डॉ. दीपक आचार्य ज्ञान और अनुभव संसार के लिए होते हैं न कि सिर्फ अपने ही अपने लिए। जो ज्ञान और अनुभव हम संसार से प्राप्त करते हैं उनके...
डॉ. दीपक आचार्य
ज्ञान और अनुभव संसार के लिए होते हैं न कि सिर्फ अपने ही अपने लिए। जो ज्ञान और अनुभव हम संसार से प्राप्त करते हैं उनके बारे में आने वाली पीढ़ियों को बताना हम सभी का पहला फर्ज है।
हमारी पुरानी पीढ़ी के बुजुर्गों द्वारा प्राप्त और अपने द्वारा संचित ज्ञान-अनुभवों का संग्रह हमारे व्यक्तित्व विकास और सामाजिक नवनिर्माण में काम आना चाहिए। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि संचित ज्ञान और अनुभवों का भण्डार नई पीढ़ी तक भी पहुँचे और वह भी बिना किसी लेन-देन, आशा-अपेक्षा और आकांक्षाओं के।
आज समाज को सर्वाधिक आवश्यकता सच्चे मार्गदर्शन की है। सूचनाओं और ज्ञान के अपार-अथाह विस्फोटक भण्डार के बीच हर कोई डाँवाडोल हो रहा है, यह सूझ तक नहीं पड़ती की क्या करना चाहिए और क्या होना चाहिए।
बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनमें हर तरह की प्रतिभा और सामथ्र्य विद्यमान है लेकिन मार्गदर्शन के अभाव में वे जीवन का लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं या बीच में ही कहीं भटक कर रह जाते हैं। इसका सीधा सा नुकसान समाज और देश को उठाना पड़ता है जिसे कि मेधावी व्यक्तित्वों की क्षमता और हुनर से वंचित रहना पड़ता है।
जो लोग आज प्रतिष्ठित, स्थापित और जमे हुए हैं, जिन्होंने मुकाम हासिल कर लिये हैं अथवा जिन्होंने खूब मेहनत की है, अपने आपको सँवारने और आगे बढ़ने के लिए खूब पापड़ बेले हैं, कड़ा संघर्ष किया है वे तथा इनके साथ ही जो लोग संघर्ष या जीवन यात्रा में अपने आपको असफल मानते हैं, लेकिन जिनके पास व्यक्तिगत अनुभवों का बहुत बड़ा जखीरा है, वे सभी उपयोगी हैं।
इन सभी लोगों को चाहिए कि वे अपने अच्छे-बुरे अनुभवों, ऎहतियाती उपायों, बचाव, हुनर, प्रतिभा विकास के फण्डों, बीच राह आने वाली बाधाओं और उनके निराकरण के उपायों, सामाजिक, आर्थिक और परिवेशीय समस्याओं, विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों से लेकर जीवन में अर्जित सभी प्रकार के ज्ञान और अनुभवों के बारे में सभी लोगों को बताएं, संचित ज्ञान और अनुभव कोष को सभी के साथ साझा करें।
ऎसा होने पर जहाँ वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को आगे बढ़ने, भविष्य सँवारने के लिए मदद मिलेगी वहीं उन बातों की भी जानकारी होगी, जिनसे बचना चाहिए, जिनसे दूरी बनाये रखी जानी चाहिए। इसके साथ ही आने वाली समस्याओें से निपटने के लिए पहले से तैयारी भी हो सकती है।
अभी हो यह रहा है कि हमारे पास ज्ञान और अनुभवों का जबर्दस्त भण्डार है लेकिन इसका कोई उपयोग नहीं है। हमने इसे अपने आप में सीमित कर रखा है और हम सोचते हैं कि अपने किसी व्यक्ति के अपने करीब आने तक संचित रखें।
इसी चक्कर में ज्ञान और अनुभवों का खजाना पुराना और अनुपयोगी पड़ा रहता है। इसका नुकसान उन लोगों को होता है जिन लोगों के लिए जिंदगी बनाने का समय होता है और वे लोग हमारे स्वार्थ, संकीर्ण मनोवृत्तियों और अपने-परायों के फेर में वंचित रह जाते हैं।
हमारे द्वारा संचित ज्ञान और अनुभव यदि किसी के काम न आ सकें तो हमारा जीना व्यर्थ है। हम सभी को यह सोचना चाहिए कि हमें जो बनना था वह बन गए, जो मुकाम पाना था वह पा लिया, अब कमाना-खाना है और जनता तथा समाज की सेवा करना है।
अपना पेट भर लेने तक का काम तो हर छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा जानवर भी आसानी से कर लिया करता है लेकिन सामाजिक सहकारिता का आदर्श इंसान के बस में ही होता है। यह इंसान ही है जो सामाजिकता का निर्वाह कर सकता है। बंधी-बंधायी नौकरी और काम-धंधों से घर-गृहस्थी चलाने के अलावा जो कुछ समय बचता है वह समाज का है, उस जगह का है जिसे हम अपनी मातृभूमि कहते हैं।
हम सभी लोगों का फर्ज है कि हमारी अपनी जीवनयात्रा के उतार-चढ़ावों और सफलताओं-असफलताओं, आसान राहों, कठिनाइयों आदि सभी पक्षों के बारे में जो कुछ ज्ञान और अनुभव है उसे उन लोगों तक पहुंचाएं जिन्हें इनकी जरूरत है।
इसके लिए सामाजिक मंच और सोशल मीडिया सर्वाधिक कारगर और व्यापक प्रभाव दर्शाने वाले माध्यम है। जहाँ भी, जब भी मौका मिले अपने विचार उण्डेलने चाहिएं ताकि जिसे जरूरत हो वह इनका लाभ प्राप्त कर अपने जीवन को सँवार सके।
आज अधिकांश युवा मार्गदर्शन के लिए भटकते हैं, इन्हें कोई सही दिशा और दृष्टि प्रदान करने वाला नहीं है। दिशा देने वालों से बढ़कर दिशाभ्रम पैदा कर भटकाने, अटकाने वाले हैं। हर तरफ व्यवसायिकता की आँधी इस कदर हावी है कि नैतिकता, आदर्श और सिद्धान्तों की खपरैलें जाने कहाँ दूर-दूर तक उड़ कर चली गई हैं कि पता ही नहीं चलता।
सेवा और कर्तव्य, मानव सेवा और परोपकार की सारी बातें बेमानी हो गई हैं। आदमी अपने आप में धंधा हो गया है और वह आदमी से संपर्क, बातचीत और काम-काज में भी मुनाफा तलाशने लगा है।
हर तरफ लगता है कि जैसे आदमी आदमी के शोषण के लिए मारा-मारा फिर रहा है, नोच लेना चाहता है। अच्छे और सच्चे लोगों का जमाना नहीं रहा। लुच्चे-लफंगे और टुच्चे लोगों की भीड़ बढ़ती और शोर मचाती ही जा रही है। पता ही नहीं चलता कि आदमी आदमी के बीच रह रहा है या आदमियों की मण्डी में।
एक-दूसरे को पछाड़ने की प्रतिस्पर्धा रोजाना नए खेल को जन्म देने लगी है, आदमियत पलायन कर चुकी है और आदमी के नाम पर चलता-फिरता धंधा ही शुरू हो गया है। हर कोई एक दूसरे की मजबूरी का फायदा उठाने में जुटा हुआ है। किसी को कोई लाज-शरम नहीं है। मर्यादाओं की सारी रेखाएं आसुरी हवाओं ने मिटा डाली हैं।
जो कुछ हो रहा है बस धंधा ही धंधा है। आदमी आदमी से बात भी तभी करता है जबकि उसे कुछ लाभ मिलने की उम्मीद हो। सब तरफ आदमियत के खात्मे का महा अभियान चल पड़ा है। ऎसे भयावह हालात में हमारी नई पीढ़ी कहाँ जाए, कहाँ तलाशे अपना भविष्य, और किससे कहे अपनी बात। जब सब तरफ धंधेबाजी मानसिकता और शोषण भरा सुनामी माहौल हावी होता चला जा रहा है।
इन तमाम स्थितियों में धंधेबाजों और मनुष्य शरीरी किन्तु आसुरी लोगों को छोड़ भी दिया जाए तो समाज के अच्छे और जागरुक लोगों की अहम् जिम्मेदारी हैं कि अपने ज्ञान और अनुभवों का पिटारा खोलें और समाज के सामने रखें, नई पीढ़ी को इससे परिचित कराएं।
इसमें हमारी कुछ भी हानि होने वाली नहीं है। नौनिहालों का फायदा होगा, वे कुछ बन जाएंगे तो दुआएं ही देंगे। और हमारा फायदा यह कि जो कुछ इस संसार से लिया है उसे यहीं बाँट कर खाली हो जाएंगे तो ईश्वर भी खुश होगा और हमारी मृत्यु भी आसानी से होगी, गति-मुक्ति भी प्राप्त होगी।
लेकिन ऎसा नहीं किया तो याद रखें कि ज्ञान और अनुभवों से भरा किन्तु मरने के वक्त तक खाली नहीं हो पाया दिल और दिमाग हमेशा अपनी मृत्यु को त्रासदायी बनाते हैं क्योंकि इतना सारा बोझ हम साथ लेकर जा नहीं सकते, इसलिए ही अंतिम समय में घोर पीड़ाओं का अनुभव होता है।
जो अपने पास है उसे यहीं उदारतापूर्वक और निष्काम भाव से बाँट कर जाएं। इससे हमारा भी कल्याण होगा और हमारे वंशजों का भी। समाज सेवा का पुण्य मिलेगा सो अलग।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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