कहानी - गुणा-भाग

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तरूण भटनागर   चंपालाल उसे लगातार घूर रहा था.....। कच्चे फर्श पर उसे लिटाया गया था। उसके गर्दन तक एक चादर पड़ी थी। चादर के बाहर दो काले, आढ़...

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तरूण भटनागर

 

चंपालाल उसे लगातार घूर रहा था.....।

कच्चे फर्श पर उसे लिटाया गया था। उसके गर्दन तक एक चादर पड़ी थी। चादर के बाहर दो काले, आढ़़ी-टेढ़़ी उँगलियों वाले, गहरी बिवाइयाँ और मिट्टी से सने पैर निकले हुए थे। उसके दाहिने पैर में टखनों के ऊपर सफेद कपड़े की पट्टी बँधी थी, जिसके भीतर पत्थर जैसी चीज गुड़मुड़ी की हुई थी। कपड़े पर हल्दी और खून की कुछ बूँदे सूखकर जमी थीं। चंपालाल ने उसके पैरों को छुआ और फिर से देखने लगा..........वह कुछ ढ़़ूँढ़़ रहा था। फिर अपना चेहरा झोंपड़े की छप्पर की ओर करके ताकने लगा।

भीतर से किसी औरत के रोने की आवाज आ रही थी और फर्श पर लेटे उस आदमी के मुँह से अब भी कुछ झाग जैसा निकल रहा था। उसके नाखून काले पड़ चुके थे। उसकी आँखे जो खुली थीं.........अपलक घण्टों से छत की फूस को एकटक देख रही थीं। आँख की पुतलियाँ अब सफेद नहीं थीं, वे सलेटी रंग की हो गई थीं।

चंपालाल को कुछ भी अजीब नहीं लगता। कल तक वह उसके साथ जंगल में मारा-मारा घूमता रहा.....जंगल-भाटा, खेत-खलिहान, बाड़ी बागर,.....और भी जाने कहाँ-कहाँ। पर आज वह मर गया। चंपालाल जानता है कि, मरना एक घटना है.....एक रोजमर्रा की बात.....पर जिंदा रहना उतना आसान नहीं है......वह टेढ़़ी, कठिन बात है,उसके बुजुर्गों ने सयाने लोगों ने उसे यही सिखाया है।

भीतर से औरत के रोने की आवाज के अलावा, बाकी सब शांत था। लोग चुपचाप बैठे थे। औरत ने आदमी की लाश को अब तक नहीं देखा था। बस्ती के लोग जमा हैं, वह कैसे उनके सामने चली जाय अपने आदमी को देखने। लोग क्या कहेंगे ? कैसी बेशरम है। लाज नहीं आती,एकदम से चली आई गाँव के मर्दों और सयानों के सामने.......छि....। वह औरत अपने आदमी की लाश अगर देखे तो कैसे देखे। वह नहीं आई। वह दीवार के पार ओसारे में लंबा घूँघट लिए सुबक रही है, बस्ती की कुछ औरतें उसके पास बैठी हैं।

यह कौन से नंबर की मौत है ?

चंपालाल गिनती लगाने में कमजोर है। तेरहवीं या चौदहवीं..........राम जाने, कौन सी ? कहते हैं उनकी पूरी बस्ती के साथ ऐसा होना बदा है, जन्म जन्मांतर की होनी........उनके बाप-दादा और उनसे पहले की होनी,पुरखों के समय से चली आई होनी........होनी कि खूब लोग मरेंगे। जितने जिंदा होंगे, उतने ही मरे होंगे। रीत यही कहती है। पुरखों की रीत। जितनी सुहागनें, उतनी ही विधवा। सुना है,पुरखों के समय सुहागन और विधवा में ज्यादा फर्क नहीं था। पर अब यह फर्क है। इसी का नाम कलयुग है।

हे........पीपा भगत।'

एक बुजुर्ग ने मुर्दे के पैर में बँधे कपड़े को छूकर कहा। फिर अपना हाथ अपने माथे पर लगा लिया।

'कल्याण हो। कल्याण हो.......।'

एक दूसरा बुजुर्ग मुर्दे पर पानी छींछता हुआ कह रहा था।

'इस तरह मरना शुभ है।'

'पीपा भगत का बरदान मिला है।'

लोग आपस में बातें कर रहे थे।

'बापू............बरदान माने।'

एक लड़के ने पूछा।

'चुप......। तू बहुत पूछता है।

'अरे बता दे काहे झिड़कता है।

'तू ही बता.......।'

'बरदान.......बरदान याने भगवान का फल। जो इच्छा से हँसी खुशी मिले...माने अच्छा.....बहुत अच्छा।'

'पर ये तो मर गया। मरने में कैसा बरदान...।'

'यही तो बरदान है, अच्छा है। परसाद है।'

'काहे ?'

'चुप रह। ये सब तू नहीं समझेगा।'

'काहे ना समझेगा। तू चुप रह चंपालाल। हमेशा लड़के पर रिरियाता रहता है।'

'हमारे यहाँ साँप के डसे से मरना माने पुण्य। वरदान......याने अच्छा। बहुत पहले आज से कई सालों पहले, हमारे पुरखे जब धरती पर आये, तब उनका बड़ा प्रताप था। पीपा भगत सबसे पहले थे। हाँ सबसे पहले। उन्हें साक्षात शिव का बरदान मिला था। पीपा भगत ने माँगा कि वे भी शिव की तरह देवताओं की रक्षा का सौभाग्य पा सके........।'

'फिर.........।'

'फिर क्या शिव ने हाँ कह दी। पीपा भगत को भला मना कर सकते थे। पर एक शर्त भी रखी, आकाश के देवता शिव के हवाले और धरती के देवता पीपा भगत के हवाले ......माने आकाश के देवता की रक्षा शिव करेंगे और धरती के देवता की रक्षा पीपा महाराज करेंगे.......।'

'धरती के देवता।'

'हाँ धरती के......। पर एक शर्त और थी।'

'क्या ? एक और शर्त।'

'हाँ एक और....। जितना जहर शिव ने अपने कंठ में रोका है, वह सारी सृष्टि के देवताओं को मरने से बचाता है, इसलिए धरती के देवता की रक्षा का सौभाग्य पाना हो तो धरती के देवता के हिस्से का जहर भी लेना होगा......।'

'बाप रे......।'

'हाँ, तो। जहर से डरना क्या। जहर तो अच्छा है। शिव का प्रसाद है।'

'मुझे डर लगता है.......साँप से भी और जहर से भी।'

उस बुड्ढ़़े ने उस लड़के के सिर पर अपना हाथ रख दिया। उस बड्ढ़़े की पनीली आँखों को देखकर लड़के को क्षणभर को लगा जैसे वह रो रहा है पर यह भ्रम था उस बुड्ढ़़े की आँखें, रोती आँखों से मिलती जुलती थीं।

'संपेरे की औलाद होकर साँप से, जहर से डरता है। छिः.....। पढ़़ता है क्या....?'

'प्राथमिक पाठशाला......।'

'तभी गड़बड़ है। इस ससुरी कलयुग की विद्या ने ही सर्वनाश किया है। पुराने सरपंच को मैंने कहा था, हमको नहीं चाहिए पाठशाला.....नहीं चाहिए गुरुजी.....सब उल्टी बात बताने वाले लोग। पर कौन सुनता है......पुराना सरपंच तो कोई काम का नहीं रहा.....पूरी पंचायत चट कर गया हरामी......।'

लड़का चुप.....।

'जानते हो धरती का देवता कौन है ?'

'ना।'

'धरती पर भी देवता है।'

'सच में।'

'हाँ।'

'पर.......।'

'बस एक ही टाइप का देवता है। उसका नाम है साँप.....साँप देव।'

'हाँ लोग पूजते हैं।'

'बस साँप को ही देवता मानते हैं। बाकी

धरती पर कोई देवता नहीं है।'

'और जहर .......।'

'शिव ने धरती के देवता के हिस्से का जहर, साँप के मुँह में धर दिया। पीपा भगत सबसे बड़ा देव हो गया....सबसे बड़ा......।'

'फिर।'

'पीपा भगत तो प्रतापी थे। साक्षात देव। उन्होंने हामी भर दी और इस तरह साँप देव के रक्षा का जहर हमारे हिस्से आ गया।'

'अद्भुत। बाबा अद्भुत।

लड़का उत्तेजित हो गया। लोग लड़के की तरफ देखने लगे। लड़के की आवाज दीवार के पार घूँघट वाली औरतों तक गई। वे सब चुप हो गईं। ज्यादा रोना अशुभ है। दूसरी औरतें उस रोने वाली औरत जिसके आदमी को साँप ने डसा था, के साथ ठिठोली करने लगीं। वह औरत रोती रही.......और फिर हँसी ठिठोली के बीच उसका रोना गुम गया। एक दबी सकुची आवाज वाला अकेला भटकता सा गीत घूँघट वाली औरतों के बीच से उठने लगा। एक अबूझा, पर सपेरों की बस्ती में बार-बार गाये जाने वाला गीत, उसका अंत था ........हे पीपा भगत,हे पीपा भगत......।

लोग मुस्कुराये। मर्द मुस्कुराये। वे औरतों पर उनके गीत पर मुस्कुराये। वे इस तरह मुस्कुराये मानो उनके घरों की वे औरतें कूड़ा हों, जैसे ये गीत उनका मजाक उड़ाने के लिए हो। जैसे यह गीत तुच्छ और रद्दी सी कोई चीज हो। किसी ने तानाकशी भी की। औरतों का दबा सकुचा गीत और भी दबकर...कुचलकर गुड़मुड़ी होकर सिकुड़ गया और उसका बेगानापन और ज्यादा बढ़़ गया.....वह पराया सा गीत और भी पराया हो गया।

लड़का उठ खड़ा हुआ। वह दाई माँ ...दाई माँ कहता उन औरतों की तरफ दौड़़ पड़ा।

आदमी की लाश को, गाँव के आदमी लोग ले गये। औरत ने उसे अंत तक नहीं देखा। औरत को लगा काश वह देख लेती। औरत अब मुस्कुरा रही थी। वह पीपा भगत का शाप नहीं लेना चाहती। साँप के काटे की मौत शुभ है...बरसों पहले ब्याह से भी बरसों पहले उसकी माँ ने उसे बताया था। उसकी माँ को,उसकी माँ ने बताया था.....दादा बड़े चाव से अपने छोटे लड़के की कहानी बताते थे,जो साँप पकडने में बड़ा माहिर था और एक दिन पीपा भगत साँप का रूप धरकर आये और उसे अपने साथ ले गये....दूर बहुत दूर......आकाश के हजारों तारों के बीच वह 'बहुत दूर' अब भी दीखता है। वह औरत अब और नहीं रो सकती थी। वह एक दबी सी मुस्कान को अपने पल्लू से और दाब रही थी। कुछ औरतें उसके माथे पर हाथ रखकर आशीर्वाद दे रही थीं।

सपेरों की बस्ती में साँप के काटे की मौतें सौभाग्य है। एक कहानी इस बस्ती में बड़ी चर्चित है। उन बुजुर्गों की कहानी जिन्होंने खुद को साँप से कटवा लिया। कुछ बुजुर्ग लोग जिन्होंने बुड्ढ़े होकर, बीमार होकर मरने की बजाय खुद को साँप से कटवाकर मरना बेहतर समझा। एक कहानी, एक बहुत पुरानी कहानी..... एक रीति, एक बहुत पुरानी रीति। एक गर्व और खुशी से भरा किस्सा। उन लोगों का किस्सा जो पीपा भगत का अंश हो गये.....चाहकर,बुड्ढ़़े होकर खुद बा खुद उसका हिस्सा हो गये। सपेरों की यह बस्ती अपने मरे लोगों की बड़ी संख्या के लिए जानी जाती है। साँप के काटने से मरे लोगों की बड़ी संख्या....। एक शुभ और गर्व भरी बात।

चंपालाल झुँझला जाता है। उसे गिनती जो ठीक से नहीं आती। वह अभी तक उलझा है.......तेरह या चौदह। लोग पूछेंगे तो क्या कहेगा ? वह बस्ती का पंच है। उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह याद रखे।

'अब सरकार साँप के काटने से मरने वालों को दस हजार की बजाय पचास हजार देगी। खुद पटवारी जी बता रहे थे। वो कोई झूठ थोड़े बोलेंगे।'

मुर्दे को जलाकर लौटते समय सरपंच ने गाँववालों को बताया। लोग चौंक गये। कुछ आँखों में एक रोशनी उग आई। लोग सरपंच के पास घुस आये।

'क्या कह रहे सरपंच जी।'

'हाँ सही है। कोई झूठ नहीं।'

सरपंच ने अपना टोंटा उँगली से खींचकर कहा-सच्ची कोई झूठ नहीं....।

'एक मुर्दे के पचास हजार।'

एक बुड्ढ़़ा आदमी मुँह फाड़े चंपालाल से कहने लगा। चंपालाल हिसाब लगाने लगा, पचास याने कितना ........। वह बस्ती के दूसरे लोगों को कैसे बतायेगा, पचास हजार याने कितना ........। उसने लड़के को बुलाया और चुपके से उसके कान में कहने लगा-देव बता, पचास हजार याने। देव हँस पड़ा और भाग खड़ा हुआ, वह चिल्लाता भाग रहा था।

'हे.....ऐ......सुनो। बापू को नहीं मालूम पचास हजार याने क्या। ऐ......।'

चंपालाल झेंप गया। गाँव के लोग उसे देखकर हँसने लगे।

सरकार ने यह अच्छा किया।'

'अच्छी सरकार है काका। ये सरकार सपेरों की बड़ी सुनती है। तभी तो दस हजार से बढ़़ाकर पचास हजार कर दिये।'

'बड़ी भली सरकार है।'

'बहुत ही अच्छी।'

'सरपंच जी हर बार की तरह अब भी बिल्कुल पक्का। इसी में बोट गिरायेंगे। इसी सरकार में। क्यों भाई....इसी को बोट गिरायेंगे ना....।'

सब चुप। बोट के नाम पर बस्ती में एका नहीं हो पाता है। पहले सब एक थे,पर अब घर-घर में बँट गये हैं। घर-घर में बोट के नाम पर एक दबी-ढ़़ँकी सिर फुटौव्वल है.....हर दूसरे घर में पार्टीबंदी।

'क्यों काका ठीक है।'

'सब बैठकर तय कर लेना।'

'अब इसमें तय क्या करना ? जो साँप काटे मुर्दे का सम्मान करे उससे बढ़़़़़़़़़़़़़िया सरकार और कौन होगी। क्यों भाई।'

बराबर है। अरे काका तो कुछ भी कहता है।'

'और हाँ.....बस सात दिनों में मिल जायेगा पूरा पैसा।'

'सात दिनों में।'

'बिल्कुल।'

बराबर है।'

'ये सरकार भी पीपा भगत को मानती है। पूजती है। पीपा महाराज की बात पर चलती है। जानते हो इस सरकार का हर आदमी पीपा भगत का चेला है।'

'हाँ ये तो है।'

'धन्य हो...धन्य हो।'

'क्यों काका बड़ा अच्छा मौका है। बुढ़़ा गये हो। कबर में पैर लटकाये हो। काहे नहीं साँप से खुद को कटवा लेते हो, तुम्हारी विधवा पतोहू के दिन फिर जायेंगे।'

सभी लोग हँसने लगे। काका ने नाराजगी में अपनी त्योरियाँ चढ़़ा लीं.....। काका को ना तो यह सरपंच अच्छा लगता है और ना ही यह सरकार......। हर कोई चाहता है,कि सारी बस्ती मर जाये.....हर कोई......मरने की भला कोई कीमत होती है। काका ने पूरी दुनिया देखी है.....सब झुट्ठे हैं....सब।

लड़का याने देव अपनी दुनिया में मगन हो गया...। मुर्दघाट से लौटते हुए नीम के पेड़ के नीचे सँपेरों के भगवानों का वास है। वह सभी को पहचानता है। एक लाइन से लगी मिट्टी की मूर्तियाँ ....माता जी,नाग जोड़ा,भैरों बाबा,पीपा भगत,ठाकुर दा,शीतला,बगुली माँ, काल भैरव......उसको सब याद हैं....वह लाइन से दुहराता जाता है....बस्ती के लोग खुश होते हैं,कि उसे सभी देवताओं के नाम पता हैं।

'........तो इस तरह राबिन्स क्रूसो बापस आ गया। हाँ तो बताओ बच्चों इस कहानी से क्या सबक मिला।'

अंगरेजी के टीचर ने बच्चों से पूछा। सारी कक्षा चुप हो गई। देव भी चुप रहा। पर वह गुणा-भाग लगाने लगा- क्या सबक मिला ........क्या मिला.......? उसका गुणा-भाग ट्रेन की तरह भागने लगा......पहले धीरे और फिर सरपट......। दूसरे लड़के गुणा-भाग नहीं लगाते। टीचर को देव अच्छा लगता है। क्योकि बस वही गुणा-भाग लगाता है। बाकी तो पका पकाया लड्डू खाने के चक्कर में रहते हैं।

'इससे यह सबक मिला कि जिंदा रहना बड़ी बात है। सबसे बड़ी बात कितनी तकलीफों और दुखों के बाद भी राबिन्सन क्रूसो जिंदा रहा। इस इंतजार में कि वह दुनिया में वापस जायेगा। इस इंतजार में कि उसे और जीना है। उसने अपनी जिंदगी के छत्तीस साल निकाल दिए.......पर वह हारा नहीं। वह डटा रहा। वह जिंदा रहा। जिंदगी बड़ी कीमती है।'

लड़के का गुणा-भाग कठिन हो गया। शिव का प्रसाद.... साँप देवता......जहर अच्छा है......मरने पर खुशी का गीत....बुजुर्गों की साँप से खुद को डसवाने की कहानी.....सरकार के पचास हजार रूपये वह भी सात दिन में.....फिर जिंदा रहना बड़ी बात कैसे ? हर जगह मरना अच्छा है,फिर जीना बड़ी बात कैसे....फिर क्या गुणा-भाग ठीक है? ऐसे में गुणा भाग ठीक कैसे....? कतई नहीं...कहीं तो गड़बड़ है। गुणा-भाग गड़बड़ है। नहीं शायद ठीक है....बस अंक गड़बड़ हैं। गुणा-भाग ठीक है.....बस अंक गड़बड़ लगते हैं। क्या गुणा भाग ठीक और टीचर के अंक गड़बड.....। उसने कह दिया-

'पर साँप के काटने से मरना, उससे भी बड़ी बात है।'

क्लास के दूसरे लड़के हँसने लगे।

टीचर ने सबको चुप होने को कहा। कक्षा एकदम मशीन के स्विच की तरह चुप हो गई।

'वो कैसे ?'

'हमारी बस्ती का एक बुजुर्ग जिसे हम चच्चा कहते हैं। सच में। चच्चा झूठ नहीं बोलते। कभी नहीं। चच्चा कहते हैं.....जहर अच्छा है...सा΅प काटे से मरना बड़ी बात है।'

लड़का रुआँसा हो गया। टीचर को अच्छा लगा कि लड़का अबकी बार गलत हो गया। लड़के ने कई बार टीचर को गलत कर दिया था। टीचर उलझ जाता था। लड़का टीचर को उलझा देता था। पर आज लडका गलत हो गया.....सारी कक्षा उस पर हँस दी। टीचर भी लड़के पर हँस दिया। लड़का रोने-रोने को हो गया।

'नहीं बेटा। यह बताओ मर जायेंगे तो फिर तो कुछ भी नहीं रहेगा। ये सारी दुनिया नहीं रहेगी। लोग नहीं रहेंगे, मां-बाप नहीं रहेंगे ? ये सुंदर आकाश, जंगल, चाँद तारे कुछ भी नहीं रहेंगे........। मरने के बाद कुछ भी नहीं रहता।'

'सर मुझे मरने से डर लगता है।'

देव ने रुआँसे होते हुए कहा। टीचर लड़के की हार पर मुस्कुरा दिया।

क्लास के लड़के फिर खिलखिलाकर हँस दिए।

टीचर ने फिर चुप होने की घुड़की दी। कक्षा एकदम से मशीन के स्विच की तरह चुप हो गई।

'ऐ देव बीन बजा........। ये देव साँप नचा......। ये देव बीन बजा।.......मेरा तन डोले मेरा मन डोले.....। ऐ.....ऐ.....।'

उस दिन क्लास छूटने के बाद, चार पाँच लड़कों का झुण्ड देव को चिढ़़ा रहा था। क्लास के दूसरे लड़के भी उनके साथ हो लिए। देव रूआँसा हो गया फिर एक लड़का देव के पास आ गया। लड़के को लगा वह अब अकेला नहीं है। लड़के को अच्छा लगा कि पूरी क्लास के ढ़़ेरों लड़कों में से एक उसके साथ है। लड़के की रूआँस बंद हो गई। लड़का फिर से गुणा भाग लगाने लगा। किसके अंक सहीं हैं। टीचर के या बुजुर्ग चच्चा के........? किसके........?

उसे याद आया जब उसकी मां मरी थी,तब दाई माँ ने कहा था........मत रो.......। अपमान होता है। माँ ने पीपा भगत की वफादारी की.....तुझे तो खुश होना चाहिए ......।

उसे घूกघट में बंद रहने वाली माก का वह चेहरा याद आया जिसे वह उसके घूกघट में घुसकर झाกक लेता था......काजल वाली आกखे, लाल बिंदी और सरसों के तेल की खुशबू,काली नाक में गिलेट की बड़ी सी फुल्ली,ठोड़ी पर गोदना की तीन बिंदकिया, घूंघट के कपड़़े की एक चिरपरिचित गंध......। उसका गुणा-भाग पूरा हो गया। उसने तय कर लिया कि टीचर के अंक गलत हैं। बुजुर्ग चच्चा ठीक कहते हैं। साกप के काटे से मरना बड़ी बात है।

उसने हवा में जोर की साँस खींची। दुबारा फिर से...फिर तिबारा....और फिर कई बार....जोर-जोर से साँस पर साँस वह खींचता गया....। पर वह खुशबू उसे नहीं आई जो माँ के घूँघट और उसके माथे से चुचुआते सरसों के तेल में आती थी।

'बो जमाना बीत गया चंपालाल।'

बस्ती की अथाई पर चिलम की धुनी रमाये काका ने चंपालाल से कहा।'

'तब बहुत से लोग साँप खरीदने आते थे।'

'बहुत से।'

हाँ यही पाँच-छह रोज।'

चंपालाल ने अबकी बार हिसाब लगा लिया। दस तक के अंक में वह नहीं गड़बड़ाता है।

'अरे बाप रे। क्या बोल रहे हो काका। '

'सच्ची। कसम से।'

तब तो बड़े मजे रहे होंगे।'

काका के चेहरे पर पूरा आकाश उतर आया।

'अरे तब ना फॉरेस्ट वालों का चक्कर था और ना ही लोग साँप देवता का निरादर करते थे।'

'तब फॉरेस्ट वाले नहीं थे।'

ना ऐसा नहीं है। थे........पर इतने ज्यादा नहीं। कभी कभार आते थे। उन दिनों साँप देव भी बहुत थे। किसी को फिकर नहीं थी। जब कोई चीज कम हो जाये, तभी ना फिकर होती है ......। इधर साँप देव कम हुए उधर फारेस्ट वालों को साँपों की चिंता सताई.....।'

चंपालाल का मुंह थोड़ा खुल गया। वह टकटका कर काका को देखने लगा ।

'बताओ-बताओ। जब तक घर में पिसी है, तुम पिसी लेने किराना जाओगे ......बोलो-बोलो।'

चंपालाल चुप।

बोलो चंपा.....।'

'ना। कभी नहीं।'

'फिर जब हजारों साँप देव हों तो फारेस्ट वाले काहे फिकर करेंगे। अब कम हो गये हैं, तो फिकर है।'

'बराबर बोले।'

'तो उस समय फारेस्ट वाले नहीं थे। मानो कम आते थे। सो बार-बार उनको पैसा देने का चक्कर भी नहीं था।'

चंपालाल अपना सिर खुजाने लगा।

'हम लोगों ने उनको कई बार शिव शंकर और पीपा भगत की कहानी सुनाई। पर वे नहीं माने। कहते थे सब कहानी है। बस्ती के लोग फारेस्ट वालों को डराना चाहते हैं, सो कहानी कहते हैं। झूठी कहानी। हे पीपा भगत कितना पाप! हे पीपा भगत दया हो दया हो.....। बताओ भला पीपा भगत को झूठा कहा,उनका निरादर किया..... निरादर.....घोर पाप.....।'

काका और चंपालाल ने हाथ जोड़कर पल भर को आंखे बंद कर लीं।

'बताओ पीपा भगत को झूठा कहा। राक्षस लोग। पापी लोग। ये सभी फॉरेस्ट वाले नरक के राक्षस हैं।'

'नरक से आये हैं।'

हाँ तुमको नहीं पता। फॉरेस्ट वाले वहीं से आये हैं। उनके पुरखे वहीं के थे। शिव के बरदान को झुठलाने यम ने उनको भेजा था......।'

कैसे......? कब। काका बताओ ना।'

'बाद में बूझूँगा रे। बड़ी लम्बी कहानी है।'

'अभी बताओ।'

बाद में तेरे को और वो जो तेरा लड़का है ना, बहुत बोलता है......।

देव.......।'

'हाँ। उसको भी। दोनों को कहानी बूझूँगा।'

'ठीक है।'

चंपालाल घुटने के बल बैठ गया। मानो दिशा मैदान कर रहा हो।

'हाँ तो उस समय फॉरेस्ट वाले ज्यादा नहीं सताते थे और दूर-दूर के संपेरे साँप खरीदने आते थे। ढ़़ोड साँप एक रुपये, घोड़ा पछाड़ तीन रुपये, करिया नाग चार रुपये, डण्डा करैत तीन रुपये, गेहुंअन चार रुपये, बामिन तीन रुपये,दो मुंहा दो रुपये, करिया नागिन चार रुपये......। अरे खूब पैसा चंपा खूब.......।

'पर यह तो सस्ता रेट हुआ।'

'अरे उस समय का एक रुपया आज के सौ के बराबर था।'

चंपालाल हिसाब लगाने लगा। एक का सौ.......। वह घुटनों के बल बैठकर, हिसाब लगाने लगा, उँगलियों पर गिनने लगा और काका अपनी धुन में कहते रहे।

'सपेरे भी बहुत खुश थे। यहीं आते और किसी के घर टिक जाते। फिर जाते समय घर खरचा भी दे जाते......। बड़ा सुख था। अपने देश की बातें बताते। तरह-तरह की बातें। उज्जैन के महाकाल मंदिर के,तो कोई गंगाधाम के......शिवरात्रि, और सावन तो बड़ी झूमा-झटकी रहती। महाकाल के ओसारे अपनी टोकरी में करिया नाग धरे सपेरा......अहा, क्या दिन थे। खूब पैसा मिलता था। सबको। मुठ्ठी भर-भर पैसा और फिर वही पैसा वे हमारी बस्ती पर निछावर कर देते। ऐ चंपा......क्या कर रहा है ?'

काका ने उँगली पर गिनते चंपालाल को झिड़कते हुए कहा। चंपालाल चौंककर जाग गया काका चुप हो गया।

'बता ना काका।'

'तेरे को तो सुनना नहीं है।'

अरे ना काका ना........।'

चंपालाल ने अपने कान पकड़़ लिये। काका फिर बताने लगे।

उन दिनों खूब धरम-करम था। नाग देवता खूब पुजते थे। लोग संपेरों को बुला ले जाते। लोग साँप को दूध पिलाते, बाँस की टोकरी में साँप पर पैसा चढ़़ाते, संपेरे को पिसी देते, खाना देते.......और तो और साँप देव की पूजा भी करते। लड़के बीन पर साँप नचवाते। हर नाच पर कुछ ना कुछ मिल जाता। और तो और कुछ लोग नाग देव को अपने गले में पहर लेते.......। अरे खूब तमाशा होता। सब खुश थे। वो दिन अब कभी नहीं आयेंगे। अब तो कलयुग आ गया। घोर कलयुग.......।'

'बराबर बोले काका। घोर कलयुग........।'

'अब वो दिन कभी नहीं आयेंगे। चंपा......अब कभी नहीं।'

काका चुप हो गये। उसकी चिलम का अंगार तेजी से जलने लगा। उसकी बूढ़़ी और हरे मस्सों से भरी नाभि से धुंये का गुच्छा निकलता रहा।

'हाँ......अब कभी नहीं। जब घर में चूल्हा नहीं जलता है और पतोहू रात को चुपके से सो जाती है....काहे कि मैं उससे रोटी ना माँग लूं .....तब वे दिन बहुत याद आते हैं।... अभी दो रोज पहले रात को रोटी नहीं थी और पतोहू के कमरे से उसके सुबकने की आवाज आ रही थी......ये बाल ऐसे ही सफेद नहीं हुए हैं,चंपा....मैं सब समझता हूँ....कलेजा मुँह को आता है। पता नहीं था,ये दिन देखना पड़ेगा...। पतोहू बताती नहीं है....बस अकेले में रो लेती है....। वे दिन अब ना लौटेंगे चंपा...अब नाही....।'

काका की आँख में पानी की एक कोर चमकने लगी। देव को अच्छा नहीं लगा। उसे हमेशा लगा था,कि काका बड़े हिम्मती हैं.....कभी रोते ना होंगे। उस दिन घर लौटते समय उसे बार-बार काका की बात याद आती रही.....अब वो दिन कभी नहीं आयेंगे।

अगले दिन चंपालाल ने सुबह-सुबह देव को जगा दिया।'

चल......।'

कहां बापू.......।'

'जंगल तरफ.....।'

देव खटिया से उछलकर खड़ा हो गया। क्या सचमुच बापू उसको ले जायेंगे। अब तक जब भी बापू जाते थे, अकेले जाते थे। अक्सर रात बेरात खासकर तेज गर्मी और उमस भरे दिन में, शुरूआती बरसात में.......कोई उनके झोंपड़़े पर आता, बापू उससे बात करते और फिर अपना बरसों पुराना रंग बिरंगे थेगड़े वाला थैला लेकर चल पड़ते। बब्बू को वह रंग बिरंगा थैला सुंदर दिखता था। उसे बहुत बाद में पता चला कि इस तरह का थैला तो गरीब और फटीचरों के घर में होता है.....और यह भी कि वह उसकी माँ बापू.......सब गरीब हैं, रंग बिरंगे थेगड़ों वाले गरीब। फिर एक बार खटिया की लकड़ी पर चढ़़कर उसने थैले के अंदर झाँककर देखा था........ एक बाँस की बड़ी साँपदानी, एक पुरानी मैली कुचैली चादर, एक छोटी लकड़ी जिसके दोनो तरफ लोहे की मूठ लगी थी, एक मिट्टी के पीपा देव, छोटे से.......उस थैले में कुछ भी अदभुत नहीं था। जैसा कि उसने सोच रखा था।

'चलो बापू.......।'

देव ने अपने पैर पर अपनी हाफ पैंट खींचते हुए, चहकते हुये कहा। झोंपड़े के बाहर धोती कुर्ता पहने एक आदमी खड़ा था......। सेठ जैसा। देव को अच्छा लगता है कि उसके झोंपड़़े पर कई बड़े लोग आते हैं।

चलो सेठ जी।'

वे तीनों चल दिए। देव के कंधो पर रंग बिरंगे थेगड़ों वाला थैला कूदने-फाँदने लगा। इस बार वह थैला उसके कंधे पर था,वह सेठ के सामने अकड़ता सा चल रहा था। वे जंगल के किनारे-किनारे चलते गये। फिर खेत चालू हो गये सुबह हो गई थी पर सूरज अभी नहीं निकला था। सेठ एक जगह रूका और मुड़ गया। वह खेतों की मेढ़़-मेढ़़ चलने लगा। कुछ दूरी के बाद एक बड़ा सा खेत था और उसमें एक झोंपड़ी बनी थी। सेठ एक जगह जाकर रुक गया। फिर उसने देव को इशारा करके, एक जगह बताई। झोंपड़ी की फूस से दबी एक बल्ली। जिसके नीचे एक सुंदर, चमकीला, पतला सा मिटटी जैसे रंग वाला साँप चमक रहा था। चंपालाल ने थैले में से पीपा भगत की मूर्ति निकाली। जमीन पर रखी। लोहे की मूठ वाली लकड़ी उसके सामने रखी। आँखे बंद की और कुछ बुदबुदाया। एक अबूझ बुदबुदाहट.....घूँघट वाली औरतों के दबे कुचले गीत की तरह.....बेगाना किसी दूर देश का...... कोई किस्सा जिसे सदियों तक जाना नहीं जा सका...लड़का ध्यान से सुनने लगा। सेठ दूर जाकर खड़ा हो गया।

लड़का देख रहा था। देव ने लंबी लकड़ी से उस साँप को कोंचा। साँप छटछटाकर बल्ली से खुलकर जमीन पर गिरा और तेजी से जंगल की ओर भागने लगा। चंपालाल के मुँह से एक खुशी भरी चीख निकली......गेंहुअन......देव गेंहुअन......अरे देव गेंहुअन.......। सेठ डर के मारे और दूर भागकर खड़ा हो गया। चंपालाल साँप की ओर लपका। साँप बार-बार पलटकर चंपालाल को काटने की कोशिश करता और वह अपना हाथ पीछे खींच लेता। थोड़ी ही देर में साँप की गर्दन चंपालाल के अँगूठे और तर्जनी के बीच दबी थी और साँप बुरी तरह उसके हाथ पर चिपका था।

'इधर पर धीरे से पकड़़ना। जोर से पकड़़ोगे तो मर जायेगा.....।

चंपालाल अपने लड़के देव को सिखाने लगा।

'बहुत कोमल होता है यह। देखो......।

देव ने उसे धीरे से झिझकते हुए छुआ। ठण्ड का एक टुकड़ा उसकी उกगली के पोरवों में समा गया।

साँप के ऊपरी जबड़े से दो सुई जैसे दाँत बाहर निकले हुए थे। उसके निचले जबड़े पर एक बूँद लटक रही थी। हल्की पीली बूँद। लसलसी बूँद। उगते सूरज की लालिमा में वह बूँद चमक रही थी।

'इधर कभी नहीं छूना। ये दाँत बहुत पैने होते हैं।'

'जहर......।'

'पक्का......।'

देव ने उस पीली-नारंगी बूँद को अपनी उँगली पर धीरे से उतार लिया.....उसे चच्चा की बात याद आई.....जहर अच्छा होता है......बहुत सुंदर। जहर नीला नहीं होता है....पर टीचर कहता था,कि नीला होता है.....गलत अंक वाले का कैसा गुणा भाग....वह तो गलत ही होगा ना.....।

'टीचर गलत.....गलत रहा बापू।'

'गलत।'

'हाँ.....। उसका गुणा भाग....बिल्कुल गलत।'

'गुणा-भाग.....।'

चंपालाल उलझ गया।

'अरे बापू तुम्हें तो गिनती भी नहीं आती......तुम क्या जानो गुणा-भाग।'

'अरे भाग.....मेरे को सिखाता है।'

चंपालाल ने उस साँप को आहिस्ते से अपने हाथ से छुड़ाया और उसे बाँस की साँपदान में रख दिया और फिर झटके से उसकी गर्दन छोड़ दी, साँप डलिये में गिर गया और तेजी से चंपालाल की ओर लपका ........पर तब तक डलिया का ढ़़क्कन बंद हो चुका था। डलिये के भीतर से किट-किट की आवाज और हल्की सी सरसराहट की आवाज आ रही थी। देव डलिया पर अपने कान लगाकर उसे सुनने लगा। चंपालाल देव को देख रहा था।

'तुम मेरे साथ रोज आना। तुम जल्दी सीख जाओगे।

और स्कूल.......।

बस हो गया बहुत स्कूल। अब तुम बड़े हो गये हो। और फिर यही तो करना है। सबसे अच्छा काम।'

लड़का खुश हो गया। उसे टीचर अब अच्छा नहीं लगता था। उसका गुणा-भाग बताता था कि टीचर के अंक गलत थे। उस क्लास के एक लड़के को छोडकर बाकी सभी गंदे लड़के थे। अच्छा हुआ जो अब स्कूल नहीं जाना है। चंपालाल को आज सुबह-सुबह ही पचास रुपये मिले। वह खुश था।

जब बाप-बेटे बस्ती आये, तो लड़के को औरतों का वही सकुचाया, दबा-दबा सा गीत सुनाई दिया। वह उसी तरफ भागा। वह काका का घर था। बस्ती के कुछ लोग वहाँ इकट्ठा थे। झोंपड़ी के फर्श पर काका पड़ा हुआ था। बिल्कुल वैसा ही जैसा उस दिन वह आदमी पड़ा था।

कल रात हुआ........।'

देव अपने बाप को ताक रहा था।

'खुद को कटाया साँप से......।'

'धन्य भाग्य। धन्य भाग्य.......।'

'अरे चंपा सुन......।'

चच्चा ने चंपालाल को एक तरफ बुलाया।

ये कैसे हुआ ?'

'कल रात.....। पतोहू को भी पता नहीं चला। अपनी कोठरिया में सोया था.....वो उस तरफ.....। उधर ही.....।'

चंपालाल उसी तरफ देखने लगा। एक तुलसी का टूटा चौबारा, गोबर का जतन से इकट्ठा किया ढ़़ेर, लिपने को तैय्यार एक कच्ची दीवार का कोना,एक बहुत पुरानी साँपदानी, कच्ची दीवार के नीचे उगते चरौटे के पौधे....वहाँ कुछ भी मरने जैसा नहीं था।

'हाँ वहीं.....। अपने ही घर में

जानबूझकर किया। रात को जब पतोहू सो गई थी, तब उस साँपदानी में एक करिया नाग था। कल ही लाई थी, पतोहू.....जंगल-जंगल भटककर। उसी साँप से रात को खुद को कटवा लिया....।'

'जहर रहा।'

'हौ। दाँत नहीं तोड़ा था। काका कह रहा था.....कल तोड देगा....और उससे पहले......हे पीपा भगत।'

'किसी ने नहीं देखा।'

'पतोहू बहुत बाद में आई।'

'काका ने अपनी सँपेरा बस्ती का नाम ऊंचा कर दिया।'

'काका तुमसे कुछ कहना चाहता था चंपा।'

'क्या.....?'

'कह रहा था, चंपा इस बस्ती का पंच है....कहना साँप काटे से मरने के जो पचास हजार रुपये सरकार देती है....वो पतोहू को दे देगा। सरपंच का क्या भरोसा...पर चंपा का भरोसा है। पूरा पैसा सात दिन में ले लेना और दे देना....और हाँ देव को साथ में जरूर ले जाना काहे कि तू तो ठीक से गिनना नहीं जानता है। सो पचास हजार को गिनने का काम देव कर देगा। पर पैसे जरूर ले लेना....पतोहू को अपने हाथ से दे देना....। साँप के मरे के पूरे पचास हजार रुपये......।'

चंपालाल चुप हो गया।

एक बात और कह रहा था।'

'क्या....?'

'कह रहा था.....उसके दिन ना सही पर उसके मरने से पतोहू के दिन लौट सकते हैं। पुराने दिन....उसके हिस्से के दिन.....पतोहू के दिन फिर सकते हैं। पुराने दिन फिर से उसको ना सही पर उसके मरने से पतोहू को मिल सकते हैं। सरकार के पचास हजार,पतोहू के दिन बदल देंगे......कौन से दिन रे चंपा....?राम जाने काका क्या कह रहा था? पता नहीं।'

चंपालाल के भीतर गाँव की अथाई पर काका की कही बात घिर आई.......वे दिन अब ना लौटेंगे चंपा। वे दिन अब कभी ना लौटेंगे.......सारी बातें काका की कही सारी बातें. उसे एक-एक कर याद आने लगीं......ढ़़ोड साँप एक रुपये, घोड़ा पछाड़ तीन रुपये, करिया नाग चार रुपये, डण्डा करैत तीन रुपये, गेहुंअन चार रुपये, बामिन तीन रुपये,दो मुँहा दो रुपये, करिया नागिन चार........सारी बातें फिर से याद आईं........अभी दो रोज पहले रात को रोटी नहीं थी और पतोहू के कमरे से उसके सुबकने की आवाज आ रही थी......ये बाल ऐसे ही सफेद नहीं हुए हैं,चंपा.....मैं सब समझता हूं......कलेजा मुँह को आता है। पता नहीं था,ये दिन देखना पड़ेगा.....। पतोहू बताती नहीं है......बस अकेले में रो लेती है.......। वे दिन अब ना लौटेंगे चंपा... अब नाही.......।

चंपालाल की आंखों में पानी छलछला आया। एक बुजुर्ग ने उसके कंधे पर अपना हाथ रखा और बड़ी रूखी सी आवाज में कहने लगा-

'काहे अपशकुन करता है रे चंपा। काहे तू तो इतना बड़ा है। सब जानता बूझता है ......।'

चंपालाल मुस्कुरा दिया 

चंपालाल ने काका की लाश के पैर छुये। देव ने भी पैर छुये। देव ने चंपालाल को कान में कुछ कहने का इशारा किया। चंपालाल झुका उसके कान लड़के के मुँह के पास पहुँच गये। लड़के ने पहले चंपालाल की आँखें देखीं......वे सूख चुकी थीं। लड़के ने चंपालाल के कान के पास अपना मुँह किया और कुछ बुदबुदाया......वह अबूझ बात जो चंपालाल साँप पकड़़ने से पहले पीपा भगत की पूजा करते समय बुदबुदा रहा था.....। एक दूसरे लोक की अबूझ बात.....। देव की आँखे चौड़ी हो गईं। लड़के ने अपने बाप के गले में अपने हाथ डाल दिये। दोनों की आँखें एक दूसरे के सामने थीं। दोनों मुस्कुरा रहे थे। लड़के को क्षण भर को लगा जैसे काका की लाश भी मुस्कुरा सकती है।

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रचनाकार: कहानी - गुणा-भाग
कहानी - गुणा-भाग
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