- दयाधर जोशी राम चरित जे सुनत अगाहीं। रस विसेष जाना तिन्ह नाहीं।। रा.च.मा. ७/५३/१ श्रीरामजी के चरित्र को सुनते सुनते जो तृप्त हो ...
- दयाधर जोशी
राम चरित जे सुनत अगाहीं। रस विसेष जाना तिन्ह नाहीं।।
रा.च.मा. ७/५३/१
श्रीरामजी के चरित्र को सुनते सुनते जो तृप्त हो जाते हैं (बस कर देते हैं) उन्होंने तो इसका विशेष रस जाना ही नहीं।
'राम' जिसमें मन रम जाय, आनन्द की अनुभूति हो। आपने इन्हीं राम की कथा को बार-बार सुना, बार-बार पढ़ा। राम आपको अच्छे लगे, रामकथा अच्छी लगी। श्रवण और पठन से आप संतुष्ट हो गये, लेकिन इस कथा में जो विशेष रस निहित हैं उनका आनन्द नहीं लिया तो यह समझ लीजिये कि आप इन विशेष रसों की अनुभूति से पूर्णतः वंचित रह गये हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक यह जीवन गतिशील है। वायु, सूर्य और नदियाँ हमें गतिशील बने रहने का संदेश देते हैं। प्रकृति कहती है, मरे ी तरह हमेशा गतिशील बने रहो। जो रुक गया समझलो उसका भाग्य भी रुक गया, जो सो गया उसका भाग्य भी सो गया, लेकिन जो चलता रहता है उसका भाग्य भी चलने लगता है, उसका साथ देने लगता है। प्रभु श्रीराम की यह कथा यात्रा भी हमें यही संदेश देती है। इस चरित्र कथा को निरन्तर पढ़ते रहने से इसमें छिपे हुए विशेष रसों को मनुष्य समझने लग जाता है। उसे अपने जीवन में आनन्द की अनुभूति के साथ ही जीवन के उद्देश्यों की भी जानकारी होने लग जाती है।
युद्ध भूमि में मेघनाद ने वीरघातिनी शक्ति का प्रहार कर लक्ष्मण को मरणासन्न मूर्छित कर दिया। उनकी मूर्छा नहीं टूट रही। हनुमानजी संजीवनी बूटी लेने गये हैं। आधी रात बीत चुकी है। श्रीराम के मन में बार-बार यही विचार आ रहा है कहीं मेरा बंधु से विछोह तो नहीं हो जायगा!
श्रीराम, लक्ष्मण की दशा को देख कर बहुत व्याकुल हैं, जोर जोर से प्रलाप करते हुए कह रहे हैं, यदि मुझे पता होता कि मुझे अपने प्रिय भाई का विछोह भी सहन करना पड़ेगा तो मैं पिता की आज्ञा का पालन ही नहीं करता। वन में मेरे दुःख-दर्द में साथ देने वाला मेरा अनुज मुझे छोड़ कर जा रहा है। अब मुझे कौन सहारा देगा। अयोध्या जाकर मैं माता को अपना मुंह कैसे दिखा पाउँगा। मेरा तो सब पुरुषार्थ व्यर्थ गया। उनके नत्रे ो से अश्रुधारा बह रही है। उनका प्रलाप सुन कर सारे वानर भालू भी व्याकुल हो गये हैं। वन में लघु भ्राता का विछोह सहन करना पड़ेगा, यदि मुझे पता होता तो मैं पिता की आज्ञा का पालन ही नहीं करता। कौन कह रहा है यह सब? मर्यादापुरुषोत्तम राम कह रहे हैं। प्रभु श्रीराम के मन में ऐसा विचार क्यों आया? इतने में ही हनुमानजी पर्वत सहित उपस्थित हो गये। वैद्य सुषेण ने लक्ष्मण को संजीवनी बूटी दी तो उनकी मूर्छा टूट गयी और वे उठ कर बैठ गये। श्रीराम हर्षित हुए व सम्पूर्ण रामदल में खुशी की लहर दौड़ गयी। यहां श्रीराम ने जो नर-लीला दिखायी उसका प्रयोजन क्या है? इस प्रेरक प्रसंग में कौन सा विशिष्ट रस छिपा है यह स्वयं भक्त को ही समझना पड़ेगा। क्योंकि यह लीला प्रभु ने भक्तों पर कृपा करने के उद्देश्य से ही दिखायी होगी। जब लक्ष्मण जी को वीरघातिनी शक्ति लगी तो प्रभु श्रीराम विषादोन्माद की स्थिति में पहुँच
गये। गहरी हताशा की स्थिति में प्रभु श्रीराम कह रहे हैं-
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।। अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।। रा.च.मा. ६/६१/७-८ पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार- ये जगत में बार-बार होते और जाते हैं। परन्तु जगत में
सहोदर भाई बार-बार नहीं मिलता। हृदय में ऐसा विचार कर हे तात! जागो।
जैहउँ अवध कवन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई।।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं।।
रा.च.मा. ६/६१/११-१२
स्त्री के लिये प्यारे भाई को खो कर, मैं कौन सा मुँह लेकर अवध जाऊँगा? मैं जगत में बदनामी भले ही सह लेता (कि राम में कुछ भी वीरता नहीं है, जो स्त्री को खो बैठे)। स्त्री की हानि से (इस हानि को देखते हुए) कोई विशेष क्षति नहीं थी।
एक तरफ श्रीराम गहन विषाद में डूबे हैं तो दूसरी तरफ हनुमानजी की तत्परता तो देखिये! जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना।।
धरि लघु रुप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समते तुरन्ता।। रा.च.मा. ६/५५/७-८
जाम्बवान् ने कहा-लंका में सुषेण वैद्य रहता है उसे ले आने के लिये किसे भेजा जाय?
हनुमानजी छोटा रुप धर कर गये और वैद्य सुषेण को उसके घर समेत तुरन्त उठा लाये। जब यही हनुमानजी संजीवनी बूटी लेकर आये तो दुःख का निवारण होता देख-
हरषि राम भेटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।।
तुरत बैद तब कीन्हि उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई।।
रा.च.मा. ६/६२/१-२
श्रीरामजी हर्षित होकर हनुमानजी से गले लग कर मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यन्त ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य सुषेण ने तुरन्त उपाय किया जिससे लक्ष्मण जी हर्षित होकर उठ बैठे।
श्री रघुनाथजी एक (अद्वितीय) और अखण्ड (वियोग रहित) हैं। अपने परम भक्तों पर दया करने वाले भगवान ने लीला करके यहाँ मनुष्य की दशा को प्रदर्शित किया है। इसमें एक गूढ़ संदेश भी है-सहोदर भाई का महत्त्व और विपरीत परिस्थितियों में सहायक की महत्त्वपूर्ण भूमिका।
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारभुत स्वसा। सम्य@: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।
अथर्ववेद ३/३४/३
भाई-भाई से, बहन-बहन से अथवा परिवार में कोई भी एक दूसरे से द्वेष न करे। सब सदस्य
एकमत और एकव्रती होकर आपस में शान्ति से भद्रपुरुषों के समान मधुरता से बातचीत करें। इस प्रेरक प्रसंग को पढ़कर जब मैं मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को याद करता हूँ तो मुझे रामचरणानुरागी हनुमानजी याद आ जाते हैं। जब मैं शुद्ध अन्तःकरण से हनुमानजी को याद करता हूँ तो मुझे प्रभु श्रीराम स्वतः ही याद आ जाते हैं। सीता का हरण हो गया है, यह सुनते ही श्रीराम साधारण मनुष्य की तरह व्याकुल और दीन हो गये। विलाप करने लगे तो लक्ष्मण ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया, धैर्य धारण करने की सलाह दी।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।
रा.च.मा. ३/३०/९ हे पक्षियो! हे पशुओ! हे भौंरों की पंक्तियो! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? श्रीराम महामहिमामयी शक्तिस्वरुपा सीता को खोजते हुए ऐसे विलाप कर रहे हैं मानो कोई महाविरही और अत्यन्त कामीपुरुष विलाप कर रहा हो। पूर्णकाम, आनन्द की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्रीराम साधारण मनुष्यों के-से चरित्र कर रहे हैं। सीता साधारण स्त्री नहीं थी। दशरथ पुत्र श्रीराम का जब सीता से विछोह हुआ तो वे महाविरही और अत्यन्त कामीपुरुष की तरह व्याकुल हो गये और विलाप करने लगे। सीता का विछोह वास्तव में उनके लिये असह्य दुःख बन गया। श्रीराम की विरह दशा उनके हृदय की व्याकुलता और सीता के प्रति असीम प्रेम को प्रदर्शित करता है। सीता से विछोह होने पर वे अपनी सुध-बुध खो बैठे।
श्रीराम के जीवन में ये दोनों ही दुःख असह्य थे। मनुष्य जीवन में पत्नी से विछोह का दुःख पति-पत्नी के बीच प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्धों का परिचायक है। परिवार के परमप्रिय स्वजन से हमेशा के लिये विछोह यानी मृत्यु कितनी असहनीय होती है, इसे अवगत कराने के लिये ही प्रभु श्रीराम को यह नर-लीला करनी पड़ी। सहोदर भाई को देख कर पत्नी के दुःख को भूल गये, लेकिन आज तो एक स्त्री के कारण भाई-भाई में बैर हो जाता है। विपरीत परिस्थितियों में यदि कोई सहायता के लिये आगे आये, सहायक बन कर सहयोग करे तो दुःख कम हो सकता है, दुःखों का अन्त हो सकता है। ये दो रस वास्तव में विशेष हैं, शिक्षाप्रद प्रसंग हैं। जब रावण सीता का हरण कर लंका की तरफ जा रहा था तो जटायु ने सीता को छुड़ाने की बहुत कोशिश की, लेकिन रावण ने जटायु को मरणासन्न घायल कर दिया। श्रीराम से मिलने तक जटायु ने अपने प्राण रोक रखे थे। श्रीराम से मिलने पर जटायु ने बताया कि रावण सीताजी को दक्षिण दिशा में ले गया है। इस मिलन के फलस्वरुप श्रीराम ने जटायु से कहा, 'आप शरीर छोड़ कर मेरे धाम को जाइये।' मनुष्यरुप श्रीराम ने जटायु को मोक्ष कैसे प्रदान कर दिया? यह अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। क्योंकि मोक्ष तो केवल भगवान विष्णु ही प्रदान कर सकते हैं। श्रीराम ने विष्णुरुप में मोक्ष प्रदान करने के बजाय मनुष्यरुप में ही मोक्ष प्रदान कर दिया! मनुष्यरुप में श्रीराम के लिये सत्य सर्वोपरि था। इस सर्वोत्तम मनुष्योचित सद्गुण के कारण ही उन्होंने मनुष्यरुप में ही जटायु को मोक्ष प्रदान कर दिया। जीवन में सत्यव्रत का पालन करने वाला मनुष्य समस्त लोकों पर विजय पाने का अधिकारी बन जाता है। यह सत्यरुपी सद्गुण मनुष्य को देवोपम बनाने में सक्षम है। मनुष्य अपने जीवन में सत्यव्रत पालन का प्रयास अवश्य करे। सत्यरुपी यह विशेष रस मनुष्य के लिये जीवन में उतारने योग्य शिक्षाप्रद प्रसंग है। प्रत्येक हिन्दू परिवार में सत्यनारायण की कथा होती है लेकिन इस कथा को सुनकर कितने लोग सत्यधर्म को अपनाते हैं? कथा सुनने या कराने से कुछ नहीं होगा। सत्य को अपनाने से ही इच्छित फल की प्राप्ति होगी।
भाई-भाई का सम्बन्ध कैसा हो, पति-पत्नी के आपस में कैसे सम्बन्ध हों, मित्र का मित्र से, एक राजा का दूसरे राजा से, राजा का अपनी प्रजा से सम्बन्ध कैसा हो, इसकी पूर्ण जानकारी हमें 'रामचरित मानस' कराता है। इस 'पंचम वेद रामचरित मानस' में वर्णित श्रीराम के आदर्श अनुकरणीय हैं, वंदनीय हैं,जीवन में आत्मसात करने योग्य हैं। आज जमीन के एक टुकड़े के लिये, मकान के हक के लिये भाई-भाई से मार काट करने लगता है। बहुत छोटी-छोटी बातों को लेकर पति-पत्नी के सम्बन्ध तनाव पूर्ण हो जाते हैं। पड़ौसी-पड़ोसी से ईर्ष्या करने लगता है, आपस में एक दूसरे के साथ झगड़ा आये दिन देखने को मिलता है। चौदह वर्ष का वनवास श्रीराम को भोगना था, सीता साथ क्यों गई? आप कहेंगे, अपने पति को सहयोग प्रदान करने के लिये गई। इन दोनों के साथ लक्ष्मण वन में भटकने के लिये क्यों गये? आज की पारिवारिक परिस्थितियों को देखते हुए यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है।
भरत ननिहाल में बैठे हैं, इधर श्रीराम वनवास पर चले गये हैं, उनके साथ सीताजी और लक्ष्मण भी चले गये हैं। पिता की मृत्यु हो चुकी है। यह सब कुछ सुन कर और देख कर उन्हें ,खुश होना चाहिये था, क्योंकि उन्हें तो चक्रवर्ती राजा दशरथ का राजसिंहासन जो मिल रहा था। लेकिन यह क्या? भरत रो रहे हैं, कह रहे हैं, श्रीराम के बिना अयोध्या सूनी हो गई है। पिता का श्राद्ध कर सीधे चित्रकूट पहुँच जाते है। वहां से श्रीराम की चरण-पादुकाओं को लाकर अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठा देते हैं। चौदह वर्ष तक साधु बन कर रहते हैं और चौदह वर्ष बाद उसी सिंहासन पर श्रीराम को बैठा देते हैं। भाई के लिये इतना बड़ा त्याग! आज की पारिवारिक स्थितियों एवं सामाजिक व्यवस्थाओं को देख कर इसे पढ़ना और सुनना अजीब लगता है, लेकिन कितना शिक्षाप्रद है भरत-चरित्र। इसे यदि हमारा हृदय ग्रहण करले तो परिवार टूटने से बच सकते हैं, सामाजिक बिखराव रुक सकता है। निषादराज ने प्रभु श्रीराम को गंगा पार करायी, उनके चरण धोकर उन्हें नाव में बैठाया। जब श्रीराम ने उतराई लेने की बात कही तो निषादराज ने कहा- 'आप और मैं एक ही बिरादरी के हैं। मैं लोगों को गंगा पार कराता हूँ आप भवसागर पार कराते हैं। जीवन की अन्तिम यात्रा के समय मैं आपके घाट पर आऊंगा तो आप मुझे भवसागर के पार उतारेंगे, मुझे मोक्ष प्रदान करेंगे। यही मेरा पारश्रमिक होगा।'
सीताजी ने रावण का सत्कार किया उसे अतिथि समझा, लेकिन रावण ने इसका फायदा उठा कर उनका हरण कर लिया। रावण संन्यासी वेश में सीताजी के पास गया। सीताजी ने संन्यासी का सत्कार किया। क्योंकि-
साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूताहि साधवः।
कालेन फलते तीर्थं सद्यः साधु समागमः।।
साधुओं का दर्शन ही पुण्य है, साधु तीर्थरुप है, समय से तीर्थ फल देता है, साधुओं का संग
शीघ्र फल देता है। संन्यासी सत्कार का पात्र होता है, लेकिन रावण ने संन्यासी वेश में सीताजी का हरण कर संन्यासियों का अपमान किया है। रावण का यह अपराध क्षमा करने योग्य नहीं है। आज दरवाजे पर खड़ा संन्यासी वास्तव में संन्यासी है या रावण, यह भेद कर पाना मुश्किल हो गया है। दरवाजे पर आने वाले अधिकतम संन्यासी रावण ही होते हैं। इसलिये लोग उनका तिरस्कार कर देते हैं, ऐसे में सही संन्यासियों का भी तिरस्कार हो जाता है। सीता हरण के लिये रावण ने संन्यासी वेश धारण कर निश्चितरुप से बहुत बड़ा अपराध किया था। जटायु ने सीताजी की रक्षा करने के लिये अपने प्राणों की परवाह नहीं की। जटायु की स्वामिभक्ति व परोपकार की भावना को देख कर श्रीराम बहुत प्रभावित हुए। उनका पूरे विधि विधान से दाह-संस्कार कर उन्हें पितातुल्य सम्मान दिया। त्रिजटा राक्षसी थी, लेकिन सीताजी का सुख-दुःख में पूरा साथ देती थी। व्यवहार कुशल
राक्षसी त्रिजटा को सीताजी मां कह कर पुकारती थी। रावण, श्रीराम को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता था। उसने सीता-हरण तो किया लेकिन उन्हें अपने महल में नहीं ले गया। उन्हें स्त्रियों के पहरे में अशोक वाटिका में रखा। जब भी वह उनसे मिलने के लिये गया साथ में अपनी प्रिय पत्नी मंदोदरी व अन्य दासियों को लेकर गया। वह अकेला सीता माता से मिलने अशोक वाटिका में कभी नहीं गया। रावण ने संन्यासी वेश में सीताहरण कर निन्दित कर्म किया। लंका ले जाकर सीताजी को समझाया। साम, दाम, भय और भेद दिखाया, लेकिन जोर-जबरदस्ती नहीं की। संन्यासी वेश में सीताहरण करने जैसा अपराध करने वाले रावण ने लंका में संन्यासी बन कर सीताजी के शील की रक्षा भी की । महाकवि सूरदासजी ने अपने काव्य 'सूरसागर' में रावण को प्रभु श्रीराम का परम भक्त बताया है। रावण को एक राक्षसी ने अवगत कराया कि सीता सती है और वह किसी भी हालत में अपना सत् छोड़ने को तैयार नहीं है। सीता तुम्हारी नहीं हो सकती। तुम सीता की चाह छोड़ दो। राक्षसी की बात सुन कर राम भक्त रावण कहता है -
मोसे मुग्ध महापापी कौं कौन क्रोध करि तारै ? 'ये जननी' वै प्रभु रघुनंदन, हौं सेवक प्रतिहार। सीता-राम सूर संगम बिन कौन उतारे पार ?
पद - 522
यहाँ महाकवि सूरदासजी द्वारा प्रस्तुत इस विशिष्ट रस पर मनन करने से तो यही प्रतीत होता है कि महापापी रावण, सीता-रामजी की कृपा से इस भवसागर को पार करना चाहता है। भवसागर से पार उतरने के लिए ही रावण ने 'जननी' (सीता माता) का हरण किया और एक संन्यासी की तरह उनके शील की रक्षा भी की।
यहां जो उदाहरण दिये गये हैं, उनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष एवं परोक्षरुप से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से है। आज मर्यादा पुरुषोत्तम राम के देश में क्या हो रहा है। आज हमारा समाज इन मर्यादाओं का पालन क्यों नहीं कर रहा है। श्रीराम को भूल कर राम राज्य की कल्पना करना व्यर्थ है। रामचरितमानस में वर्णित प्रत्येक रस को यदि हम अपने जीवन में 'आत्मसात करें' तो प्रत्येक मनुष्य सत्पुरुष बन कर परिवार और समाज की सेवा कर सकता है। रामचरितमानस का पठन कीजिये, इसके विशेष रसों को जीवन में उतार कर अपना व अपने समाज का उत्थान कीजिये। जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान है रामचरितमानस, पथप्रदर्शक है मानस, इसीलिये इसे 'पंचमवेद' कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
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