डॉ. दीपक आचार्य ‘‘सकल पदारथ हैं जग माहिं कर्म हीन नर पावत नाहिं’’ यह यों ही नहीं कहा गया है। इसके पीछे ठोस आधार हैं, ऋषि-मुनियों और ज...
डॉ. दीपक आचार्य
‘‘सकल पदारथ हैं जग माहिं कर्म हीन नर पावत नाहिं’’ यह यों ही नहीं कहा गया है। इसके पीछे ठोस आधार हैं, ऋषि-मुनियों और ज्ञानियों का जिन्दगी भर का निष्कर्ष है और जो कुछ कहा गया है वह वैज्ञानिक कसौटियों, तमाम प्रकार के दैहिक, दैविक और भौतिक अनुसंधानों और विश्लेषणों से होकर सामने आया है, सत्य के परम परिपक्व रस से पग कर बाहर निकला है।
नियति ने हमारे लिए सभी प्रकार की व्यवस्थाएं की हैं लेकिन हम इतने खुदगर्ज, आलसी, प्रमादी और निष्ठुर हो चुके हैं कि हमेंं अपनी सेहत और भविष्य तक की कोई चिन्ता नहीं है। हम जिन्दगी भर एक ही जगह बैठे-बैठे सब कुछ करना चाहते हैं और इतने आरामतलबी हो चुके हैं कि कुछ करना नहीं चाहते।
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का मूलभूत सूत्र यही है कि हम पंच तत्वों और प्रकृति के जितने अधिक करीब रहेंगे उतने मस्त रहेंगे। और इनसे जितने अधिक दूर होते चले जाएंगे, अपने मन-मस्तिष्क और शरीर का धर्म भूल जाएंगे और सेहत का खजाना लूटता चला जाएगा।
इसका धीरे-धीरे इतना अधिक क्षरण हो जाएगा कि यह हमें ले डूबेगा। शरीर को हिलाना-डुलाना, चलाना-दौड़ाना और इससे काम लेना हर जीव के लिए अनिवार्य है चाहे वह पशु-पक्षी हो या मनुष्य। जलचर, थलचर और नभचर से लेकर उभयचर तक सभी प्रकार के लोगों के लिए यह जीवनयापन की वो पहली और अनिवार्य शर्त है जिसे न कोई नकार सकता है, न किसी को इससे बचना ही चाहिए।
इस मामले में इंसान को ही देखें तो पूरी दुनिया को दो प्रकार के लोगों में विभक्त किया जा सकता है। एक वे हैं जो भ्रमण पसंद हैं। और दूसरे वे हैं जिन्हें घूमना-फिरना पसंद नहीं है बल्कि एक जगह बैठे-बैठे ही आरामतलबी के साथ जिन्दगी गुजारने में अच्छा लगता है।
जो लोग रोजमर्रा की जिन्दगी में भ्रमण पर जोर देते हैं वे दूसरों की अपेक्षा लम्बा जीते हैं, तन्दुरस्त रहते हैं और हमेशा फिट-हिट रहते हैं। इन लोगों की जिन्दगी में हमेशा मस्ती छायी रहती है। जबकि बहुसंख्य लोग ऎसे हो गए हैं जो घूमने-फिरने से बचते रहते हैं और नहीं चाहते कि उनके सुकोमल चरणकमलों, सुन्दर सी टाँगों और लचीले घुटनों को कोई कष्ट पहुंचे।
ये लोग जड़ता को ओढ़ने में विश्वास रखते हैं। यह जरूरी नहीं कि इसमें अधेड़ और बुजुर्ग ही शामिल हों। आजकल तो किशोर और युवा लोग तक भी पैदल चलने या कि अपने कार्यस्थल और घर से दूर घूमने-फिरने तक को पसंद नहीं करते।
इन सभी को एक ही जगह बैठे-बैठे सब कुछ चाहिए होता है। यहाँ पैदल भ्रमण की बात को छोड़ भी दिया जाए तो हममें से काफी सारे लोग ऎसे हैं जिन्हें भ्रमण से एलर्जी है। निजी क्षेत्रों में तो ऎसे लोग हैं ही, सरकारी और इससे जुड़े हुए क्षेत्रों में भी खूब सारे लोग ऎसे हैं जो भ्रमण से कतराते हैं।
इनमें कुछ लोग घर और दफ्तर के एयरकण्डीशण्ड कमरों में घण्टों तक जमे रहने के आदी हो गए हैं जबकि बहुसंख्य लोग हमारी ही तरह किसी न किसी तरह के दड़बों, सीलन भरे कमरों और अंधेरे परिसरों में बैठने के आदी हो गए हैं जहाँ न शुद्ध वायु है, न प्रकृति का दर्शन या अनुभव।
खूब सारे लोग ऎसे भी हैं जिनके लिए अपने कर्म क्षेत्र में निर्धारित दौरे करना अनिवार्य है लेकिन इन लोगोें की मानसिकता ही ऎसी हो गई है कि वाहनों से लेकर टीए-डीए और सारी सुविधाओं के होने के बावजूद इन्हें कहीं भी आना-जाना पसंद नहीं होता। अपनी कुर्सियों से निकले तंतुओं के अदृश्य तानो-बानों के पाशों में जकड़े हुए ये लोग थोड़ा-बहुत भी चलना-फिरना नहीं चाहते।
अधिकांश लोग ऎसे ही हैं जिन्हें यह भी नहीं पता होता कि वे जहाँ काम कर चुके हैं उन क्षेत्रों में कहाँ क्या कुछ है, कौन-कौन से इलाके हैं और वहाँ क्या-क्या देखने, जानने और समझने, लिखने और अध्ययन करने लायक है।
भ्रमण की राजकीय सुविधाओं वाले लोगों की भी यही स्थिति देखने में आती है। वे भी क्षेत्र भ्रमण से अधिक बंद कमरों में बैठना पसंद करते हैं और चंद फीट की दीवारों में नज़रबंद होकर पूरी जिन्दगी निकाल देते हैं।
जो भ्रमण में विश्वास करता है वह स्वस्थ रहता है। मन-मस्तिष्क और सेहत सभी मामलों में उसे किसी भी प्रकार की दुविधा या तनाव का सामना नहीं करना पड़ता। शुद्ध आबोहवा और नैसर्गिक रूप से पंचतत्वों के नियमित पुनर्भरण का दौर इतना नियमित बना रहता है कि आयु भी लम्बी होती है और आलस्य भी पास नहीं फटक पाता। फिर सृष्टि को जानने-सीखने और समझने के भरपूर और अनंत अवसर उपलब्ध होते हैं वह भी मुफ्त में।
इस दृष्टि से वे सारे के सारे लोग दुर्भाग्यशाली और अभिशप्त ही कहे जा सकते हैं तो साधन-सुविधाओं और कर्मयोग में शुमार होने के बावजूद भ्रमणों से जी चुराते हैं। इस किस्म के लोग समय से पहले ही बूढ़े हो जाते हैं और इन्हें इतनी अधिक जड़ता घेर लिया करती है कि इनका पूरा का पूरा उत्तराद्र्ध घर की खटिया से लेकर अस्पताल के परिसरों तक ही सिमटा रहता है। इनकी इस दशा के आगे इनके अपने परिजन और उत्तमाद्र्ध भी इतने तंग हो जाते हैं कि वे भी भगवान से प्रार्थना करते हुए अपने भाग्य को ही कोसते रहते हैं।
अब भी समय है। अपने जीवन में भ्रमण को यथोचित स्थान दें और बंद कमरों से बाहर निकल कर जनता, परिवेश और प्रकृति के बीच समय गुजारने की आदत डालें। इससे मानसिक और शारीरिक सौष्ठव भी उत्तरोत्तर बढ़ता रहेगा और दीर्घायु के साथ यशस्वी जीवन भी प्राप्त होगा। चुनना हमें ही पड़ेगा। भ्रमण को चुनकर मौज मस्ती का आनंद पाएं या फिर खाट पकड़ने की तैयारी शुरू कर दें। पसन्द अपनी-अपनी।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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(ऊपर का चित्र - अमृतलाल वेगड़ की कलाकृति)
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