- दयाधर जोशी जन्म - चैत्र शुक्ल पूर्णिमा, मंगलवार (मध्यरात्रि) कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (अर्धरात्रि) माता का नाम - अंजना पि...
- दयाधर जोशी
जन्म | - चैत्र शुक्ल पूर्णिमा, मंगलवार (मध्यरात्रि) कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (अर्धरात्रि) |
माता का नाम | - अंजना |
पिता | - वानरराज केसरी-केसरी के क्षेत्रज पुत्र, पवनदवे के औरस पुत्र, ग्यारहवें रुद्र |
जन्म नाम | - मारुति |
माता अंजना पूर्वजन्म में पुंजिकस्थली नाम की अप्सरा थी। रावण जब देवलोक गया तो इसके रूप और तेज को देख कर मोहित हो गया। रावण ने कामुक होकर इसका हाथ पकड़ लिया। अपना हाथ छुड़ा कर क्रोधित पुंजिकस्थली सीधे ब्रह्माजी के पास गई और कहा, 'आपका वरदान पाकर ऐसे दुष्ट स्वभाव के लोग देवलोक में विचरण करते रहते हैं और आपके शरणागतों के साथ अत्याचार, अनाचार करते हैं।' ब्रह्माजी ने रावण से कहा, 'यदि आज के बाद तुम किसी परायी स्त्री को बुरी नजर से देखोगे तो तुम्हारे सिरके टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।' अप्सरा इससे संतुष्ट नहीं हुई। उसने ब्रह्माजी से कहा, 'मैं इससे स्वयं बदला लूँगी।' अत्रि मुनि के शाप के कारण इसी पुंजिकस्थली नाम की अप्सरा ने कुंजर वानर के यहाँ जन्म लिया जिसका नाम अंजना (अंजनि) रखा गया। अंजना का विवाह वानरराज केसरी से हुआ। केसरी राक्षसों को मार कर ऋषियों की रक्षा किया करते थे। ऋषियोंने प्रसन्न होकर केसरीजी को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा होने वाला बालक बल, बुद्धि और विद्या से परिपूर्ण होगा। बड़ा होकर श्रीराम का अनन्य भक्त बनेगा व सारे संसार में पूजनीय एवं वंदनीय होगा। अंजना और केसरी सुमेरु पर्वत से किष्किंधा चले गये। अंजना ने मतंग ऋषि के आश्रम में एक हजार वर्ष तक तपस्या की। इसके बाद सौ वर्ष तक वैंकटेश्वर पर्वत पर तपस्या की।
इस अवधि में केसरीजी ने उन्हें अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया। जब अंजना तपस्या कर रही थी तो त्रिदेव उनके पास पहुँचे। अंजना ने उनसे वरदान माँगा कि मरे होने वाले पुत्र की सभी शक्तियाँ आपकी शक्तियों से बढ़ कर हों, अधिक उच्चता से परिपूर्ण हों। मेरा पुत्र इस संसार में असुरों का नाश करे और देवताओं की रक्षा करे। त्रिदेव ने तथास्तु कह दिया। सृष्टि के संहारक भगवान रुद्र ने अपने प्रिय हरि की अधिकाधिक सेवा करने व कलिकाल में भक्तों की रक्षा करने के लिये पवनदेव के औरस पुत्र और वानरराज केसरी के क्षेत्रज पुत्र के रुप में अवतरित होने का निर्णय लिया। पवनदेव ने भी अंजना को वरदान दिया कि मैं अपनी बलरुपी वह शक्ति जिससे तीनों लोक कंपायमान हो जाते हैं, तुम्हारे पुत्र को प्रदान करुँगा। वर्षों की घोर तपस्या के बाद अंजना ने एक विलक्षण बुद्धि के बालक को जन्म दिया। चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार को मध्य रात्रि में अंजना के गर्भ से भगवान शिव अपने रुद्रदेह को त्याग कर वानररुप हनुमान बन कर अवतरित हुए। भगवान शिव ने ग्यारहवें रुद्र के रुप में अंजना के गर्भ से जन्म लिया, इसलिये शास्त्रों में हनुमानजी को रुद्रावतार कहा गया है।
जन्म के समय इनका नाम मारुति रखा गया। मारुति को भूख लगी लेकिन कुछ खिलाने-पिलाने के लिये अंजना माता घर पर नहीं थी। उसी समय उदयाचल से उदित हो रहे अरुणाम सूर्य को मारुति ने मीठा फल समझ लिया। वे तुरन्त आकाश में उड़े और सूर्य तक पहुँच गए। मारुति को सूर्य की ऊष्मा से बचाने के लिये पवनदवे भी पीछे-पीछे चल रहे थे।
उसी समय राहु भी अपनी सेना सहित वहाँ पहुँच गया। मारुति ने इसे भी मीठा फल समझ लिया और उस पर लपके। राहु शिकायत करने इन्द्रदेव के पास पहुँच गया। इस बीच मारुति ने राहु की राक्षसी सेना का अंत कर दिया। मारुति ने सूर्य को मीठा फल समझ कर अपने मुख में रख लिया। इन्द्र ने मारूति पर वज्र से प्रहार किया तो वे मूर्छित हो गये। यह देखकर पवनदेव को क्रोध आ गया। उन्होंने तुरन्त प्राणवायु का संचार बंद कर दिया। चारों ओर हाहाकार मच गया। ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ पवनदेव के पास पहुँचे। उन्होंने मारुति को स्पर्श किया तो उन्हें होश आ गया। मारुति को बाल्यावस्था में ही इन्द्र, कुबरे , यम, वरुण, ब्रह्मा आदि देवताओं ने अनेकों वरदान दिये और आशीर्वाद दिया कि तुम पर सभी अस्त्र-शस्त्र प्रभावहीन रहेंगे। देवताओं ने इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया। सूर्यदेव ने गुरु बनकर विद्याज्ञान देने का वचन दिया। ब्रह्माजी ने पवनदेव से कहा, 'तुम्हारा पुत्र शत्रुओं पर हमेशा भारी पड़ेगा, युद्ध में अजेय रहेगा। श्रीराम-रावण युद्ध में अपना शौर्य दिखा कर श्रीराम को अति प्रसन्नता प्रदान करेगा।'
बाल-लीला करते समय मारुति ने राहु की सेना और साठ हजार मंदार नाम के राक्षसों का भी संहार कर दिया। इसलिये इनका एक नाम ''राक्षसान्तक'' भी है। इन्द्र के वज्र प्रहार से मारुति की हनु (जबड़ा) टेढ़ी हो गई। हनु वक्र हो जाने से इनका नाम हनुमान हो गया। ऐसे कार्य जो मनुष्य को ब्रह्म से विमुख करते हैं, उनका हनन कर सही मार्ग की ओर अग्रसर करने वाले को भी हनु (हनन करने वाला) कहते हैं। अपनी इस विशेषता के कारण भी ये हनुमान हैं। पाँच वर्ष की अल्प आयु में हनुमान विद्या अध्ययन के लिये अपने गुरु सूर्यदेव के पास पहुँच गए। सूर्यदेव ने मन में बालकों का खेल समझ कर बहाना किया। उन्होंने हनुमान से कहा, 'मेरा तेज बहुत प्रचंड एवं असहनीय है। पीठ के पीछे बैठा कर शिक्षा नहीं दी जा सकती है। मेरे रथ में तुम्हारे बैठने के लिये प्रचुर स्थान उपलब्ध नहीं है। शिष्य तो गुरु के चरणों में बैठा हुआ ही अच्छा लगता है। लेकिन स्थानाभाव के कारण यह सम्भव नहीं है।' प्रखर बुद्धि हनुमान को कहना पड़ा, 'गुरुदेव आपका वेग तो मेरे एक कदम के बराबर है।' मैं आपको अपनी पीठ नहीं दिखाऊँगा। हनुमान ने भास्कर की ओर मुख करके पीठ की तरफ पैरों से प्रसन्नमन आकाशमार्ग में बालकों के खेल के समान गमन किया। मैं पीछे-पीछे पैर रख कर सदा आपके सन्मुख ही बना रहूँगा। आप कहते हैं कि आपका तेज असहनीय है, इसे मैं हर लूँगा और आप मेरे तेज से प्रकाशमान रहेंगे। हनुमान ने चौदह विद्याएँ चौदह दिन में सीख ली। इससे सूर्यदेव का तेज कम हो गया। गुरु शिष्य से प्रश्न पूछते थे लेकिन शिष्य द्वारा दिये गये उत्तर को समझ नहीं पाते थे। सूर्यदेव सोचने लगे, इस चंचल वानर को विद्या प्रदान करने का वचन मैंने क्यों दिया होगा? अन्ततः सूर्यदेव ने श्रीहरि से विनती की, मेरे गुरु-पद की लाज अब आपके हाथ में है। श्रीहरि ने हनुमान को समझाया कि गुरु को पूरा सम्मान दो, शास्त्रों की मर्यादा रखो। तुम्हारी विद्या को इस संसार में लुप्त करने वाला न कोई है और न कोई होगा। अपनी शिक्षा को जारी रखो। पुनः अपने गुरु के पास जाओ, उनकी मर्यादा का सम्मान करो। इस तरह श्रीहरि ने गुरु और शिष्य के बीच समन्वय स्थापित करा दिया।
हनुमान ने अठ्ठारह मास तक अपने गुरु से शिक्षा ग्रहण की। इस अवधि में अपने गुरु को पूर्ण सम्मान दिया। गुरु की मर्यादा और सम्मान का पूर्ण खयाल रखा। हनुमान ने जिस आश्चर्यपूर्ण तरीके से विद्याध्ययन किया वह वास्तव में तीनों लोकों को चकित कर देने वाला है। शिक्षा ग्रहण के इस अचरज भरे खेल को देखकर इन्द्रादि लेाकपाल, विष्णु, रुद्र और ब्रह्मा की आँखें चौंधिया गई तथा चित्त में खलबली सी उत्पन्न हो गई। तुलसीदासजी कहते हैं - बल कैधौं बीररस, धीरज कै साहस कै,
तुलसी सरीर धरे सबनिको सार सो।
सब सोचने लगे कि यह न जाने बल, न जाने वीररस, न जाने धैर्य, न जाने हिम्मत अथवा न जाने इन सबका सार ही शरीर धारण किये है। शिक्षा पूर्ण होते ही हनुमान ने विनम्र होकर अपने गुरु से गुरु-दक्षिणा माँगने के लिये निवेदन किया तो सूर्यदेव ने कहा,' मेरा पुत्र सुग्रीव वानररुप में तुम्हें मिलेगा। जब तक उसे प्रभु श्रीराम नहीं मिलें तब तक तुम उसकी रक्षा करना।' अपने गुरु की आज्ञा को हनुमान ने पूर्ण सम्मान प्रदान करते हुए आगे चल कर वानरराज सुग्रीव को भी पूर्ण सम्मान प्रदान किया, उनकी रक्षा की और उन्हें ब्रह्म से मिलाकर हमेशा के लिए भयमुक्त भी किया। हनुमान बचपन में बहुत चंचल थे और ऋषि-मुनियों के आश्रम में जाकर उन्हें बहुत परेशान करते थे। उनकी इस चंचलता से माता-पिता भी बहुत परेशान थे। दण्ड के रुप में अंगिरा और भृगुवंशियों ने हनुमान को अपनी शक्तियाँ दीर्घकाल तक भूलने का शाप दे दिया। साथ ही यह भी अवगत करा दिया कि यदि कोई तुम्हें तुम्हारी शक्तियों का स्मरण करायेगा तो शक्तियाँ पुनः प्राप्त हो जायेंगी। भृगु ऋषियों द्वारा दिये गये इस शाप की जानकारी केवल जामवंतजी को ही थी। इस शाप के बाद हनुमान का व्यवहार बहुत ही सौम्य और शिष्ट हो गया।
सुग्रीव के सचिव पद से ही प्रारम्भ होती है हनुमान चरित्र की यात्रा। यहीं इन्होंने अपने स्वामी श्रीराम को पहचाना और उनके दास बन गये। जामवंत हनुमान से कहते हैं- 'हे बलवान! क्या चुप साध रखी है, पवन पुत्र हो, बल में पवन के समान हो, बुद्धि, विवेक और विज्ञान की खान हो। श्रीराम के कार्य के लिये तुम्हारा अवतार हुआ है। जगत में ऐसा कौन सा कठिन काम है जो तुमसे न हो सके।' यह सुनकर हनुमानजी पर्वत के आकार के अत्यन्त विशालकाय हो गये। जामवंत के मार्गदर्शन ने हनुमानजी की लघुता को प्रभुता में परिवर्तित कर दिया। हनुमानजी की सभी शक्तियाँ सुप्तावस्था से जाग्रत अवस्था में आ गयीं। हनुमानजी, श्रीरामजी के दास्यभक्ति रस में एसे े डूबे कि स्वयं भगवान श्रीराम हनुमानजी के कृतज्ञ होकर स्वयं को उनका आजीवन ऋणी मान बैठे। हनुमान राक्षसान्तक हैं मनुष्यान्तक नहीं, इसका उदाहरण महाभारत का युद्ध है। हनुमान अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठे हैं, गुरु द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह के शस्त्र प्रहारों से पाण्डव सेना भयभीत है। हताश-निराश अर्जुन, हनुमान से कहते हैं, 'आप इनके अस्त्र-शस्त्रों से इतने भयभीत क्यों हैं? 'हनुमान कहते हैं,' कौरवों की सेना में वीर तो हैं पर एसे े वीर नहीं हैं जिनसे मैं युद्ध कर सकूँ। मेरी गर्जना को सुन कर तीनों लोकों के राक्षस काँपने लगते हैं। इस युद्ध में वीर तो हैं पर राक्षस नहीं हैं। मनुष्यों पर बल प्रयोग और अपना पराक्रम प्रकट करने में बहुत संकोच हो रहा है। क्योंकि मैं मनुष्यान्तक नहीं हूँ।'
''भारत में पारथ के रथकेतु कपिराज'' हनुमान ने भीषण गर्जना करने से मना कर दिया। उन्होंने कहा, 'मैं अपनी किलकारी को भीम की गर्जना में मिला दूँगा। मेरी किलकारी का असर कौरव सेना पर ही होगा। आसपास में रह रहे अन्य सभी प्राणी-भयमुक्त बने रहेंगे।' हनुमान की किलकारी और भीम की गर्जना से कौरव सेना मूर्छित हो गयी। मूर्छा अर्जुन को भी आयी लेकिन उन पर हनुमानजी की कृपादृष्टि थी इसलिये बेहोश नहीं हुए। हनुमानजी ने कहा,' हे अर्जुन! मैं कौरवों की सेना पर प्रहार नहीं करुँगा। मैं भीम की गर्जना और तुम्हारे गाण्डीव की टंकार के साथ अपनी किलकारी मिला दूँगा जिससे कौरव सेना भयभीत हो जायेगी और तुम आसानी से उनका संहार कर सकोगे।' हनुमान दिव्य अस्त्रों से अर्जुन की रक्षा करते रहे। भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान वीरों को भी कहना पड़ा, 'हे पवनसुत! हमारी रक्षा करो।' अन्ततः पाण्डव विजयी हुए। यदि हनुमानजी नहीं होते तो पाण्डवों की हार सुनिश्चित थी। हनुमानजी ने कौरव सेना पर प्रहार नहीं किया, किसी भी मनुष्य का संहार नहीं किया, क्योंकि हनुमान राक्षसान्तक हैं मनुष्यान्तक नहीं।
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को भी हनुमानजी का जन्म महोत्सव मनाया जाता है। लंका विजय के बाद जब श्रीराम अयोध्या लौटे तो उनके साथ वानर भालू भी थे। अयोध्या से विदा करते समय सीतामाता ने इन्हें यथायोग्य पारितोषिक दिये। कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन सीतामाता ने अपनी रत्नजड़ित मोतियों की बहुमूल्य माला हनुमानजी को पहनायी। इस माला के मोतियों में रामनाम नहीं था। वे इस पारितोषिक से संतुष्ट नहीं हुए। वे मणियों को तोड़ते और फेंक देते । वहां उपस्थित समुदाय को यह अनुचित लगा। उनका कहना था, ब्रह्मचारी हैं इसलिये मणियों का महत्त्व नहीं समझते। माला तोड़ कर जनकनन्दिनी का अपमान कर रहे हैं। ज्ञानिनामग्रगण्य हैं लेकिन कपि संस्कार नहीं छूट सकता। इनके बारे में जो कुछ भी कहा जा रहा था वह विभीषणजी को अच्छा नहीं लगा। लेकिन जो हनुमान कर रहे थे वह भी उचित नहीं था। विभीषणजी ने उनका हाथ पकड़ कर कहा, 'बहुमूल्य मणिमाला को क्यों तोड़ रहे हो?' हनुमान ने कहा, 'यह माला आपके लिये बहुमूल्य हो सकती है मेरे लिये नहीं। जिसमें रामनाम नहीं हो वह मेरे लिये व्यर्थ है।' सभी ने आश्चर्य से उनकी ओर देखा तो उन्होंने अपने नखों से अपने वक्षःस्थल को विदीर्ण कर उपस्थित समुदाय को अपने हृदय में राम-लक्ष्मण और सीता के साक्षात दर्शन करा दिये। आश्चर्यचकित होकर सभी ने एक स्वर में श्रीरामोपासक हनुमान का जयघोष किया। हनुमानजी के चेहरे पर निराशा के भाव देख कर सीतामाता ने अपने ललाट पर लगा सौभाग्य का प्रतीक इन्हें देते हुए कहा,' इससे बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मेरे पास नहीं है। इसे सहर्ष स्वीकार कर धारण करो और सदैव अजर-अमर रहो।' इसलिये कुछ लोग कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को भी इनका जन्मोत्सव मनाते हैं व इन्हें सौभाग्य का प्रतीक सिंदूर एवं तेल चढ़ाते हैं।
सीतामाता पूजा-पाठ करके बाहर निकली तो हनुमान ने उन्हें प्रणाम किया। माँ ने आशीर्वाद दिया तो वे माँ के मुख को निहारने लगे। उन्होंने माँ की माँग में सिन्दूर की लाली देखी तो जिज्ञासावश पूछ लिया,' माँ आपकी माँग में यह लाली क्यों ? 'माता ने हँस कर कहा, 'तुम ब्रह्मचारी हो इसलिये समझ नहीं सकोगे। यह प्रत्येक नारी के लिये सौभाग्य का प्रतीक है। इससे तुम्हारे प्रभु प्रसन्न होते हैं। माँग में सिन्दूर लगाने से स्वामी दीर्घायु होते हैं।' हनुमानजी ने मन ही मन सोचा जब माँ की इतनी सी सिन्दूर लालिमा से प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं, दीर्घायु हो जाते हैं तो इसे पूरे शरीर पर लगाने से प्रभु का असीम प्रेम मिल सकता है। प्रभु का असीम अनुग्रह पाने के लिये व उनकी दीर्घायुष्य कामना के लिये इन्होंने अपने सारे शरीर में सिंदूर पोत लिया। जब श्रीराम ने हनुमान को देखा तो कहा, 'तुम्हारा यह भेष मुझे अच्छा लगा।' हनुमान उनके चरणों में गिर कर बोले, 'प्रभु ऐसे ही शरारत सूझ गई थी।' प्रभु श्रीराम ने उनके मस्तक पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया और अपने भक्त के भोलेपन को देख कर कहा, 'बहुत रुचिकर लग रहा है तुम्हारा यह स्वरुप।' जनक नन्दिनी भी उन्हें देख कर मुस्कुरायी और आशीर्वाद देते हुए बोली, 'अच्छे लग रहे हो।'
हनुमानजी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। तभी से इनका एक नाम ''सिन्दूरारुण विग्रह'' भी है। हनुमानजी अजर-अमर हैं। वर्तमान काल में 28वें महायुग के सत्य त्रेता और द्वापर बीत कर 28वां कलयुग चल रहा है। इस कलयुग में ''रबि बालबरन-तनु'' उदयकाल के सूर्य के समान लाल देहधारी हनुमान अदृश्यरुप में रहते हुए यहाँ-वहाँ विचरण करते रहते हैं। जहाँ-जहाँ रामकथा होती है वहाँ ये अवश्य जाते हैं, क्योंकि ये रामकथा से कभी तृप्त ही नहीं होते हैं। अदृश्य रह कर ही ये अपने भक्तों की सहायता करते रहते हैं।
द्वापरयुग में इनका रुप शक्तिशाली वानर ही था। ''भारत में पारथ के रथकेतु कपिराज''-अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठ कर धर्म की रक्षा करना व अपने भक्तों की रक्षा एवं मनोकामना पूर्ण करना इनका परम उद्देश्य था।
''राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहाँ विश्राम''-त्रेतायुग में प्रभु श्रीराम की सेवा ही इनका प्रमुख कार्य था। इस युग में ये सौम्यरुप लाल देहधारी वानर थे। इनकी कृपा होने पर ही भक्त को प्रभु
श्रीराम का धाम प्राप्त होता था। सतयुग में हनुमानजी दिव्यस्वरुप थे। दिव्यस्वरुप में ये हमेशा प्रभु का ध्यान करते रहते थे।
प्राणियों के प्रति सेवाभाव इनका प्रमुख कार्य था। हे वीर हनुमान! गोस्वामी तुलसीदासजी आपको 'शंकर सुवन', 'केसरीनन्दन', 'पवनसुत' और 'अंजनिपुत्र' कह कर सम्बोधित करते हैं।
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