डॉ. रामवृक्ष सिंह कई वर्ष पहले सुना था अच्छे दिन आने वाले हैं। मैं अपने मकान की छत पर दूरबीन लगाए बैठा हूँ। जब भी दुनिया के दूसरे कामों से ...
डॉ. रामवृक्ष सिंह
कई वर्ष पहले सुना था अच्छे दिन आने वाले हैं। मैं अपने मकान की छत पर दूरबीन लगाए बैठा हूँ। जब भी दुनिया के दूसरे कामों से फुरसत मिलती है, दूरबीन पर आँख टिकाकर देखने लगता हूँ कि अच्छे दिन आते दिख जाएँ तो उनका स्वागत करूँ। अकबर के दरबारी कवि अब्दुर्रहीम खानखाना ने कहा था-रहिमन चुप हो बैठिये देखि दिनन के फेर। जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहैं बेर।। सच कहें तो पूरा देश पिछले कई सौ बरसों से अच्छे दिनों की बाट जोह रहा है। पता नहीं अच्छे दिन किस आकाश गंगा में, ब्रह्माण्ड के किस कोने में और किस ग्रह या तारे से आने वाले हैं। पर जब से होश सँभाला है, तभी से मैं तो इन्तज़ार कर रहा हूँ कि अच्छे दिन कब आएँगे। जब कुछ लोग गाहे ब गाहे भरोसा दिलाने लगते हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं, तब यह इन्तज़ार और भी शिद्दत भरा हो उठता है।
मेरी बावरी माँ को जब से पता चला है कि अच्छे दिन आने वाले हैं, वह पूरे घर को गाय के गोबर से लीपकर, चौका पूरकर पीढ़ा बिछाकर, आरती सजाए बैठी है। अच्छे दिन आएँ तो उनकी आरती उतारें। उधर मेरी पत्नी रसोई में घुसी तरह-तरह के पकवान बनाने की तैयारी किए बैठी है कि अच्छे दिन जैसे ही आएँ उनके पाँव पखारकर, तौलिए से सुखाकर उन्हें चौके में बिठाकर, सुस्वादु भोजन कराएँ। अच्छे दिनों की बाट जोहते-जोहते मेरे पिताजी की आँखों में फुल्ली पड़ गई। दिखना बन्द हो गया। फिर भी जिद है कि अच्छे दिन मेरे जीते-जी आ जाएँ तो एक बार देख तो लूँ कि वे होते कैसे हैं, दिखते कैसे हैं, सूंघने और छूने में कैसे लगते हैं—हाँ सुनने में तो बहुत ही मधुर और कर्ण-प्रिय लगते हैं। जबसे पैदा हुए हैं, तभी से सुनते आए कि अच्छे दिन आएँगे।
बहुत दिनों से अच्छे दिनों की बातें सुनते-सुनते अब मैं धीरे-धीरे निराश होने लगा हूँ। अच्छे दिन कभी देखे तो हैं नहीं, इसलिए यह कल्पना करना कठिन है कि वे वाकई होते कैसे हैं। फिर भी कयास लगाता रहता हूँ कि अच्छे दिन ऐसे होंगे, या वैसे होंगे। गाँव में भैंस चराता था। चरने के बाद भैंस अच्छा दूध दे देती तो सोचता था कि अच्छे दिन आ गए। फिर थोड़ा पढ़-लिख लिया। अच्छे नम्बरों से पास हो गया तो लगा कि ओ-हो यही तो अच्छे दिन हैं। फिर नौकरी लग गई, तो सोचा कि अरे वाह, ये तो अच्छे दिन हैं। शादी हुई, बाल-बच्चे हुए। हर बार लगता कि अच्छे दिन हैं। लेकिन सब छलावा! कोई भी दिन अच्छे नहीं निकले। जैसे आसमान में तिरते बादलों से थोड़ी-सी छाया हो जाती है और लगता है कि अब धूप नहीं सताएगी, लेकिन फिर धूप सताने लगती है। उसी प्रकार अच्छे दिन हमेशा आभासी प्रमाणित हुए। अभाव ही जीवन का स्थायी भाव बन गया। हर समय अभाव, हर समय भाग-दौड़, हर समय त्रास। जो काम किया, उसी में दुर्गति। मैं ही नहीं, दुनिया का हर आदमी सोचता है कि अच्छे दिन आएँगे तो क्या जिन्दगी की इस ऊहा-पोह से मुक्ति मिल जाएगी? पाँव पसारकर खूब गुदगर मोटे गद्दे पर पडे रहेंगे, सुन्दर-सुन्दर दास-दासियाँ पाँव दबा रहे होंगे, हम केवल खा-खाकर पसरे रहेंगे, पैसों की कोई कमी नहीं होगी, जहाँ चाहेंगे- आएँगे-जाएँगे। अच्छे-अच्छे सजीले, सुखदायी कपड़े और आभूषण पहनेंगे। खूब शानदार, आरामदायक गाड़ियों में चलेंगे। जो मन करेगा खाएँगे। जिसे मन चाहेगा सताएँगे। जो मन में आएगा कहेंगे और करेंगे। दुनिया मरे तो मरे, बाकी के लोग अभाव झेलें तो झेलें, हम तो अपनी ही दुनिया में चैन की बांसुरी बजाएँगे। हमारे आस-पास के लोग कैसे रहते हैं, किस हाल में जीते हैं, क्या-क्या दुश्वारियाँ झेलते हैं, इससे हमें क्या! हम इस सबसे निस्पृह हो जाएंगे। हमें कोई दुःख नहीं सताएगा। खुद को अमर समझेंगे और यदि यमराज के दूत भी आएँगे तो हम उन्हें घुड़ककर भगा देंगे कि चलो, निकलो यहाँ से। देखते नहीं हो, हमारे अच्छे दिन आ गए हैं। यानी अच्छे दिनों के शुरू होते ही हम अमर हो जाएँगे। अजी अमर ही क्यों, हम तो बूढ़े भी नहीं होंगे। एकदम ठाँ जवान रहेंगे। जवानी में ही तो अच्छे दिनों का मज़ा है। जवान रहेंगे, तभी तो अच्छे दिनों का पूरा लुत्फ उठा पाएँगे।
खैर..अभी तो अच्छे दिनों का कुछ अता-पता ही नहीं है। सिर्फ दिवा-स्वप्न हैं अच्छे दिन। अमर तो हम तब होंगे न जब हमारे अच्छे दिन आएँगे। अभी तो यही लग रहा है कि अच्छे दिनों का इन्तज़ार करते-करते जैसे हमारी कई पीढ़ियाँ मर-खप चुकी हैं, वैसे ही कहीं हम भी न मर जाएँ। अच्छा होता कि हमारे जवान रहते-रहते अच्छे दिन आ जाते, तो कुछ मौज कर लेते। कहीं भी कल नहीं पड़ती। नज़ीर साहब ने ऐसी ही बेकली में कभी कहा था- अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे। मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे। अरे यार...कोई मेरे अच्छे दिन ला दो।
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अच्छे दिनों के सपने तो मैं बहुत दिनों से देख रहा हूँ। लेकिन उनकी विधिवत सांगोपांग मीमांसा करने का मेरा यह दूसरा दिन है। और सच कहूँ तो मेरे तईं तो यह अच्छा दिन है। विचारवान व्यक्ति को किसी जानदार विषय पर जुगाली करने का सुअवसर मिल जाए, इससे अच्छा दिन उसके लिए क्या हो सकता है!
सूफ़ियों की तरह मुझे अचानक इलहाम हुआ कि अच्छे दिनों की अवधारणा भी हरेक की अपनी-अपनी है। मसलन, हमारे मुसलमान भाइयों के लिए रमज़ान का महीना कितना पाक और मुकद्दस है! वे दिन भर रोज़े से रहते हैं, थूक तक नहीं निगलते, खाना-पीना तो दूर की बात है। सिर्फ रातों को ही खाते हैं। इसके बावजूद उनके लिए इस पूरे महीने के दिन अच्छे दिन हैं। इसके विपरीत हम हिन्दुओं का अधिक आषाढ़ चल रहा है। अधिक मास। ये हमारे लिए अशुद्ध दिन हैं। इन दिनों शादी-विवाह, सगाई-रोका, मुंडन-छेदन कुछ भी तो नहीं हो सकता। बल्कि कुछ लोग तो इन दिनों शादी-ब्याह की बात तक छेड़ना अशुभ समझते हैं।
उपर्युक्त उदाहरण में भक्षक-भक्ष्य सम्बन्ध नहीं है। किन्तु जहाँ ऐसा सम्बन्ध हो, वहाँ तो निश्चय ही भक्षक के अच्छे दिन का सीधा-सीधा अर्थ है भक्ष्य के बुरे दिन। शेर का अच्छा दिन हिरण, बछड़े या बकरी के लिए बुरे दिन का ही पर्याय है। यही स्थिति हमारी वर्तमान व्यवस्था में है। जो लोग सत्ता में हैं उनके दिन अच्छे हैं, इसमें किसी को संदेह नहीं होगा। और जो सत्ता-च्युत हो चुके हैं, उनके बुरे दिन हैं यह भी स्वतः सिद्ध है। किसी का नुकसान हो तो दूसरे का फायदा होता है। दोनों में कारण-कार्य सम्बन्ध है। जब लोग ज्यादा मरते हैं तब श्मशान पर काम-क्रिया कराने वालों की चाँदी हो जाती है। उन दिनों लकड़ी के टाल वाला भी पानी डाल-डालकर आम की कटी डालियों-डंगालों को गीला किए रहता है। जिनके स्वजन गुजर जाते हैं, उनकी कितनी अपूरणीय क्षति है! लेकिन उनकी अपूरणीय क्षति में ही कफन और टिकठी बेचनेवाले से लेकर तेरहवीं में भोजन के लिए आनेवाले ब्राह्मणों तक का लाभ निहित है। लोग बीमार न पड़ें तो डॉक्टर तो भूखों मर जाएँगे! डॉक्टर की जीविका के लिए ज़रूरी है इन्सानों का बीमार पड़ना। समाज में गरीब न हों तो अमीरों की चाकरी कौन करे? अमीरों को सुख देने के लिए समाज के बहुत बड़े हिस्से का साधन-हीन बने रहना ज़रूरी है। यही जीवन का नियम है भाईजी। यदि कुछ लोगों के अच्छे दिन हैं, तो निश्चित ही कुछ लोगों के लिए बुरे दिन होंगे ही होंगे। कुछ लोगों के बुरे दिनों का ही सुफल हैं बाकी कुछ लोगों के अच्छे दिन।
सबके सब दिन भी एक समान नहीं होते। धूप-छाँव है जीवन। एक बाबाजी कुछ महीनों पहले लाखों मनुष्यों के लिए ईश्वर की भांति पूज्य थे। इस दुनिया में जितने वैभव और सम्मान की कल्पना की जा सकती है, वह सब उन्हें उपलब्ध था। साधन-सम्पन्नता और पूजा, आराधना की प्राप्ति के मामले में वे किसी भगवान से कम नहीं थे। बल्कि किसी-किसी देवता को भी उनसे रश्क होता रहा होगा कि अरे इस दाढ़ी वाले बाबा के तो इतने भक्त हैं, जबकि हमारे भक्त तो बस गिने-चुने ही हैं। और सच कहें तो बाबा अपने भक्तों को कहते भी थे कि किसी भगवान की पूजा करने की ज़रूरत नहीं है, मैं तुम्हारा गुरु हूँ, इसलिए तुम बस मेरी पूजा करो। जब बाबा के बुरे दिन शुरू हुए तो उन्हें जेल में बन्द कर दिया गया। यही स्थिति एक बहुत बड़े व्यवसायी की है। सुनते हैं कि उन्होंने अपने अच्छे दिनों में खूब मौज-मस्ती की। खूब मौज-मस्ती, यानी वह सब जो हाड़-माँस से निर्मित मानव-शरीर की भोगेन्द्रियों से सम्भव है। इतनी मौज-मस्ती तो खुद देवराज इन्द्र को भी मयस्सर न होती होगी। अहा-हा वे उनके अच्छे दिन थे। फिर न जाने किसकी कुदृष्टि लग गई कि उनके बुरे दिन शुरु हो गए। पिछले सवा साल से बेचारे जेल में हैं। उनके अच्छे दिन कब लौटेंगे- दैवो न जानाति, कुतो मनुष्यः!
खैर..यह तो बहुत ऊँची फिलॉसफी की बातें हो गईं। बाबा-व्यवसायी (या व्यवसायी-बाबा) ही इन बातों का मर्म समझ सकते हैं। हम जैसे अधम मनुष्यों को ये बातें कहाँ समझ आएँगी! हमें तो अच्छे दिन उटोपिया लगते हैं। असंभव। न भूतो न भविष्यति। और इस नाते हर दिन अच्छा है। जाकी रही भावना जैसी की तरह। आज सुबह हमारी सुलक्षणा श्रीमतीजी ने गोभी-आलू की मस्त सब्जी बनाई, किसी ब्रान्डेड आटे की गरमा-गरम रोटियाँ सेंकीं। खाकर तबीयत मस्त हो गई। वह हमारी ज़िन्दगी के बेहद अच्छे पल थे। सच कहें तो छोटी-छोटी खुशियों के इन पलों को जी भरकर जी लेने और उनकी यादें संजो लेने में ही समझदारी है। पिछली सदी में कुछ पाश्चात्य चिन्तकों ने क्षणवाद की अवधारणा सामने रखी। वे कहते थे कि हम जीवन को क्षणों में जीते हैं। बात सही भी है। पूरे के पूरे दिन ही अच्छे हो जाएं, यह हो नहीं सकता। अच्छे तो क्षण ही होते हैं। सुस्वादु चटपटा भोजन खाने के क्षण अच्छे हैं। लेकिन आठ-दस घंटे बाद जब शौच के लिए बैठे हों और वही सुस्वादु भोजन रूप परिवर्तित करके आपको असह्य पीड़ा देते हैं, तब क्या? लब्बे-लुआब यह कि क्षण ही अच्छे या बुरे होते हैं। फिर उन अच्छे क्षणों की जुगाली होती है। इसलिए अंग्रेजी में मुहावरा है- दोज गुड ओल्ड डेज। बीते दिन अच्छे ही होते हैं। उनकी यादें और अच्छी होती हैं। बुरी यादों को दिमान खुद ब खुद बाहर कर देता है। इसीलिए ऐसा होता है कि पिछले चुनावों में जिन नेताओं के बुरे कामों की वज़ह से जनता ने उनको सिरे से नकार दिया था और वे चुनाव हार गए थे, अगले चुनावों में वही जनता उन्हीं नेताओं को फिर चुनकर जिता देती है। वर्तमान में जो है, वह बुरा है और जो बीत गया वही अच्छा था। ऐसा न सोचते तो हम बुरे प्रमाणित हो चुके नेताओं को फिर से क्यों जिता देते?
और हाँ! हमारा पूरा दर्शन कर्म की बात करता है। कोई दूसरा आपके लिए अच्छा क्या करेगा? उसकी औकात नहीं जो वह आपके लिए कुछ अच्छा कर पाए। भगवान नहीं है वह। अपना अच्छा तो आपको ही करना है, भाई जी। आप जो काम करेंगे उसी का सुफल या कुफल आपको मिलेगा। अच्छे काम कीजिए, अच्छे फल मिलेंगे। अच्छे दिन भी आ ही जाएँगे। जो लोग अच्छे दिन-अच्छे दिन की माला जप रहे हैं, वे अपने अच्छे दिनों के मज़े ले रहे हैं, और उन्हें अपने ही अच्छे दिनों की चिन्ता है। मैं भला तो जग भला। मेरे अच्छे दिन तो सबके अच्छे दिन। तो क्यों न हम सब अपने-अपने अच्छे दिनों के लिए प्रयास करें। जब सब अपने-अपने अच्छे दिन पा लेंगे तो निश्चय ही अच्छे दिन आ ही जाएँगे।
डॉ. रामवृक्ष सिंह
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अति सुन्दर् . आपकी कलम को नमन
जवाब देंहटाएंसादर
श्री