमुकुटधारी, मुरलीमनोहररूप में मेरा अवतार व्रजभूमि में ही होगा। द्वापर युग में, मैं गोवर्धन को सात दिन तक अपनी अँगुली पर धारण करूँगा। तुम यह जानकारी तुरन्त गोवर्धन को दे दो।" हनुमान गोवर्धन के पास पहुँचे। उन्हें प्रभु का संदेश सुनाया। उन्होंने गोवर्धन से कहा-"द्वापर में आपको मोरमुकुटमुरलीमनोहर मिलेंगे, आपके ऊपर गोचारण करेंगे। गोप-गोपियों के साथ नित्य क्रीड़ा करेंगे। आपके फल-फूल व अन्य वनस्पतियों का उपयोग करेंगे। इतना ही नहीं आप सात दिन तक लगातार प्रभु के कर कमल पर निवास करने का सौभाग्य भी प्राप्त करेंगे। आपके कारण ही प्रभु का एक नाम गोवर्धनधारी भी होगा। आपको प्रभु के सर्वांग स्पर्श का सुख-प्राप्त होगा। आपकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी।"
हनुमानजी की मधुर वाणी सुनकर गोवर्धन गद्गद् हो गये। उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे। उन्होंने हनुमानजी से कहा-"आपकी कृपा मुझ पर हमेशा बनी रहे। मैं आपकी कोई सेवा नहीं कर सकता, लेकिन मैं हमेशा आपका कृतज्ञ रहूँगा। द्वापर में मुरली मनोहर कृष्ण जब मेरी मनोकामना पूर्ण करने के लिये आयेंगे तब आपको भी उनके साथ आना होगा। आपको मेरी यह शर्त स्वीकार करनी पड़ेगी।"हनुमानजी ने कहा-"हे गिरिराज! चिन्ता मत करो, जहाँ-जहाँ राम और कृष्ण होंगे वहाँ हनुमान भी होगा। मैं भी तुम्हारी कन्दराओं से मुरलीमनोहर श्रीकृष्ण की लीलाओं का आनन्द प्राप्त करूँगा।" गोवर्धन को परमसुख प्रदान कर हनुमान वापस प्रभु श्रीराम के चरणों में लौट आये। गोवर्धन की सात कोस की परिक्रमा में हनुमान दस स्थानों पर विराजमान हो गये ताकि प्रभु का प्रवेश जिस किसी भी दिशा से हो उन्हें सादर गिरिराज पर ले जाया जा सके। इस गिरिराज के चारों ओर आज भी हनुमानजी के दस अर्चा-विग्रह हैं, जिन्हें बहुत ही चमत्कारिक माना जाता है। इस गिरिराज पर्वत पर हनुमानजी, प्रभु श्री कृष्ण के क्रीड़ा-सखा हैं। इस पर्वत पर रहने वाले सभी वानरों को हनुमानजी की मण्डली मान कर लोग इनकी पूजा करते हैं। सात वर्ष की उम्र में श्रीकृष्ण ने अपने बायें हाथ की कनिष्ठा उँगली पर गोवर्धन को सात दिन तक धारण कर इन्द्र भगवान का मान-भंग किया था और व्रजवासियों की रक्षा की थी। सात वर्ष की उम्र में ये गिरिधर, गिरिधारी, गोवर्धनधारी बन गये। यह गोवर्धन श्रीकृष्ण और राधा का विहार स्थल है।
जो भी निर्मल मन से गिरिराज की शरण में जाता है उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। हनुमानजी की उपस्थिति के कारण परिक्रमा में आने वाले प्रत्येक भक्त का हृदय काम-भाव से निवृत हो जाता है। इस क्षत्रे मं होने वाली रासलीला" सदैव काम-भाव से मुक्त होती हैं। व्रज में यह गिरिराज, श्रीकृष्ण भगवान का साक्षात स्वरूप है। इसलिये इन्हें कलिकाल का प्रत्यक्ष देवता कहते हैं। पवन पुत्र हनुमान भी प्रत्यक्ष दवेता हैं, जाग्रत देवता हैं। इन प्रत्यक्ष देवताओं के दर्शन करने के लिये देश के विभिन्न भागों से लाखों भक्त प्रतिवर्ष गिरिराज की परिक्रमा करते हैं। गिरिराज और हनुमानजी की उपस्थिति के कारण व्रजभूमि पावन स्थल है, पूजनीय है। दीपावली के बाद पूरे देश में व व्रज के प्रत्येक घर में गाय के गोबर से गोवर्धन बनाया जाता है। गोवर्धन के साथ ही गोबर से "लांगुरिया" भी बनाया जाता है। कौन है यह लांगुरिया? लांगुरिया श्री कृष्ण के प्रिय सखा हनुमानजी का प्रतिरूप है। इनकी पूजा के बाद ग्रामवासी पूजन सामग्री को वानरों और लंगूरों को खिला देते हैं।
बचपन में जब यशोदा मैया श्री कृष्ण लाला को माखन-मिश्री खिलाती थीं तो वहाँ एक वानर उपस्थिति हो जाता था। यशोदा माता उसे भगाती थीं, पर वह वहाँ से जाता ही नहीं था। लाला को खिलाते समय, लाला के मुखसे जो माखन-मिश्री जमीन पर गिर जाती थी उसे यह वानर खा लेता था। हठी स्वभाव के कारण इसे सब "हठी वानर" कह कर पुकारते थे, गोकुल के पास इसी "हठीलो हनुमान" का बहुत ही चमत्कारी अर्चा-विग्रह स्थापित है। मथुरा से वृन्दावन के रास्ते, वृन्दावन के पास "लुटेरिया हनुमान" का अर्चा-विग्रह है। श्री कृष्ण अपने परम सखा हनुमानजी को वृन्दावन के मुख्यद्वार पर बैठा देते थे और ये मथुरा से आने वाली उन सभी गोपियों की जानकारी प्रभु श्री कृष्ण को दे देते थे जो दधि, माखन बेचने आती थीं। दधि, माखन लूटने में ये "लुटेरिया हनुमान" श्री कृष्ण को अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करते थे।
गोवर्धन के "पूँछरी-लौठा हनुमान" भी दधि, माखन लूटने में सहयोग प्रदान करते थे। कहते हैं, दधि, मक्खन लूटने वाले ये हनुमान और श्रीकृष्ण की बाँसुरी, गोप और गोपियों के चित्त के विकारों को भी लूट लेते थे। इनके सानिध्य में सभी का मन निर्मल और काम-भाव से मुक्त हो जाता था। गोवर्धन की प्रत्येक शिला शालग्राम-तुल्य है। गोवर्धन गौवों का रखवाला है, व्रजवासियों का जीवन रक्षक है। इनकी पूजा करने से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।
एक पौराणिक कथा के अनुसार ऋषि पुलस्त्य ने पर्वतराज द्रोणाचल से कहा, ‘मैं तुम्हारे पुत्र गोवर्धन को अपने साथ काशी ले जाना चाहता हूँ। द्रोण ने ऋषि के अनुरोध को स्वीकार कर लिया तो गोवर्धन दुःखी हुए। गोवर्धन ने ऋषि पुलस्त्य से कहा, ‘यदि आप थकान के कारण रास्ते में मुझे पृथ्वी पर रखेंगे तो मैं वहीं अचल हो जाऊँगा। आपके साथ आगे नहीं जाऊँगा। ऋषि ने शर्त को स्वीकार कर गोवर्धन को धारण किया और आगे बढ़ गये। जब वे ब्रजधरा के ऊपर से जा रहे थे तो गोवर्धन ने अपने भार में अत्यधिक वृद्धि कर ली। भार असहय होने पर ऋषि ने उन्हें व्रजधरा पर रख दिया। अपनी शर्त के अनुसार गोवर्धन वहीं अचल-अटल हो गये। ऋषि ने क्रोध के वशीभूत होकर गोवर्धन को शाप दे दिया और कहा ‘तू प्रतिदिन तिल-तिल घटता चला जायगा।‘ कहते हैं, इस शाप के कारण गोवर्धन का तिल-तिल क्षरण का क्रम आज भी जारी है।
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