क्या हम सचमुच स्वतंत्रता की छांव तले सांस ले रहे हैं?

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राकेश भ्रमर संपादकीय - प्राची, जुलाई 2015 मेरी तरह इस देशवासियों के मन में भी यह सवाल अक्सर आता होगा कि क्या वह सचमुच स्वतंत्रता की छांव...

राकेश भ्रमर

संपादकीय - प्राची, जुलाई 2015

मेरी तरह इस देशवासियों के मन में भी यह सवाल अक्सर आता होगा कि क्या वह सचमुच स्वतंत्रता की छांव तले सांस ले रहे हैं और इस देश के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्राप्त है. समानता में बहुत सारी चीजें आती हैं, जैसे बोलने का अधिकार, काम करने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, संपत्ति का अधिकार, धर्म और आस्था का अधिकार आदि-आदि...

मुझे तो नहीं लगता, इस देश के नागरिक स्वतंत्र हैं या उन्हें समानता के अधिकार प्राप्त हैं. आपको लगता हो तो बता दें. अब देखिए न, मजदूर पूरी मेहनत के बाद भी अपने मालिक से मजदूरी नहीं मांग सकता. मांगता है, तो बदले में गालियां पाता है या आधी-अधूरी मजदूरी देकर उसे टरका दिया जाता है. मजदूर अगर इसके बाद भी आवाज बुलंद करता है, तो मालिक के गुर्गे उसे मार-पीट कर भगा देते हैं या उसे किसी फर्जी मामले में फंसाकर हवालात की हवा खाने के लिए भेज देते हैं.

समाज में बहुत सारी असमानताएं हैं. हर व्यक्ति जाति और धर्म के खेमें में बंटा हुआ है, गरीबी और अमीरी के खानों में अपने-अपने हिस्से की रोटी या हलवा-पूरी खा रहा है. कुछ लोग भीग मांगते हैं, तो कुछ उन्हें श्रद्धापूर्वक भीख देते हैं और कुछ उन्हें दुत्कार कर भगा देते हैं. जो लोग भिखारियों को रोजगार देकर स्थायित्व दे सकते हैं, वह भीख देकर महानता का अनुभव करते हैं, परन्तु रोजगार देकर किसी विपन्न को संपन्न बनाने का जोखिम नहीं उठाते.

अभी हाल में ही मुंबई में जहरीली शराब पीने से सौ से अधिक व्यक्ति मर गये. विपक्ष के नेता उनके लिए मुआवजे की मांग कर रहे हैं. जहरीली शराब पीकर मरनेवाले परिवारों को सरकार लाखों रुपये का मुआवजा देती है, परन्तु जो लोग शराब पीकर धीरे-धीरे मरते हैं और अपने परिवार की सारी संपत्ति शराब के नशे में फूंककर अपने परिवार को विपन्न कर देते हैं और परिवार के सदस्यों को दर-दर की ठोकर खाने के लिए क्या हम आजाद हैं

मजबूर कर देते हैं, उनकी तरफ सरकार या कोई सामाजिक संस्था ध्यान नहीं देती. इसी प्रकार सड़क हादसों या ट्रेन हादसों में मरनेवाले यात्रियों के परिजनों को सरकार लाखों रुपये का मुआवजा बांटती है, लेकिन जो इक्का-दुक्का लोग प्रतिदिन सड़क हादसों में मरते हैं, उनका मुआवजा देने की बात कौन कहे, उनके जीवन बीमा की राशि जीवन बीमावाले ही हड़प कर जाते हैं.

आत्महत्या करनेवाले किसानों की तरफ तो सरकार ध्यान ही नहीं देती, न उनका कर्ज माफ करती है. जबकि किसान देश के नागरिकों को दो जून की रोटी मुहैया कराने के लिए सर्दी, गर्मी और बरसात में रात-दिन खटता है, दूसरों के लिए खुद भूखा रहता है और उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता. महाजन और व्यापारी उसकी मेहनत पर अच्छी कमाई करके अमीर बन जाते हैं, परन्तु वह सदा गरीब-का-गरीब ही रहता है.

इसी तरह धर्म के नाम पर भी लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है. किसी को उनका धर्म स्थल बनाने के लिए न केवल सरकार द्वारा जमीन दी जाती है, बल्कि आर्थिक सहयोग भी दिया जाता है और उन्हें उनके पवित्र तीर्थस्थल जाने के लिए सब्सिडी भी दी जाती है, परन्तु किसी अन्य को न केवल उनके धर्मस्थल को बनाने से मना कर दिया जाता है, बल्कि उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया जाता है.

कहते हैं कि पुलिस जनता के लिए होती है, परन्तु यहां भी सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्राप्त नहीं है. जिनके पास पैसा है, वह अपराध करके भी बच जाते हैं, और जिनके पास पुलिस की जेब गर्म करने के लिए धेला नहीं होता, वह बिना अपराध के भी जेल के अंदर पहुंच जाता है. पुलिस जनता का ध्यान रखे या न रखे, किसी अपराधी को गिरफ्तार करे या न करे, वह नेता की सुरक्षा में बहुत मुस्तैद रहती है.

इसी देश के एक प्रदेश के प्रभावशाली नेता की भैंसें चोरी हो गयीं तो एक हफ्ते के अंदर न केवल चोरी गयी भैंसें वापस आ गयीं, बल्कि एक साल बाद अपराधी भी पकड़ लिये गये. इससे हमारी पुलिस की मुस्तैदी का पता चलता है, परन्तु इसी देश में कितने ही लोगों की हत्या करके भागे अपराधी सालों साल तक पकड़ में नहीं आते, न उनके खिलाफ पुलिस कोई चालान पेश कर पाती है. वही दूसरी तरफ कुछ पैसे वाले लोग किसी से दुश्मनी निकालने के लिए पैसे के जोर पर अपने दुश्मन के खिलाफ न केवल मुकदमा कायम करवा देते हैं, बल्कि उसको कोर्ट से सजा भी दिलवा देते हैं.

कुछ गरीब व्यक्ति बिना अपराध के भी सजा पा जाते हैं और कुछ अमीर अपराधी अपराध करके भी कानून से बचे रहते हैं. ऐसे अपराधी राजनीति को ढाल बनाकर और महंगे वकील करके कानून को ठेंगा दिखाते रहते हैं.

इस देश में बोलने की आजादी के ऊपर तो सबसे ज्यादा प्रतिबंध है. पत्रकारों और लेखकों के ऊपर सरकार, नेता, उद्योगपति, व्यापारी और माफिया सभी खफा रहते हैं. इनके खिलाफ लिखने और बोलने वालों को पहले लालच से पटाने की कोशिश की जाती है और जब बात नहीं बनती तो उन्हें डराया- धमकाया जाता है. फिर भी बात नहीं बनती तो उन्हें गोली का शिकार बना दिया जाता है. अभी हाल में ही शाहजहांपुर के एक पत्रकार को एक खनिज माफिया, जो राज्य सरकार में मंत्री भी हैं, ने पुलिसवालों की मदद से जिन्दा ही जलाकर मार दिया. बहुत हो हल्ला होने पर एफ.आई.आर तो दर्ज हुई, परन्तु विवेचना के नाम पर कुछ नहीं हुआ. न तो पुलिसवालों के खिलाफ कुछ हुआ और न मंत्री का कुछ बिगड़ा. सरकार ने सभी को बचाने के लिए पूरा जोर लगा दिया और मीडिया के शोर-शराबे के बावजूद उसने केवल पुलिसवालों को निलंबित करके विवेचना की इतिश्री कर दी. परिवारवालों ने सीबीआई जांच की मांग की तो उनको तीस लाख का मुआवजा देकर चुप करा दिया गया. मंत्री जी साफ बच गये, परिवार वाले चुप हो गये.

अभिव्यक्ति की आजादी न आम आदमी को है, न लेखक और पत्रकार को. कई बार सरकार भी अपनी मनमानी नहीं कर पाती और वह विपक्ष की आवाज के सामने अपनी आवाज को दबा देती है. घर परिवार में भी कभी पत्नी पति को नहीं बोलने देती तो कभी पति पत्नी को पीटकर उनकी आवाज को विलाप में बदल देता है. बेटा बड़ा होते ही बाप की आवाज को गले के अंदर डाल देता है और सास बहू तो एक दूसरे की आवाज को दबाने का कोई मौका नहीं चूकतीं. अब यह इस बात पर निर्भर करता है कि कौन कितना तेज है. बहू दहेज कम लाती है, तो सास के सामने आवाज नहीं निकाल पाती और अगर वह मनमाने से भी ज्यादा दहेज लेकर आती है, तो सास ही नहीं, पूरे घरवालों की आवाज ही नहीं, सिट्टी-पिट्टी गुम किये रहती है. कई बार इसके उलट स्थितियां होती हैं. अगर बहू थोड़ा सा भी तेज हुई तो वह बिना दहेज के ही ससुराल पक्ष के लोगों को दहेज के मुकदमें में फंसाने की धमकी देकर सबकी आवाज को दबा देती है.

इस प्रकार देखा जाए तो अभिव्यक्ति की आजादी पर इस देश में सबसे ज्यादा प्रतिबंध होते हैं. दूसरे प्रतिबंध कुछ कम, कुछ ज्यादा होते हैं. यह परिस्थिति और आर्थिक क्षमता पर निर्भर करता है, कि कौन स्वतंत्रता का लाभ उठाता है और किस पर कितने प्रतिबंध लगते हैं.

सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं का लाभ सदा ही उसको लागू करनेवाला अधिकारी, कर्मचारी और ठेकेदार उठाता है, चाहे वह सस्ता राशन हो, या मकान. गरीबों को मिलनेवाला मकान अमीरों के नाम पर बुक हो जाता है. अभी पता चला है कि दिल्ली के रोहिड़ी के एक स्कूल में गरीबों के कोटेवाली सीटों पर उद्योगपतियों और व्यापारियों के बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं. उनका प्रवेश फर्जी आय प्रमाणपत्रों के आधार पर हुआ है. सच तो यह है कि गरीब बेचारा अपनी गरीबी का प्रमाण पत्र ही नहीं बनवा पाता, परन्तु अमीर आदमी फर्जी प्रमाण पत्रों के आधार पर गरीब भी बन जाता है, गरीबों की सीट पर अपने बच्चे को दाखिला दिलवाकर उन्हें उच्च शिक्षा भी दिलवा देता है. देश के ये गरीब लोग मर्सिडीज, बीएमडब्ल्यू जैसी कारों में चलते हुए कहते हैं कि रिक्शा में चल रहे हैं और अपने महलों को झोंपड़ीनुमां बताते हैं. ऐसा बताते हुए उनके चेहरों पर गरीबों की दीनता का भाव नहीं होता, बल्कि अरब देश के किसी शेख जैसा गर्व होता है.

सम्पत्ति का अधिकार भी सभी को समान रूप से प्राप्त नहीं है. कोई गरीब है तो कोई अमीर. जो जितनी मेहनत करता है, उतना ही कमाता है, जो जितनी कंजूसी करता, वह उतना ही अधिक बचाता है. लेकिन अमीरी-गरीबी का यहीं एक कारण नहीं है, इसके कई अन्य कारण हैं. जो शोषण कर सकता है, कर चोरी कर सकता है, कालाबाजारी में लिप्त होता है, वह बहुत ज्यादा धनवान बन जाता है. कुछ लोग आपराधिक कृत्यों से धनवान बन जाते हैं, कुछ लोग गरीबों की रोटी छीनकर अपना पेट भरते हैं. लेकिन इस देश में एक बात पूर्णतया सत्य प्रतीत होती है, ''जिसकी लाठी उसकी भैंस'' यानी जो पैसे और शरीर से बलवान होता है, वही भैंस का दूध पीता है, और मूंछों पर ताव देता है. और यह बात भी सच है कि सबके पास धन और बल बराबर नहीं होता, इसलिए सम्पत्ति भी सबके पास बराबर की मात्रा में नहीं हो सकती. सम्पत्ति पर अधिकार वही कर सकता है, जो उसे संभाल सकता है. और उसे संभालने की ताकत हमारे देश में घूसखोंरों, बेईमानों, अपराधियों, उद्योगपतियों, व्यापारियों और नेताओं के पास होती है

. जीवन जीने का अधिकार भी इस देश के नागरिकों के पास बराबर का नहीं है. कोई महलों में रहता है, कोई छोटे घर में रहता है, तो कोई झोंपड़ियों या झुग्गियों में. करोड़ों लेाग ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत के नाम पर पेड़ की छाया भी नहीं है. ऐसे लोग, सड़़क के फुटपाथों ओर रेलवे प्लेटफामों पर जीवन गुजारने के लिए मजबूर हैं. इनकी तरफ न सरकार का, न समाज सेवी संस्थाओं का ध्यान जाता है.

शिक्षा के क्षेत्र में इतनी असमानता है, कि गरीब का बच्चा सरकारी स्कूल मे भी नहीं जा पाता और अच्छे स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए आरक्षित सीटों पर अमीर बच्चे पढ़ाई करते हैं. सरकार ने सरकारी और गैर-सरकारी स्कूलों को मान्यता प्रदान कर ऐसी विषम परिस्थितियां पैदा कर दी हैं कि इस देश के नागरिकों को समान शिक्षा का अधिकार कभी प्राप्त नहीं हो सकता.

हमारे देश के नेता- सांसद और विधायक- स्वतंत्र देश के राजा और जमींदार हैं. यह जनता के प्रतिनिधि होते हुए भी जनता से दूर रहते हैं और जनता की भलाई के लिए लागू की जानेवाली योजनाओं का पैसा हड़पकर अपने परिजनों और संबंधियों के नाम से बड़े-बड़े उद्योग चलाने लगते हैं. बड़ी-बड़ी मिलों के ये मालिक बन जाते हैं, स्कूल और कॉलेज चलाते हैं. ऐसा कोई उद्योग नहीं होता जो नेता नहीं चलाता. माफिया और बिल्डरों से इनकी सांठ-गांठ होती है और उनको संरक्षण देने के नाम पर करोड़ों रुपये इनके खातों में जाते हैं.

इस छोटे से लेख में बहुत सारी बातों का उल्लेख संभव नहीं है. हो सकता है, कुछ ऐसी बातें छूट गयी हों, जिन पर सार्थक बहस हो सकती है. परंतु अंत में मेरा यही कहना है, अंग्रेजों से आजाद होने के बाद भी हम आजाद भारत में सांस नहीं ले रहे हैं. जनतंत्र होते हुए भी जनता बुनियादी सुविधाओं और अधिकारों से दूर है और वह घुट-घुटकर जीने के लिए मजबूर है. बस उसे मताधिकार में समानता प्राप्त है, परन्तु इससे उसके घर में एक जून का चूल्हा भी नहीं जलता.

 

राकेश भ्रमर

संपादक -प्राची

मो. 09968020930

Email: rakeshbhramar@rediffmail.com

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रचनाकार: क्या हम सचमुच स्वतंत्रता की छांव तले सांस ले रहे हैं?
क्या हम सचमुच स्वतंत्रता की छांव तले सांस ले रहे हैं?
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