दयाधर जोशी सन्मार्ग सदाचार से भटके हुए लोगों के लिये हनुमानजी की उपासना अति आवश्यक है। इनके शरीर और इन्द्रियों में समावेशित अद्भुत शक्ति भ...
दयाधर जोशी
सन्मार्ग सदाचार से भटके हुए लोगों के लिये हनुमानजी की उपासना अति आवश्यक है। इनके शरीर और इन्द्रियों में समावेशित अद्भुत शक्ति भटके हुए लोगों को सन्मार्ग सदाचार की राह पर चलने के लिये प्रेरित कर देती है। आज समाज में बहुत अधिक विकृतियाँ आ चुकी हैं, समाज पतन की ओर अग्रसर है। हनुमानजी सद्गुणों की खान हैं। इन सद्गुणों को अपने जीवन में उतारने के लिये हमें शुद्ध अन्तःकरण से इनकी आराधना, उपासना करनी चाहिये। हनुमानजी का नियमित नाम-स्मरण, मनुष्य को विषयों का दास बनने से रोकता है। मनुष्य काम, क्रोध, लोभ और मोह पर विजय पाने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, और धीरे-धीरे भक्ति की ओर अग्रसर होकर भगवान का दास बन जाता है। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने धैर्य को बनाये रखता है, मानसिक शांति यथावत बनी रहती है। हनुमानजी का नाम स्मरण करते रहने से यह कैसे सम्भव हो सकता है? इनका नाम-स्मरण बुद्धिबल, विवेक और मनोबल को बढ़ाता है।
यही इस प्रश्न का आसान सा उत्तर है।
घोर कलयुग हिरण्यकशिपु है। चारों ओर घोर अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार का बोलबाला है। भटके हुए नवयुवकों को हनुमानजी के ब्रह्मचर्य व्रत को मन में धारण कर इनकी उपासना करनी चाहिये। जिन लोगों पर इस देश को चलाने का दायित्व है उन्हें निष्काम सेवाभाव के लिये इनकी उपासना करनी चाहिये। घर परिवार चलाने वालों को अन्य सभी परिवारजनों का प्रेम मिलता रहे व परिवार में स्वामि भक्ति एवं प्रेमभाव को यथावत बनाये रखने के लिये हनुमानजी की उपासना अवश्य करनी चाहिये।
भगवान श्रीराम ने धर्म और भक्तों की रक्षा करने के लिये इन्हें धरती पर रहने के लिये कहा है। प्रभु श्रीराम की आज्ञा का पालन कर ये राम-नाम मंत्र का जप करते हुए इस घोर कलयुगरुपी हिरण्यकशिपु से अपने भक्तों की रक्षा करने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं। प्रत्येक घर में, मंदिरों में शांतिपूर्वक राम कथा होती रहेगी तो ये अपने भक्तों की रक्षा के लिये इस पृथ्वी पर विचरण करते रहेंगे, और अपने भक्तों का कल्याण करते रहेंगे।
यह शरीर मेरा है, यह परिवार मेरा है, यह धन-संपदा मरे ी है, धन संपदा और वैभव में निरन्तर वृद्धि होती रहे, मनुष्य ऐसी कामना निरन्तर करता रहता है। मनुष्य जो भी कर्म कर रहा है लगभग सभी सकाम कर्म हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य संसार में सुख एवं कामना के वश में रह कर जीवन की यात्रा कर रहा है। किये गये कर्मों के आधार पर ही प्रारब्ध सुनिश्चित हाते ा है और जन्म-मरण का यह चक्र हमेशा चलता रहता है। इसे ध्यान में रखकर प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में कुछ निष्काम कर्म भी संचित करने चाहिये। पवनसुत हनुमानजी की जय हो।
प्रनवउँ पवन कुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।। रा.च.मा.१/१७ मैं हनुमानजी की वंदना करता हूँ, जो दुष्टरुपी वन को भस्म करने के लिये अग्निरुप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदयरुपी भवन में धनुषबाण धारण किये प्रभु श्रीराम निवास करते हैं।
जैसे वन बहुत तेजी से फैलते, बढ़ते हैं, ठीक उसी तरह इस कलयुग में दुष्टों की संख्या में
अपार वृद्धि हो रही है। दुष्ट और दुष्टता को भस्म करने के लिये पवनसुत हनुमान अग्निरुप हैं।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी, ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं विषय रत मंद मंद तर।। कांच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं।।
रा.च.मा. ७/१२१क/९-१०-११-१२
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। यह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है। ऐसे मनुष्य शरीर को प्राप्त करके भी जो लोग श्रीहरि का भजन नहीं करते और नीच से नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारस मणि हाथ से फेंक देते हैं और बदले में कांच के टुकड़े ले लेते हैं।
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।
रा.च.मा. ७/८६/३-४ प्रभु कहते हैं, यह संसार मेरी माया से उत्पन्न है। इसमें अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं, ये सभी मुझे प्रिय हैं, क्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किये हुए हैं। किन्तु मनुष्य मुझे सबसे अधिक अच्छे लगते हैं, लेकिन -
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
रा.च.मा. ५/४४/५
जो मनुष्य निर्मल मन का होता है वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।
ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड़। सेनापति कामादि भट दंभ, कपट पाषंड।। रा.च.मा. ७/७१क
माया की प्रचंड सेना संसार भर में छायी हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं, और दंभ कपट और पाखंड योद्धा हैं।
तात तीनि अति प्रबल खल काम, क्रोध अरु लोभ। मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ क्षोभ।।
रा.च.मा. ३ /३८क
हे तात! काम, क्रोध और लोभ ये तीन अत्यन्त प्रबल दुष्ट हैं। ये विज्ञान के धाम मुनियों के भी
मनों को पल भर में क्षुब्ध कर देते हैं।
लोभ कें इच्छा दम्भ बल काम कें केवल नारि। क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि।। रा.च.मा. ३/३८ख
लोभ को इच्छा और दम्भ का बल है, काम को केवल स्त्री का बल है और क्रोध को कठोर वचनों का बल है, श्रेष्ठ मुनि विचार कर ऐसा कहते हैं।
माया से छुटकारा कैसे मिल सकता है। विषयों का त्याग भी आसान नहीं है। विषयों का त्याग कर दिया लेकिन यदि विषयों के प्रति आसक्ति मन में बराबर बनी रहे तो इसे विषयों का त्याग कहना भी गलत होगा। माया की प्रचंड सेना से युद्ध जीतना इतना आसान नहीं है। जब तक प्रभु की कृपा नहीं होगी माया के योद्धाओं और सेनापति को हराना बहुत मुश्किल है। हनुमानजी की कृपा के बिना आसक्ति से छुटकारा नहीं मिल सकता है। आसक्ति से मुक्ति पाने के लिये मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हो, इसके लिये निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है। इन्द्रियों को वश में किये बिना बुद्धि में स्थिरता नहीं आ सकती। बिना स्थिर बुद्धि के भगवान का ध्यान करना सम्भव नहीं हो सकता। विषयासक्त जनमानस को काम, क्रोध, मद और लोभ, पतन की ओर ले जाते हैं। इनका परिहार करने पर ही मन निर्मल हो सकता है। मन को निर्मल करने का सरलतम उपाय रामचरितमानस में बताया गया है-
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।। रा.च.मा. ५/३८ काम, क्रोध, मद और लोभ ये सब नरक के रास्ते हैं। इन सबको छोड़ कर श्रीरामचन्द्रजी को
भजिये, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं। रामचन्द्रजी का भजन करने से पहले कुबुद्धि का नाश करने वाले और सुबुद्धि का साथ देने
वाले बाल ब्रह्मचारी रामचरणानुरागी हनुमानजी का भजन, स्मरण बहुत जरुरी है।
रामचन्द्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान।।
रा.च.मा. ७/७८क
श्रीरामचन्द्रजी के बिना जो मोक्ष पद चाहता है, वह मनुष्य ज्ञानवान होने पर भी बिना सींग और पूंछ का पशु है। हनुमानजी के बिना श्रीरामचन्द्रजी की कृपा नहीं मिलती और इनकी कृपा के बिना मोक्ष नहीं मिल सकता। इस वास्तविकता का ज्ञान प्रत्येक राम भक्त को होना चाहिये। यदि आप नियमितरुप से हनुमानजी की उपासना कर रहे हैं तो इस कलयुग में भगवान श्रीराम की भक्ति बहुत आसान है-
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।। रा.च.मा. ७/१03क यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलयुग के समान दूसरा युग नहीं है। क्योंकि इस युग में श्रीरामजी के निर्मल गुण-समूहों को गा-गा कर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसाररुपी समुद्र से तर जाता है। प्रभु कहते हैं, मैं कलयुग में नाम-रुप से ही आया हूँ, कलयुग में नाम-रुप ही अवतार है। भगवान कहते हैं, तू निर्मल मन से मेरा नाम जप, तरे ा सब भार मैं ले लूंगा। मैं मृत्युरुपी इस संसार सागर में तेरा उद्धार करुँगा।
कलिजुग केवल हरिगुन गाहा, गावत नर पावहिं भव थाहा।। रा.च.मा. ७/१03/४
कलयुग में तो केवल श्रीहरि की गुण-गाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह
पा जाते हैं।
भगवान कहते हैं, निरन्तर मेरा नाम जप, तरे ा उद्धार हो जायगा। प्रभु ने उद्धार के लिये बहुत ही आसान मार्ग सुझाया है। लेकिन मनुष्य के सामने उपस्थित स्थितियाँ बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण हैं। मनुष्य के पास नाम-जप करने की फुर्सत ही नहीं है। मोह आसानी से छूट नहीं सकता। इस मोह के कारण सांसारिकता से आसक्ति नहीं छूटती और नित नये मनोविकारों का जन्म होता रहता है। मोह का त्याग कैसे हो सकता है?-
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।। रा.च.मा. ७/६१ सत्संग के बिना हरिकथा सुनने को नहीं मिलती। सत्संग के बिना मोह नहीं भागता और मोह
गये बिना रामचन्द्रजी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता। मन में वैराग्य भाव उत्पन्न होगा तभी मोह से मुक्ति मिलेगी। वैराग्य भाव उत्पन्न होगा सत्संग से। सत्संग से हनुमान-चरित्र सुनने को मिलेगा, जपने को मिलेगा। इनके बिना जीवन में यथार्थ ज्ञान नहीं मिल सकता। हरिकथा सुने बिना मन निर्मल नहीं होता, मोह नहीं भागता, मोह गये बिना हरि-चरित्र का ज्ञान नहीं होता। इस ज्ञान को प्राप्त किये बिना मुक्ति सम्भव ही नहीं है। निर्मल मन से सत्संग करने से ही मोह से मुक्ति होगी, और प्रभु के चरणों के प्रति दिन ब दिन प्रेम प्रीति दृढ़ होती चली जायेगी।
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।।
रा.च.मा. २/१५0/७ मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते हैं और दुःख में रोते हैं। पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को
समान समझते हैं। मनुष्य के जीवन में दुःख मूर्खता के कारण ही आते हैं। दुःख को देख कर उसे रोना आता है लेकिन वह अपनी मूर्खता को कभी नहीं कासे ता है। मूर्खता को त्यागने का प्रयास ही नहीं करता। प्रभु ने इस मूर्खता के अंधकार से मुक्ति पाने का सरलतम साधन सत्संग को बताया है। इससे भी अधिक श्रेयकर उपाय है प्रभु की निर्मल मन से उपासना। बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।। साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।
रा.च.मा. ७/४३/७-८ बड़े भाग्य से यह मानव शरीर मिला है। सब ग्रंथों में यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को
भी दुर्लभ है, कठिनता से मिलता है। यह
साधना का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने भी परलोक न बना लिया।
शास्त्रों में जन्म-मरण का मूल कारण अज्ञान माना गया है।
इस साधना के धाम को मनुष्य ने साधनों का धाम बना लिया है, विषयों में लिप्त कर लिया है। येनकेन प्रकारेण धन अर्जित करना, सुख के साधन जुटा कर अपने वैभव को प्रदर्शित करना व सकाम कर्म करते हुए सुख एवं कामना के वश में रहना ही उसके लिये मोक्ष का दरवाजा बन गया है। इसलिये वह परलोक की बात सोचता ही नहीं है। जीवन में धन अर्जित करो लेकिन धन के कुप्रभाव से बचना भी सीखो। धन हमें अभिमानी बना देता है। हमें विषय-भोगों में लिप्त कर हमारी दुर्दशा भी कर देता है। भक्ति करने के लिये वैराग्य आवश्यक नहीं है। गृहस्थ बन कर भक्ति करो। संत पुरुषों के सानिध्य में रहो। संत का संग मोक्ष प्रदान करता है। कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है। पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करते हैं उसी प्रकार अपने सवे कों की रक्षा करने वाले प्रभु का नित्यप्रति भजन करो। मनुष्य यदि निर्मल मन से सत्संग करे, सच्चे मन से हनुमान-चरित्र और राम कथा का श्रवण और पठन करे, अपने बच्चों को बचपन से ही सत्संग का अर्थ समझाता रहे, उन्हें हनुमान चरित्र और राम कथा को पढ़ने और समझने के लिये प्रेरित करता रहे तो निश्चित मानिये ऐसा मनुष्य बड़भागी बन जाता है।
राम कथा का पठन एवं श्रवण कर जो भक्ति को अपनाता है, सत्य को अपनाता है, सत्य के मार्ग को अपना कर पूरी तरह रामानुरागी बन जाता है, वह अतिबड़भागी कहलाता है। रामचरितमानस में सभी वानरों को अतिबड़भागी कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
भक्त का प्रेम, अपार श्रद्धा एवं निर्मल भक्ति से गद्गद् होकर जब श्रीराम स्वयं अपने भक्त के पास पहँुच जाते हैं तो उस भक्त को अतिशय बड़भागी कहते हैं। यह सौभाग्य माता अहिल्या और
शबरी को प्राप्त हुआ है।
जो भक्त प्रभु सेवा में या दूसरों का हित करने के लिये अपने प्राण न्यौछावर कर देता है, वह परम बड़भागी कहलाता है। परम बड़भागी कहलाने का सौभाग्य जटायु को प्राप्त हुआ है। प्रभु श्रीराम की भक्ति और कृपा पाने के लिये निर्मल मन से हनुमानजी की भक्ति परम आवश्यक है। यह बात प्रत्येक भक्त अच्छी तरह समझ ले। हनुमानजी की कृपादृष्टि होने पर ही भक्तों के वरदायक, भक्त के वाणी के दोषों का नाश करने वाले व सर्व पापो को हरने वाले
श्रीरघुनाथजी की कृपा प्राप्त होती है।
कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन।। रा.च.मा. ७/५१/९ हे तुलसी के प्रभु! शरणागत की रक्षा कीजिये। आपका नाम कलयुग के पापों को मथ डालने
वाला और ममता को मारने वाला है। दो अक्षर का नाम है 'राम'-मन में इच्छा जाग्रत हुई और नाम ले लिया-समझो सारे पाप भाग गये। यदि आप मन से राम-नाम का जप कर रहे हैं तो समझ लो, आपको पंचम पुरुषार्थ 'भगवत्प्रेम' प्राप्त हो गया है। मन में इच्छा नहीं है, इस नाम के प्रति श्रद्धा नहीं है, सिर्फ स्वार्थभाव के कारण मुंह से राम-नाम निकल रहा है तो फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
एक बार पार्वतीजी ने भगवान शिव से पूछा, 'आप हमेशा राम-नाम जपते रहते हो। संसार के लोग सिर्फ जपते ही नहीं राम-राम रटते रहते हैं, फिर भी उनका उद्धार नहीं होता। ऐसा क्यों?' राम-नाम रटने से क्या होगा, राम-नाम में विश्वास भी तो होना चाहिये। शिव पार्वती से कहते हैं, मैं इस कीचड़ भरे गड्ढे में गिर जाता हूँ। तुम यहां से गुजरने वाले से
कहो, 'मेरे पति गड्ढे में गिर गये हैं। यदि आप निष्पाप हैं तो मेरे पति को बाहर निकाल दें।' पार्वतीजी काशी के घाट पर बैठी हैं। लोग गंगा स्नान कर राम-राम जपते हुए वापस आ रहे हैं। वे कह रही हैं, मेरे पति गड्ढे में गिर गये हैं। इन्हें वही व्यक्ति बाहर निकाले जिसने कोई पाप नहीं किया हो। पापी इन्हें निकालने की कोशिश करेगा तो वह भस्म हो जायगा। पार्वतीजी पुकारती रहीं लेकिन सुबह से शाम तक कोई भी निष्पाप व्यक्ति शिवजी को गड्ढे से बाहर निकालने के लिये नहीं आया। गोधूलि वेला के समय एक व्यक्ति गंगा स्नान के बाद राम-राम जपता हुआ आ रहा था। वह शिवजी को बाहर निकालने के लिये गया तो पार्वतीजी ने कहा, 'इन्हें बाहर निकालने वाला व्यक्ति निष्पाप होना चाहिए।' वह व्यक्ति बोला, हर-हर गंगे कह कर गंगा स्नान किया तो तन के साथ-साथ मन भी शुद्ध हो गया। स्नान के बाद लगातार मन से राम-राम जपता हुआ जा रहा हूँ, क्या मैं फिर भी पापी हूँ? मन से राम-राम निकलते ही सब पाप दूर भाग जाते हैं। मैं निष्पाप हूँ, इसलिये इन्हें गड्ढे से बाहर निकालूंगा। गड्ढे से बाहर निकलने के बाद शिवजी ने पार्वती से कहा, 'लोग गंगा-स्नान करते हैं, राम-नाम का स्मरण करते हैं फिर भी अपने को निष्पाप नहीं मानते।' कारण स्पष्ट है, इनका गंगा स्नान और राम-नाम में पूर्ण विश्वास नहीं है। लोग इनकी पाप नाशक शक्ति को समझते ही नहीं हैं। यह कहना कि गंगा स्नान द्वारा मनुष्य अपने देह की शुद्धि करता है, यह बात गलत है। देहशुद्धि के लिये तो उसके घर में ही जल है, रोज स्नान करके अपने देह की शुद्धि कर लेता है। गंगास्नान का अर्थ है चित्त की शुद्धि। शुद्ध अन्तःकरण से राम-नाम सुमिरन समस्त पापों का नाश करता है। मन से नाम जपने वाला धीरे-धीरे निष्पाप हो जाता है।
इन्द्रियों का स्वामी मन है। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है।
ध्यान रहे, हमें केवल मन से श्री हरि का चिन्तन नहीं करना है, मन को श्रीहरि में लगाना है। मन को श्री हनुमान जी में लगाने से श्रीहरि की कृपा स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।
हनुमानजी का ऐसा अर्चा-विग्रह या चित्र, जिसमें एक हाथ में गदा व दूसरे हाथ में पर्वत, एक पैर जमीन पर व दूसरा पैर जमीन से ऊपर उठा हुआ हो, हमें यही संदेश देता है कि, जीवन में सदैव सत्कर्म करते हुए आगे बढ़ते रहो। सदैव सक्रिय बने रहो। समस्याएँ कितनी ही पर्वताकार क्यों न हों, हृदय में 'काम' को हटाकर 'राम' को धारण कर, आगे बढ़ते रहो। ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करो। हनुमान बनो, तभी सामाजिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक उन्नति सम्भव हो सकती है।
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