डॉ. दीपक आचार्य नियति का कायदा है कि कार्यसिद्धि में सफलता तभी प्राप्त होती है जब कर्ता दूसरे सारे द्वन्द्वों, समस्याओं और विषमताओं स...
डॉ. दीपक आचार्य
नियति का कायदा है कि कार्यसिद्धि में सफलता तभी प्राप्त होती है जब कर्ता दूसरे सारे द्वन्द्वों, समस्याओं और विषमताओं से मुक्त हों। स्थूल रूप में देखा जाए तो हम चाहे कितनी ही विकास की बातें कर लें, जब तक समस्याएं विद्यमान रहती हैं तब तक विकास की बातों का कोई औचित्य नहीं है।
सदियों से सिद्धि पाने के लिए पहले शुद्धि की बातें की जाती रही हैं। सिद्धि अर्थात कार्य में सफलता पाने के लिए यह जरूरी है कि पहले शुद्धि हो, साफ-सुथरा परिवेश हो, समस्याओं से मुक्त, शुद्ध और पवित्र भावभूमि हो। हर आलीशान गगनचुंबी महल के लिए नींव का स्वव्छ और मजबूत होना जरूरी है।
इसी प्रकार इंसान से जिन कर्मों या कर्मयोग में आशातीत सफलता की आशा की जाती है उसके लिए उसका तन-मन और मस्तिष्क सभी प्रकार के द्वन्द्वों, उद्विग्नताओं और समस्याओं से मुक्त होना जरूरी है।
आदमी में अपार क्षमताएं होती हैं लेकिन उसे अंकुरण, पल्लवन, पुष्पन और फलन के लिए अनुकूल आबोहवा, पसंदीदा काम और सुकूनदायी खुशनुमा माहौल प्राप्त होना अनिवार्य प्राथमिकता के साथ ही हर दृष्टि से जरूरी है।
बंजर और मरुस्थलीय भूमि में किसी भी फसल के उन्नत होने की आशा करना दिवा स्वप्न से अधिक कुछ नहीं है चाहे बीज कितना ही दुर्लभ, अमूल्य, वैज्ञानिक विधियों से उपचारित और दुनिया में सभी जगह जाँचा-परखा हुआ ही क्यों न हो। इसमें बीज का दोष नहीं है, स्थानीयता का दोष है जो कि अनुकूलताएं और निर्बाध उन्नति-तरक्की और उपलब्धियां देने लायक है ही नहीं।
यही स्थिति आजकल आदमियों की हो रही है। हर इंसान दिल लगाकर, पूरा मस्तिष्क उण्डेल कर तथा शरीर की सारी ताकत झोंककर वहीं अच्छी तरह काम कर सकता है जहाँ उसे अपने लायक अनुकूलताएं प्राप्त हों, शुद्ध, स्वच्छ, स्वस्थ और शुचितापूर्ण आबोहवा उपलब्ध हो, परिवेश सुकूनदायी हो, कलह, राग-द्वेष का कहीं कोई कतरा न हो, जो लोग साथी-संगी हों, वे दुराग्रहों-पूर्वाग्रहों और कुटिल आग्रहों से मुक्त तथा खुले दिल-दिमाग के हों, सामूहिक कल्याण और विकास में विश्वास रखने वाले हों तथा पूरी स्वाधीनता के साथ कर्मयोग को आकार दिए जाने के लिए संसाधन, समय और मुक्ति भरा परिवेश हो।
इसके साथ ही कर्ता की कर्म के प्रति आत्मीय रुचि तथा हुनर का होना भी बहुत बड़ा आधार होता है। इन सभी प्रकार की पसंदीदा परिस्थितियों भरा माहौल मिलने पर कर्मयोग हमेशा मुँह बोलता है और सुगंध बिखेरता रहता है।
पर हमारे सम सामयिक दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक हालातों के मौजूदा दौर में गुणग्राहियों तथा लोक मनोविज्ञानियों के भारी अकाल के साथ ही प्रतिशोध, स्वार्थ और एक दूसरे को पछाड़ कर आगे बढ़ने जैसी आसुरी मानसिकताओं के चलते सर्वत्र सब कुछ गुड़ गोबर होने लगा है।
इसका सीधा प्रभाव समाज और देश पर यह पड़ रहा है कि उपयोगी व्यक्तियों की अपेक्षित उत्पादकता प्राप्त नहीं हो पा रही है और निरुपयोगी लोगों का रुतबा पाँव पसारने लगा है।
कर्मयोग के प्रति नैष्ठिक समर्पण रखने वाले लोग ठेठ हाशिये पर हैं अथवा व्यवस्थाओं से दुःखी, आप्त और पीड़ित होकर पलायनवादी मानसिकता को अपना चुके हैं। नैराश्य, हताशा और मूक सहनशीलता भरे लोगों का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। अपने-अपने बाड़ों में बहुत सारे लोग ऎसे मिल जाएंगे जो दुःखी व हताश हैं तथा कुढ़ने लगे हैं।
जिन कानों को सुनना चाहिए वे अपने ही पसंदीदा संगीत, खुद की वाहवाही और अपने प्रशस्ति गान को सुन-सुनकर पके जा रहे है।, जिन आँखों को देखना चाहिए उन आँखों में या तो मोतियाबिन्द हो चुका है अथवा एक ही एक किस्म के लोगों को बार-बार, हर बार देखते रहने की महामारी से ग्रस्त हैं।
हताशा, निराशा और व्याकुलता की स्थिति मानवीय परिवेश में सर्वत्र मुखर होने लगी है। कोई भी मिलने पर यह नहीं कहता कि स्वस्थ, मस्त और संतुष्ट है, किसी से कोई शिकायत नहीं है, न जमाने से,न किसी और से।
मानवीय संवेदनाएं, सिद्धान्त, आदर्श, चरित्र और बाकी सारे उपदेश, बोध वाक्य सिर्फ सुनने और किताबों में देखने ही अच्छे लगते हैं। ये सारे शब्द अपनी अर्थवत्ता खो चुके हैं। हर तरफ की खाई बढ़ती जा रही है।
संवेदनहीनता और स्वार्थ के भूकंपों ने मानवीय आदर्शों की भौगोलिकता का विखण्डन कर दूरियां बढ़ा डाली हैं। भरोसे की सारी भैंसे कुटिल स्वार्थों और प्रलोभनों की बाढ़ में बहने का आनंद लेने लगी हैं।
हँसों के भाग्य में कौओं की अगवानी और दण्डवत भाव से आतिथ्य का ही परचम लहराने लगा है, सीप में अब मोतियों की बजाय टकसाल की चाभियां पैदा होने लगी हैं। आदमी अब आदमियत से नहीं आमदनी से नापा जाने लगा है। सारे के सारे व्यस्त हैं अपने नम्बर बढ़ाने में। इन्हें लग गया है कि इन्हीं नम्बरों से निकलेगा अली बाबा के खजाने का पासवर्ड।
आदमी अब आदमी नहीं माना जाता, आदमी ईंधन की तरह इस्तेमाल होने लगा है। जहाँ जरूरत दिखी उस तरफ की भट्टी में झोंक दिया। फिर कोई देखता भी नहीं कि गंगा में प्रवाह में लिए उसकी अस्थियां भी बची हैं या नहीं। किसी को चिन्ता नहीं गति-मुक्ति की।
सभी को लगता है कि आदमी है तब तक मजूर की तरह दिन-रात काम करता रहेगा। मरने के बाद भूत बन गया तब भी ज्यादा काम आ सकता है। चारों तरफ आदमियों से ज्यादा भूतों की जमातें नज़र आने लगी हैं। कहीं बड़े भूत हैं, कहीं छोटे। पर हैं आखिर सारे के सारे भूत ही।
इनका अपना कोई भविष्य नहीं है। ये भूत बने हुए भी जानते हैं और वे लोग भी जानते हैं और आदमियों को भूत बनाने की चौंसठ कलाओं में माहिर हैं। भूतों की विस्फोटक संख्या को देख भौंपों, तांत्रिकों और औझाओं की भी कई-कई जमातें अपने फन आजमाने लगी हैं। पिशाचों की भी जमातें यही सब देख कर मुस्कराने लगी हैं।
कोई भूत उतार रहा है, कोई किसी को भूत चढ़ा रहा है। और बाकी सारे आदमी को निचोड़ने में लगे हैं ताकि जितना जल्दी हो उसे भूत बनाकर ठिकाने लगा सकें। ऎसे में कहाँ तलाशें हम लोग अपना भविष्य? किसी को यह गुत्थी समझ में आ जाए तो बताना।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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