डॉ. दीपक आचार्य आलोचना और निन्दा में आजकल के लोग कोई फर्क नहीं समझ पा रहे हैं। यही कारण है कि आलोचना का घनत्व कम होता जा रहा है और इस...
डॉ. दीपक आचार्य
आलोचना और निन्दा में आजकल के लोग कोई फर्क नहीं समझ पा रहे हैं। यही कारण है कि आलोचना का घनत्व कम होता जा रहा है और इसकी बजाय सर्वत्र निन्दा का माहौल बढ़ता जा रहा है। इसी अनुपात में सभी स्थानों पर निन्दकों की संख्या भी अपार होती जा रही है।
दुनिया में दूसरे सारे रसों से आनंद पाने के लिए कुछ न कुछ ज्ञान, मौलिक बुद्धि या समझ होनी जरूरी है। लेकिन यह निन्दा रस ऎसा है कि अनपढ़ गँवार से लेकर दुनिया के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी और बड़े आदमी तक को बिना किसी मेहनत के आनंद से नहला देने में सक्षम है।
यही कारण है कि निन्दा रस पानी की तरह बहता है, कभी बाढ़ की तरह उछाले मारता है और कभी सुनामी जैसी दशा में आ धमकता हुआ कई दिनों, महीनों और वर्षों तक अपने घाव देता रहता है। निन्दा का स्वनामधन्य और मुफ्त में दिन-रात बँटते ही रहने वाला रस आम से लेकर खास इंसान तक को तरह-तरह के स्वादों और अनुभवों का आनंद देता है जैसे कि शहर की चौपाटी पर आवारा घूम रहे हों और भेल-पूरी वाले किसी दिन भेल-पूरी उत्सव मना कर लोगों को बुला-बुलाकर मुफत में खिला-खिला कर राजी हो रहे हों।
समाज और देश की सबसे बड़ी विपदा यह है कि हम सभी लोग आलोचना करना भूल गए और निन्दा करने में लग गए। आलोचना से इंसान सुधरता है लेकिन निन्दा से सब बिगड़ते हैं। निन्दा करने वाले तो बिगड़ैल और नालायक होते ही हैं, ये जिस किसी भी निन्दा करते हैं वे लोग भी यह समझ लेते हैं कि इन झूठों की बातों में किसी को विश्वास नहीं करना चाहिए। इसीलिए एक सीमा तक संवेदनशील, सहिष्णु और सहनशील बने रहते हैं।
लेकिन जब पानी सर के ऊपर तक आने लगे तो लोग निन्दकों के प्रति बेपरवाह हो जाते हैं, फिर निन्दकों की परवाह नहीं करते। इन लोगों के दिमाग में निन्दकों की छवि सिरफिरों, पागलों, आधे पागलों या कि सनकियों की होकर रह जाती है और समझदार लोग इन निन्दकों और छिद्रान्वेषियों की उपेक्षा करना आरंभ कर दिया करते हैं।
हमारे दुर्भाग्य से वर्तमान समुदाय में ऎसे निन्दकों और छिद्रान्वेषियों की हर जगह भरमार है। या यों कहें कि इतने ज्यादा हो गए हैं कि अब सारे निन्दक एक हो जाएं तो दुनिया में नया ग्रह या देश बनाना पड़ जाए। लेकिन निन्दक कभी एक नहीं हो सकते। निन्दकों की स्थिति जंगली कुत्तों की तरह होती है जो कि किसी मरे हुए जानवर या झूठन खाने, चाटने और हराम का माल पाने तक के लिए एक हो जाते हैं, इसके बाद एक-दूसरे पर गुर्राना, भौंकना और लपकना शुरू कर देते हैं।
हमें समझना होगा कि हम यदि गलत काम करें और कोई इसे गलत कहे तो यह अपने आप में आलोचना है जो सत्य पर आधारित है। आलोचनाओं का सर्वत्र दिल खोलकर स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन हम गलत न हों और कोई हमें गलत ठहराए, यह अपने आपमें निन्दा है और निन्दा करने वाला पाप का भागी होता है।
वर्तमान काल में दुर्भाग्य से आलोचना करने की बुद्धि या साहस लोगों में तनिक भी नहीं रहा है। इन अज्ञानियों के पास इतना बौद्धिक सामथ्र्य नहीं होता कि सत्य और तर्क के माध्यम से साफ-साफ कह पाएं इसलिए ये लोग निन्दा का सहारा ले लिया करते हैं और बेतुकी, अनर्गल और निराधार बातों के जरिये अपने वजूद को जहाँ-तहाँ सिद्ध करते रहते हैं।
एक तरफ निन्दकों की विस्फोटक संख्या मानव समुदाय के हितों और आदर्शों को लील रही है दूसरी ओर थोड़ी सी समझदारी पा जाने वाले लोग अपने स्वार्थों को पूरा करने-कराने या कि आपराधिक मनोवृत्ति भरे कारनामों के कुफलों से संरक्षण या अभयदान पाने किसी की भी आलोचना करने से परहेज रखने लगे हैं।
हर आदमी को लगता है कि आलोचना से बचा ही जाए वरना कोई नाराज हो जाएगा। बात सच भी है। आजकल कोई भी इंसान अपने बारे में सच को न जानना चाहता है, न सुनना। उसे झूठी बातें और झूठे लोग ही पसंद हैं जो उसके चारों ओर बने रहकर उसी का जयगान करते रहें, महिमा गाते रहें और अपने आपे से बाहर निकल आए बिजूकों को झूठी बातों से भ्रमित कर इनमें आत्म महानता और स्वयंभू प्रभुता की हाइड्रोजन भरते रहें।
होना यह चाहिए कि जहाँ कुछ भी गलत या अमर्यादित हो रहा हो, कोई गलत बोल या सुन रहा हो, उसे सच का अहसास कराएं, यही आलोचना का लक्ष्य है ताकि सच सभी के सामने आए और सभी पक्षों को भीतर तक यह अहसास हो जाए कि सत्य क्या है और किस सत्य का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।
हममें से खूब सारे लोग अपने आपको राष्ट्रवादी, प्रखर चिन्तक, प्रबुद्ध, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, समाजसुधारक और महान विभूति मानते रहे हैं, समाज और देश निर्माण, राष्ट्र को परम वैभव पर पहुंचाने की डींगें हाँकते रहते हैं लेकिन हम लोग भी वही सब कर रहे हैं जो इस देश के स्वार्थी, खुदगर्ज और तटस्थ लोग कर रहे हैं।
असल में देखा जाए तो हमारी कथनी और करनी में कहीं से भी समानता नहीं दिखती। हम सभी लोग अपने स्वार्थों और गुप्त आत्म अपराधों में ही इतने फंसे हुए हैं कि हमारे पास सिवाय बातों के और कुछ है ही नहीं। व्यवहार में हम दूसरे ढंग से पेश आते हैं और विचारों में हम अपने आपको किसी महापुरुष से कम नहीं आँकते।
हम अपने आपको चाहे लाख समझा लें, दोहरे-तिहरे बहुरुपिया स्वाँग भरे चरित्र को सायास ढंकते रहें, मगर लोगों को सब पता है। किसी को यह बताने की जरूरत नहीं है कि असलियत क्या है। ये पब्लिक है, सब जानती है।
उन लोगों की परवाह न करें जो निन्दक हैं, जिनके पास निन्दा के सिवा कोई काम नहीं है। ये लोग समाज के वे कूड़ापात्र हैं जो सारे समाज और परिवेश की वैचारिक गंदगी को अपने पास इकट्ठा करते रहते हैं। इनकी स्थिति ठीक उन जानवरों जैसी है जो गंदगी और मल-मूल खा-पीकर प्राकृतिक रूप से सफाई अभियान को जिन्दगी भर चलाए रखते हैं।
ये निन्दक किसी के नहीं होते, अपने भी नहीं। फिर उन निन्दकों का क्या वजूद जो अज्ञानी, वज्र मूर्ख, हराम का खाने-पीने वाले, पुरुषार्थ से जी चुराने वाले और हड़पाऊ कल्चर के अनुगामी हैं। इनके दर्शन से भी पाप लगता है। इन्हें अपना काम करने दें, इन पर कान न धरें।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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(ऊपर का चित्र - शशिकुमार की कलाकृति e=mc2 - मीडियम - इचिंग और एक्वाटिंट)
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