गढ़ी -चुनौटी का ठर्रा रामनरेश 'उज्ज्वल' अगर ताड़ मगह का बीयर है, तो गढ़ी चुनौटी का ठर्रा है। फसल में यह अनवरत बहता रहता है, लोग चुल्लू...
गढ़ी-चुनौटी का ठर्रा
रामनरेश 'उज्ज्वल'
अगर ताड़ मगह का बीयर है, तो गढ़ी चुनौटी का ठर्रा है। फसल में यह अनवरत बहता रहता है, लोग चुल्लू लगाये जी-भर पीते हैं। यह तरावट भी देता है और सुरूर भी। जो सुकून यहाँ है, अन्यत्र कहीं नहीं। स्वर्ग धरती पर उतरता है ताड़ के सहारे धीरे-धीरे। मौसम खुशनुमा हो जाता है अपने आप। चेहरे पर मुस्कान छा जाती है, हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। मादकता फैल जाती है हवाओं में चारों तरफ। मेहमानों का आगमन शुरू हो जाता है।
ताड़ी से भरी लबनी सबको अपनी ओर आकर्षित करने लगती है। जो नशा नहीं करते, वे भी ताड़ी को ताड़ के फल का जूस मानकर पीते हैं। वास्तव में ताड़ी ताड़ के फल का अर्क (रस) ही है, जो बूँद-बूँद टपक कर लबनी में एकत्र होती है।
ताड़ को गढ़ी-चुनौटी का ठर्रा इसलिए कहा, क्योंकि लोग यहाँ ताड़ी को ठर्रे की तरह पीते हैं और मस्ती में झूमते रहते हैं। गढ़ी-चुनौटी लखनऊ में ताड़ी के लिए सबसे ज्यादा मशहूर गाँव है । इसे ताड़ी का गढ़ कहा जाता है। इस गाँव के चारों तरफ हजारों ताड़ के वृक्ष हैं, जो किसान के खेत की मेड़ पर सिर उठाये गर्व से खड़े हैं। गाँव के चारों ओर सीनरी जैसा दृश्य नजर आता है। इस गाँव के आस-पास का पूरा क्षेत्र ताड़ के वृक्षों से भरा हुआ है।
गढ़ी-चुनौटी गाँव चारबाग रेलवे-स्टेशन से लगभग बीस किलोमीटर दूर बंथरा क्षेत्र में स्थित है। बंथरा के महावीर मंदिर के सामने से दांई ओर तीन किलोमीटर दूर सड़क पर यह गाँव स्थित है।
महावीर मंदिर से चलते समय रास्ते में रामचौरा नाम का गाँव पड़ता है। कहते हैं, वनवास जाते समय भगवान श्रीराम ने यहाँ पर कुछ समय विश्राम किया था, तभी से इस गाँव का नाम 'रामचौरा' पड़ गया। इस गाँव से ही ताड़ के वृक्षों का सुन्दर नजारा नजर आने लगता है। ताड़ी के सीजन में इस सड़क पर ज्यादातर लोग ताड़ी के नशे में झूमते हुए मिलते हैं।
गढ़ी-चुनौटी एवं आस-पास हर गाँव के प्रत्येक घर में ताड़ी की लबनी अवश्य मिलेगी।
ताड़ी की फसल का समय आते-आते गाँव के लोगों की खेती-बारी के काम भी लगभग समाप्त हो जाते हैं। इस समय किसान फुर्सत में रहते हैं। गाँवों में इसे बैठा-बैठी का समय कहा जाता है। इस समय बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों और ताड़ के वृक्षों के इर्द-गिर्द तड़ियल यानी ताड़ी पीने वाले लोगों का मजमा लखनऊ के हर उस गाँव में लगता है, जहाँ थोड़ी-बहुत ताड़ी होती है।
लखनऊ में ताड़ी के लिए गढ़ी-चुनौटी, पहाड़पुर, रामचौरा, औरावां, अन्दपुर, दादूपुर, बांदेपुर, पछेला, खुरूमपुर, ईंटगांव, बिजनौर, काकोरी, सदरौना एवं मलिहाबाद आदि क्षेत्र विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
मानसून के आने तक किसान के पास खेती-बारी का कोई विशेष कार्य नहीं रहता, अतः वे ताड़ के कार्य में व्यस्त हो जाते हैं। इस समय ताड़ के वृक्ष घौद से लड़ने लगते हैं। बलिहा और घौदहा दोनों तरह के ताड़ के पेड़ों पर लबनी टँग जाती है और कारीगर रोज सुबह-शाम ताड़ उतारने का काम शुरू कर देते हैं। जानकार लोग कहते हैं कि मौसम में जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, वैसे-वैसे ताड़ी की मात्रा के साथ-साथ मादकता भी बढ़ती जाती है।
गढ़ी-चुनौटी में ताड़ी बनाने का काम अप्रैल माह से शुरू हो जाता है। 25 अप्रैल को यहाँ बिहार से ताड़ी बनाने (उतारने) वाले कारीगर आ जाते हैं। इन कारीगरों को ठेकेदार द्वारा बुलाया जाता है। ठेकेदार यहाँ के किसानों से ताड़ के वृक्ष सीजन भर के लिए खरीद लेते हैं और बदले में उन्हें एक वृक्ष का सौ-डेढ़ सौ रूपये मूल्य देते हैं। किसान कहते हैं कि ताड़ के वृक्षों से कोई विशेष आर्थिक लाभ तो नहीं होता, किन्तु सीजन भर शुद्ध ताड़ी रोज पीने के लिए मिल जाती है। फिर इन ताड़ के वृक्षों से खेत की शोभा बनी रहती है। पेड़ ऊँचे होते हैं, इनकी छाया भी खेत पर नहीं पड़ती। अतः फसल पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। हर तरह की खेती-बारी आसानी से हो जाती है और सीजन में दो-चार पैसे भी ठेकेदार से मिल जाते हैं। हम तो यही मानते हैं कि भागे भूत की लंगोटी भली।
ठेकेदार का काम देखने वाले चन्दू के अनुसार एक पेड़ के वृक्ष से एक दिन में दो सौ से एक हजार रूपये तक की ताड़ी उतरती है। एक कारीगर एक दिन में लगभग 60 लीटर ताड़ी उतारता है।
ठेकेदार कहते हैं कि ताड़ी के लिए आबकारी विभाग से लाइसेन्स बनवाना पड़ता है, जिसमें काफी खर्च लगता है। इसके अलावा कारीगर और मुंशी को भी पारिश्रमिक देना पड़ता है।
शुरूआत के चार-पाँच दिन तक ताड़ के वृक्ष से कच्ची ताड़ी उतरती है, इस ताड़ी को लोग पीते नहीं हैं, किन्तु जानकारों के अनुसार इस ताड़ी का प्रयोग लोग पेट साफ करने के लिए करते हैं । चार-पाँच दिन बाद जब पक्की ताड़ी उतरती है, तो इसका सेवन सभी लोग करते हैं। ताड़ी के सीजन में गाँव में चहल-पहल बढ़ जाती है। दूर-दराज से लोग ताड़ी की लालच में यहाँ चले आते हैं। ठेकेदार भी यहाँ की ताड़ी बिक्री के लिए वाहन द्वारा सूदूर क्षेत्रों में भेजते हैं, जिससे वाहनों का आवागमन बढ़ जाता है। सड़क किनारे लबनी रखकर ताड़ी बेचने वालों का मजमा भी खूब लगा रहता है। ज्यादातर राहगीर लबनी देखकर रूक जाते हैं और ताड़ी पीकर ही आगे बढ़ते हैं।
गढ़ी-चुनौटी में ताड़ वृक्ष का पहला बीज कब उगा, इसका अनुमान यहाँ के बुजुर्ग भी नहीं लगा पाते हैं, किन्तु ताड़ वृक्ष यहाँ कैसे पनपा इसकी एक किंबदन्ती सभी सुनाते हैं- कहते हैं, हमारे पूर्वज खेती बारी का काम निपटाकर बहुत समय पहले बिहार में 'गया' गए थे। उस समय ताड़ी का सीजन था। गर्मी बहुत थी। उन्होंने गर्मी को दूर करने के लिए लिमका की तरह ताड़ी छक कर पी। ताड़ी उन्हें बहुत पसन्द आई। वे वहीं रूक गए और फसल भर खूब ताड़ी पी। ताड़ी का स्वाद और उसके गुण उन्हें बहुत पसन्द आये। वे उसे अपने घर लाने के विषय में विचार करने लगे। ताड़ के वृक्ष को उखाड़ कर तो लाया जा नहीं सकता था, इसलिए वे ताड़ के फल के पकने का इंतजार करने लगे। समय आने पर जब ताड़ के फल पक-पक कर गिरने लगे, तब हमारे पूर्वज अधिक मात्रा में ताड़ के फल एकत्र करके यहाँ ले आए और उन फलों को अपने खेतों के चारों तरफ गाड़ दिए। फिर काफी समय बाद उन फलों से अंकुर फूटे और धीरे-धीरे ताड़ के हरे-भरे वृक्ष तैयार होकर आस-पास के क्षेत्रों में भी फैल गए।
ताड़ के वृक्ष 25-30 वषरें में तैयार होते हैं। ये खजूर के व़ृक्ष की तरह एक शाखा के बीस-तीस फुट के लम्बे वृक्ष होते हैं। ताड़ के वृक्षों की लम्बाई हर वर्ष बढ़ती जाती है।
ताड़ के विषय में गढ़ी-चुनौटी निवासी सम्पत पाल कहते हैं कि ताड़ी ताड़ के फल का रस है, पहले इसमें नशा नहीं होता था, नशा इसमें कैसे आया? इस विषय में वे एक कहानी सुनाते हैं- सतयुग में सुग्रीव और बालि के राज्य पम्पापुर में एक सर्प के ऊपर सात ताड़ के वृक्ष उगे थे। इन सात पेड़ों को एक बाण से एक साथ काटने वाला ही बालि को मार सकता था। बालि को मारने के पहले इन्हीं सात ताड़ के वृक्षों को एक बाण से काटने के लिए सुग्रीव राम को अपने साथ ले गए थे। किन्तु सर्प कुण्डली मारकर बैठा था, इसलिए ताड़ के वृक्ष गोलाई में थे। ऐसी स्थिति में सातों वृक्षों को एक तीर से काट पाना नामुमकिन था। अतः लक्ष्मण ने जाकर सर्प को अँगूठे से दबाया, जिसके कारण सर्प कुलबुलाकर सीधा हो गया। उसके सीधे होते ही राम ने सातों पेड़ों को एक बाण से काट दिया। कहते हैं ताड़ के वृक्षों पर उसी सर्प के विष का असर है, जो आज तक कायम है। सम्पत पाल के अनुसार पम्पापुर से ही ताड़ के वृक्ष दुनिया के अन्य राज्यों तक पहुँचे हैं।
ताड़ के वृक्षों का प्रयोग ग्रामवासी भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए करते हैं। ताड़ के वृक्ष की लकड़ी से चारपाई की पाटी-पावे बनाते हैं। कोठरी में धन्नी के रूप में इसका प्रयोग किया जाता है। इसकी लकड़ी शीशम और सागौन से भी ज्यादा मजबूत होती है।
ताड़ से ताड़ी उतारने का कार्य कुशल कारीगरों द्वारा किया जाता है। ताड़ी उतारने को ही गाँव वाले ताड़ी बनाना कहते हैं। कारीगर ताड़ वृक्ष पर चढ़ने के लिए रस्सी के मजबूत फंदे का इस्तेमाल करते हैं। कारीगर वृक्ष पर चढ़ते समय फंदगी को पैर में फंसा लेता है। इससे उसके पैर फँस जाते हैं। कारीगर की कमर में एक पतली मजबूत रस्सी बँधी रहती है। इसी से वह अपने शरीर को ताड़ के वृक्ष में लपेटे रहता है।
कमर में बँधे रस्से पर वह तिरछा लटका रहता है और जेर्क से पेड़ पर ऊपर चढ़ता है। कमर में जो बेल्ट की तरह बारीक रस्सी बँधी होती है, उसके पीछे एक या दो लोहे के हुक होते हैं। हुक को अन्कुसी कहा जाता है। इस हुक में ताड़ के पेड़ पर से ताड़ी उतारने के लिए लबनी लटका कर ही कारीगर ताड़ी के पेड़ पर चढ़ता है और हँसुली (फल काटने का औजार, यहाँ इसे हंसिया या चाकू कहते हैं) से फल को छेकर (हल्का काटकर) उसके नीचे लबनी लटकाता है, जिसमें फल का रस चूता है, इस रस को ताड़ी कहते हैं। बलिहा ताड़ में कारीगर बाली को हल्का सा काटकर लबनी में घुसेड़ कर टाँग देता है। इसमें कटी हुई बाली से रस टपकता है, इसे बलिहा ताड़ी कहते हैं। यह ताड़ी अत्यन्त उत्तम होती है। वृक्ष पर टँगी लबनी में एकत्र ताड़ी को कारीगर अपनी लबनी में भरकर नीचे सरक-सरक कर जैसे चढ़ता है, वैसे ही उतर आता है।
ताड़ दो प्रकार के होते हैं- नर ताड़ एवं मादा ताड़। नर वृक्ष में रोयेंदार फूल होते हैं, इसे बलूरी, बल्तार, फुल्तार, फुल्दों या बलिहा कहते हैं। मादा वृक्ष में फल लगते हैं, इसलिए इसे फलतार या फल्ला कहते हैं।
ताड़ के नये और अपरिपक्व पौधे को खँगरा कहा जाता है। बसन्त ऋतु में ताड़ी देने वाले पेड़ को जेठुआ कहते हैं। घौदहा पेड़ साल में बारहों मास ताड़ी देता है। धौर ताड़ बरसात में ताड़ी देता है।
ताड़ी की फसल पर बाग-बगीचे पिकनिक स्पॉट या पार्कों में तब्दील हो जाते हैं। लोगों का हुजूम हर तरफ उमड़ता नजर आता है। क्या गरीब, क्या अमीर, क्या उच्चवर्ग, क्या निम्नवर्ग, सब एक रंग में रंग जाते हैं। इस समय सब मस्ती में चूर आपसी भेद-भावों और कलह को भूल जाते हैं। ताड़ के वृक्षों के नीचे जमावड़ा लगाकर लोग आपस में विचार-विमर्श करते हैं। मनोरंजन के भी दौर चलते हैं। राजनीति की बातें होती हैं। किस्से कहानियाँ सुने सुनाए जाते हैं। छोटी-छोटी बातों की लम्बी-लम्बी व्याख्याएँ की जाती हैं। देवी देवताओं की ऐसी-ऐसी बातें निकल कर आती हैं, जो वास्तव में अद्भुत और सच्ची होती हैं, पुराने जमाने की नए जमाने से तुलना की जाती है।
ताड़ के सीजन में किसानों के घर पर नाते-रिश्तेदार की भीड़ लगी रहती है। दूर के रिश्तेदार भी नजदीक का रिश्ता ढूँढ कर कई दिनों तक रूकते हैं। यहाँ की औरतें बहुत मेहनती होती हैं। वे खाना बनाते-बनाते परेशान तो जरूर होती हैं, पर उनके माथे पर परेशानी की एक भी लकीर नजर नहीं आती। किसान के घरों में खाने की अक्सर कमी हो जाती है, क्योंकि कोई न कोई रिश्तेदार बढ़ता रहता है। खाना कम पड़ने पर बिना खीझे यहाँ की औरतें झट खाना दोबारा बनाती हैं, सब्जी-तरकारी न होने पर चटनी रोटी से भी काम चलाती हैं। रिश्तेदार भी मस्त रहते हैं। उन्हें खाना मिले न मिले, बस ताड़ी मिल जाए, खाना तो अपने घर पर रोज ही खाते हैं। यहाँ के लोग फसल भर ताड़ी से ही मेहमानों का स्वागत करते हैं और मेहमान इसी स्वागत से निहाल हो जाते हैं। जिन किसानों के पास अपने पेड़ नहीं होते, वे नाते-रिश्तेदारों के लिए एक-दो वृक्ष खरीद कर कारीगर से ताड़ी बनवाते (उतरवाते) हैं।
ताड़ी में सुक्रोस (ैन्ब्त्व्ैम्) होता है, जो शरीर के लिए फायदेमंद होता है। ग्रामवासी इसे ग्लूकोज कहते हैं। इसमें 'फरमनटेशन' भी होता है, इसी की वजह से नशा चढ़ता है। लीवर (यकृत) के मरीजों के लिए सुबह की ताड़ी अत्यन्त लाभकारी होती है।
ताड़ी सुबह-दोपहर, शाम तीनों समय उतरती है किन्तु अर्धरात्रि की ताड़ी ही सबसे ज्यादा स्वादिष्ट होती है। इस ताड़ी का यदि सूर्य निकलने से पूर्व ही सेवन किया जाए तो इसका स्वाद अलग रहेगा। दोपहर की ताड़ी अधिक नशीली और खट्टी होती है। लोग कहते हैं कि ताड़ी पीने से सेहत बनती है। यदि सुबह शाम ताड़ी सही मात्रा में पी जाये तो शरीर के लिए फायदेमंद होती है और अगर जरूरत से अधिक पी जाए तो शरीर को नुकसान पहुंचाती है।
यहाँ ताड़ के फल को बलगुद्दा कहते हैं। ये बलगुद्दे जब पक कर जमीन पर गिर जाते हैं तो बच्चे उसके ऊपर के छिलके को हटाकर उसके गूदे को मजे से खाते हैं। गूदा खाने के बाद नारियल बचता है। यह बहुत कड़ा होता है, यह बड़ी मुश्किल से कटता है। इसके भीतर का सफेद गूदा भी काफी कड़ा होता है, इसे लोग कम पसन्द करते हैं।
बलगुद्दे का गूदा खाकर बच्चे नारियल खेत में फेंक देते हैं। कुछ समय बाद उसमें अंकुर फूटता है। अंकुरित फल को बच्चे घर लाकर उसे काटते हैं, अब वही कड़ा और सफेद नारियल मीठे 'कोये' में तब्दील हो जाता है। यह 'कोया' मीठा एवं खोये की तरह स्वादिष्ट होता है।
यहाँ के लगभग सभी लोग बची खुची ताड़ी को सिरका बनाने के लिए रख देते हैं। लगभग एक माह में सिरका उठ जाता है। यह सिरका पेट के मरीजों के लिए रामबाण दवा है, किन्तु अधिक मात्रा में इसका सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह बहुत तेज होता है। इसे चटनी, दाल, सब्जी आदि में डालकर खाना चाहिए, इससे गैस की बीमारी एकदम ठीक हो जाती है और खाने का स्वाद भी बढ़ जाता है।
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जीवन-वृत्त
नाम : राम नरेश 'उज्ज्वल'
पिता का नाम : श्री राम नरायन
विधा : कहानी, कविता, व्यंग्य, लेख, समीक्षा आदि
अनुभव : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पाँच सौ
रचनाओं का प्रकाशन
प्रकाशित पुस्तके : 1-'चोट्टा'(राज्य संसाधन केन्द्र,उ0प्र0
द्वारा पुरस्कृत)
2-'अपाहिज़'(भारत सरकार द्वारा राश्ट्रीय पुरस्कार से पुरस्कृत)
3-'घुँघरू बोला'(राज्य संसाधन केन्द्र,उ0प्र0 द्वारा पुरस्कृत)
4-'लम्बरदार'
5-'ठिगनू की मूँछ'
6- 'बिरजू की मुस्कान'
7-'बिश्वास के बंधन'
8- 'जनसंख्या एवं पर्यावरण'
सम्प्रति : 'पैदावार' मासिक में उप सम्पादक के पद पर कार्यरत
सम्पर्क : उज्ज्वल सदन, मुंशी खेड़ा, पो0- अमौसी हवाई अड्डा, लखनऊ-226009
मोबाइल : 09616586495
ई-मेल : ujjwal226009@gmail.com
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