डा.पंचानन मिश्र द्वारा औडिया में रचित काव्य-खण्ड “पुरूरवा का पूर्वानुराग” जिसे हिन्दी भाषा में पहले पहल प्रकाशन भोपाल ने प्रकाशित किया है...
डा.पंचानन मिश्र द्वारा औडिया में रचित काव्य-खण्ड “पुरूरवा का पूर्वानुराग” जिसे हिन्दी भाषा में पहले पहल प्रकाशन भोपाल ने प्रकाशित किया है. इस काव्य-खण्ड का हिन्दी में अनुवाद(भाषांतर) उडिया भाषा के मर्मज्ञ-कथाकार-कवि-रेखा चित्रकार तथा पेशे से शिक्षक श्री कृष्णकुमार अजनवी जी ने किया. है.
भारतीय इतिहास में पुरूरवा और उर्वशी का उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद, शतपथ ब्राहमण, रामायण, महाभारत, हरिवंश, कथा सरित सागर एवं उप-पुराणॊ में तथा महाकवि कालिदास के रचनाक्रम में मिलता हैं, महाकवि कालीदास ने “विक्रमोर्वशीय” में इस अलौलिक प्रणय-गाथा पर नाटक लिखा है. आग्नेय कवि रामधारीसिंह” दिनकर” ने इसी पृष्ठभूमि पर “उर्वशी” खण्ड-काव्य की रचना की है. बावजूद इसके मेरा अपना मानना है कि जिन लोगों ने इन्हें नहीं पढा है, उनके लिए इस प्रणयगाथा पर संक्षिप्त में प्रकाश डाला जाना चाहिए. मुझे ऎसा भी लगा कि ,जब तक कि उनके इतिहास से वह भली-भांति परिचित न हो जाएं.इसे हृदयगंम करने में कठिनाई आ सकती है. इसे जानकर ही प्रणय में प्राप्त होने वाले स्वर्गीय आनन्द और वियोग की हृदयविदारक पीडा को भली-भांति समझा जा सकता है..
संक्षिप्त में कथा इस प्रकार है.
'पुरूरवा' एक प्राचीन राजा थे, जिनकी राजधानी गंगा नदी के तट पर प्रयाग में स्थित थी. इन्हें बृहस्पति की पत्नी तारा और चंद्रमा के संयोग से उत्पन्न बुध का पुत्र बताया जाता है. इनकी माता मनु की पुत्री इला थीं. पुरुरवा रूपवान और पराक्रमी था. नारद के मुख से देवसभा में इनके गुणों का बखान सुनकर उर्वशी इन पर मुग्ध हो गई, और तीन शर्तों पर वह भू-लोक पर आने के लिए लालायित हो उठी. पहली शर्त यह थी कि वह(पुरूरवा) उसकी सहमति से ही समागम करेगा.(दूसरी) नग्न रूप में दिखाई नहीं देगा और (तीसरी) एक दिन में तीन बार से अधिक आलिंगन नहीं करेगा. उसने सारी शर्ते मान लीं. उर्वशी के शयनकक्ष में दो मेष (मेढ़े) थे, जिन्हें वह पुत्रवत मानती थी. देवता गण और इन्द्र स्वर्ग में अप्रतिम सौंदर्य की देवी उर्वशी के अभाव में दु:खी रहने लगे. वे उसे स्वर्ग वापिस लाने की युक्तियाँ सोचने लगे. एक दिन विश्वावसु और अन्य गन्धर्व चुपके से उर्वशी के मेषों का अपहरण करने आ गए. शयनकक्ष में उर्वशी ने शोर मचा दिया. पुरुरवा उठे और मेषों को गन्धर्वों से छीन लिया. तभी योजना के अनुसार गन्धर्वों ने वहाँ माया से प्रकाश फैला दिया और उर्वशी ने पुरुरवा को नग्नावस्था में देख लिया. क्रोध से उर्वशी शर्त के मुताबिक स्वर्ग चली गई. ऋग्वेद तथा श्रीमद्भागवत में पुरुरवा की कथा थोड़े-से अंतर के साथ आती है. उसी प्रकार मत्स्यपुराण में एक भिन्न कथा पढने को मिलती है.
हिन्दू धर्म के अनेक पौराणिक प्रसंगों में अलग-अलग अप्सराओं का वर्णन मिलता है. इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि अपनी कार्यसिद्धी के लिए इंद्र ने शाबर मंत्रों को अभिमंत्रित कर एक सौ आठ अप्सराओं की निर्मिती की थी. इनकी संख्या एक हजार आठ तक भी हो सकती है. रंभा, मेनका, उर्वशी आदि प्रमुख देवलोक की अप्सराओं ने अनेक सिद्ध पुरुषों को अपने रूप-रंग से मोहित कर तप भंग किया था. वास्तव में भारतीय समाज में अप्सरा रूप और सौंदर्य का पर्याय बन गई है। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार अप्सरा देवलोक में रहने वाली अनुपम अति सुंदर, अनेक कलाओं में दक्ष, तेजस्वी और अलौकिक दिव्य स्त्री है अप्सरा तिलोत्तमा को अन्य अप्सराओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। तिल-तिल से बनी तिलोत्तमा-सबसे सुन्दर नारी थी. इस अतुलनीय शारीरिक-सौष्ठव की धनी तिलोत्तमा से भी सुन्दर “ऊर्वशी”थी,जिसे स्वयं नारायण ने अपनी जंघा (उरु) से निर्मित किया था और देवराज को दे दिया था.
मत्स्यपुराण में एक कथा के अनुसार राजा पुरूरवा ने अत्रि मुनि के आश्रम के समीप नारायण को प्राप्त करने के लिए घोर तप किया था. इस स्थान के पास एक सरोवर था,जिसमें अप्सरायें गन्धर्वों सहित स्वर्ग से उतरकर जल-क्रीडा किया करती थीं.
स त्वाश्रमपदे रम्ये त्यक्ताहारपरिच्छदः / क्रीडाविहारं गन्धर्वैः पश्यत्यप्सरसां सह कृत्वा पुष्पोश्चयं भूरि ग्रथयित्वा तथा स्त्रजः. अर्ध्यें निवेद्य देवाय गन्धर्वेभ्यस्तदा ददौ पुष्पोश्चयप्रसक्तानां क्रीडान्तीनां यथासुखम / चेष्टा नानाविधाकारः पश्यन्नपि न पश्यति
(मत्यपुराण-एक सौ बीसवाँ अध्याय)
अर्थ- राजकीय सामग्रियों तथा आहार का परित्याग कर राजा पुरूरवा उस रमणीय आश्रम में निवास करने लगे. वहाँ उन्हें गन्धर्वों के साथ अप्सराओं का क्रीडाविहार भी देखने को मिलता था. राजा बहुत से फ़ूलों को तोडकर उसकी माला गूंथते थे और उन्हें अर्ध्यसहित पहले भगवान विष्णु को निवेदित कर पुनः गन्धर्वों को दे देते थे. वे वहाँ पुष्पचयन में लगी हुईं एवं सुखपूर्वक क्रीडा करती हुई अप्सराओं की विभिन्न प्रकार की चेष्टाओं को देखकर भी अनदेखी कर जाते थे.
कथा यहीं पर समाप्त हो जाती है. मुझे लगता है कि यह वही स्थान होना चाहिए,जहाँ पर देवराज इन्द्र ने स्वर्ग की सबसे खूबसूरत उर्वशी को राजा पुरूरवा का तप भंग करने भेजा होगा. नारायण के भक्त को, भक्ति से डिगा देने के लिए, नारायण के द्वारा प्रदत्त उर्वशी से बढकर दूसरा औजार और क्या हो सकता था !.उसमें वह सफ़ल हुआ भी.
अप्सराओं के बारे में कहा गया है कि वे जरा रोग से ग्रसित नहीं होतीं. सदा नवयौवना बनी रहती हैं. उनकी चांदी सी गोल मुखाकृति, बडी-बडी विशाल भुजाएँ, चौङा ललाट, नागिन सी गूंथी बालों की लटें, तिरछे नयन, तोते की चोंच सी नाक, पतले व सुंदर होंठ, भरे हुए स्तन, पतली सपाट पिंडली व आभूषण से सजा पूरा शरीर और भाव-भंगिमाएं प्रभावोत्पादक होती है। सारी कलाओं में निष्नात, वे नृत्य-गायन और वादन में भी पारंगत होती है. उसने शरीर में कमल-पुष्प की सी गंध समाई होती है, जिसके बल पर वे अपने प्रेमी को अपने पाश में बांधे रखती है.
विश्व की सर्वोत्तम और सर्वांग सुन्दरी प्रेयसी पाकर राजा पुरूरवा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके जीवन में एक ऎसा दुर्योग आएगा कि उसे उर्वशी से बिछुडना पडेगा. वह अपने वचनों के प्रति सदा चौकस बना रहता था, लेकिन देवराज के षडयंत्र के आगे, उसे घुटने टेक्ने पर विवश होना पडा था. अपनी प्रेयसी के विछोह में अपार कष्टॊं को सहता हुआ वह, अपने अतीत की भूल-भुलैया में उतरकर उन पलों को याद करता,जब उसके जीवन में रंगीनी घोलने के लिए उर्वशी का प्रवेश होता है.
काव्य-कौशल के धनी डा. पंचानन मिश्र का यह संग्रह पाठकों को उन कालखण्डॊं के गव्हर में ले जाता है, जो निराशा-हथाशा-तृष्णा-टूटन-बेकली-कशमकश-बिंधी इच्छाएं-आकाक्षाएं-स्मृतियों-विस्मृतियों,आतंक-दमन-और उत्पीडन-के गहन कुहासों से भरा हुआ है.
संग्रह में शब्दों की बुनावट में विलक्षणता इसलिए है कि, उनमें तत्त्व-चिंतन और सांसारिक तथ्यात्मकता साथ-साथ चलती रहती है, वृतांत और मन्थन के साथ-साथ. एक सार्थक और एक अच्छे काव्य-खण्ड के लिए उन्हें साधुवाद..
और अन्त में.
श्री कृष्णकुमारजी का यह प्रथम प्रयास नहीं है,. इसके पूर्व वे उडिया-भाषा की प्रख्यात लेखिका- तथा जुगनारी पत्रिका की सम्पादिका डा.अर्चना नायकजी का कहानी संग्रह” अलौकिक और अन्य कहानियाँ” मुझे भेजी, जिस पर मैंने समीक्षा भी लिखी थी. इस कहानी संग्रह में अर्चनाजी की बारह अद्वितीय कहानियां हैं, जिन्हें पढकर उनकी रचनाधर्मिता को परखा-समझा जा सकता है. अगर इन कहानियों का अनुवाद श्री अजनवी द्वारा हिन्दी भाषा में न किया गया होत्ता, तो मैं अपने समय की चर्चित लेखिका को न तो जान पाता और न ही उनके सृजन से परिचित हो पात्ता. मेरे अपने मतानुसार श्री अजनबी भारत के पहले उडिया भाषा के जानकार हैं,जो उसके के विपुल साहित्य को, हिन्दी में अनुदित कर, अन्य भाषा-भाषी तक पहुंचाने का भगीरथ प्रयत्न करने में लगे हुए हैं.
भारत में अलग-अलग प्रांतों में बोली जाने वाली भाषाएँ, मसलन-मराठी, तेलुगु, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी, उडिया, कश्मीरी, बांगला, कोकणी, संस्कृत आदि भाषाओं में रचे गए साहित्य में अनमोल हीरे-जवाहार-पन्ना-मोती और रत्नादि छिपे पडॆ हैं, जिन्हे, उस भाषा के विद्वान अपनी रचनाकर्म के माध्यम से सृजित भी कर रहे हैं, लेकिन जो उस भाषा के जानकार नहीं है, उसका रसास्वादन करने से वंचित रह जाते है. यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि हम अपने आसपास की समृद्ध भाषाओं से अनभिज्ञ रहते हुए, विदेशी भाषा अंग्रेजी की गुलामी का ठिकरा, अब तक सिर पर लादे घूम रहे हैं और अपने आपको गौरवान्वित होने का और सर्वज्ञ होने का भ्रम पाले हुए हैं. बात यह नहीं है कि मैं अंग्रेजी का धुर विरोधी हूँ. हमें अंग्रेजी ही क्या, विश्व की अन्य भाषाओं से भी परिचित होना चाहिए. हम जितनी भाषाओं के जानकार होंगे, उतना ही हमारा हृदय विशाल होगा.... ज्ञान में वृद्धि होगी और भी अन्यान्य फ़ायदे हमें मिलेंगे. यदि शिक्षा नीति में इस तरह का बदलाव लाया जाए कि हर व्यक्ति को उसके पडौस में बोली जाने वाली भाषा का जानकार होना ही चाहिए. ऎसा किए जाने से भारत की एकता और ज्यादा बलवती होगी. ऎसा मेरा विश्वास है.
एक श्रेष्ठ खण्ड-काव्य के लिए डा.पंचानन मिश्रजी को साधुवाद-धन्यवाद. इस उम्मीद के साथ वे अपना सर्वश्रेष्ठ पाठकों तक पहुंचाते रहेंगे. पुनः साधुवाद.
समीक्षक - गोवर्धन यादव
संपर्क -
103,कावेरी नगर,छिन्दवाडा (म.प्र.) 480001
07162-246651,9424356400
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