डॉ. दीपक आचार्य आक्षितिज पसरी हुई सृष्टि विराट व्यक्तित्व भरे इंसान के विहार या विचरण के विराट कैनवास की प्रतीक है। यह समूची सृष्टि इंस...
डॉ. दीपक आचार्य
आक्षितिज पसरी हुई सृष्टि विराट व्यक्तित्व भरे इंसान के विहार या विचरण के विराट कैनवास की प्रतीक है। यह समूची सृष्टि इंसान के परिभ्रमण के लायक है और इंसान चाहे तो इसका भरपूर आनंद पा सकता है।
लेकिन यह स्वभाव कुछ ही लोग अपना पाते हैं। अधिकांश लोग न तो इसे पाना चाहते हैं न समय निकाल पाते हैं। ऎसे लोग साल में एक-दो बार कहीं दूर भ्रमण कर लिया करते हैं और संतुष्ट हो जाते हैं कि पूरी दुनिया देख ली है।
दुर्भाग्यपूर्ण हालात यह हैं कि इंसान अपने दड़बों, चंद फीट के घेरों और बंद कमरों से बाहर निकलना ही नहीं चाहता। फिर टीवी, मोबाइल, कम्प्यूटर और बहुत सारे डिब्बे ऎसे आ गए हैं जिन्होंने इंसान को भी एक डिब्बा ही बना डाला है। कभी इस कोने में पड़ा रहकर कुछ न कुछ करता रहता है, कभी उस कोने में अधमरा पड़ा रहता है।
सबने अपनी-अपनी सीमाएं बाँध कर खुद को नज़रबंद कर रखा है। सभी ने खींच रखी हैं अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाएँ, जहाँ से बाहर निकलना ही नहीं चाहते। कभी लांघनी पड़ जाएं तो मौत ही आ जाए।
कइयों के लिए घर, आफिस और दुकान, प्रतिष्ठान या दो-चार डेरे ही रोजमर्रा की जिन्दगी में खास बने हुए हैं जो जीवनपर्यन्त इन्हीं चंद फीट की परिधियों के बीच बने रहते हैं। सच तो यह है कि हर आदमी को यह भ्रम हो गया है कि यही डेरे संसार है और संसार में जानने-समझने और देखने लायक कुछ बचा ही नहीं है।
जो कुछ मोबाइल, टीवी, नेट और कम्प्यूटर पर है वही संसार है, इससे अधिक कुछ नहीं। हम सबके सब कहीं न कहीं आत्म नज़रबंद होकर रह गए हैं। सभी को जड़ता ने इस कदर घेर रखा है कि कुछ कहा नहीं जा सकता।
सर्वज्ञ होने के हमारे भ्रमों ने हमें कहीं का नहीं रहने दिया है। हर तरफ आदमी कुर्सियों, डबल बैड्स और सोफों में धँसा हुआ पूरे ब्रह्माण्ड की सैर कर लेने का भ्रम पालने लगा है।
एक समय था जब इंसान अपने क्षेत्र में होने वाले हर आयोजन, उत्सव, मेले-ठेलों और कार्यक्रमों में अपनी उत्साही भागीदारी अदा करता था। और सहभागिता नहीं निभा पाने की स्थिति में भी अपने परिवारजनों और बच्चों के साथ अवलोकन और दर्शन का आनंद जरूर प्राप्त करता था।
इससे आने वाली पीढ़ियां भी सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और परिवेशीय हलचलों, स्थलों और आयोजनों की जानकारी से रूबरू होती थीं और लोक लहरियों का यह ज्ञान एक से दूसरी पीढ़ी में संवहित होता था। अब तो पारिवारिक, सामाजिक, आंचलिक आयोजनों में जाने से भी हम लोग कतराने लगे हैं।
वर्तमान पीढ़ी को अपने घर और गली से आगे तक का कुछ पता नहीं है। कहाँ कौनसी गली, रास्ता और मोहल्ला है, किसकी क्या खासियत है, कहाँ कौनसा देखने लायक स्थल है, कौनसी परंपराएं अपने क्षेत्र में हैं, कहाँ कोई उत्सव, मेले और पर्व होते हैं और इनमें क्या-क्या होता है, अपने इलाके में कहाँ क्या कुछ है। इन सभी के बारे में हम ही अनभिज्ञ हैं, हमारे बच्चों की क्या बात करें।
हमने अपने आप को स्वार्थों, चंद लोगों की परिधियों, झुनझुनों और छोटे-मोटे मोहपाशों में इतना जकड़ लिया है कि हम इससे आगे की न कुछ सोच पा रहे हैं, न कुछ कर पा रहे हैं।
हम सभी ने मकड़ियों की तरह अपने-अपने कोने तलाश रखे हैं जहाँ अधमरे पड़े होकर कभी अपनी बात करते हैं, कभी अपनों के बारे में और कभी दुनिया जहान का सोचने और बोलने लग जाते हैं।
अपनी इस नज़रबंद अवस्था को हम आरामतलबी और आनंद का पर्याय मानने लगे हैं क्योंकि हमने यही सब देखा और भुगता है। प्रकृति, परिवेश और हलचलों का आनंद हमारे बाप-दादे नहीं देख पाए, हम क्या देख पाएंगे।
हम सभी अपने-अपने कोनों में ऎसे दुबके पड़े हैं जैसे कि पूरा का पूरा संसार हमें छोड़कर ऊपर चला गया हो और हम गहरे शोक संतप्त होकर उसी चिन्ता और दुःख में घिरे हुए हों। वैश्विक चिन्तन और भ्रमण के लिए बना इंसान इतना अधिक संकीर्ण हो जाएगा, इसकी कल्पना भगवान ने भी कभी नहीं की होगी।
हम शायद यह भूल चुके हैं कि एक ही एक जगह पड़े रहने की मानसिकता ने हमें मानसिक रोगी बना डाला है। शरीर को हिलाने-डुलाने की स्थिति भी नहीं होने से शारीरिक जड़त्व और व्याधियाँ घर करती जा रही हैं और हममें से अधिकांश लोग यह कह पाने की स्थिति में नहीं हैं कि हम पूरी तरह स्वस्थ और मस्त हैं।
किसी कैदी की तरह मकड़जाल में उलझा हुआ जीवन जी रहे हम लोग अपने आपको न स्वस्थ रख पा सकते हैं, न सेहतमंद कह पाने की स्थिति में हैं।
शारीरिक सौष्ठव और सेहत के लिए प्रकृति का सान्निध्य पाना जरूरी होता है लेकिन हमने प्रकृति और परिवेश को भुला कर कुछ फीट की दीवारों को ही अपना संसार मान लिया है। ऎसे में हम मन और तन से स्वस्थ और मस्त होने की इच्छा भी करें तो इस जन्म में पूरी नहीं हो सकती।
अपने आपको नज़रबंद कर देने के बाद हम वैश्विक ऊँचाइयां पाने की उम्मीद रखें, यह अपने आप में दिवास्वप्न ही है। हमारे जीवन की निराशा, हताशा और सभी प्रकार के दुःखों का एकमात्र कारण हमारी जड़ता है और इसी की वजह से हम समाज, परिवेश, क्षेत्र और प्रकृति, पुरातन परंपराओं, उत्सवी आयोजनों आदि सभी से दूर होते जा रहे हैं।
इन तमाम संकीर्णताओं के रहते हुए इंसान के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की कामना बेमानी है। कई लोग तो घरों में ऎसे दुबके रहते हैं जैसे कि बरसों से वैधव्य या विधुरत्व के अभिशाप और शोक से ग्रस्त ही हों। फिर अपने माता-पिता और परिजनों की देखा-देखी संतति भी ऎसी निखट्टू हो गई है कि न कहीं आना, न जाना, घर में ही दिन-रात पड़े रहना। कभी औंधे मुँह पड़े रहकर मोबाइल में घुसे रहना और कभी दरिद्रता और आलस्य से घिर कर नीम बेहोशी में पडे रहना। यहाँ तक कि खाना तक पचाने लायक हलचल भी नहीं कर पा रही है नई पीढ़ी।
जो लोग कोनों में दुबके रहने के आदी हैं उनके लिए खटिया, दवाइयां और परहेज से बड़ा और कोई उपचार नहीं है। सायास दुबके रहने की आदत पाल चुके लोगों के लिए जीवन भर दुःखी बने रहने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है। एक न एक दिन ये लोग अपनी जिन्दगी से घबरा कर भगवान से यही कहने लगते हैं - हे भगवान ! अब रहा नहीं जाता, जल्दी से ऊपर उठा ले।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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