डॉ.नन्दलाल भारती बाबुल की ड्योढ़ी से बिटिया चित्रलेखा की डोली उठ चुक...
डॉ.नन्दलाल भारती
बाबुल की ड्योढ़ी से बिटिया चित्रलेखा की डोली उठ चुकी थी। बाप बसन्त के घर-आंगन रूपी मधुमास में जैसे पतझड़ पसर गया था। देविका एक कोने में बैठकर चक्षुमंथन कर रही थी। देविका की वही आंखें आज लाल सुर्ख हो रही थी,उन्हीं आंखों से आज लहू पिघल कर अश्रु के रूप में बह रहा था,जो चित्रलेखा के सुयोग्य वर की चाह में बिछी रहती थी। देविका ने ना जाने कितने मंदिर-विहार-गुरूद्वारे की चौखटों पर बसन्त के साथ माथा पटक-पटक कर मन्नतें मानी थी,जबकि बसन्त को छत्तीस करोड़ देवी देवताओं पर यकीन नहीं था।
बसन्त कहता देवी बस परमात्मा पर भरोसा रखो। छत्तीस करोड़ मनगढन्त देवी देवताओं के चक्कर में पड़ोगी तो घर की ईंटें भी नहीं बचेगी। देविका कहा मानने वाली थी ना जाने कितने जप-तप,व्रत,पूजा पाठ करवा डाले। इस ढकोसलेबाजी पर देविका ने बसन्त के मेहनत की कमाई पानी की तरह बहा दिये थे। हुआ वही जो परमात्मा को मंजूर था,देर से ही सही पर सुयोग्य वर उच्च शिक्षित बिटिया चित्रलेखा को मिल गया ।कहने को देविका की मन्नतें पूरी हो चुकी थी। बसन्त के घर आंगन में जैसे मधुमास उतर चुका था। उत्तर भारत में जन्मी चित्रलेखा,मध्य भारत में पली बढ़ी,पढ़ी और देश की राजधानी से अपने पांव पर खड़ा होने के हुनर में रंग भरने वाली चित्रलेखा दक्षिण भारत में वैवाहिक जीवन की खुशहाल और सुखद आधारशिला रखने के लिये वरदेवा के साथ प्रस्थान कर चुकी थी। चित्रलेखा के बाबुल की ड्योढ़ी से विदा होने के बाद घर आंगन का विरान बसन्त,देविका और बेटों आदेश और अभिषेक को हैरान कर रहा था। देविका की आंखों के बाढ़ का पानी उतरने का नाम नहीं ले रहा था। कपीश आदेश,अभिषेक और अनुदेश की आंखें लाल सुर्ख हो रही थी। यही कपीश, अनुदेश,आदेश और अभिषेक तो चित्रलेखा का हाथ थाम कर स्टेज पर हंसी खुशी से ले गये थे,इसके बाद ही तो चित्रलेखा ने वरदेवा के गले में वरमाला डाली थी और वरदेवा ने चित्रलेखा के गले में।
इसके बाद बड़े धूमधाम से महासूर्या होटल में शुरू हुआ था स्वागत और स्वरूचिभोज। स्वागत और स्वरूचिभोज के बाद रात्रि के पौने एक बजे वैवाहिक कर्मकाण्ड के दौरान चित्रलेखा के हाथ पीले किये गये थे ,इसके बाद मांग भरने की रस्म पूरी हुयी थी। पिता बसन्त ने किया था खुशी कन्यादान। अब वही मां-बाप भाई गम के समन्दर में डूबे हुए आंसू बहा रहे थे परन्तु ये आंसू चित्रलेखा के सुखी वैवाहिक जीवन के लिये यज्ञ की तरह थे। बारात 23 मई को आई थी 26 मई को विदा हो गयी थी। पैतृक गांव से सगे सम्बन्धी नातहितों का आगमन 18 मई से ही हो गया था,जो सैकड़ा पार कर गये और 30 मई को घर आंगन और तीन मकान जो किराये पर लिये गये थे पूरी तरह विरान हो गये थे।लेनदारों का तगादा शुरू हो गया था। बसन्त के लिये ज्यादा तकलीफदेह श्रीरामटेण्ट का बिल लगा था जो आठ हजार की जगह बयासी हजार का थमा दिया था, पैंतीस हजार लेने के बाद तगादा थमा नहीं था। गांव के सगे सम्बन्धियों के तंज देविका और बसन्त के दिल में खंजर का वार रह-रहकर कर रहे थे।
बसन्त ने सगे सम्बन्धियों रिश्तेदारों के आवास और भोजन की उत्तम व्यवस्था के साथ आने-जाने के साधनों को भी भरपूर इन्तजाम कर रखा था। रिश्तेदारों को गर्मी ना लगे,इसके लिये तीनों किराये के मकानों में कूलरों का इन्तजाम भी था। सुख-सुविधा के पूरे इंतजाम के बाद, तंज की उम्मीद की गुंजाइश थी, वही हुआ, खैर बारात के इन्तजाम में तो होता ही है,बसन्त तो परदेसी था बारात भी दक्षिण से थी तो रिश्तेदार उत्तर के दोनों को अलग अलग ठहरने का इन्तजाम था। ठाशई चमन सहित सभी घराती रिश्तेदार समय से आते चाय नाश्ता और खाना खाकर वापस चले जाते। वैवाहिक कार्यक्रम से नदारद रहते पर इसका तनिक रंज देविका और बसन्त को ना था पर रंज था तो भाई चमन,उसकी पत्नी सेविका बेटी तूलिका से। ये लोग भी मेहमान बन गये थे। बेटी की डोली ड्योढ़ी से उठ जाने के बाद वीरान जैसे घर के बरामदे में बसन्त उदास बैठा था,पीछे से देविका आई और कंधे पर हाथ रखते हुए बोली चित्रलेखा के पापा ये उदासी ठीक नहीं ,बिटिया को भी तुम्हारी उदासी परेशान कर रही होगी। उठो मुंह धो लो चाय लाती हूं। बारात दो दिन पहले विदा हो चुकी है,बेटी ससुराल पहुंच चुकी है,बिटिया को अपने नये जीवन का आनन्द मनाने दो और तुम अपनी घरगृहस्थी के काम में जुट जाओ।
बसन्त-भागवान मैं भी जानता हूं ,इतना मूरख तो नहीं जितना हमारे पिताश्री,भाई चमन बाबू और दूसरे रिश्तेदार समझते हैं। इतने में अभिषेक आ गया और बोला चाचा तो बिल्कुल परजीवी हो गये हैं । पापा गांव के रिश्तेदार सिर्फ अपने मतलब से सरोकार रखने वाले लोग है।
बसन्त-हां बेटा मुझे भी मालूम है पर अपना भी उनके प्रति फर्ज है।
अभिषेक-कब तक फर्ज पर फना होते रहोगे वह भी उनके लिये जो सिर्फ मतलब भर चूस रहे है।
बसन्त- बेटा तुम्हारी शिकायत जायज है,मुझे एहसास है,गंवार स्वार्थी परिवार की जरूरतों को पूरा करने का महज एक जरिया भर हूं। मेरे दर्द की किसी को आहट नहीं । सबको लगता है मेरे पास बहुत रूपये है, बस छिनते रहो बहाने बना-बनाकर। ना जाने भगवान ने किस दण्ड कि सजा दे दी है,ऐसे परिवार में जन्म देकर।
अभिषेक पापा आपको कठोर फैसला एक ना एक दिन तो लेना ही पडेगा,कब तक परिवार के लोग आपकी कमाई पर जश्न मनाते रहेंगे। इन लोगों को भी तो अपने कुछ करना चाहिये कि नहीं । पापा मैं खून के रिश्तेदारों को छोड़ने को नहीं कह रहा हूं पर स्वयं के लिये तो कुछ करे इतने में दरवाजा खटखटाने की आवाज आयी। देविका बोली लगता है आण्टी है। दरवाजा खटखटाते हुए अनारी आण्टी बोली मैं भी आ गयी अभिषेक,ये वही आण्टी थी जो चित्रलेखा की शादी में कन्यादान देने का व्रत ले रखी थी। घर में प्रवेश करते ही बोली देविका मेरे जीवन की साध पूरी हो गयी।
देविका-ऐसी कौन सी मन्नत मान रखी थी आण्टीजी।
अनारी आण्टी-चित्रलेखा का कन्यादान।
आण्टी की बात सुनते ही बसन्त और देविका दोनों की आंख लबालब भर गयी। आण्टी देविका के आंसू पल्लू से पोंछते हुए बोली देविका आंसू बहाने का वक्त नहीं ,चित्रलेखा के सुखी जीवन के लिये दुआयें करने का दिन है। तुम्हारी इच्छानुसार वर मिल गया । चित्रलेखा सौभाग्यशाली है,उसी के फील्ड का लड़का मिला है दोनों मिलकर खूब कमाये,तरक्की करें,दोनों खानदानों का नाम दुनिया में रोशन करें।
देविका-आण्टी आपके मुंह में घी सकर। मन इसलिये रो उठा कि हमारे ससुर,देवर,देवरानी को कन्यादान करने की नहीं सूझी तो दूसरे रिश्तेदारों की क्या बात करूं।
आण्टी-क्या तुम्हारे ससुर ने भी कन्यादान नहीं किया।
देविका-हां आण्टी इसी बात पर तो रोना आ रहा है।
आण्टी-लोग दूसरों की बहन-बेटियों के कन्यादान कर देते हैं,तुम्हारे ससुर ने अपनी पोती का कन्यादान नहीं किया। बहुत अभागे है वे तो।
देविका-किस्मत वाले है,कोई उन्हें तकलीफ नहीं हो पूरी कोशिश की जाती है पर वे हमेशा नाखुश रहते हैं।
आण्टी-क्यों ।
देविका-गांजा,दारू पी-पीकर अपनी अंतड़ियां सड़ा डाले थे। गांव से उठाकर लाये गये थे। लम्बे इलाज के बाद ठीक हो गये पेट का आपरेशन करवाना पड़ा था। डाक्टर ने बीडी,सिगरेट,गांजा दारू सब कुछ को मना कर रखा है,इसके बाद भी पीते रहते हैं। अभिषेक के पापा को ये पसन्द नहीं है,इसीलिये ससुरजी इनको भी नहीं पसन्द करते हैं। दमादों की तुलना करते हुए कहते हैं कि नालायक बेटो से तो अच्छे दमाद है, कितने भलेमानुा खुद नहीं पीते हैं लाकर देते तो हैं।
आण्टी-कब्र में पांव लटकाये है,शौक इतना बड़ा कि बेटे के मान सम्मान का ख्याल नहीं । वाह रे नशे की जिद।
देविका-मुझे तो लगता है वे बेटी के ब्याह से खुश नहीं थे,तभी तो कन्यादान करने की अभिलाषा नहीं हुई।
बसन्त-आण्टी,मैं अपने मां बाप को भगवान मानता हूं। मां तो भगवान को प्यारी हो गयी। मैं अपने आप को किस्मत वाला मानता हूं क्योंकि कोर्इ्र दैवीय चमत्कार ही तो है,मैं ऐसे पिता की सन्तान होकर हर प्रकार के व्यसन से दूर हूं।
देविका-तभी तो बच्चे पढ लिख गये,तुम्हारे भाई साहब चमनजी का परिवार पल रहा है। उनके भी बच्चे पढ़ गये,बेटा अनुदेश जो चार साल की उम्र से अपने साथ रहा,आज अफसर है। चमनजी छप्पन इंच की छाती ठोकते हुए कहते हैं मेरा बेटा अफसर है। उसके लालन-पालन,पढाई-लिखाई के लिये चवन्नी मय्यसर नहीं हुई। आण्टी अनुदेश मेरा लाल सब समझता है। भगवान उसे खूब तरक्की दें।
बसन्त-मेरे पिताजी भी छाती ठोंकते हैं,कहते हैं साले अफसर -डाक्टर दो दो-बेटे हमें पीने को नहीं देते, खुद गुलछर्रे उड़ा रहे। मेरी बेटी को कन्यादान में पांच रूपया मेरे पिताजी के पास नहीं था। ऐसे कैसे हो सकता है,जबकि हजार पांच सौ हमेशा पिताजी की मुट्ठी में होता है। आदेश,अभिषेक,अनुदेश,देविका और हम खुद उनको देते रहते हैं। हमारे पिताजी के खिस्से से हमारी बेटी के कन्यादान के लिये पांच रूपया नहीं निकला।
देविका-कन्यादान में देने के लिये पांच रूपये नहीं थे आते ही गांजा,दारू की जुगाड़ में लग गये थे।
अनारी आण्टी-पोती के ब्याह में दादा खुश नहीं हुए,दुख की बात है।
बसन्त-मेरे पिताजी को खुश रखने का बस एक ही तरीका है।
अनारी आण्टी-क्या............?
बसन्त-शराब और कबाब। यह तो मैं कर नहीं सकता।
अनारी आण्टी-कैसे बाप है ?
देविका-शरीर साथ नहीं दे रही है,धोती खराब हो जाती है,इसके बाद भी शराब और कबाब के लिये ऐसे जीभ लपलपाते हैं जैसे शराब नहीं अमृत हो।
अनारी आण्टी-ऐसे बाप के बेटे बसन्त बाबू है विश्वास नहीं होता। बेटा दुनिया के पटल पर सम्मानित है,घर में प्रताड़ित और अपमानित है। बसन्त बाबू जो आप अपने बाप,भाई और भाई के परिवार के लिये कर रहे हो वह दूसरा नहीं कर सकता । भाई को एहसानमंद होना चाहिये पर सगे भाई की बेटी की शादी में दूरी बनाये दिखे। ऐसी क्या नाराजगी थी जबकि तुम्हारे रहमोकरम पर उनकी शानोशौकत है।
बसन्त-आण्टी हमारे भाई चमन,उसकी पत्नी सेविका बेटी तूलिका तो हींग में पानी नहीं डाले,चाय,नाश्ता,दोपहर और रात्रि के खाने के वक्त आते फिर जाकर कूलर की ठण्डी हवा में सो जाते बस यही काम था। कभी पास में बैठकर दो बात भी नहीं किया,ये कैसा भैय्यपन है। क्या भाई की निगाहे सिर्फ मेरी खून पसीने की कमाई पर टिकी रहती है। ना जाने भगवान कौन से जन्म का दण्ड देने के लिये ऐसे परिवार में पटक दिया।
अनारी आण्टी-अच्छा होता कि तुम्हारे गांव का मेला आता ही नहीं । बसन्त बाबू भगवान का शुक्रिया अदा करो, बाबुल की ड्योढ़ी से बेटी हंसी खुशी विदा हो गयी। बारात वालों से कोई तकलीफ नहीं हुई पर घर वालों के संत्रास की प्रसव पीड़ा तुमको झेलनी पड़ी। इसके बाद भी खून के रिश्तेदारों, भाई और उसके परिवार की खुशहाली के लिये तन मन और धन से समर्पित हो। ऐसे हवन का क्या फायदा जिसमें तन मन और धन सुलग जाये।
देविका-भगवान की बड़ी कृपा है हम लोगों पर कि गृहस्थी की गाड़ी खींच रही है। जैसा परिवार वालों का व्यवहार है एक दिन ना चले। सब इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं कि कैसे चूस लूं। जाने के एक दिन पहले इनके भाई साहब चमन जी छोटी ननद से कहलवाये कि भईया से बोल दो दवाई लेना है। इनके भाई साहब को इनसे कहने में लाज लग रही थी। ये भलेमानुा अपने भाई साहब को लेकर अस्पताल गये, वहां एमआरआई हुई, तीन महीना की दवाई लेकर दिेये सोलह हजार लग गये। भाई साहब की दवाई जिन्दगी भर चलनी है। हम लोग उनकी दवाई का उनके परिवार का जैसे ठेका पट्टा लिये हैं। इसके बाद भी सीधे मुंह कोई बात करने को राजी नहीं ।
बसन्त-आण्टी सच बहुत खुशी की बात है,बिटिया के ब्याह को लेकर चार साल से परेशान थे पर रब ने जोड़ी मिला दी।
देविका-सच मैं तो बहुत खुश हूं बिटिया अपने बाबुल की ड्योढ़ी से बिना किसी व्यवधान के विदा हो गयी कहते कहते रोने लगी।
इतने मैडम जसवार आ गयी और बोली देविका क्या रोना-धोना,बेटी बाबुल की ड्योढ़ी से हंसी खुशी विदा हो गयी जश्न मनाओ।
देविका-दीदी जश्न तो है ही पर रोना तो अपनों पर आ रहा है जो हमारी खुशी में शामिल होने आये थे पर गम देकर गये। नात-हित परिवार के लोग मिलाकर सत्तर लोग थे,दो सप्ताह तक रहे पर किसी एक इंसान ने ये नहीं पूछा कि क्या करना है,क्या समान घर में है क्या नहीं है,क्या लेन-देन करना है,क्या करने को रह गया है,कोई मदद की जरूरत हो तो बताओ,रूपया पैसा की जरूरत हो तो बताओ। सभी तन और धन से भरपूर सक्षम थे। किसी ने भी बात करना वाजिब नहीं समझा, ऊपर से कमियां निकालते रहे और तो हमारे ससुर जी और हमारे बड़े भाई साहब भी। ससुर जी तो सामने वाली दुकान पर बैठकर कहते रोज-राज एक ही खाना खिला रहा है,मुंह नहीं साफ हो रहा है।
मैडम जसवार-लोगों का पेट साफ नहीं होता है उनका मुंह नहीं साफ हो रहा था इसका क्या मतलब हुआ?
देविका-चार-पांच दारू की कार्टन देते, गांव वालों के साथ जश्न मनाते, खाने में मीट-मछली होता तब उनका मुंह साफ होता।
मैडम जसवार-चित्रलेखा की डोली बाबुल की ड्योढ़ी से उठवाने आये थे कि दारू पीने मीट-मछली खाने। यह घर परिवार के लोगो का हाल है। इनसे बेहतर तो अनजान बेगाने थे,जो वक्त पर काम आये। बाबुल की ड्योढ़ी से बिटिया की डोली उठवाने में समर्पित भाव से काम आये।
देविका-हां दीदी ठीक कह रही हो,मीनाक्षी,हर्शित,सोनी,बाबू बेचारे एक पांव पर खड़े थे। मेरे भाई के छोटे बेटे गोलू के जिम्मे चाय नाश्ता खाना पानी सब था। बेचारा सबसे आखिर में खाना खाता था चाहे रात्रि के दो बज जाये। बाकी किसी ने तनिक रूचि नहीं दिखाया,गांव से आये अपने सगे सम्बन्धियों के व्यवहार से लगा ही नहीं कि वे बेटी के ब्याह में आये है। लगता था जैसे तफरी करने आये है।
मैडम जसवार-कपिश,गुड्डी ये बच्चे जी-जान से जुटे थे। इन्हीं बच्चों ने तो संभाला,गांव वालों के भरोसे रहते तो,इज्जत सड़क पर आ जाती। सच कहा है जाको राखे साईयां मार सकै ना कोय। बेटी के ब्याह से बसन्त बाबू का
सम्मान तो बढा है। जिन लोगों का नाम किताबों में पढ़ने को मिलता है वे लोग ब्याह में आये थे और तो और कोरिया से एक आदमी शादी में आया था,वह तो पूरी रात सोया नहीं । वही गांव वाले खोजने पर नहीं मिल रहे थे।
देविका-दीदी सब प्रभु की कृपा है, आपन लोग तो अदने से इंसान हैं। कपीश मेरा बेटा तनम मन धन चित्रलेखा के ब्याह पर न्यौछावर कर दिया। कपीश तो खून के रिश्ते का नहीं है,पर खून के रिश्ते से बड़ा रिश्तेदार है।
मैडम जसवार-जानती हूं चित्रलेखा का राखी का भाई है।
देविका-हां दीदी माना हुआ बेटा है, अपने बेटों जैसा ही है,बेटी उसी के सहारे तो दिल्ली में थी,सगी बहन जैसा ही वह चित्रलेखा को चाहता है, चित्रलेखा की तबीयत खराब होने पर रात भर वह उसके सिरहाने बैठा सिर दबाता रहता था। एक बार तो यही घर पर ही चित्रलेखा को बहुत तेज बुखार आ गया था,वह बुखार में बड़बड़ाने लगी थी मेरा बेटा कपीश रात भर पानी की पट्टी बदलता रहा,एक मिनट के लिये नहीं सोया था। कपीश है तो धागे का भाई दीदी वह सगे भाई से कम नहीं ।
अनारी आण्टी- कपीश की बहन गुड्डी तो पहले आ गयी थी।
देविका- हां आण्टी महीने भर पहले आ गयी थी सब काम गुड्डी बिटिया ने ही तो करवाया। बड़ी ननद की बेटी सोनमती कितनी भारी हिम्मत की गांव से दिल्ली,दिल्ली से यहां आयी,उस एक हाड़ की लड़की ने जान लगा दिया हमारी देवरानी सेविका बेटी तूलिका को तो तनिक भी फुर्सत नहीं थी सोने से,बारात आने वाले दिन आयी और ब्याह के बाद चली गयी। ऊपर से बेचारी गुड्डी पर व्यंग्यबाण मां-बेटी चलाती थी। उसको तनिक शरम भी नहीं आयी कहती थी कि पराये मालिक हो गये है,गुड्डी,मीनाक्षी और सोनमती मालकिन बन गयी है।
बसन्त-आण्टी थे तो सभी अपने सगे ही पर उनके बारे में बात करने में शरम आती है। आये थे बेटी के ब्याह में घराती थे। उनका नखड़ा बारातियों से अधिक था।
आदेश-पापा अब गांव के लोगों को मत बुलाना ।
बसन्त-बेटा गांव के लोग हैं तो अपने परिवार के ।
आदेश-ऐसे अपनों से कई गुना बेहतर बेगाने है, आपके दफ्तर के लोग है जो फोन कर आपको मदद देने की गुहार करते रहे। आपके बांस ने तो कहा था कि चाहे जितना पैसा चाहिये मुझे एक दिन पहले बता देना,ये बातें पापा आपने ही बताया था,और भी कई लोगों की जिक्र कर रहे थे। ठीक है,हमारे तीनों फूफा जो हर तरह से सक्षम थे परदेस का मामला है बात तो कर सकते थे। कितना अच्छा लगता आपका हौसला बढ़ जाता। चमन चाचा लगता था,उनका शरीर यहां है मन कही और था।
बसन्त-बेटा हमने तो सारी व्यवस्था पहले से कर लिया था,रही पैसे की बात तो हमने पीएफ से निकाल ही लिया था । हमें किसी से किसी प्रकार की मदद की दरकार तो थी नहीं ।
आदेश-बात तो कर सकते थे ।
बसन्त- बेटा तेरी बात जायज है, वे लोग एक बार मुंह से बोल तो देते खैर कोई बात नहीं । चित्रलेखा की शादी बहुत अच्छी तरह से बीत गयी। शादी के इन्तजाम से सभी लोग खुश थे बस अपने गांव के रिश्तेदारों को छोड़कर। उनको हर तरह की कमी दिखी,काई कार्यक्रम उन लोगों को पसन्द नहीं आया। उन लोगों बस एक ही शिकायत थी हमें कोई पूछ ही नहीं रहा है,हमारी कोई सेवा-भगत नहीं हो रही है,मुंह नहीं साफ हो रहा है।
देविका-देवरजी तो एकदम पराये हो गये थे।
बसन्त-भागवान उसके साले के लड़की की भी शायद शादी है,उसका मन तो गांव में था वह मजबूरी वश यहां था। क्या जमाना है अपने ही खून पसीने की कमाई पर पलने वाले,मेरी ही बेटी की शादी के मौके पर अपने होकर परायों जैसा व्यववहार कर गये।
आदेश-पापा कोई अपने नहीं है,सब पैसे के भूखे है। हमारे दादाजी भी कम नहीं है। इन लोगों से अच्छे पराये है। मौके पर अपनों से बढ-चढ़ कर काम आये। सब कुछ तो बाहर वालों ने किया। महिला-पुरूष सभी चाय नाश्ता खाना बनने तक हाजिर हो जाते थे फिर गायब कई लोगों को तो ढूंढना भी पड़ता था। खाना बनाने वाले भी हैरान थे। पता है आपको बर्तन धोते हुए देखकर खाना बनाने वाली बाई ने कहा था,ये कौन से देश की महिलायें हैं खा-खाकर करवटें बदलती रहती हैं दूल्हन का बाप बर्तन मांज रहे हैं। गोलू अभिषेक कपीश भईया ने सारा बर्तन धोया था। बड़े मामाजी के दमाद अजय ने कपीश भईया के उपर इल्जाम लगाकर नाक ही कटवा दिये।
बसन्त-मालूम है बेटा । क्या करता उनको बर्तन धोने को कहता कोई कह देती कि यहां बर्तन धोने आये हैं क्या तब क्या रहती अपना काम था इसमें शरम की कोई बात नहीं । अजय की गलती तो माफी के काबिल नहीं थी पर विष पीना पड़ा ।
आदेश-गांव वाले न आते तो तीन लाख रूपये बच जाते। दीदी को नगद दे देते तो उसकी गृहस्ती जमने में मदद मिल जाती। डेढ लाख तो कपड़ा पर खर्च हो गया। किसी को नहीं छोड़ा बच्चे बूढ़े सब को दिये। बारह दिन तक तन मन धन से सेवा किये,इसके बाद भी नमूसी क्या वे लोग इसीलिये आये थे। लोगों को पानी लेकर पीना अपमान लगता था।
मैडम जसवार-बिगाड़ने वाले से अच्छा बनाने वाला होता है। भगवान ने इज्जत रख ली। घर-वर बेहतरीन ढूढे हो बसन्त बाबू बिटिया राज करेगी। वक्त गुजर जाता है यादे रहे जाती है। गांव के लोग मन खोलकर किये होते तो आज बात का रूख और होता । गांव की दो दर्जन से अधिक औरतें तो थी ही खाना बनाने का काम तो सम्भाल ही सकती थी। इससे बीस हजार तो बच सकता था पर वे तो सो कर पिकनिक मनाने आय थी।
देविका-वे लोग क्या नहीं कर सकती थी पर किसी ने कुछ किया नहीं । हमारे देवर देवरानी वीआईपी हो गये तो और किसी की क्या बात करें। चित्रलेखा के पापा,चित्रकार कपीश, इंजीनियर अनुदेश,आदेश,बैंक अफसर अभिषेक और हम सब यही हाल में थके मांदे जमीन पर रात बिताते थे, किसी ने कभी ये नहीं जानना चाहा कि हम लोगों ने खाना खाया कि नहीं।
मैडम जसवार-वे क्यो पूछते,तुम्हारा घर है खाओ मत खाओ,सोओ चाहे मत सोओ,जमीन पर गुजारो,चाहे गद्दे पर उनसे क्या लेना था। काश वे लोग खून के रिश्ते का फर्ज निभाये होते तो आज कितनी खुशी होती ।
बसन्त-उनका एहसान तो मैं मानूंगा।
मैडम जसवार-कैसा एहसान बसन्त बाबू ?
बसन्त-बारह सौ किलोमीटर की सफर कर चित्रलेखा के ब्याह में शामिल होने के लिये आये जो थे।
मैडम जसवार-बसन्त बाबू आपका मन सचमुच कवि का मन है।
देविका-हंसुआ अपनी तरफ खींचता है। अपने वालों के पक्षधर बन गये। इनके भाई साहब चमन,उसकी पत्नी सेविका बेटी तूलिका को घर की हवा जैसे अशुद्ध लग रही थी,खाये और भागे ये कैसे अपने है। इनके उपर हमने जितना बर्बाद कर दिया,बटोर कर रखे होते तो पैसे वाले होते,बेटी के ब्याह के लिये कर्जा नहीं लेना पडा होता पर वाह रे अपने छाती पर लात मार दिये,हम लोग पागल है कि अपनेपन पर मरते जा रहे है।
बसन्त-देवी दोशारोपण ना करो मैं सभी कि बात कर रहा हूं,उसमें तुम्हारे मायके के लोग भी शामिल है। मुझे भी तकलीफ हुई है,वह भी अपने भाई चमन से सबसे ज्यादा । ऐसा लगता था जैसे वह अपने भाई की बेटी की शादी संम्भालने नहीं वह बंदिश में हो।
देविका-शादी के दिन होटल में सभी ने छक कर इंज्वाय किया इसके बाद इल्जाम लगाया कि हमें तो किसी ने पूछा ही नहीं । लोगों की शिकायत थी बाहर वाले खाकर चले जा रहे है,हमें कोई पूछ ही नहीं रहा है। हम घर वाले है पराये हो गये,बाहर वाले फोटो खिचवा कर,शूटिंग करवाकर छक के चले जा रहे है,हम लोग मुंह बांधे बैठे।
बसन्त-वे लोग तो संभालने आये थे,कोई बाराती तो थे नहीं , हम बच्चों को लेकर काम देख रहे थे। बारात वालों को देखना था, दूसरे इंतजाम देखना था,गाड़ी की व्यवस्था कराना था चलो भगवान का शुक्र है सब ठीकठाक बीत गया।
देविका-दुख की बात है गांव वाला कोई किसी काम के लिये आगे नहीं आया,कमियां गिनाते और शिकायत करते रहे जब तक गये नहीं । बड़े शर्म की बात तो ये है कि कई औरतों ने साड़ी अच्छी नहीं दिये, तंज तक कसी,जबकि एक व्यक्ति पर दो हजार का खर्च हुआ था। सुना है कि हमारे परिवार की सबसे बड़ी बहू ने घर पहुंचते ही बाजार जाकर साड़ी बदल कर दूसरी साड़ी लायी क्योंकि हमने उन्हें अच्छी साड़ी नहीं दिया था,ह तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात हुई। वे अच्छी साड़ी लेने आयी थी कि बिटिया का ब्याह संभालने,ऐसे तो अपने रिश्तेदार है। इससे बड़ी नमूसी और क्या होगी?
बसन्त-ब्याह के दिन तुम्हारे बड़े भाई साहब यानि अपने बड़े साले साहब का रौद्र रूप देखने लायक था। सच बहुत बहुत दर्द हुआ अपने वालों के व्यवहार से।
आदेश-चाचा आते ही हुक्म जमाते खा पीकर गायब,उन्हें इतनी गर्मी लग रही थी,वह भी मालवा में,उत्तर प्रदेश की लूं तो फराई कर देती है। चाचा को गांव की बर्दाश्त हो जाती है, यहां की नहीं जैसे गांव में चौबीस घण्टे एसी में रहते हो। गिलास और प्लेट का ऐसा दुरूपयोग तो देखा नहीं था। गिलास मुंह लगाकर फेंक देते थे। थालीनुमा प्लेट खाने के लिये थी,लोगों को दो-दो प्लेट लगती थी, एक खाने के लिये दूसरी रोटी-सलाद रखने के लिये। क्या लोग जलवा दिखा कर गये। दसारी व्यवस्था खराब हो गयी,सारा बजट फेल हो गया पर उन लोगों को मजा नहीं आया।
देविका-मजा तो तब आता जब गांजा और दारू के ठेके का मुहाना उनके लिये खुलवा देते। रही आदेश तुम्हारे चाचा की बात तो सबसे पराये मुझे वही लगे।
बसन्त-दुख तो चमन से बहुत मिला है जबकि अड़तालीस साल का होने वाला है,उसके परिवार और उसकी चड्ढी बनियाइन से लेकर दवाई और दूसरे सारे खर्च का बन्दोबस्त हमें करना पड़ रहा है। वही भाई कैसा भय्यपन दिखा गया रोना आता है।
मैडम जसवार-सब मतलबी है,बहुत हो गये परिवार पर बर्बाद बसन्त बाबू अब संभल जाना,सबक सीख लेना। ऐसे रिश्ते से क्या मतलब जब कोई मूल मौके पर काम ना आये ।
देविका-ये नहीं मानें । इतना होने के बाद भी अपने भाई साहब और पिताजी की जेब गरम किये थे। इनके पिताजी कोइतनी जल्दी थी कि सबसे पहले जाने को तैयार थे। गाड़ी खड़ी भी नहीं हुई थी कि कूद कर बैठने जा रहे थे। सच कहावत सोलह आने सच है-बाप को बेटवा की कमाई से सरोकार होता है,भाई को अपने मतलब से इनके पिताजी और भाई साबित कर गये। चित्रलेखा के बाप हमें सुनाते हैं कि छः लाख का कर्जा हो गया है। लगता है चित्रलेखा सिर्फ हमारी बेटी है।
बसन्त-भागवान क्यों जले पर नून डाल रही हो। कर्जा किसके लिया किया हूं अपने लिये,उसकी कोई चिन्ता नहीं पर अपने वालों ने जो घाव दिया,वह दर्द असहनीय था पर मौन था ताकि बिटिया की डोली ड्योढ़ी से निर्विघ्न उठ सके। भगवान ने हमारी सुन भी ली,बिटिया अपने घर-संसार में हंसीखुशी पहुंच गयी है। उसका जीवन सुखी रहे बस यही दुआ है।
अनारी आण्टी-बिटिया हुनर वाली उच्ची पढी लिखी है,दमाद भी वैसा ही ढूंढा है बसन्त बाबू अब तकलीफ कैसी ? चित्रलेखा और वरदेवा,दमादजी दोनों दुनिया के कैनवास पर ऐसा रंग भरेगी कि कि दुनिया दोनों की नजीर देगी ये बसन्त बाबू कसम के सिपाही के बेटी-दमाद है।
देविका-हां आण्टी आप बुजुर्गों की दुआयें बनी रहे अपनों का तो मुंह साफ नहीं हुआ कुपित होकर चले गये।
आदेश-मम्मी तुम कहती हो ना बकरा जान संग जाये खवईया को स्वाद ना आये वही हाल पापा के साथ हुआ। पापा ने गांव वालों के भोजन,आवास,कपड़े किराया भाड़ा पर कई लाख खर्च कर दिये,पर उन लोगों का मुंह साफ नहीं हुआ,उनका ये मलाल शर्मनाक था। वे हमारी खुशी को खुशी नहीं समझे तो अपना क्या दोष। हम लोगों ने उनकी आवभगत बारात वालों से कम भी नहीं किया। बारात वालों का होटल में रूकवाया था घरात वालो को किराये के घर में बस इतना सा फर्क था। गांव वालों को शिकायत हम नहीं दूर कर पाये कोई गम नहीं । गांव वालों तो संभालने आये थे। मम्मी बहुत हो गया भूल जाओ गांव वालों के दिये घाव तो पापा और आप को सहने की आदत है। दीदी अच्छे घर परिवार में गयी है,यही मकसद था, वह पूरा हो गया। दुआ करो दीदी के जीवन में कभी कोई गम न आये। दीदी सदा खुशी और सुखी रहे।
अभिषेक-जा मरदवा एतनी अच्छी बात कहै में एतनी देरी कइ देहला।
मैडमजसवार-सच कहा आदेश चित्रलेखा सदा सुहागन रहे,दुनिया की सारी खुशियां भगवान उसे दे। उसकी झोली सदा भरी रहे ।
अनारी-भगवान करे चित्रलेखा जो बाबुल की ड्योढ़ी के अन्दर रहकर सोहरत हासिल की है,उससे हजार गुना सोहरत बाबुल की ड्योढ़ी से विदा होने के बाद पाये,जिससे ससुराल पक्ष के साथ मां-बाप,भाई और कुटुम्ब का नाम सारे जहां में रोशन हो जाये।
देविका-चित्रलेखा मेरी लाडो तू खूब तरक्की करें,बाबुल के ड्योढ़ी की तुझे कभी याद ना आये।
अनार आण्टी-देविका झंखै खरभान जेकर खाले खरिहान, अपनी चितलेखा तो हीरा है,दुनिया के कैनवास पर चित्रलेखा और वरदेवा बाबू सुनहरी तस्वीर उकेरते रहेंगे,खूब मान सम्मान अर्जित करेंगे। बेटी को परिवार अच्छा मिला है,उच्च शिक्षित और सम्पन्न परिवार है,बेटी के बाप को और क्या चाहिये। बेटी अपने घरपरिवार में सुखी हंसती-खेलती रहे यही ना।
मैडमजसवार-चित्रलेखा के हाथ में हुनर है वह राज करेगी।
अनारी आण्टी-बसन्त बाबू और देविका गम की कोई बात नहीं । बेटी के ब्याह का जश्न मनाओ। बाबुल की ड्योढ़ी से बेटी की डोली हंसी-खुशी से उठी है,वर पक्ष अधिक खुश दिखा।
बेटी का ब्याह मुबारक हो बसन्त बाबू कहते मैडम जसवार और अनारी आण्टी अपने घर की ओर चल पड़ी।
डां.नन्दलाल भारती 30.06.2015
आजाददीप, 15-एम-वीणा नगर, इंदौर म.प्र.-452010
शानदार कहानियां हैं.. सिंध की कहानियाँ अब इल्ति नहीं हैं पढने को..
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