सुशील यादव हमारा ज़माना बहुत दूर अभी नहीं गया है। फकत पच्चास-साठ साल पीछे चले जाओ। आपको पुराने फैशन के नेरो या बेल-बाटम पतलून –शर्ट, घ...
सुशील यादव
हमारा ज़माना बहुत दूर अभी नहीं गया है।
फकत पच्चास-साठ साल पीछे चले जाओ।
आपको पुराने फैशन के नेरो या बेल-बाटम पतलून –शर्ट, घाघरा-चोली, धारी युवक –कन्याएं यानी ‘प्री-जीन्स’ युग के जीव मिल जायेंगे।
ये लोग प्रेम के दीवाने होते थे।
कालिज की सीढियों में पाँव रखे नहीं कि, एक अदद ‘प्रेमी’ या ‘प्रेमिका’ की जरुरत ‘स्टेटस सेम्बाल’ बनाए रखने के लिए . जरूरी लगने लगता था।
जो लोग ‘स्टेटस’ को पहुंच नहीं पाते थे या पा सकने में, किसी तकनीकी कारण विशेष के चलते असक्षम होते थे , वे ‘एक तरफा मोहब्बत’ वाला रोग लगा बैठते थे।
कुल मिला के मुहब्बत करनी है ,चाहे रब रूठे या बाबा.....वाले वे दिन थे वे .....।
...मैंनू यारा इशक होंदा...
‘कुडी’को पता हो या न हो, या सालो बाद पता चले ...अपनी तरफ से हमने शुरुआत कर दी ....।वे मुहब्बत के हवन कुंड में नियमित रूप से उनकी गली के एक –दो चक्कर लगा आते थे या जहाँ –जहां उनके पाए जाने की संभावनाएं होती थी वहाँ –वहाँ अपनी पहुंच की दखल को संभावित रखते थे । उन दिनों किसी बात की ‘जल्दी’ होती कहाँ थी ?
ज्यादातर एक-तरफा प्रेम वालों से मोहल्ला, देहात ,शहर ऐसे भरा रहता था जैसे इन दिनों साइबर केफे में गूगल सर्च करने वालो की भीड़ होती है ।
वे लोग ‘एक तरफा’ को भी आजीवन नहीं भुलाने की कसम खाए हुए संजीदा किस्म के लोग होते थे ....?
सामाजिक प्राणी की मान्यता मिलाने के बाद भी उन्हें लगता था ,बीबी हैं बच्चे हैं मगर सेटिस्फेक्सन नहीं है।
‘प्यार का गठिया’ कभी –कभी सालने में आता तो गमगीन हुए जाते।
उनको जीने के लिए एक ‘कसक’ की जरूरत शिद्दत से महसूस हुआ करती थी।
काश एक ‘कसक’ दिल में रहे तो मजा आ जाए ?
‘कसक’ वालों के लिए एक से एक गाने, या यो कहे फिल्मी गानों का भंडार भरा पड़ा है। ये कसक ही पूरी फ़िल्म-इंडस्ट्री की धुरी हुआ करती थी ...पिवेट ....।
टिकट- विंडो पर अच्छा रिस्पांस दिलवाती थी।
जो शख्श कालेज की फीस का जुगाड ले-दे के कर पाता था, मुहब्बत किस बूते करता भला ...?
इसीलिए ज्यादातर मुहब्बत के एकतरफा वाले किस्से, ज्यादा हुआ करते थे ?
अभी तक किसी शोध कराने वाले गाइड ने, इस विषय को छुआ या छेडा नहीं है।
शोध दिलाने वाले गाइड-डाक्टर साहबान को इस विषय में मैं कुछ क्लू दिए जाता हूँ, जिसमें वे आगे पैदा होने वाले स्कालर्स को नए –नए विषय में शोध के लिए प्रेरित कर सकते हैं मसलन,
१.भारत में एकतरफा मुहब्बत के किस्से और सामाजिक परिवेश
२.कालेज में इश्क करने के हजार बेखौफ तरीके,
३. असफल प्रेमियों के चालीस-साला बाद की जिंदगी, और प्रेम के प्रति उनका नजरिया
४वर्तमान समय में फिल्मों का प्रेमी-प्रेमिकाओं पर प्रभाव और सामाजिक सारोकार, दायित्व और निर्वाह
५ राजनैतिक उथल-पुथल में प्रेम,एव समसामयिक दृष्टिकोण पर एक नजर
६ मोबाइल, इंटरनेट,एस एम एस , के जमाने में प्रेम करने के तरीकों में बदलाव।
७.क्या प्रेमपत्र आज के जमाने में संग्रहणीय दस्तावेज हो गए है,खोज और आंकड़े....
{विषय की लंबी फेहरिस्त है, सविस्तार जानने के इच्छुक शोधार्थी बाद में संपर्क साध सकते हैं }
खैर जाने भी दो। जिसे जो खोज-बीन करना है वो अपना दुखडा अलग पाले ..अलग अलापे ..?
बात ले –दे के फीस न जुगाड कर सकने वाले छात्रों की हो रही थी !
हमारे साथ भी, कमोबेश मामला इसी के आसपास का था। इतना जरूर था कि हम पढाकू होने की केटेगरी के थे, जिसकी वजह से साथ पढ़ने वाली जो बाला हमसे नोट्स मांगने की हिम्मत जुटा लेती, उसी के इर्द –गिर्द पूरे महीने भर की ‘इकतरफा वाली’ कवायद चालू हो जाती और यही अमिट पूंजी बन हमारे दिल की तिजोरी में बंद होने लग जाती।
सपनों में उनके चाहे गए नोट्स की बुनावट तरह-तरह से ,रह –रह के बनते बिगड़ते रहती ।
किताबे -गाइड-लाइब्रेरी खंगालने में दिन बीत जाते।
नोट्स बनाने के नए –नए स्टाइल नए-नए ख्याल- विचार जुगाड करते। तरह –तरह के नोट्स बनाते-बनाते हालात ये बन जाती कि , इस बहाने पूरा का पूरा चेप्टर हमको जुबानी याद हो जाता।
अगर ,उन दिनों मुन्ना –भाई बन के, एवजी परीक्षा देने का चलन होता , तो हमारी आसान कमाई का जरिया जरुर निकल आता।
इतना जरूर होता कि हमारी किताबी ‘पकड़’ की बदौलत. इक्जाम के दिनों में हमारी ‘पूछ-परख’ बढ़ जाती।
परीक्षा हाल में सवाल हल करते हुए स्टूडेंट को, बाहर से जवाब मुहैय्या कराने का काम मिल जाता।
परीक्षा के दिनों में. जब हमारे क्लास के तमाम छात्र पढ़ने से पल भर का समय नहीं निकल पाते थे , तो हमारी स्थिति अलग हुआ करती थी। हम रात को सेकंड शो देख के भी. अगले दिन परीक्षा हाल में जाने के न केवल काबिल बने रहते. बल्कि सबसे अव्वल पेपर इनविजिलेटर को सौंप के निकल जाते।
परिणाम भी हमारे पक्ष में, अभी-अभी गए इलेक्शन माफिक आता, जिसमे, आगे, ये दिल मांगे ‘मोर’ कहने की गुंजाइश नहीं रहती।
एक तरफा प्रेम-मुहब्बत को हर किसी ने ,धीरे धीरे मोम की तरह पिघलते देखा है ?
सब देवदास-मजनुओं का एक अंजाम.....!
कालिज वो कब खतम की ..? उधर वाली पार्टी कब डोली बैठ गई। कब उनके बच्चे -कच्चे हो गए ,कब समय की सुनामी आई, कब क्या बहा ले गई पता ही नहीं चला ...?
इन्ही में से जब कोई किसी शापिंग माल में अचानक आमने –सामने हो जाती हैं तो एक असहज -असमंजस की स्तिथि पैदा हो जाती है।
वे बड़े मजे से अपने बेटे या बेटी से परिचय कराती हैं ,बेटे ये हैं यादव अंकल ,नमस्ते करो ..... ।
सारा का सारा नोट्स जो उनके लिए , रात-रात भर जाग के लिखा, आँखों के सामने घूम जाता है।
दिल में एक कसक सी उठती है .....
मगर तुरंत बाद .....
एक ताजा हवा ,
एक नई खुशबू का एहसास
फिर भीतर तक समा जाती है, जो उसके बदन ने अभी -अभी छोडी है।
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सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग
दिनांक ३.७.१४
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