डॉ. दीपक आचार्य इंसान का होना न होना बराबर है यदि वह जहाँ है वहाँ के लिए किसी भी प्रकार से उपयोगी नहीं है। दुनिया में उस व्यक्ति और ज...
डॉ. दीपक आचार्य
इंसान का होना न होना बराबर है यदि वह जहाँ है वहाँ के लिए किसी भी प्रकार से उपयोगी नहीं है। दुनिया में उस व्यक्ति और जड़ पदार्थ में कहीं कोई भेद नहीं है जो किसी काम का नहीं है, जिसकी कोई उपयोगिता नहीं है।
हर तरफ उपस्थिति पर जोर दिया जाता रहा है लेकिन उपस्थिति के बावजूद कोई खास बदलाव कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। समाज जीवन के किसी भी क्षेत्र में हम रहते या काम करते हों, हमारे होने का अर्थ तभी है जब हमारी कोई उपयोगिता हो अन्यथा उपस्थित होना या बने रहना कोई मायने नहीं रखता।
आदमी के बारे में आजकल सर्वत्र विचित्र और विस्मयकारी धारणाओं का जन्म होने लगा है। बहुत सारे लोग उपस्थित तो रहते हैं परन्तु इनके बारे में आम धारणा यही होती है कि ऎसे मुर्दाल, कामचोर और कामटालू लोग न हों तो सारा काम-धाम ज्यादा अच्छे से होता रहे।
बहुत से लोग मौजूद तो रहते हैं लेकिन इनकी हरकतों को देख कर यही लगता है कि केवल शरीर ही उपस्थित है, इनका दिल और दिमाग जाने कहीं और जगह ही लगा होता है। ऎसे में इस शरीर के होने का कोई अर्थ नहीं है। अधिकांश लोग इसी मनःस्थिति में जीते हैं। ये लोग उपस्थित जरूर रहते हैं मगर इनकी उपस्थिति का कोई फायदा नहीं है क्योंकि ये लोग एक तो कोई काम नहीं करते, दूसरे भीड़ या तमाशबीन के रूप में बने रहकर माहौल खराब करते रहते हैं वो अलग।
ढेरों लोग ऎसे मिल जाएंगे जिन्हें देखकर लगता है कि इन्हें खुद को नहीं मालूम कि वे कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं और क्या करना है। असल में उपस्थिति और उपयोगिता दोनों का होना जरूरी है। हमें जो दायित्व या स्थल सौंपे गए हैं उनकी उपेक्षा कर दूसरे-तीसरे कामों में रमे रहें, तो इसका कोई लाभ नहीं।
बहुत सारे लोग हर जगह देखने को मिल जाएंगे जो दिन भर कुर्सियों और व्हीलचैयर्स में धँसे रहेंगे, और समय पूरा होने के बाद तक भी बैठे रहने के आदी होते हैं लेकिन इनके दिन भर के काम-काज का लेखा-जोखा लिया जाए तो यही सामने आएगा कि इन लोगों ने गप्प हाँकने, पर निन्दा करने और टाईमपास करने के सिवा कुछ नहीं किया है। और बहुत सारे महाशय तो ऎसे देखने को मिल जाएंगे जो शयन सुख पाते हुए दिन में भी स्वप्न देखकर खुश होने की आदत पाले हुए होते हैं। इनके बारे में प्रसिद्ध होता है कि जब तक ये दिन में आधा-एक घण्टा झपकी नहीं ले लें तब तक इनका दिन पूरा नहीं होता।
देखा यह भी जाता है कि लोग दिन भर बैठे रहते हैं लेकिन उपलब्धि के नाम पर शाम को कुछ भी दिखता नहीं। जैसे आए थे, वैसे ही चले जाने का क्रम बना रहता है। फिर दिन ब दिन काम चढ़ते रहने से एक समय वह आ जाता है कि जब इस किस्म के लोगों के पास कामों का भारी बोझ हो जाता है।
एक बार जब काम का बोझ चढ़ जाए तब उसका उतरना मुश्किल होता है क्योंकि जिन लोगों को काम टालने, लटकाए रखने और फिजूल के गप्पों या संगी-साथियों के साथ बैठकर टाईमपास करने की आदत पड़ जाती है वे लोग मरते दम तक अपनी इस आदत को छोड़ नहीं पाते। यह आलस्य और प्रमाद ही उनके जीवन में कामों के बोझ का तनाव हमेशा बनाए रखता है और यही तनाव इनकी सेहत का कबाड़ा भी कर देते हैं और मौत को भी करीब खींच लाते हैं।
इसके विपरीत काफी लोग आज भी हैं जिनका विश्वास उसी दिन काम पूरा करने में होता है। ये लोग अपने पास कोई काम लंबित नहीं रखते। इस वजह से इनके दिमाग मेंं लंबित कामों की कोई सूची नहीं होती है जो इनके दिमाग पर बोझ बनकर पड़ी रहे और तनावों का कारण बने।
अधिकांश कामटालू और टाईमपास लोगों की बीमारियों का एकमात्र मूल कारण यही है। ऎसे बीमारू लोगों को चाहिए कि वे दवा-दारू तो करते रहें, साथ ही रोज का काम रोज निपटा लेने की आदत बनाएँ ताकि नवीन तनावों से बचे रह सकें और लंबित कामों की सूची धीरे-धीरे कम होती चली जाए। ऎसी स्थिति लाएं कि कोई काम ऎसा नहीं रहे जो बोझ की तरह महसूस हो।
इंसान की पूरी जिन्दगी मेंं तनावों का सबसे बड़ा कारण कोई है तो वह है उन कामों का बोझ ही है जिन्हें हम समय पर नहीं कर पाए हैं और जिनकी वजह से दिमाग को बहुत सारा याद रखे रखने की मजबूरी बन जाती है। यही मजबूरी दिमागी आकार में वैचारिक घनत्व को इतना अधिक बढ़ा दिया करती है कि इसकी वजह से हमारे सामने करणीय कार्यों का बहुत बड़ा लक्ष्य खड़ा हो जाता है और इस विराट लक्ष्य को देख-देख या इसकी कल्पना करके हमारा मन पस्त हो जाता है, दिमाग इस भार को आगे से आगे टालने की सीख देता रहता है।
यही कारण है कि कामों का बोझ जहाँ कहीं बढ़ जाएगा वहाँ तनाव, चिड़िचिड़ापन, अनिद्रा, सनक, अहंकार और दूसरी सारी मानसिक और शारीरिक व्याधियां घर करने लगती हैं। इन बीमारियों का मूल कारण यही है कि कामों का बोझ इतना अधिक बढ़ जाता है कि मन, मस्तिष्क और शरीर इतना सारा काम एक साथ करने में समर्थ नहीं होते।
तब जाकर हमारे दिमाग, दिल और शरीर तीनों को अजीब सी और कभी न थमने वाली थकान अनुभवित होती है और तीनों की एक राय यही सामने आती है कि अब इस शरीर से काम नहीं हो पाएगा इसलिए धीरे-धीरे इसके क्षरण की प्रक्रिया आरंभ होनी चाहिए।
इसी क्षरण का सूत्रपात करने के लिए हमारे अंग-उपांग और मस्तिष्क की नसें, हृदय और दूसरे सारे प्रत्यंग शिथिल होने लगते हैं और ढेर सारी बीमारियां घर कर लेती हैं। और अन्ततोगत्वा राम नाम सत्य हो ही जाता है।
जीवन में आनंद, दीर्घ आयु और यश पाने की तमन्ना हो तो जहाँ कहीं हैं वहाँ अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज कराएं। इसके लिए जरूरी है कि हम समय का पूरा उपयोग करना सीखें, अपनी उपयोगिता पर ध्यान दें और अपने संस्थान, घर-परिवार, दुकान-दफ्तर से लेकर समाज और देश सभी के लिए उपयोगी बनें। यही मनुष्य जीवन का सर्वोच्च योग एवं ध्येय है।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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