नाराज हैं प्रकृति और परमेश्वर

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डॉ. दीपक आचार्य पिण्ड और ब्रह्माण्ड का सीधा रिश्ता है जो दिखता भले न हो लेकिन इसके मुकाबले संबंधों की प्रगाढ़ता कहीं और देखी नहीं जा सकती।...

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डॉ. दीपक आचार्य

पिण्ड और ब्रह्माण्ड का सीधा रिश्ता है जो दिखता भले न हो लेकिन इसके मुकाबले संबंधों की प्रगाढ़ता कहीं और देखी नहीं जा सकती। जिन पंच तत्वों से प्राणियों का निर्माण हुआ है वे प्रकृति से ही प्राप्त हैं और उन्हीं का पुनर्भरण करते हुए जीव अपनी निर्धारित आयु पूर्ण करता हुआ स्वाभाविक जीवन जीता है।

सृष्टि में रहने वाले हर जड़ और चेतन तत्व का संबंध प्रकृति से सीधा जुड़ा हुआ है। अंश और अंशी का संबंध ही है ये। इन सभी में जो चैतन्य तत्व है वह परमात्मा का ही अंश है। प्रकृति को मातृभाव से देखने और आदर-सम्मान देने पर वह हमारा भरण-पोषण, संरक्षण, पल्लवन, पुष्पन और फलन आदि सब कुछ बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक करती है और खुद धन्य होती है।

लेकिन यह सब तभी तक था जब तक कि प्रकृति और हमारा संबंध आत्मीयता भरा और श्रद्धायुक्त था। जब से हमने प्रकृति का शोषण करना आरंभ कर दिया है, भगवान और धर्म के नाम पर अधर्म का आचरण प्रारंभ कर दिया है, धर्म की अपने-अपने हिसाब से परिभाषाएं गढ़ ली हैं, हिंसा, अन्याय, अत्याचार का ताण्डव मचाने लगे हैं, हरामखोरी की आदत बना डाली है, मानवीय मूल्यों का गला घोंट कर रख दिया है और मानवता को फांसी दे दी है, तभी से प्रकृति भी रुष्ट है और भगवान भी।

प्रकृति पहले संतुलित थी, हर कोई प्रसन्नता और आनंद के साथ जीवननिर्वाह करता था, आत्म संतोष का माहौल था और मानवीय मूल्यों का अखूट खजाना इतना भरा हुआ था कि सब तरफ इसका प्रभाव साफ-साफ नज़र आता था।

आज सब कुछ उलटा-पुलटा होता जा रहा है। मर्यादाओं की सारी सीमाएं हम लाँघ चुके हैं, प्रकृति के मनमाने शोषण को हम अपनी जीवनचर्या का अहम् हिस्सा बना चुके हैं, वह सब कुछ करने को अपना अधिकार मान चुके हैं जो एक अच्छे इंसान को कभी नहीं करना चाहिए।

नैतिक मूल्यहीनता के भयानक दौर में गुजरते हुए हम हर व्यक्ति और वस्तु का मूल्य आंक कर ही व्यवहार करने लगे हैं। अपने मूल्य को बढ़ाने के लिए हम दूसरों के मूल्य को कम आंकने और उन्हें मूल्यहीनता की स्थिति में लाने के लिए जो कुछ कर रहे हैं वह अपने आप में सारी की सारी लक्ष्मण रेखाओं की सायास हत्या कर दिए जाने से कम नहीं है।

एक तरफ हम प्रकृति का शोषण कर रहे हैं और दूसरी तरफ मूल्यविहीन जीवन जीते हुए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के मामले में भी भेदभाव अपना रहे हैं। पुरुषार्थ चतुष्टय में से हमने धर्म और मोक्ष को भुला दिया है जबकि हमारी पूरी जिन्दगी अर्थ और काम पर ही केन्दि्रत होकर रह गई है और उसी के पीछे हम पड़े हुए हैं। हमने यह समझ लिया है कि प्रकृति हमारे अपने ही लिए है और जो कुछ सामने दिख रहा है उसे हथियाते रहो, बाद वालों की चिन्ता हमने कभी नहीं की।

इसी प्रकार भगवान और धर्म को भी हमने अपने-अपने ढंग से भुनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। हमें पता है कि धर्म और भगवान के नाम पर श्रद्धा, विश्वास और आस्थाओं का सदियों से बना-बनाया ऎसा मंच हमें मिल गया है कि जिसमें हमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।

औरों को भरमाने की थोड़ी सी कला सीख लेने पर धर्म के नाम पर श्रद्धा को किसी भी तरह से और किसी भी हद तक भुनाया जा सकता है। कभी गुरुओं के नाम पर, कभी भगवान के नाम पर भरमाने का चलन देश के हर हिस्से में परवान पर रहा है। और लोग बड़ी ही विनम्रता और प्रसन्नता के साथ गुमराह होते हुए भी कृतज्ञता ज्ञापित करते रहकर हमारे लिए हमेशा लाभदायी बने रहेंगे। जो जितना अधिक इस कला में माहिर है वही जमाने भर के बादशाहों में अपनी गिनती करवा लेता है।

जरूरी नहीं कि इस बादशाहत का स्वाद गृहस्थी और धंधेबाज लोग ही उठा सकते हों। ‘‘असारे खलु संसारे’’ का राग अलाप कर संसार छोड़ बैठे बड़े-बड़े वैरागी बाबाओं, महंतों और योगियों से लेकर आम आदमी तक भी इस पद और प्रतिष्ठा को पा सकता है जिसके पीछे वैभव और पैसों का समन्दर लहराने लगता है।

हम सारे के सारे लोग अपने आपको धर्म परायण, ईश्वर भक्त, सेवाभावी, समाजसेवी और परोपकारी कहने और कहलवाने में खुश होते हैं लेकिन धर्म के मूल मर्म से अनभिज्ञ हैं। धर्म के नाम पर हम जो कुछ कर रहे हैं वह आडम्बर से अधिक कुछ नहीं है।

हर साल अच्छी बारिश की कामना से लोग बेजुबान जानवरों की बलि चढ़ाते हैं। हालांकि हाल के वर्षो में इस पर अंकुश लगा है लेकिन यह परंपरा आज भी बहुत से स्थानों पर बदस्तूर जारी है। कई जगह हवन-यज्ञ के नाम पर कालेधन और चन्दे से बड़े-बड़े यज्ञ-यागादि और अनुष्ठान होते हैं। ऎसे ही धर्म की आड़ में बहुत सारे कर्म होते हैं।

बावजूद इस सबके सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि, भूस्खलन, भूकंप और बहुत सारी प्राकृतिक आपदाओं का जोर हर तरफ बना रहता है। और तो और धर्म स्थलों और तीर्थों को अपने अपने स्वार्थ में इतना दूषित कर दिया है कि वे भी अब सुरक्षित नहीं रहे। दर्शन और प्रसाद के नाम पर पैसा बनाने का जो धंधा हमने चला रखा है वह यही सिद्ध करता है कि दुकानदारी के चलते भगवान कहीं पलायन कर चुके हैं और बचा रह गया है धंधा।

प्रकृति का कहर टूट पड़ने लगा है हर तरफ। जब इतने सारे कर्मकाण्ड होते रहे हैं फिर भी प्रकृति रुष्ट और कुपित क्यों है, इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं है। बरसात लाने के लिए कई जगह शिवलिंग को जलमग्न कर देने के टोटके का सहारा लिया जाता रहा है। भगवान को प्रसन्न करके मनचाही मुराद या वरदान पाना तो इतिहास सिद्ध है लेकिन भगवान को तंग करके बरसात लाने का काम हम इंसान ही कर सकते हैं। यह तंग करना अपने आप में भगवान की ब्लेकमेलिंग है। यह दुस्साहस न असुर कर सके, न पुराने जमाने के लोग।

इन दिनों सर्वत्र प्राकृतिक आपदाओं का माहौल है और इसका मूल कारण यही है कि हमने प्रकृति और भगवान को भी नहीं छोड़ा है, उनका भी इस्तेमाल करने लगे हैं। धर्म को हमने धंधा बना लिया है और भगवान के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं वह अपने आपमें आसुरी कर्मों से भी गया बीता है।

कभी हम अपने आप में सोचें कि हम जो कुछ कर रहे हैं वह प्रकृति पूजा और धर्म है क्या? अपनी आत्मा अपने आप गवाही दे देगी। सर्वत्र फैल रहे अधर्म के कारण से प्रकृति और भगवान हमसे किस कदर नाराज है इसका अनुमान लगा पाने में आज हम नाकाबिल और नासमझ हैं मगर हम अपनी इसी नालायकी भरी औकात पर बने रहे तो यह मान लें कि यह भविष्यवाणी बेदम नहीं है कि जिसमें संकेत किया गया है कि दुनिया की आबादी आने वाले पाँच-छह वर्ष में आधी से भी कम रह जाएगी। आने वाली पीढ़ियों के लिए भी कुछ बचा कर, सहेज कर जाएं। प्रकृति का आदर करें, धर्म, सत्य और न्याय का मार्ग अपनाएं और पृथ्वी को पाप के भार से बचाएं।

 

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- डॉ. दीपक आचार्य

 

dr.deepakaacharya@gmail.com

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नाराज हैं प्रकृति और परमेश्वर
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