डॉ० श्रीमती तारा सिंह मिट्टी के दालान में बैठा, जीवतराम अपनी पत्नी के साथ रहस्यालाप आरम्भ ही किया था कि उसका छोटा बेटा, भिखना चिल्लाता हुआ...
डॉ० श्रीमती तारा सिंह
मिट्टी के दालान में बैठा, जीवतराम अपनी पत्नी के साथ रहस्यालाप आरम्भ ही किया था कि उसका छोटा बेटा, भिखना चिल्लाता हुआ आया --- ’बाबू, बाबू ! बथान पर खूँटे से बँधा जो गाय का पगहा था, वह मिल नहीं रहा, क्या तुमने कहीं हंटाकर रख दिया ?’
भिखना का उस रमणीय क्षण में खलन डालने से जीवतराम यौवनोन्माद का उपभोग नहीं कर सका , जिसके कारण वह आग बबूला हो उठा । उसने झुँझलाते हुए भिखना से कहा---- ’मैं क्यों रखूँगा ; देखो जाकर वहीं होगा ” ।
भिखना डर से सहमता हुआ दरवाजे पर गया और पुन: एक बार पगहे को ढूँढ़ा ; लेकिन पगहा नहीं मिला । हैरान-परेशान भिखना फ़िर जीवतराम के पास आया और रुआँसा मुँह लेकर बोला---’कहीं नहीं मिला, बाबू ” ।
जीवतराम , जाड़े की रात के समान ,ठंढे स्वर में कहा---- ’चल मेरे साथ, देखता हूँ, कहाँ है, क्योंकि जब तक पगहा मिल नहीं जाता, तू भैंस के शरीर के जोंक की तरह मुझसे लटका रहेगा ।’
पति को आक्रोशित देखकर, भिखना की माँ, कजरी मुस्कुराती हुई आई और बोली--- ’अजी ! तुम बच्चे पर इस तरह क्यों बरस रहे हो ? पगहा नहीं मिल रहा, तो इसमें इसका क्या दोष है ? तुम आजकल क्यों इतना कटु हो गये हो ?
भिखना का पिता ( जीवतराम ) अपने मृदु मुस्कान से सुदृढ़ विवेक की अवहेलना करते हुए कहा---- ’कजरी , तुम खाने की व्यवस्था करो, मैं अभी आता हूँ ।’ जीवतराम और भिखना, दरवाजे का कोना-कोना छान मारे, लेकिन कहीं पगहा नहीं मिला । हार मानकर दोनों आँगन में आकर बैठ गये । कजरी दोनों के आगे बाजरे की रोटी रखते हुए बोली---”छोड़ो, जाने भी दो । अब चिंता करके क्या होगा ? मिलने के लिए तो वह खोया नहीं था, जो मिल जायगा ।’मगर भिखना हार मानने वालों में कहाँ था ! वह
अपना वक्ष तानते हुए बोला--- ’बाबू, तुम देखना , मैं उसे एक दिन ढूँढ़कर लाऊँगा , कैसे नहीं मिलेगा ? खूँटे से बँधे पगहे को जमीन खा गई या आसमान निगल गया !’
खटिये से सटकर बैठी कजरी, भिखना की बातों पर मुस्कुराती हुई बोली ---”ठीक है , पहले खाना खा लो, मुझे थाली धोनी है । ऐसे भी आज सुबह से कोई काम नहीं हुआ ,सारा काम पड़ा हुआ है ।’
जीवतराम खाना खाकर फ़िर एक बार पगहा ढूँढ़ने दरवाजे पर गया । वहाँ जाकर उसने जो कुछ देखा, देखकर उसका आपा खो गया । देखा, उसके बड़े भाई ,सेवतराम की गाय के गले में वह पगहा बँधा हुआ है । उसने भिखना को आदेश दिया--- ’जाओ, पगहा को खोलकर ले आओ; अजीब समस्या है, कभी तो कुँए पर बाल्टी नहीं लाते, मेरा उठा ले जाते हैं । आज तो हद ही हो गई, पगहा खोल ले गये ।’
जीवतराम और सेवतराम की दुश्मनी, जग-जाहिर थी ; एक दूसरे को फ़ूटी आँखें नहीं सुहाते थे । एक दिन तो एक दूसरे पर लाठी चला दिये । वो तो लोग बीच-बचाव किये, अन्यथा अनर्थ ही हो जाता । पिता का आदेश पालन करने बाल भिखना , सेवतराम की गाय के गले से जब पगहा खोलने लगा; गाय अनजाना देखकर लत्ती चला दी, जिससे भिखना के एक आँख से खून बहने लगा । वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा । भिखना के रोने की आवाज सुनकर जीवतराम दौड़ा आया और पूछा---’ बेटा ! क्या हो गया, किसने तुझे मारा ?
भिखना उँगली के इशारे से गाय के तरफ़ दिखाया और फ़िर जोर-जोर से रोने लगा । रोने की आवाज सुनकर भिखना की माँ, कजरी भी दरवाजे पर हाँफ़ती हुई आ गई । उसने भी यही पूछा—’तुझे किसने मारा ”
फ़िर एक बार भिखना, सेवतराम की गाय की ओर इशारा किया । बात इतनी दूर बढ़ गई कि दोनों भाइयों में गाली-गलौज तक हो गया ,और दोनों ने कसम खाया, कि हम एक दूसरे के हिस्से वाले दरवाजे पर पैर नहीं
धरेंगे । जीवतराम को इतने से संतोष नहीं हुआ, उसने बालू-मिट्टी मँगाकर अपने नफ़रत की निशानी तीन फ़ीट ऊँची दीवार खड़ी कर दी और सेवतराम को कसम देते हुए कहा --- ’यह लक्ष्मण रेखा है, याद रखना ,इसे जो पार करेगा, उसे अपने बेटे का शोक मनाना होगा ।’
लोगों ने जीवतराम को काफ़ी समझाया, कहा----’ ऐसा करने से रास्ता छोटा हो जा रहा है, न तुम चल सकोगे, न सेवतराम ; दोनों को तकलीफ़ होगी । मान लो, कल तुम दोनों में कोई एक बीमार पड़े, तो खटिये पर टाँगकर ले जानेवाला कैसे ले जायेगा ?’
लेकिन जीवतराम सबों को यह कहकर चुप करा दिया--- ’ कि पहले जो बड़ा है , वह अस्पताल जायगा, मैं तो छोटा हूँ । मेरी बारी बाद आयगी और जब आयगी ,तब देखा जायगा ।’
पास खड़ी जीवतराम की पत्नी भी , पति का समर्थन करती हुई बोली---’ये ठीक कह रहे हैं, लेकिन वह भूल गई ,कि ऊपर वाले का बुलावा उम्र देखकर नहीं आता ।’
जीवतराम की लक्ष्मण –रेखा खींचे, दो दिन ही बीते थे, कि एक दिन दोपहर में खाना खाते बख़त जीवतराम थाली पर गिर गया और बेहोश हो गया । जीवतराम की पत्नी, कजरी जोर-जोर से रोने लगी । उसके रोने की आवाज सुनकर , गाँव के लोग इकट्ठे हो , जीवतराम को अस्पताल ले जाने के लिए , एक खटिये का इंतजाम किया गया । उस पर बेहोश जीवतराम को सुलाकर लोग शहर , डॉक्टर के यहाँ ले जा रहे थे । लेकिन तभी वही हुआ, जिस बात से गाँववालों ने उसे चेताया था । लाख कोशिश के बाद भी खटिया दरवाजे से बाहर नहीं निकल सकी । जब तक लोग, मूसल और हथौरा लेकर दीवार को तोड़ते; जीवतराम चल बसा । उसकी साँसें बंद हो गईं ।
यह देखकर उसकी पत्नी रोते हुए , गाँववालों से बोली – ’ जो होनी थी,वो तो हो गई; लेकिन मेरे पति मरकर भी लक्ष्मण रेखा पार नहीं किये , जैसा कहा था उसने, वैसा ही किया । ’
कजरी का जख़्म ताजा था, इसलिए उसे टीस नहीं थी । रोना पराजय का लक्षण है और उसे अपने पति पर गर्व है; यह सोचकर दीनता प्रकट नहीं होने दी ।
गाँव के लोगों को विस्म्स्य हो रहा था, कैसे इतनी भयानक परिस्थिति में भी, कजरी शांत बैठी है । लेकिन इस प्रत्यक्ष के नीचे कितनी अथाह गहराई है, इस बात का अंदाजा किसी को नहीं हो पा रहा था । शोकाकुल कजरी के पास संयम नहीं बचा था, न ही स्थिरता थी, बावजूद अपने पति के दम्भ को त्यागने का उसमें दम नहीं था । उसे देखकर लगता था, वह प्रेम में रत है और प्रेम लिप्सा के सिवा उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ रही थी । लेकिन निराशाओं से भग्न कजरी को ईश्वरीय इच्छा का आभास हो रहा था, साथ ही अपने आत्मीय को खोने का सदमा तो था ही । बावजूद वह चुप थी, शांत थी; लेकिन आँखें ( पति द्वारा खींचे गये ) लक्ष्मण- रेखा को देखकर, रो रही थीं ।
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(ऊपर का चित्र - अरूण श्रीवास्तव की कलाकृति)
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