तरूण भटनागर उ स शहर की स्मृतियाँ किराये पर थीं और एक दिन मकान मालिक ने घर से निकाल दिया। वह बेगाने हक वाली स्मृति थी और हमें पता नहीं ...
तरूण भटनागर
उस शहर की स्मृतियाँ किराये पर थीं और एक दिन मकान मालिक ने घर से निकाल दिया। वह बेगाने हक वाली स्मृति थी और हमें पता नहीं था, कि हमें इससे बेदखल किया जायेगा।
बचपन के किसी कोने में कबाड़ इकट्ठा है। रेस कोर्स का छोटा घास का मैदान जहाँ हम शाम को खेलते थे। रिक्शे में माँ और बुआ के बीच धँसे हुए दूर तक चलते गंदे नाले की बू। एक पार्क जहाँ पहले क्वीन विक्टोरिया की मूर्ति थी, बाद में उसकी जगह गाँधी की मूर्ति लगाई गई। कोई टाकीज जिसमें उस दिन राजेश खन्ना की बावर्ची फिल्म लगी थी। सुपर हिट, हाउस फुल और हम बैरंग लौट आये थे। एक दशहरा मैदान और मेला जहाँ मेघनाथ के टूटे हाथ पर चीखती चिल्लाती, विलाप करती किसी औरत का रोना आज भी सुनाई देता है। कोई व्यस्त भीड़़-भाड़ वाला चौराहा, नाम साठा और उसके दो तरफ फैली एक पीली इमारत, हलवाईयों, पनवाड़ियों, पतंग बनाने वाले, चूडी बेचने वाले, दर्जी, खोमचे वाले, चाकू, कैंची की धार तेज करने वाले, ...जाने कितनी छोटी-छोटी दुकानों से भरी हुई। बुआ बताती उसका बचपन यहीं बीता था, कि यहाँ चक्की थी और वहाँ सोने-चाँदी का तार खींचने वाली दुकान। कि जब चक्की चलती तो पूरी बिल्डिंग धड़धड़ाती। कि एक तंग गलियों वाला मोहल्ला है, नाम ईंटारोढ़ी और कुछ दिनों बाद हम वहाँ रहेंगे। पीली कोठी के सामने खिच्चू हलवाई की दुकान। गंगा की एक नहर शायद लोअर गैंजेज, शायद अपर गैंजेज, पता नहीं, पर वहाँ अक्सर हम नहाने जाते। आडू और ककड़ी खाते लौटते...। कितना कुछ तो था। पर उसमें से कुछ भी साथ नहीं हो पाया। यह सब आज भी है, जिसे देखकर जो बीता वह झूठ हो जाता है।
उत्तरप्रदेश का एक शहर है बुलंदशहर। बेतरह छूटकर भी, वह कभी पराया नहीं हुआ। कहीं कुछ बाकी है, खुरण्ट की किसी पपड़ी सा... नाखून से कुरेदकर कहीं कुछ जो हमेशा रहे। शायद।
यह शहर बाबा और दादी का शहर था। पिता और बुआओं के किस्सों और बचपन की यादों ने इसे यही बना दिया। बुलंदशहर याने बाबा और दादी। फिर जब बाबा मरे, यह शहर हमेशा के लिए छूट गया।
दादी को वह जगह छोड़नी पड़ी। वह हमारे साथ आ गई। उसे अपना अकेलापन छोड़कर आना पड़ा। दादी ने उस अकेलेपन को एक नाम दिया था - उनके याने बाबा के साथ बीता समय। दादी कहती वह औरत जो है। औरत को हर छत छोड़नी पड़ती है। ऐसी हर छत जिसे वह अपना कह देती है। ऐसी हर छत, जिसे अपना कहने का उसका मन करता है। या वह हंसकर या रोकर उसे अपना कह देती है। दादी रुआंसी होकर कहती कि यह औरत का दुस्साहस है, कि फिर भी वह किसी शहर या घर को अपना कहती है। ... वह बताती कि बुलंदशहर उसकी दूसरी छत थी। पहली छत याने उसका मायका, पिता का घर।
दादी की पहली छत मरते तक उसकी पसलियों पर चिपकी थी। उसके मरने के बाद वह मेरे घर की दीवार पर चिपक गई। अब भी दीखती है। हमेशा। रोज। बिल्कुल सामने। मैं उसे ही लिख रहा हूँ। यह कहानी वही है। बरसों पहले वह मकड़ी होकर दीवार पर जाल बनाकर बस चुकी है। दादी बताती, कि मकड़ी का जाला, जाला नहीं है, वास्तव में वह घर है। मकड़ी का घर। जाला याने दादी की पहली छत।
बात - बात में यह पहली छत होती और ज्यादातर बातें उसने हमें पहले से बताई होती। मुताबिक दादी, वास्तव में उसके पास बताने को अब कुछ बचा ही नहीं था। बताने को कुछ भी नहीं था, फिर भी वह बताती और हम कहते कि अब आगे यह होगा, कि वह होगा, लोगों सुनो, घर के सब लोग सुनो, आगे के समाचार, कि दादी अब यह बात बतायेगी, बात इस तरह है कि...। हम दादी की बातों की साइकिल चलाते। ट्रिन - ट्रिन ...तो बात यह है, कि। दादी चिढ़ती। हमारा जब चुहल करने का मन करता, तो हम उस पहली छत की बात छेड़ देते और दादी की आँखें चमक जातीं। वह अपना काम एक तरफ सरकाकर हमें यूँ बताती जैसे पहली बार बता रही हो। उसे हमारी चुहल समझ नहीं आती और जब हम एक साथ हँस देते.... दादी का मुँह खुला रह जाता। वह लुटी-पिटी हमें टुकुरती या ' अरे हट ' कहकर हम पर हाथ से झलने वाला पंखा फेंककर मारती। वह बात हमेशा से किसी मजाक या हँसी की तरह ही रही, जब तक कि वह वाकया नहीं हो गया।
महाभारत। '
' हम इसे रज्मनामा कहते थे। '
' क्योंकि यह उर्दू में था। है ना दादी...।'
' हाँ पुत्तर... उधर उर्दू ही थी। सबकी बस एक ही जबान, हिन्दी तो इस मुल्क की जबान ठहरी। हमारे तरफ की नहीं। या तो उर्दू या फिर अंग्रेजी। हिन्दी तो बिल्कुल बेगानी ठहरी। '
मुल्तान। पाकिस्तान का एक शहर।
दादी मुल्तान को तब भी अपना मुल्क कहती। हम उसे चिढ़ाते कि दादी तो फिरंगी है, दूसरे मुल्क की...। कि दादी ठेठ परदेसी है। एक बिल्कुल बाहरी चीज की तरह। हमारे बीच दादी को लेकर तरह-तरह के किस्से थे, जैसे दादी की आँखें नीली हैं, पर उसने उस पर काला लैंस चढ़़ा लिया है। वह विदेशी जो है। फिरंगन। कि दादी एक ना एक दिन अपने मुल्क चली जायेगी। कभी किसी रात जब हम सो रहे होंगे, तो दादी उठेगी और चुपके से घर से निकल जायेगी। मैं अक्सर रात-बेरात खटका होने पर खिड़की का पर्दा हटाकर देर तक घर के मेन गेट को ऊंघता टकटकाता। क्या पता दादी हो ? अगर वह सचमुच चली गई तो।
'उस तरफ के लोग सेरैकी बोलते थे। बड़ी मिठ्ठी जबान है। बड़ी सोनही। '
'मिसरी जैसी...। '
आगे की बात हम पूरी करते, यद्यपि किसी भाषा का मिसरी होना बड़ी बौड़म सी बात लगती, पर टेपरिकार्डर की तरह हमें पहले से पता होता कि दादी अब क्या कहेगी...। दादी के किस्से जो हमने हजारों बार सुने थे। वही बातें, बिल्कुल वही, एकसी।
बलूचकी, जगदाली, बहावलपुरी, थलोची... और भी कई किसम की सेरैकी...।
'... डेरावाली, मुल्तानी, शाहपुरी...'
'हाँ वही पुत्तर, वही। '
सेरैकी की तारीफ कर दो और दादी की कही बातें दुहरा दो, तो दादी अपने पिटारे में से मुरब्बा या गटागट खाने को देती..। हमें पता था। सो इस बोर और बेहद बेजान सी बात को भी मुरब्बे और गटागट के लालच में हम चहककर कहते...। दादी की आँख में झाँककर कहते। सेरैकी सचमुच मीठी जुबान थी। वह मुरब्बा और गटागट थी।
'मुल्तान के गली - कूचों में हम गिलहरी की दौड़़ दौड़ते। रानी, शब्बो, काफी, जाहिदा, मुन्नी...। रोज शाम घर के पल्ली तरफ गिट्टा खेलने इकट्ठा होतीं...। मुल्तान में डेरा अड्डा से शेरशाह वाली रोड पर ही तो था, हमारा घर। नादिराबाद में। कच्चा फाटक से लगा हुआ... बस वहीं पर।'
' लकड़ी का नुकीली कीलें ठुका दरवाजा...। घर के भीतर से उठकर पूरी गली को पार कर जाने वाली अम्मा की आवाज...। गेरू के पत्थर से लकीर खींचकर बनाया गिट्टा, दस खाने और चार समुंदर वाला... है ना दादी। '
दादी मुस्कुराती, जैसे उसने बड़ी अनोखी चीज हमें सिखाई हो। कई बार माँ दादी को कहती- ' ये क्या बताती रहती हो, बीवी जी। कुछ इनकी पढ़़ाई लिखाई का ही बता दो। आपकी तो अंगरेजी भी अच्छी है। पिछली बार काकू के कितने कम नंबर आये थे। ' माँ कभी-कभी पिताजी को कहती, कि वे दादी को बोलें, कि रोज के मुल्तान के एक से टेपरिकार्डर की बजाय बच्चों को कुछ पढ़़ा ही दें। पिताजी कभी कदास अनमने ढ़़ंग से कह भी देते। फिर उल्टे माँ को ही समझाते, कि अम्मा तो ऐसी ही है... वो तो पिताजी से भी यही बातें कहती थी। अक्सर। फिर पिताजी याने हमारे बाबा जी, दादी का मजाक बनाते - 'क्या पराये मुल्क का ढ़़़िंढ़़ोरा बजाती है, रोज की एक सी फटीचरी कनखटी बात...। कभी तो कुछ और भी बताया बोला करे। हर वक्त बस मुल्तान...। '
पिताजी बताते जब वे छोटे थे, तब वे सब भी दादी पर हँसते थे। पर दादी नहीं बदली। तमाम हँसी-ठिठोली, उलाहना और लोगों से कंझा जाने के बाद भी, वह बात दादी कहती रही। पूरे मन से कहती। डूब - डूबकर। बिना किसी चिंता के, कि लोग हँसेंगे और बरसों बाद भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के कई सालों बाद, मुल्तान की घिसी पिटी बात पर लोगों को दादी का मजाक बनाने के अलावा कुछ और सूझता ही नहीं। कि मुल्तान की बात उसको बौना बना देती है, आडे टेढ़़े पैरों वाला जन्मजात बौना जिसे देखकर लोग हँसते हैं। बिना जाने बूझे की ही, ही, ही...। हर बात के बाद भी दादी ने भरे हुए चेहरे के साथ बार - बार और सबसे ज्यादा बार बस मुल्तान की ही बात की। पिताजी कहते दादी ने सारा जीवन कहा, अब बुढ़़ापे में भी कुछ बदलेगा क्या? ...वे सही थे, दादी कभी नहीं बदलने को थी।
दादी माकूल जवाब ढ़़ूँढ़़ती - ' कुल जमा यही बातें तो हैं। या तो पीहर या ससुराल। याने मुल्तान और बुलंदशहर...। याने दो समय के दो घर। पहला पिता का और दूसरा खसम का। बता तीसरा घर मैं कहाँ से ले आऊँ। तीसरी कौन सी जगह की बात मैं करूँ।' फिर रुआँसी होकर कहती - ' औरत पर बात करने को क्या होवै है ? घर की चिक्क-पिक्क और छुटपन की यादों के अलावा। बहू को ही लो। कौन सी अनोखी बात करै है। दिल्ली के विल्सन स्क्वेयर वाला घर और यह घर, इसके अलावा और क्या। बोलो। '
दादी खूब कहती। टूटकर गरजकर कहती। दादी कहती औरत को घर छोड़ना होता है। दुनिया में किसी का घर नहीं छूटता सिवाय औरत के। यहाँ तक की जानवर का भी नहीं। यहाँ तक की कुत्ते का भी नहीं। कुत्ते का भी अपना एक इलाका होता है और मुताबिक दादी वह उसका कस्बा और उसके घर जैसा होता है। तभी तो जब दूसरे कुत्ते उसे वहाँ से खदेड़़ते हैं, तब वह उनसे लड़ पड़ता है। बहुत से कुत्ते उसे नोचते हैं, उसे काटते हैं, पर फिर भी वह वहीं रहता है। हाँ उसका घर होता है। पर हमारे यहाँ... दादी धीरे से कहती - औरत कुत्ते से भी नीची मानी गई। जब मुल्तान की बात का माकूल जवाब ढ़़ूँढ़़ना होता तब गुस्से से कहती- हाँ औरत कुत्ते से भी नीची मानी गई। दादी ऐसा कहते - कहते माँ को देखती और माँ दादी को, पर दोनों एक दूसरे से कुछ नहीं कहतीं। यह बात दोनों के बीच ठण्ड में रजाई दुबकी बात थी। एक टकटकाती चुप्पी और उन दिनों हम यह नहीं जानते थे, कि यह भी बात करने का एक तरीका है। कि दादी का जितना मुल्तान हमने बातों में सुना था, उससे कहीं ज्यादा मुल्तान ऐसी हजारों टकटकाती चुप्पियों में भी था।
माँ दादी की बात पर सहमत थी। कि, दादी ठीक कहती थी - हमारे यहाँ औरत,सबसे अधम जानी गई। ... से भी अधम। इधर भारत में भी और उधर पाकिस्तान के मुल्तान में भी। हर तरफ। हर जगह।
सो दादी सबकुछ सुन ले, मान ले...। पर जहाँ कोई कहे कि मुल्तान की बात ना करो, तो दादी एकदम से गोल गाँठ हो जाये। चाहे जितना मर्जी चिढ़़ा लो, जितना मर्जी मजाक बनाओ, जो करना है करो... पर यह मत कहो कि मुल्तान की बात मत करो। दादी एकदम से डिफेंसिव हो जाती... बता मुझ पर बात करने को है ही क्या ? औरत पर बात करने को क्या धरा होवै है ?
धीरे-धीरे मेरे सामने एक रहस्य खुलने लगा। यह रहस्य आजतक किसी को नहीं पता, मेरे घरवालों को भी नहीं और आप पहले - पहल ऐसे शख्स हैं, जिसे यह पता चल रहा है। मुझे यह बात कई दिनों बाद पता चली थी। दादी ने कहा किसी से ना कहना, सो आज तक नहीं कही। बात ही ऐसी है। शायद यह बात कहानी में कही जा सके। किसी और तरह से नहीं। मेरे घरवाले भी अगर यह बात जानें तो इस कहानी से ही जानें। अब तक कोई मौका बना नहीं,यह बात कहने का। कोई दीगर मौका होगा भी नहीं।
वह बात इस तरह है।
दादी के कमरे में मुल्तान हर जगह था। बहुत सारी चीजें। बहुत सारा मुल्तान। बहुत पुरानी उर्दू की स्कूल की एक किताब। जिसके एक अधफटे पन्ने के पीछे पेंसिल से बिंदु मिलाकर चौखट्टे बनाने वाला अधूरा छूटा खेल था.....जो अढ़़सठ साल पहले दादी और शब्बो ने खेला था। दादी मानती इसमें से आज भी शब्बो की खुशबू आती है और अगर यह खेल पूरा होता तो दादी जीतती... देखो,देखो, दादी के 'आर', शब्बो के 'एस' से कितने ज्यादा हैं। दादी का सबसे ज्यादा विश्वास मुझ पर था और धीरे-धीरे उसने मुझे अपना पूरा मुल्तान दिखाया था। वह कहती दूसरों का क्या है, सब मजाक बनायेंगे। फिकरे कसेंगे कि, बुढ़़़िया तो ताजिंदगी की पागल है। बँटवारे के पहले की पागल। भारत और पाकिस्तान के पहले की पागल। और उस पागलपन को आज तक अपनी छाती से लगाये है। कहेंगे कि ठीक है, बातों तक तो ठीक है ....वैसे भी दादी किसकी सुनती है। मुल्तान की बात करना तो उसकी रोज की दाल-रोटी है। पर मुल्तान की चीजों को आज तक संभालकर रखना, वह भी तुच्छ और घटिया किस्म की चीजें....?
दादी को भटकता डर लगता, कि कहीं पता चलने पर लोग उसके कमरे से मुल्तान को निकाल ना फेंके। कूड़ेदान में ना डाल दें। खासकर उसका बेटा और बहू। उसने एक बार मुझे बताया था, कि जो लोग मुल्तान की बात से ही चिढ़़ते हैं, उन्हें तो उसके कमरे का मुल्तान फेंक ही देना है। सो वह यह बात किसी को नहीं कहती है। उसे खुद नहीं पता कि वह क्योें नहीं इस अल्लम टल्लम को फेंक पाती है। वह अकारण उसके पास रह आया। दादी बुझती हुई कहती - ' बेवजह है सो टिका है, वजह होती तो वह खुद ना फेंक देती।'
.........अखरोट की लकड़ी की टूटी-फूटी पिटारी जो वह अपने पिता के साथ मौलवी की दरगाह के पास से उन्नीस सौ बत्तीस में खरीद लाई थी, जिसमें बरसों तक दादी की माँ कटी सुपारियाँ रखती थी। मुल्तानी मिट्टी की दो पट्टियाँ, जो उसके अनुसार ओरिजनल मुल्तान की ही है। दो पुरानी तस्वीरें जिन्हें बाद में उसने जतन से लैमिनेट करवाया था- मुल्तान की किसी चमनजार-ए-अस्कारी नाम की झील के किनारे माँ और पिता के बीच ब्लाउज-घाघरा पहरे एक लडकी, याने दादी और कंपनी बाग में तीन लड़कियाँ-दादी, शब्बो और जाहिरा... दादी कहती उसकी चोटी सबसे मोटी और लंबी थी, क्लास की सारी लड़कियाँ उससे इस बात पर चिढ़़ती थीं।
बासठ साल पुरानी बात। लालाराम हलवाई की दुकान के सोन हलवे का टीन का डब्बा,......जिसमें उर्दू में जाने क्या-क्या लिखा था। रज्मनामा की एक पुरानी फटी-बिखराती किताब जो उन दिनों बारादरी से उसकी माँ खरीदकर लाई थी और बाद में उर्दू में उसे पढ़़कर माँ को सुनाती थी। जिसे सुन देखकर दादी की माँ की आँखें भर-भर आती थीं.......। एक भर्रू, पीतल का छोटा ताला, पाँचवी दर्जे की स्कूल की मार्कशीट, पुराने रंग खो चुके गोटे, सलमा-सितारे, चटके कांच वाला दादी की माँ का चश्मा, कुछ पुरानी चिट्ठियाँ, एक पुराना मुड़ा-तुड़ा पीतल का हार, ऊन की एक छोटी बिछात ..... दादी के कमरे में बहुत सारा मुल्तान था, जिसे दादी संभालकर अपनी पेटी में ताला लगाकर रखती। उसने किसी को नहीं बताया, कि बँटवारे के समय जब उसने घर छोड़ा था, तब वह थोड़ा सा मुल्तान अपने साथ ले आई थी, जो आज तक उसके पास है।
मुताबिक दादी मुल्तान हर वक्त चहकने, हल्ला गुल्ला करने और कभी ना थकने वाला शहर जो है। सो वह अपने साथ ले आई। दादी कहती अस्सी साल की उमर में भी वह जो इतनी तंदरुस्त है, वह कुछ और नहीं मुल्तान ही तो है। वर्ना तो उसे अब तक मर जाना था। मुल्तान कभी धोखा नहीं देता। दादी की आँख, जो हमारे अनुसार फिरंगी वाली नीली आंख है, मुल्तान के कारण ही तो चमकती है। दादी कहती मुल्तान ने उसे कभी अकेला नहीं छोड़ा। जब वह अकेली हो जाती, मुल्तान उससे बात करने या अपनी दुनिया में ले जाने के लिए आ जाता। मुल्तान दादी से खूब बातें करता। दादी से कहता कि वह कहे। बस कहती रहे। कि वह तमाम उलाहनाओं और झल्लाहटों के बाद भी कहे ....कि कहना जरूरी है। दादी का मुल्तान दादी से कहता, कि कहना जरूरी है, कि चुप रहना इंसान की फितरत नहीं। कि इंसान ही है, जो कहता है। जानवर चुप रहते हैं। कि बताओ कभी किसी ने देखा कि जानवर बात कर रहा हो? कि चुप रहना याने जानवर होना और बोलना याने इंसान होना। फिर बताओ दादी क्यों ना मुल्तान को कहे। कि मुल्तान को ना कहकर चुप रह जाना बड़ा गलत है। दादी हाथ फैलाकर बताती, कि मुल्तान पर चुप रह जाना इतना सारा गलत है। मुताबिक दादी बस इसी तरह तो इंसान जानवर बन जाता है।
दादी बताती मुल्तान ने उसका खून बढ़़ा दिया है। वर्ना बुढ़़ापे में कहीं खून बढ़़ता है। दादी कहती मुल्तान ने उसकी धौंकनी को लय दी है। जब शाम को दादी घूमकर आती है, तो जो उसकी छाती दचकी पिचकी मशक की तरह फूलती पिचकती है, वह मुल्तान ही तो है। एक दिन दादी ने पिताजी और मां को झल्लाते हुए कहा था - ' सबर करो, मुल्तान भी छूट जाना है। .....जब यह बुढ़़़िया मरेगी तब मुल्तान भी छूट जाना है। हां उस दिन छूट ही जाना है ...।'
.........और फिर दादी रोने लगी थी। मुल्तान के खत्म होने के लिए, दादी का मरना जरूरी था और हम कोई ऐसा शहर नहीं जानते थे, जो किसी के मरने के साथ ही खत्म हो जाये। ऐसे शहर बहुत कम होते हैं, बहुत कम, जो किसी के मरने पर खत्म हों शहर जो आज तक सिर्फ इसलिए हैं, कि कोई बुढ़़़िया अभी मरी नहीं है। सालों साल में जाकर किसी शहर का वजूद इस तरह का हो पाता है। मुल्तान दादी की सांस से साँस लेता है। जब दादी का दिल धड़कता है, तब मुल्तान की रगों में खून दौड़़ पाता है। जब दादी आँख बंद करती है मुल्तान तभी सो पाता है। मुल्तान पूरी तरह दादी पर टिका है ... यहाँ तक की उसका समय भी दादी की उस चाबी वाली बड़ी दीवाल घड़ी से चलता है, जो बाबा अपने समय में लाये थे और जो किसी को नहीं मालूम कब से दादी के कमरे में लटकी है।
दादी बताती वह बड़ी डरावनी रात थी। 14 अगस्त 1947। घर के बाहर खड़े माँ-बाबू जी, दादी को बुला रहे थे,। उन्हें अभी जाना है। अभी ही। तुरंत अभी। एक पाई इधर उधर नहीं। बिल्कुल अभी। सारे शहर में कोहराम मचा था। दादी को उसकी माँ ने बताया था, कि वे अब जा रहे हैं। कि उन्हें जाना है। हमेशा के लिए। इस हमेशा के लिए अब उनके पास एक पल भी नहीं। एक सेकेण्ड नहीं। माँ-बाबू जी बुला रहे थे और वह तब भी कुछ चीजें बटोर रही थी। कुछ चीजों को छोड़ जाना उसके बस के बाहर की बात थी। पर कुछ चीजों को छूटना ही था।
दादी खुद को समेटती हुई कहती - कितना तो छूट गया........। दादी बताती जो छूटा। डेरा गाजीखान से घंटे दो घंटे के फासले पर खड़ा कोई सुलेमान पहाड़ और फोर्ट मुनरो, जो आज भी दादी के सपनों में आता है और उन दिनों उसकी जिद में था ..। दादी बताती वह बहुत दिनों तक भागमभाग और मारकाट के बाद बचे सामान में कितना कुछ ढ़़ूँढ़़ रही थी, दादी की मुल्तानी खुस्सा (परंपरागत मुल्तानी जूते), एम्ब्रायडरी वाले कपड़े, ऊंट के चमड़े का कोई बड़ा सा लैंप, मिट्टी के बर्तन जिसे दादी ने माँ के साथ मिलकर रंगा था.... उस दिन वह एक बेगाने और रोते गिड़गिड़ाते लोगों के तंबुओं वाले कैंप में थी और तब वे सब एक नई बिरादरी में शामिल हो चुके थे। उस बिरादरी का नाम था - शरणार्थी। वे सब वहीं थे। किसी पराये और बहुत दूर के अजनबी देश हिंदुस्तान में। एक पराई जमीन पर, जिसे उन दिनों नया - नया नाम मिला था - भारत। एक बेगाने से शहर के खाली और मनहूस कोने में। वह अमृतसर कैंप था। दादी बताती बस वहां एक बोर्ड भर नहीं लगा था - सभी शरणार्थी, भिखमंगे, अभागे, रोतड़े और पराये लोग... कृपया इस रास्ते से आयें.... ? इसके अलावा वहां बाकी सब था ? दादी बताती आते समय बाबू जी ने पूरी दो गठरियां फेंक दी थी। सामान साथ ले चलना मुनासिब नहीं था और सारा सामान यहाँ वहाँ बिखर गया .... लोग उस सामान को कुचलते रेलमपेल में चल रहे थे और बाबूजी दादी का हाथ खींचते घसीटते भीड़़ में रत्ती - रत्ती बढ़़ रहे थे। दादी उन चीजों की ओर इशारा करती रोती रही थी। वह भारत - पाकिस्तान सीमा पर किसी नदी पर एक सकरा पुल था और वहां अक्सर लाखों की रोती- बिलखती भीड़़ में लोग कुचलकर मरते थे। दोनों तरफ की सरकारें गिन लेती थीं, कि आज कितने मरे। मरने वाले नंबरों में से कितने उनके और कितने दूसरे के। कि दोनों नंबरों को जोड़ने पर मरने वालों की सही संख्या आती है, या नहीं। उसी जगह पर। ठीक वहीं। दादी बताती उनके बाबू जी कहते थे, कि वे, माँ और दादी सब मरने को तैय्यार हैं। वे तैय्यार हैं, कि धड़धड़ाती और ठसाती भीड़़ उन्हें कुचलकर मार दे। वे तैय्यार हैं, कि कुछ लोग तलवार, बल्लम, छुरा, लाठी लेकर उन पर टूट पड़ें और उन्हें बेरहम तरीके से मार डालें। वे तैय्यार हैं, कि ...। दादी के पिताजी, दादी की माँ के कान में कांपते होठों से फुसफुसाते .... कि, वे तैय्यार जो हैं और दादी की मां एकदम से दादी को अपनी छाती से लगा लेती और जोर - जोर से बिलख - बिलखकर रोती। दादी के पिताजी सुबुकते। वे सचमुच तैय्यार थे।
दादी बताती वह दिन था, कि उस दिन छूटे थे, कुछ लोग। दादी कहती - बलूच, पश्तो, पंजाबी,सेरैकी, सिंधी,...। और रह आये थे, उनके अनगिनत किस्से। पर उन किस्सों का मतलब एकदम से बदल गया था, उस कैंप में किसी ने उसको थप्पड़ मारा था, जब वह एक पश्तो गाना गुनगुना रही थी - 'नामुराद। पाकिस्तानियों का गाना गाती है। उन हरामजादों का ....। ' चीजें एकदम से बेगानी और दुश्मन हो गयी थीं। फिर भी दादी बोलती रही। दादी कहती उस समय भी उसने कहा। दादी अपनी तार- तार छाती फुलाकर कहती -हाँ मैंने तब भी कहा। दादी बताती किसी चमनजार-ए-असकारी नाम की झील और किसी कंपनी बाग के बारे में ... बताती किसी सूर्य मंदिर और सूरजकुण्ड के बारे में। वह कहती मैं तो तब भी कहने से कहाँ रुक पाई थी। हाँ उन दिनों भी,जब लोग वहां का कुछ भी सुनना नहीं चाहते थे। जानना नहीं चाहते थे। दादी तब भी कहाँ चुप रही। दादी बताती वह सब जो छूटा था और जिसके बारे में बाद में उसने जाना कि छूटा नहीं था,बल्कि बाकायदा छीन लिया गया था।
दादी को यह बात उसके पिताजी ने बताई थी, कि कैसे छीना गया। पिताजी ने बताया था - कि दुनिया में ऐसा कोई कायदा नहीं, जिसमें लोगों से पूछा जाय और फिर उनके मुताबिक शहर या देश अपनाने या छोड़ने की बात हो। अगर कोई कहे कि ऐसा कायदा, ऐसा कानून होना चाहिए तो लोग उसे बेवकूफ कहते हैं। बड़ी सीधी सी बात है, अगर वे लोग तुझसे और मुझसे पूछते तो क्या भारत और पाकिस्तान हो पाता ... नहीं ना, सो उन्होंने नहीं पूछा और यह सारी दुनिया जानती है, कि कोई अपना घर, अपना शहर नहीं छोड़ेगा ... कोई नहीं। सो एक ही तरीका है, कि उन्हें जानवरों की तरह खदेड़़ दो। उन्हें भिखमंगा बना दो, उनको मजबूर कर दो कि वे अपना सबकुछ खोने को तैय्यार हो जायें ....।
छीनने वाली बात अचानक खुली थी। उस दिन दादी के पिताजी को जाने क्या हो गया था, कि वे पूरी रात सो नहीं पाये। .... उस दिन उन्हें अपना घर बहुत याद आया था। उस दिन रुँधे गले से उन्होंने यह सब दादी को कहा था ..।
.....दादी आज भी मुल्तान शहर के परकोटे वाले दरवाजों से तांगे में बैठकर शहर के अंदर बाहर हो जाती है - दिल्ली दरवाजा, बोहार दरवाजा, हरम दरवाजा, ...... और बहुत से टूट - बिखरकर खत्म हो गये दरवाजे - कोई दौलत और लाहोरी दरवाजा और कोई पाक दरवाजा ...जहाँ उन दिनों कुछ लोगों ने कच्चे - पक्के घर बना लिये थे। तांगा एकदम से उलट जाता, दादी चीखकर जाग जाती ....हम हड़बड़ाते से दादी को झकझोरते... दादी, दादी....। दादी कहती - कुछ नहीं बुरा सपना था। उन्होंने सपने वाले मुल्तान के बारे में कभी नहीं बताया। एक बार उसने चुपके से मुझसे बस इतना ही कहा था - कि वह नहीं चाहती कि लोग उसके सपने पर भी हँसे।
दादी के अनुसार संसार की सबसे सुंदर जगह है, मुल्तान किले का कोई कासिम बाग नाम का पार्क ....और सबसे सुंदर फूलों का बाजार है- कोई फूल हट्टान वाली मस्जिद के पास जो शब्बो के घर से लगा हुआ था। शायद वह आज वहीं पर हो। शायद।
एक दिन पेपर में खबर आई, कि मुल्तान में बहावल हक की दरगाह के पास वाले प्रहलादपुरी के पुराने मंदिर के नरसिंह भगवान की मूर्ति कोई नारायण दास नाम का बाबा अपने साथ, भारत ले आया था और वह मूर्ति हरिद्वार में है। दादी ने बार - बार वह खबर पढ़़ी और तबसे दो बार हरिद्वार जाकर उस मूर्ति के दर्शन कर आई.....।
दादी की हर कहानी कहीं पहुँचकर अटक गई थी। शब्बो की कहानी, मुन्नी की कहानी, स्कूल की कहानी, साहिवाल के आमों के बगीचों के किस्से, पश्तो और बलूचों की बेवकूफियों के किस्से, जामिया मस्जिद की कहानी, गिट्टे के खेल की कहानी, घर के कीलों वाले लकड़ी के दरवाजे की कहानी........बहुत छोटी-छोटी चीजों की कहानी, जो एक जगह जाकर रुक जाती। हम पूछते - 'दादी फिर क्या हुआ ?' 'बताओ ना दादी फिर क्या ?' दादी, दादी फिर क्या ? 'बोलो ना ?' दादी साँस छोड़ती कहती - 'होना क्या था, हम पाकिस्तान छोड़कर चले आये। मुल्तान हमसे छिन गया।'
अक्सर कहानियों का अंत यही था। लकड़ी के कील वाले दरवाजे की कहानी का अंत भी यही था और बलूचों के बेवकूफी भरे लतीफों का भी। ज्यादातर कहानियों का। पर दादी मानती रही, कि यह अंत नहीं था। उसने मरते तक माना कि ठीक है, कहानी यहीं पर खत्म होती है, कि इसके बाद उसके पास बताने को कुछ नहीं है,.......कि इसके बाद वह हार जाती है। माँ दादी पर हँसती -' बीवी जी की बातें भी उनकी ही तरह हैं - आधी अधूरी। ' दादी कहती, कि मुल्तान के किस्से आधे अधूरे नहीं हैं, उन्हें तो आधा - अधूरा बनाया गया है। जानबूझकर। वह कहती - 'पता है संसार में आज तक इतने सारे लोगों को अपना घर, परिवार और शहर नहीं गँवाना पड़ा जो उस समय छोड़ना पड़ा था।' कि कोई रैडक्लिफ था, उसने एक लाइन खींची थी। करोड़ों लोग लाइन के इधर और करोड़ों उधर। करोड़ों लोगों के घर लाइन के उधर और करोड़ों के इधर। लाइन के इधर पाकिस्तान और लाइन के उधर भारत। इधर मुल्तान और उधर बुलंदशहर। लाइन के एक तरफ दादी और दूसरी तरफ शब्बो। दादी कहती - कसम से। यह सब सच है। किताबों में लिखा है। करोड़ों लोग यतीम हो गये थे, बेघर, बेपरिवार और बेजमीन, इंसान और जानवर दोनों एक जैसे। करोड़ों लोगों को भेड़ - बकरी बनाकर हुजूम में इधर से उधर किया गया। मुल्तान ही क्या .....दादी बताती, भारत और पाकिस्तान के हजारों शहरों और लाखों घरों के किस्से और बातें आधी - अधूरी रह गईं, कि जिस तरह दादी हार जाती है, वैसे करोड़ों बुड्ढ़े - बुढ़िया हैं, जो बार -बार हारते हैं। इधर भी और उधर भी। अधछूटते किस्से और कहानियाँ उन्हें बार -बार हरा देती हैं। दादी बताती उनमें से कुछ लोग इस तरह हारकर चुप हो जाते हैं। कुछ लोग हारकर गुस्सा होते हैं। कुछ रोते हैं। दादी कहती, पर यह गलत है, कि किसी को इस तरह हरा दिया जाय, गंदे और गलत तरीके से कि वह, बस हारता ही रहे ....सुबह, शाम, दोपहर ... बस हार ही हार। पूरे जीवन बस हार।
दादी काँपती रुआंसी आवाज में हम बच्चों से कभी पूछती - बताओ हमने इनका क्या बिगाड़ा था ? बोलो, बोलो ?... और हम हक्के बक्के से दादी को ताकते, उसको झकझोरते .... दादी बोलो ना, बोलो ना किसने बिगाड़ा ? कौन था ? कि इस बात का मतलब क्या है ? कि वह बिगाड़ने वाला कहां रहता है ? कि .... ? दादी चुप हो जाती। अपनी चुन्नी से अपनी आँख और नाक पोंछती। हम सब खेलने चले जाते। हम आपस में बात करते, कि दादी जाने कैसी बहकी - बहकी बातें करती है। माँ शायद ठीक कहती है, कि दादी को तो बे सिर पैर की बात करने की आदत है। पर दादी के पास इस बात का भी जवाब था। वो कहती, जब हम सब बड़े हो जायेंगे, तब इस बात का सिर और पैर ढ़ूँढ़ लेंगे ... बस बड़े भर हो जायें, यह बात फिर बेसिर पैर की नहीं रह जानी है।
दादी का मुझ पर इतना विश्वास जमा कि उसने मुझे एक बार कह दिया कि, जब वह मरेगी तो उसके पहले वह अपने कमरे का अल्लम टल्लम मुल्तान मुझे दे जायेगी। उसे यकीन है, कि मैं इसे सँभालकर रखूंगा। उसे किसी और पर यकीन नहीं है।
यह विश्वास उस दिन मजबूत हुआ था।
हुआ यूँ कि उस दिन हम सब दिल्ली जा रहे थे। जब बुलंदशहर आया, पिताजी ने कहा यहाँ थोड़ा रुकेंगे....गंगा की नहर के पास। हम कुछ देर वहाँ रुके रहे। खेलते - बतियाते रहे। बचपन की बातें करते। पर दादी वहां नहीं थी। दादी गाड़ी में ही रही और हमारे बीच नहीं आई। पिताजी ने कहा, मैं दादी को बुला लाऊँ। जब मैं गाड़ी के पास पहुँचा तो देखा, कि दादी गाड़ी में बैठी रो रही है। उसने मुझसे कहा कि मैं किसी को ना बताऊँ कि वह रो रही है। मैंने नहीं बताया। उस दिन शाम घर में बड़ा तमाशा हुआ। दादी एक चालीस साल पुरानी बात ले बैठी और पिता जी पर लाल पीली हो रही थी।
........बता। तू क्यों घर छोड़कर चला आया था। बोल। तू ना आता तो आज भी मैं वहीं होती। बोल तूने ऐसा क्यों किया था ? बोल......। तू क्यों छोड़ आया था बुलंदशहर।'
माँ दादी को समझा रही थी। पिता जी दादी की हर बात का बड़ी बेहयाई से जबाब दे रहे थे। थोड़ी देर बाद माँ और पिता जी दोंनो दादी से बहस करने लगे। बताने लगे कि बुलंदशहर को छोड़ना जीवन की निहायत ही जरूरी बात थी। उस शहर को तो छोड़ना ही था। ठीक हुआ जो छोड़ दिया। देर तक बहस चली। अंत में सब कुछ शांत हो गया। दादी लुटी-पिटी एक कोने में बैठी थी। पता नहीं दादी को क्या हुआ,वह दीवार पर टंगे एक नक्शे के पास जाकर खड़ी हो गई और पिताजी को एक हारे हुए व्यक्ति की तरह समझाने लगी-
' देख पुत्तर। तू तो मेरा है। तुझसे तो कह सकती हूँ ना, कि क्यों तूने मेरा घर छुड़ाया। जिन लोंगो ने मुझसे मेरा मुल्तान छीन लिया और यह लाइन खींची.......उनसे तो मैं कुछ कह भी नहीं सकती.......।'
दादी की उँगली नक्शे की एक लाइन पर थी, जिसकी एक तरफ एक रंग का पाकिस्तान और दूसरी तरफ दूसरे रंग का भारत का नक्शा बना था।
'अगर उन लोगों से मैंने अपने मुल्तान का हिसाब माँगा तो वे तो मुझे जेल में डाल देंगे। कहेंगे बुढ़़़िया पागल हो गई है। पर तू तो मेरा अपना है......। तुझे तो कह सकती हूँ ना।'
माँ, दादी की बात पर खिलखिलाकर हँसने लगी -'लो आ गया फिर से मुल्तान। ' पिताजी, माँ की बात पर मुस्कुराये। हम सब बच्चे दादी को चिढ़़ाने लगे- दादी का मुल्तान, डेढ़़ टाँग और कच्चा कान.....। दादी भी मुस्कुरा दी।
पता नहीं क्या हुआ, उस दिन दादी ने खाना नहीं खाया। माँ ने बताया - ' बीवी जी की तबीयत खराब है, कह रही हैं, खाना ना खायेंगी। ' मुझे पहली बार दादी के लिए खराब लगा।
झगड़े के बाद घर में सन्नाटा पसरा था। हम बच्चों के बीच उस लाइन के बारे में बात हो रही थी। मैं चुपके से नक्शा उतार लाया था। .....क्या यही है वह लाइन, जो अक्सर दादी बताती है ? क्या यही ? ......करोड़ों लोग इधर और करोड़ों लोग उधर। हम सब बच्चे फुसफुसाते से उस लाइन के बारे में बात कर रहे थे। .....उस आदमी का क्या नाम बताया था, दादी ने ?...रैडक्लिफ, हाँ यही तो था। मैंने सेाचा दादी से पूछेंगे। मुझे खराब भी लगा ..... कि क्या जरूरत थी, नक्शे पर यह लाइन बनाने की। पर दूसरे ही पल खयाल आया, जरूर पिताजी जानबूझकर ऐसा नक्शा लाये होंगे जिसमें यह लाइन हो और दादी इस लाइन को देखकर कुढ़़ती रहे। जलती रहे। खामखाँ तमाशा कर दिया।
मैं चुपके से दादी के कमरे में गया। दादी अपने बिस्तर पर लेटी थी। मेरे हाथ में, गोल मोल मुड़ा वह नक्शा था। मैं दादी के चेहरे के पास गया। वह लेटी थी। मैं उसके पास उसके बिस्तर में ठस गया।
मैंने दादी से सब पूछा ... वही लाइन, करोड़ों लोग, रैडक्लिफ,... दादी ने मुस्कुराते हुए कहाँ - हाँ। मैंने दादी को चुपके से एक बात बताई। कि मेरे कंपास में टच इन गो है। पता है, इससे क्या होता है? दादी तुम्हें तो कुछ भी नहीं पता। टच इन गो से हर प्रकार की लाइन मिट जाती है। यह लाइन भी मिट जायेगी। मैं मिटा दूँगा। सच में। टच इन गो से मिटने के बाद लाइन खत्म हो जाती है। इस तरह से खत्म हो जाती है कि फिर पता भी नहीं चलता है। मैं इस लाइन को मिटा दूँगा। तू तो बस खामखाँ ही परेशान होती है। देख मैं अभी इसे कैसे मिटाता हूँ। ....पता नहीं क्या हुआ, दादी ने मुझे अपनी छाती से लगा लिया और कहने लगी- पुत्तर बस तू ही तो मेरा है, बस तू ही.....।
मेरे गाल पर दादी के आँसुओं का गीला चकत्ता जम गया। मैंने गौर से दादी की आँखें देखीं ... उनमें मुझे कहीं कोई काला लैंस नहीं दीखा। मैंने गौर से देखा, शायद दीख जाये नीली आँखों पर काला लैंस ..। पर दादी की आँखें काली ही थीं, उनपर कोई लैंस नहीं था। जब दादी ने अपना चश्मा उतारकर अपनी आँखें पोंछीं तब मैंने उन्हें ध्यान से देखा और अगले दिन सारे दूसरों बच्चों को बताया कि दादी की आँखें नीली नहीं हैं। सचमुच वे नीली नहीं हैं। मैंने खुद देखा, बिल्कुल पास से। सच दादी की आँखें काली हैं। कोई लैंस नहीं, बस काली। सच में..... दादी फिरंगन नहीं है। दादी किसी पराये मुल्क की नहीं है। बिल्कुल नहीं है। सच में ...। कि तुम सब देखना दादी कभी नहीं जायेगी। वह हमेशा हमारे साथ रहेगी। हम सबके बीच। हमेशा।
......वे ठण्ड के दिन थे। 15 दिसंबर 1998। दिल्ली के ग्रेटर कैलाश अस्पताल का रूम नम्बर बहत्तर। वार्ड ब्वाय ने बाहर आकर मेरा नाम पूछा था और कहा था कि पेशेन्ट मेरे से मिलना चाहती है। कमरे में दादी की जार जार होती देह बिस्तर में घुसी थी। उस दिन मैं बहुत देर तक दादी के पास बैठा रहा था। मेरे गर्म और जवान हाथ में उसका ढ़़ाँचा -ढ़़ाँचा ठण्डा हाथ था। उसने बड़ी मुश्किल से तकिये के नीचे से कोई बहुत छोटी सी चीज निकाली थी। लोहे की छोटी ठण्डी चाबी, जो उसने बहुत धीरे से मेरे हाथ में रख दी थी और फुसफुसाते हुए कहा था - ' मुल्तान की चाबी '। मैं देर तक अस्पताल की खिड़की से झाँकती बहुमंजिला ऊँची इमारतों और गहराती ठण्डी सलेटी धुंध को देखता रहा था। मुल्तान की छोटी लोहे की ठण्डी चाबी मेरी हथेली में धीरे -धीरे गर्म होकर गुनगुनी हो आई थी।
उस दिन मैंने आखरी बार दादी से बात की थी। जब मैं उस कमरे से बाहर आ रहा था, दादी मुझे देर तक टकटकाती रही, जाता हुआ देखती रही।
इस तरह दादी के मुल्तान की विरासत मुझे मिल गई। दादी का कमरा हमेशा के लिए खाली हो गया था और मैं अक्सर उस कमरे में जाकर उस बक्से को खोलता, उसका सामान उलट पलट करता रहता, जिसमें दादी का अल्लम टल्लम मुल्तान था। बरसों बीत गये, पर आज भी मेरे माता पिता को नहीं पता, कि दादी के पास एक जीता जागता मुल्तान था। वह मुल्तान जो आज भी मेरे घर के एक कमरे में रखा है। जब कभी उसमें से कुछ निकालता हूँ तो हजारों किलोमीटर का रास्ता तय करके पाकिस्तान का वह शहर मेरे सामने आकर बैठ जाता है, उसी अंदाज में मुझसे गपियाने लगता है, जैसे वह दादी से अपनी हाँकता रहता था।
मेरे माता पिता को नहीं पता कि वह मुल्तान आज भी मेरे पास है। पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद से, ना जाने कितने तो माता पिता इस दुनिया में हैं, जिन्हें नहीं पता कि उनके पूर्वजों का मुल्तान उनके पास नहीं बल्कि खुद उनके बेटे बेटियों के पास रखा है। कि उनकी माँओं ने उन्हें कभी इस योग्य नहीं समझा, कि वे उन्हें अपने शहर की चाबी सौंप सकें। कि कितने तो पिता हुए जिन्होंने अपने चिर परिचित शहरों की वसीयत अपने बेटे-बेटियों को करने की बजाय अपने नाते पोतियों को कर दी। कि हिन्दुस्तान में कितने तो बुजुर्ग हैं, जिन्होंने अपने को जप्त किया और निर्ममता की हद तक खुद को दबाये रक्खा और इस तरह पाकिस्तान के उन तमाम शहरों से अपने बेटों को महरूम कर दिया।
मैं चाहता हूँ कि मेरे माता पिता अगर अब भी दादी के मुल्तान के बारे में जानना चाहते हैं, तो वे उसे इस कहानी से जानें। उनके लिए मुल्तान को जानने का अब कोई और रास्ता भी तो नहीं रह गया है। और वे यह भी जान लें कि, मैं उन्हें मुल्तान की चाबी कभी नहीं दूँगा हाँ मैं अपने माता पिता को मुल्तान की चाबी कभी नहीं दूँगा। वे लाख जतन करें, मेरे सामने गिड़गिड़ाएँ, तब भी नहीं। कभी नहीं।
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