डॉ. दीपक आचार्य दुनिया में इन दिनों कोई इंसान ऎसा नहीं होगा जिसे किसी दूसरे इंसान से किसी भी प्रकार का भय न हो। वरना हर इंसान को लगता...
डॉ. दीपक आचार्य
दुनिया में इन दिनों कोई इंसान ऎसा नहीं होगा जिसे किसी दूसरे इंसान से किसी भी प्रकार का भय न हो। वरना हर इंसान को लगता है कि वही दुनिया में एकमात्र सच्चा और निष्ठावान है और उसके मुकाबले प्रतिभाशाली, ताकतवर और प्रभावशाली और कोई दूसरा नहीं है।
इंसान चाहे कोई हो, छोटा हो या बड़ा हो, वह हमेशा भ्रमों में जीने का आदी होता है और उसका सर्वाधिक बड़ा भ्रम यही होता है कि दुनिया में वही है जो सब कुछ है, शेष सब कुछ निरर्थक है।
इंसान के भीतर घर कर जाने वाले यही भ्रम उसे अहंकारी बना डालते हैं और वह अधःपतन के सारे द्वारों की ओर भागना शुरू कर देता है। एक बार किसी में किंचित मात्र भी अहंकार का प्रवेश हो जाए तब यह मान लेना चाहिए कि भगवान ने उसके क्षरण और पतन के सारे द्वारों को खोल दिया है और अब उसकी अधोगति अवश्यंभावी है, इसे कोई नहीं रोक सकता।
यह अहंकार इंसान का वह संकेत है जो कि साफ-साफ सिद्ध करता है कि अब समय आ गया जब इन लोगों को ठिकाने लगना ही है। इंसानियत का पैगाम देने वाला इंसान कभी एक-दूसरे का हमदर्द और साथी हुआ करता था। इंसान दूसरे इंसान के लिए काम करता था और इंसान के काम आता था। हर इंसान को अपने किसी भी सुख-दुःख के वक्त यह अच्छी तरह विश्वास होता था कि उसकी मदद के लिए लोग हमेशा तैयार बैठे हैं, कोई भी काम आ जाएगा।
कुछ दशकों पहले तक की ही बात है। इंसान जहाँ कहीं जाता, दूसरे इंसान को देख कर खुश होता था। फिर अपने इलाके का कोई सा इंसान दिख जाता तो वह उसकी इतनी आवभगत करता जैसे कि उसका अपना ही कोई सगा-संबंधी हो।
इंसान के भीतर कौटुम्बिक अपनत्व की गहरी भावनाएं हुआ करती थीं। अब सब कुछ समाप्त होता जा रहा है। इंसान के भीतर इंसानियत के बीज ही नहीं रहे फिर इंसान काहे का। आज हममें से कोई भी किसी दूसरे इंसान पर आँख मींचकर भरोसा नहीं कर सकता।
पूरे होश-हवास में कई-कई दिन, महीने और साल गुजारने वाले लोगों तक पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। पता नहीं कब कौन क्या कर बैठे, कब किसे दगा दे जाए। इंसान इतना नीचे गिर जाएगा इसकी किसी ने कभी कल्पना तक नहीं की होगी।
दुनिया भर में आज की तारीख में कोई सबसे अधिक अविश्वासी, धोखेबाज और विश्वासघाती कोई है तो वह इंसान ही है। इंसानों में दो प्रकार की ही प्रजातियां रह गई हैं। एक वे लोग हैं जिनमें इंसानियत कूट-कूट कर भरी हुई है और सच कहा जाए तो इन्हीं के पुण्य-प्रताप के बूते धरती टिकी हुई है। पर इस प्रजाति के अब लोग निरन्तर कम होते चले जा रहे हैं।
दूसरी किस्म के लोगों की तादाद सब तरफ विस्फोटक संख्या में विद्यमान हैं जिनके लिए अपने स्वार्थ ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं बनिस्पत इंसानों या इंसानियत के। इंसानी जिस्मों के महा विस्फोट ने इंसानियत को पीछे छोड़ दिया है।
अब कहा जाने लगा है कि किसी भी जानवर पर आसानी से भरोसा किया जा सकता है कि लेकिन आदमी पर भरोसा करना अब संभव नहीं रहा। पहले आदमी के अन्तर्मन की छाप उसके चेहरे से प्रतिबिम्बित होती थी। अब आदमी ने इतने सारे मुखौटे ईजाद कर लिए हैं कि पता ही नहीं चलता कि आदमी जो कुछ कह रहा है वह सच है या कर रहा है वह।
इंसान भीतर क्या सोच रहा है उसका अंदाज लगाना अब आसान नहीं रहा। अब मन में कुछ और होता है, दिमाग में कुछ और पक रह होता है, मुँह से कुछ और बोलता है। हाथ कुछ और हरकतों में रमे रहते हैं और हिलते पाँव कुछ और ही अभिव्यक्त करते दिखते हैं।
एकाग्रता और निष्ठा अब सिर्फ वहीं दिखने लगी है जहाँ कुछ अतिरिक्त मिल पाने की गुंजाईश हो अन्यथा आदमी कब क्या कर गुजरेगा, इसका अंदाज लगाना अब भगवान के बस में भी नहीं रहा। हम जहाँ के हैं, जहाँ रह रहे हैं, बस-रेल या और किसी माध्यम से सफर कर रहे होते हैं वहाँ हम यकायक सामने वालों पर भरोसा नहीं कर सकते।
इंसानों की हरकतों ने हर तरफ ऎसा ताण्डव मचा रखा है कि हर इंसान दूसरे को शंका की नज़र से देखने लगा है। फिर आदमी का दोहरा-तिहरा और कई-कई रूपों वाला चरित्र ही ऎसा हो गया है कि पता ही नहीं चलता कि कौनसा चेहरा असली है और कौनसे नकली।
बहुरुपिया चरित्रों से भरे आदमी की वाणी में इतना मिठास टपकता है कि शहद भी उन्नीस साबित होता है लेकिन हृदय में हलाहल ऎसा भरा होता है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। आदमियों पर चारों तरफ अविश्वास का माहौल बढ़ता जा रहा है।
भरोसेमंद लोग भरोसा तोड़ते जा रहे हैं, शरम रखने वाले बेशरम होते जा रहे हैं, जिन्हें अच्छा और सच्चा माना जाता रहा होता है वे ऎसा कुछ कर डालते हैं कि कोई इन पर जिन्दगी भर विश्वास नहीं कर सकता।
बहुत सारे लोग ऎसे हैं जो अच्छे और सच्चे लोगोंं को भी अविश्वास के कटघरे में खड़ा कर देने के लिए दिन-रात नित नए षड़यंत्रों में रमे हुए हैं। किसी का पता नहीं चलता कि कौन कैसा है, किसका क्या चरित्र है और किस पर भरोसा किया जाए।
हम साल भर में अनेक बार इंसानियत, सद्भावना, अहिंसा और मानवीयता की शपथें लेते हैं और काम करते हैं इनसे ठीक उलट। झूठी शपथों के सहारे जीवन चलाने वाले हम झूठे लोगों को नर्क के सिवा और क्या नसीब होगा। सौ-सौ कथाओं, सत्संग और धार्मिक आयोजनों के भागीदारी, साधु-संतों-मुनियों और कथावाचकों के डेरोें में जा जाकर धरम की दुहाई देते हैं और पक्के धार्मिक होने के सारे आडम्बरों को अपनाने में पीछे नहीं रहते।
हम अपनी ही बात क्यों करें, संसार छोड़ कर वैराग्य पा चुके जिन बाबाओं, महंतों, उपदेशकों, भाषणबाजों को हम अच्छा मानते हैं, वे भी कैसे हैं, इस बारे में किसी को कुछ कहने की जरूरत कभी नहीं पड़ती। और इनके चेलों के बारे में भी सारी दुनिया जानती ही है।
इंसानियत की चिता पर छल-कपट और अविश्वास की आँधियां रह रहकर हमारे आदर्शों, संस्कारों और नैतिक मूल्यों को धूल के साथ उड़ाकर जंगलों की ओर ले जा रही हैं और हम हैं कि सारे के सारे आडम्बरी जीवन जीने के इतने आदी हो चुके हैं कि हमें तनिक भी शर्म नहीं आती कि आखिर हम कैसे इंसान हैं, हमें क्या हो गया है, हम कहाँ जा रहे हैं और क्या होगा हमारा....।
---000---
- डॉ. दीपक आचार्य
COMMENTS