डॉ. बिपिन चन्द्र जोशी भारत में शुद्ध सोने से मंदिरों का निर्माण किया जा रहा है , अच्छी बात है। भारत समृद्ध देश है। आध्यात्म का प्राण है ई...
डॉ. बिपिन चन्द्र जोशी
भारत में शुद्ध सोने से मंदिरों का निर्माण किया जा रहा है, अच्छी बात है। भारत समृद्ध देश है। आध्यात्म का प्राण है ईश्वर में आस्था। मंदिर ईश्वर का आवास है इसलिये हमारी आस्था का केन्द्र भी है। बड़े-बड़े मंदिरों में करोड़ों रुपये गुप्तदान में प्राप्त होते हैं व लाखों रुपये भेंट स्वरुप प्राप्त होते रहते हैं। प्रत्येक भक्त पुण्यफल प्राप्त करने के लिये मंदिर में भेंट चढ़ाता है। धनाढ्य भक्त ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिये गुप्तदान करता है। इससे तो यही प्रतीत होता है कि हम एक समृद्ध देश में निवास कर रहे है, लेकिन यहां लाखों लोग भूख और बीमारी के कारण मर जाते हैं। गरीबों के पास तन ढकने को कपड़ा नहीं होता, भूख को शान्त करने के लिये रोटी नहीं होती। लाखों गरीब बच्चे भूख, कुपोषण और बीमारी के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं। कहते हैं, बच्चे में भगवान होता है। भगवान कहते हैं, आत्मरुप से मैं दीन-दुखियों में स्थित हूँ। दीन-दुःखी चलते फिरते भगवान हैं। यदि यह कथन सही है तो इन भूखे प्यासे बच्चों और दीन-दुःखियों में इन दानदाताओं को भगवान क्यों नहीं दिखायी देता है?
ये दानदाता भगवान के रुप में इस दरिद्रनारायण को बचाने के लिये दान देकर पुण्य अर्जित क्यों नहीं करते? गरीब की सेवा करने से जो पुण्यफल प्राप्त हो सकता है वह सोने के मंदिर बनाने से व बड़े-बड़े मंदिरों में भारी भेंट व दान देने से कभी नहीं मिल सकता है। दीन-दुःखी, बीमार, लाचार मनुष्यों और अन्य जीवों की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। दरिद्रनारायण, भगवान का ही रुप ह और हमारा आध्यात्म हमें यही शिक्षा देता है कि दरिद्रनारायण की सेवा ही सबसे बड़ी सेवा है, सबसे बड़ा धर्म है।
ध्यान रहे, शुद्ध अन्तःकरण सबसे बड़ा तीर्थ है। अन्तःकरण को शुद्ध करने व शुद्ध बनाये रखने के लिये जो भी प्रयास किये जाते हैं उन्हें ही वास्तविक धार्मिक अनुष्ठान समझना चाहिये। ईश्वर की अनन्य भक्ति व ईश्वर का प्रेम पाने के लिये अन्तःकरण शुद्ध होना चाहिये। मनुष्य अपने सभी मनोविकारों को ज्ञानरुपी अग्नि में स्वाहा कर दे तो यह उसके जीवन का सबसे बड़ा यज्ञ होगा। निःस्वार्थ प्रेम की जलधारा में नियमित डुबकी लगाते रहने से गंगा स्नान से भी अधिक पुण्यफल प्राप्त होता है। हमारे रोम-रोम में श्रीराम निवास करते हैं, यह बात यदि सबकी समझ में आ जाए तो इसे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि कहने में संकोच नहीं होना चाहिये। मंदिर महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, महत्त्वपूर्ण है परम-पिता परमेश्वर के प्रति अटूट आस्था।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।।
तनु तजि तात जाहु मम धामा।
देउँ काह तुम्ह पूरनकामा।।
रा.च.मा. ३/३१/९-१०
जिनके मन में दूसरों का हित बसता है (समाया रहता है) उनके लिये जगत में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है। हे तात! शरीर छोड़ कर आप मेरे परमधाम में जाइये। मैं आपको क्या दूँ? आप पूर्णकाम हैं (सब कुछ पा चुके हैं)। यह बात प्रभु श्रीराम ने जटायु से कही थी। साधुसंत कहते हैं, द्वार खोलो, प्रभु को मन मंदिर में आने दो। अगर प्रभु आ गये तो तुम्हें किसी और की जरुरत नहीं पड़ेगी। लेकिन मनुष्य बहुत चतुर है। सोचता है यदि प्रभु ने मेरे हृदय में डेरा जमा लिया तो मेरी वासनाओं का क्या होगा? हृदय में मेरा परिवार बसता है, प्रियजन बसते हैं। चतुर मनुष्य बंधन में रह कर जीवन जीने का इच्छुक नहीं है। इसलिये उसने भगवान के लिये जगह-जगह मंदिर बना दिये हैं और उनकी पूरी सेवा पुजारी को सौंप दी है। मनुष्य अपनी मनमर्जी के अनुसार मंदिर जाता है, भगवान को हाथ जोड़ता है, उनका हालचाल पूछता है, उन्हें खुश रखने के लिये भेंट चढ़ाता है, पुजारी को खुश रखता है। भगवान से पूछ लेता है मजे में हो, इस घर में कोई तकलीफ तो नहीं है। माता-पिता को प्रत्यक्ष देवता कहते हैं। आजकल मनुष्य प्रत्यक्ष देवता की सेवा भी नहीं करता।
पितृमातृसमं लोके नास्त्यन्यद् दैवतं परम्।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन पूजयेत् पितरौ सदा।। गरुड़पुराण उत्तर ११/३४
माता पिता के समान इस संसार में कोई श्रेष्ठ देवता नहीं है, इसलिये सभी प्रकार से उनकी
पूजा करनी चाहिये।
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः। पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवताः।।
पितरो यस्य तृप्यन्ति सेवया च गुणेन च। तस्य भागीरथीस्नानमहन्यहनि वर्तते।। सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्।। मातरं पितरं चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्।
प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा।।
पद्मपुराण पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है, पिता ही परम तप है, पिता के प्रसन्न होने पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। जिसकी सेवा और सद्गुणों से माता-पिता संतुष्ट रहते हैं, उस पुत्र को प्रतिदिन गंगा स्नान का फल मिलता है। माता सर्वतीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरुप है। इसलिये सब प्रकार से यत्नपूर्वक माता-पिता का पूजन करना चाहिये। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सातों द्वीपों से युक्त समूची पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है।
ऐसे में, जैसे भक्त हैं वैसे ही भगवान भी हो गये हैं। हनुमानजी के भगवान का निवास उनके हृदय में है लेकिन मनुष्य के भगवान की शरणस्थली तो मंदिर ही हैं। जब राम-लक्ष्मण, सीता चौदह वर्ष के वनवास पर जा रहे थे तो मार्ग में उन्हें महर्षि वाल्मीकि मिले। श्रीराम ने उनसे पूछा, हम किस वन में निवास करें? महर्षि ने कहा, आप कहां नहीं हैं, मुझे यह बता दें तो मैं आपको जगह बता दूँगा। महर्षि ने हंस कर मधुरवाणी में विशेष तरह के मनुष्यों के सुन्दर हृदयों को अपना घर बनाने के लिये कहा। इस तरह महर्षि ने सद्गुणों से परिपूर्ण मानव-मानस गिना कर प्रभु को उनके निवास स्थल बताये। क्या आपका हृदय प्रभु का निवास बनने योग्य है? यदि हाँ, तो प्रभु को अपने हृदय में निवास करने के लिये आमंत्रित कीजिये। यदि आपका हृदय प्रभु के निवास योग्य नहीं है तो उसे निवास योग्य बनाइये। जगह-जगह मंदिर बना कर प्रभु को वहाँ निवास करने के लिये बाध्य मत कीजिये। अपने मन को मंदिर बनाइए। यदि आप ऐसा करते हैं तो यही सच्चा पुरुषार्थ होगा। जिस व्यक्ति को अपनी धन-सम्पदा का अभिमान हो, पुरुषार्थ का अभिमान हो, वह कितना भी दान करे भगवान को नहीं पा सकता। भगवान को पाने के लिये अहंकार का त्याग आवश्यक है। यदि इस तरह का अहंकारी व्यक्ति मंदिर में दान देने के बजाय दरिद्रनारायण की सेवा करे तो अपने जीवन में कुछ पुण्यफल अर्जित कर सकता है, भगवान की कृपा पा सकता है।
जिस भक्त की भगवान में अटूट श्रद्धा होती है उसका कभी अनिष्ट नहीं हो सकता। शूर्पणखा की नाक लक्ष्मण ने काटी। किसके इशारे पर काटी? शूर्पणखा (नीलमणि) अपना कामुक श्रृंगार कर हमेशा दूसरों का चरित्र भ्रष्ट करती रहती थी। उसका दर्प दूर करने के लिए ही उसकी नाक काटी गई। शूर्पणखा वासना का रुप धारण कर प्रभु श्रीराम के पास आयी तो उसकी नाक कटी, अपमानित हुई। वहीं दूसरी ओर शबरी ने सच्चे मन से प्रभु श्रीराम की भक्ति की। उसकी भक्ति से प्रभु इतने प्रसन्न हुए कि वे स्वयं शबरी के पास पहुँच गये। गिद्धराज जटायु को प्रभु ने पिता के समान आदर देकर उनका उद्धार किया। भगवान अमीर-गरीब नहीं देखते। जहां सच्चा प्रेम दिखायी देता है भगवान वहाँ पहुँच जाते हैं। जिसके मन में अहंकार हो, धन-सम्पदा का अभिमान हो, मन में वासना हो, उसे निश्चितरुप से अपमानित होना पड़ता है। मंदिर बनाने से, भारी भेंट चढ़ाने से, काले धन का गुप्तदान करने से कोई सुफल प्राप्त नहीं होता। अपने मन को मंदिर बनाइये। गरीब, दीन-दुःखी की सेवा कीजिये। दरिद्रनारायण की सेवा सबसे बड़ा धर्म है, प्रभु की कृपा प्राप्त करने का सुगम साधन है। राजस्थान पत्रिका में गुलाब कोठारी जी का लेख 'मंदिर' पढ़ा। कोठारीजी कहते हैं, किसी भी भवन को मंदिर हम बनाते हैं। न वहाँ का देवता बना सकता न ही वास्तुकार। भक्त में ही शक्ति है सारी। दिल भी मंदिर है। हर व्यक्ति ही चलता फिरता मंदिर है। म+न+द +इ+र म = ध्वनि शब्द, न = शून्य, द = गतिमान करना, इ = इधर, र = देना - ध्वनि को शून्यता देने की ओर गतिमान करना।
यही परिभाषा मन मंदिर पर भी खरी उतरती है। शब्द जहाँ ठहर जाएँ। पष्यन्ति में चित्रात्मक वातावरण बने। मौन रह कर मन के धरातल पर आदान-प्रदान हो सके। शरीर का लोप हो जाए। समर्पण भाव के कारण अहंकार भी कुछ दरे वहां नहीं ठहरे। बस, उसी का साहचर्य हो। ऐसे स्थान को कहते हैं मंदिर। जहाँ शोर हो, मन भटकता रहे, केसर-चंदन में अटका रहे वह मंदिर नहीं हो सकता। हमने तो मंदिर में आज हजारों तरह के शोर -शराबे भर दिये। जुलूस में देवता को शहर भ्रमण पर ले जाते हैं यह धर्म विशेष का अपना स्वरुप हो सकता है, उपासना मार्ग के व्यक्ति का नहीं हो सकता, वह तो वहां जाकर गूंगा हो जाना चाहता है।
भक्त मंदिर जाता है तो वहाँ उस मूर्ति को मूर्तरुप मान कर बातें करता है। अपने मन की, अपने सुख-दुःख की, सपनों की बातें करता है। देवता का साहचर्य चाहता है। दोनों के बीच की दूरी असह्य होने लगती है। वह देवता के साथ एक रिश्ता भी बनाता है। वह पिता हो, माता हो, मित्र हो, प्रेमी हो, कुछ भी हो सकता है। उसी के अनुरुप अधिकारपूर्वक सम्बोधन करता है। यह भी ध्यान रखता है कोई उसके मनोभावों को पढ़ नहीं ले। परोक्षा वैप्रिय देवाः! देवता तो भाव के भूखे होते हैं, उन्हें सामग्री नहीं चाहिये। जो प्रार्थना पूजा-अर्चना पहले करते थे वह धीरे-धीरे छूट जाता है। केवल मन के सूत्र जोड़े रखने का कार्य हो सके। उपासना भक्ति में बदल सके। कितना सुन्दर मंदिर बनाया है परम श्रद्धेय गुलाब कोठारी जी ने। मंदिर चाहे सोने का हो या पत्थर का, यदि हमने उसे मंदिर नहीं बनाया तो उसकी भव्यता एवं वास्तुकला का कोई औचित्य नहीं। मंदिर बनाइये ऐसा, जहां शोर न हो, जहाँ शोर हो रहा है वह समाप्त हो। क्या इस देश में ऐसे मंदिर बनेंगे?
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