डॉ. दीपक आचार्य व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति, व्यक्ति का समाज के प्रति और व्यक्ति का देश के प्रति जो भी उत्तरदायित्व है उसे निभाना ...
डॉ. दीपक आचार्य
व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति, व्यक्ति का समाज के प्रति और व्यक्ति का देश के प्रति जो भी उत्तरदायित्व है उसे निभाना उसका अपना व्यक्तिगत फर्ज है जिसके बारे में किसी को भी न तो याद दिलाने की जरूरत है, न कर्म करने पर ज्यादा कुछ ऊँचा चढ़ाने की।
इसी उत्तरदायित्व का भान कराने वाले शब्द हैं - जवाबदारी और जवाबदेही। इन दोनों का संबंध पूरी सृष्टि में सिर्फ इंसानों से ही है क्योंकि उसे सामाजिक प्राणी कहा जाता है। वह सामाजिक हो या न हो, इससे इसका मतलब नहीं है मगर इतना तो सत्य है ही कि हर इंसान को उन सभी dे प्रति उत्तरदायी होना चाहिए।
इकाई कोई सी भी हो, हमारे लिए उत्तराकांक्षी होती ही है। यह उत्तराकांक्षी शब्द अब सिर्फ शादी-ब्याहों की निमंत्रण पत्रिकाओं और आशीर्वाद समारोह तक सिमट कर रह गया है। इंसानियत के मजबूत पायों में से अब वो तत्व पलायन करते जा रहे हैं जिनकी बदौलत मानवता अब तक टिकी हुई थी और जिसके आधार को तनिक भी हिला सकने की हिम्मत किसी में नहीं हुआ करती थी। अब हर तरफ नींव डगमगाने लगी है।
सर्वाधिक खतरा इंसानियत को हो गया है जहाँ इंसान अपने मौलिक तत्वों और संस्कारों को सहेज कर रख पाने में नाकाबिल महसूस करने लगा है या यों कहें कि स्वार्थों और खुदगर्जी की आँधी में यह सब कुछ स्वाहा होने लगा है।
हर प्रकार की सुख-सुविधाओं और विलासिता देने वाले संसाधनों का उन्मुक्त और निर्बाध भोग सब भोगना चाहते हैं, दुनिया भर के संसाधनों का आनंद भी मरते दम तक जी भर कर पाना चाहते हैं, यह भी चाहते हैं कि दुनिया में उनकी शोहरत का ग्राफ हमेशा आसमान को छूता रहकर ढेर सारी बुलंदियों का पर्याय बनाता रहे, लोकप्रियता के चरम शिखर और आशातीत सफलताएं हमेशा प्राप्त करते रहें। लेकिन इसके लिए किसी भी प्रकार की जवाबदारी उठाने को कोई तैयार नहीं है।
सब लोग हिचकते हैं। उन्हें अपने आप पर इतना भरोसा ही नहीं है जो कि किसी भी प्रकार का जोखिम उठाने का साहस कर सकें। ‘जैसा चल रहा है, वैसा चलने दो' की लकीर पर चलते हुए उसी में रमे हुए हैं जिसमें हमारी पिछली पीढ़ियाँ रमी रहती हुई हमें भी वहीं का वहीं छोड़ गई हैं, तनिक भी आगे नहीं बढ़ पाए।
बातें सब करते हैं, आदर्शों, ज्ञान और अनुभवों से भरी हुई डींगे सब हाँक रहे हैं, उपदेशों की बारिश हर कोई करने लगा है लेकिन बात जहाँ कुछ कर दिखाने की आती है वहाँ सब के सब पीठ दिखा देते हैं, भाग जाते हैं और ऐसे पलायन कर जाते हैं जाने कि इन्हें कुछ भी पता न हो।
इंसानी फितरत यही है कि लोग शहद के छत्ते ढूँढ़ते हैं, मलाई व चाशनी की कड़ाहियों और पकवानों से लेकर उन सभी पर पैनी निगाह होती है जिन्हें पाने के लिए ज्यादा कुछ मशक्कत नहीं करनी पड़ती। इनसे भी आगे बढ़कर हमारी तलाश उन मजबूर लोगों पर जाकर खत्म होती है जिन्हें कुछ न कुछ पाना किसी मजबूरी से कम नहीं है।
बहुत सारे लोग किसी न किसी कारण से मजबूर हैं, अभावग्रस्तों और आपदाग्रस्तों की जिन्दगी जी रहे हैं, किसी न किसी से परेशान हैं, कोई न कोई इन्हें लगातार तनाव दे रहा है और इन वजहों से उन मजबूरों की जिन्दगी का सारा सुकून छीन गया है जिन्हें किसी का संबल नहीं है, कोई उनकी ओर देखता नहीं है।
ऐसे में मजबूर लोगों से कहीं अधिक संख्या उनकी है जो लोगों की मजबूरी का फायदा उठाने में माहिर हैं और अब तक यही काम करते आये हैं। ऐसे लोग हर क्षेत्रा में होते हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि ये लोग इसी के जरिये कमा-खा और ऐश कर रहे हैं।
सबकी निगाह जमीन-जायदाद, पदों, कदों, मदों और सभी प्रकार के संसाधनों पर रहती आयी है जिन्हें पाना आसान हो और लम्बे समय तक अपने नाम या अपने पास बनाए रखना सरल। चाहते सभी हैं लेकिन इसके लिए जो जिम्मेदारियां उठाने की जरूरत है, जिस प्रकार की जवाबदारी होनी चाहिए वह कोई नहीं चाहता।
जवाबदारी का सीधा सा अर्थ निकालें तो हम जिनके साथ हैं अथवा जो लोग हम पर विश्वास करते हुए हमारे साथ हैं, उनके जीवन, कर्म और भविष्य के प्रति हमारी सभी प्रकार का उत्तरदायित्व निभाना ही प्रमुख है। पर बहुधा ऐसा होता नहीं है।
हम सभी के साथ रहना चाहते हैं, सभी लोगों से सभी प्रकार का लाभ पाने को हर पल आकांक्षी रहते हैं लेकिन बात किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी की आती है तब हम सौ-सौ बहाने बनाकर पल्ला झाड़ लेते हैं अथवा उसी क्षण उसे अकेला छोड़कर वहाँ से पलायन कर जाते हैं। और फिर किसी अन्य की तलाश आरंभ कर दिया करते हैं।
बहुत सारे लोग मानवीय मूल्यों और मानवतावादी विचारों के होने के कारण उन लोगों पर विश्वास भी कर लिया करते हैं जो लोग विश्वास की परंपरा को निर्ममता से तोड़ते रहे हैं। इन गैर जवाबदार लोगों की वजह से ही आज हर तरफ सामाजिक मूल्यों का संकट पैदा होता जा रहा है, पारस्परिक विश्वास और सौहार्द की भावनाओं को ग्रहण लगने लगा है और वो सब कुछ दिखाई दे रहा है जिसे देखना सज्जनों को कभी नहीं सुहाता, दुर्जनों के लिए तो यह नया-नया ज्ञान और अनुभव देने वाला है।
जिस किसी के साथ रहें, जहाँ रहें, अपने विश्वास को कायम रखें, जवाबदारी समझें और इस प्रकार निभाएं कि हमारे किसी भी संपर्कित, सहकर्मी या भागीदार को हमसे किसी भी प्रकार की कोई शिकायत न रहे।
समाज और देश में आज दूसरा संकट जवाबदेही का है। किसी को कोई सा काम सौंप दो, कोई सी बात कह दो, वह पलट कर न जवाब देगा, न वस्तुस्थिति स्पष्ट करेगा। यह पलायनवादी मानसिकता आजकल अधिकांश लोगों में घर करती जा रही है।
हमारे अपने कोई से काम हों, तब कोई जवाब न दे, तो हमें इतना बुरा लगता है कि हम उसे हजार-हजार गालियाँ बकते हुए जमाने भर में बदनाम कर डालें और हमें कोई काम बताए तो काम करना तो दूर रहा, उचित जवाब भी देने में हमें मौत आती है। यहाँ तक कि मोबाइल पर बात करने में भी हमें जोर आता है।
कोई नहीं समझ पा रहा है जवाबदेही को। सबको अपने ही कामों में आनंद आता है, अपने स्वार्थ और काम ही सर्वत्र दिखाई देते हैं, दूसरों के बारे में कहीं भी न कोई चिन्ता करता है, न चिंतन। जवाबदारी और जवाबदेही का मौजूदा संकट सामाजिक और राष्ट्रीय गरिमा को भी ठेस पहुँचा रहा है। एक अच्छा इंसान वही है जो हर काम को जवाबदारी से करे और हर मामले में जवाबदेह रहे।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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