डॉ. दीपक आचार्य जिसमें इंसानियत होती है वह हर इंसान की कद्र करता है, आदर-सम्मान देता है और माधुर्य भाव से आत्मीयता भी प्रकट करता है। ...
डॉ. दीपक आचार्य
जिसमें इंसानियत होती है वह हर इंसान की कद्र करता है, आदर-सम्मान देता है और माधुर्य भाव से आत्मीयता भी प्रकट करता है। पर होना चाहिए असली इंसान। न मिक्चर हो, न आधा-अधूरा, और न ही पाव-डेढ़ पाव।
जब हर तरफ प्रदूषण और मिलावट का जमाना है तो इंसान भी इससे अछूता क्यों रहे। इंसानों में भी अब मिलावट जोरों पर है। किसी में जानवरों के गुणावगुण हैं तो किसी में असुरों के।
न्यूनाधिक रूप में सब तरफ प्रदूषण भरी हवाएँ बह रही हैं। किसी का शरीर ठीक-ठाक है तो दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा हुआ है। पूँछ सीधी है तो नाक पर गुस्सा नाचने लगा है। दिशा ठीक है तो दृष्टि जवाब दे गई है। मन ठीक है तो तन जाने किन-किन आकारों में ढलता-बनता और बिगड़ता-बिखरता जा रहा है।
कोई खुश नहीं है अपनी बॉडी और दिमाग से। बॉडी लैंग्वेज ऎसी होती जा रही है कि न खुद अच्छी तरह पढ़ पा रहे हैं न औरों के पढ़ने में आ रही है। हर कोई असन्तुष्ट है अपने आप से। पतलों को मोटा होने की तमन्ना है, मोटे स्लिम यानि की पतले होने के जतन कर रहे हैं। दिन और रात का अधिकांश समय इसी में जाया हो रहा है इन सभी का।
हर किसी को कोई न कोई ऎसी चिन्ता जरूर है कि जिसकी वजह से रातों की नींद और दिन का चैन गायब है। संसार भर का सारा सुख पाने और दिलाने वाले समस्त व्यक्ति, संसाधन, समय और सारा कुछ उपलब्ध है। बावजूद इसके जीने का सुकून नहीं है। जाने किस बात की भूख, प्यास और प्रतीक्षा हमें सता रही है।
जो है उसमें संतोष नहीं है, और जो नहीं है उसे पाने को हम सारे के सारे ऎसे मचल रहे हैं जैसे कि उसके बगैर प्राण निकले ही जा रहे हों, जिन्दगी का पूरा मजा ही खत्म हो गया हो। अनावश्यक पदार्थों के संग्रह और इन्हें अपना बनाने के फेर में कोई शांत और स्थिर चित्त नहीं है।
कोई सशरीर भाग रहा है, किसी का दिमाग भाग रहा है, कोई किसी को भगा रहा है, कोई जमाने की रफ्तार के अनुरूप भाग नहीं पाने की विवशता के मारे कुण्ठाओं के सागर में गोते लगा रहा है। किसी को भी चैन नहीं है। सब अपने आपको भुला चुके हैं, अपनों को भुला चुके हैं।
चाहे कितनी ही लम्बी दौड़ हो, सभी को अपनी ही अपनी पड़ी है, अपने ही अपने आपको देख रहे हैं चारों तरफ। सपनों से लेकर हकीकत तक सब तरफ अपने सिवा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। लग रहा है कि जैसे हर आदमी अपने साथ आईना लेकर भाग रहा है और उसी में बार-बार अपना ही अपना अक्स देखकर खुश हो रहा है, सारे जहाँ को अपना मानकर।
जमाने भर में हर तरफ सजे हुए हैं डेरे मदारियों के। लगी है हर तरफ तरफ भीड़ तमाशबीनों की। हर दिन हर तरफ कोई न कोई मजमा सजता है। भेड़ छाप भीड़ कभी लायी- ले जायी जाती है, कभी अपने स्वभाव के अनुसार बिना मेहनत किए चंद क्षणों में कहीं भी भीड़ जुट जाती है और तब तक जमा रहती है जब तक कि किसी भी तमाशे का कोई औपचारिक समापन न हो जाए।
इसके बाद भी भीड़ संतृप्त नहीं होती, उसे और भी कुछ चाहिए होता है। भीड़ हर बार नये-नये तमाशे देखने, सुनने और अनुभव करने की आदी होती है। भीड़ अपने आप में गोल-गप्पों और पानी-बताशों से लेकर भेल-पूरी और कचौड़ी जैसे जात-जात के तीखे स्वाद की आदि होती है।
हर गली-कूचे से लेकर महानगरों तक तमाशों का जोर है। किसम-किसम के मदारियों ने छोटे-बड़े डेरे सभी जगह लगा रखे हैं। कुछ तो पीढ़ियों से मदारी परंपरा को धन्य कर रहे है, कुछ नौसिखिये हैं पर पुरानों से भी ज्यादा उस्ताद।
फिर हर मदारी के पास कोई न कोई वशीकरण मंत्र सिद्ध किया हुआ है जिसे आजमा कर जमूरों की भीड़ का रुख अपनी तरफ कर लिया करते हैं। जमूरों की भी जबर्दस्त चवन्नियां चल रही हैं। भाग्य का चमत्कार देखना हो तो जमूरों को देख लीजिये। न खाने-कमाने और रहने की कौव्वत है, न नाक-नक्श और न कोई ज्ञान-अनुभव या हुनर। फिर भी हर तरफ छाये हुए हैं। मदारियों की दया, अनुकंपा, कृपा और गठबंधनों ने जमूरों को निहाल कर दिया है। जिन्हें इंसान तक के रूप में स्वीकार करने में हमें गुस्सा आता है, वे लोग जमूरों का धंधा अपना कर निहाल हो गए हैं।
सच ही है कि जो कोई जितना अधिक नंगा होकर नाच सकता है, जितना अधिक निर्लज्ज और बेशर्म है, जितने अधिक रंग-रस में ढल जाने में माहिर होता है, झुक कर जितना अधिक नीचे गिर जाता है, वह उतना अधिक प्रभुत्व पा जाता है।
पीढ़ियों से नंगों-भूखों और प्यासों ने हर तरफ कमाल कर दिखाया है। एक आम इंसान जो काम करने में लज्जा का अनुभव करता है उसे खुशी-खुशी कर दिखाने में जमूरों का कोई जवाब नहीं। मदारी भी खुश हैं और जमूरे भी।
फिर तमाशों के डेरों में अपने आपको समर्पित कर नाच-गान करने वाले बंदर-भालुओं और श्वानों की कहाँ कमी है। तमाशबीनों की भीड़ तो अपने आप ही जुट जाया करती है। वाह-वाह करती हुई तालियाँ भी बजाती है और तमाशा पूरा होने के बाद दया, करुणा और धर्म के नाम पर पैसे भी लुटाने में कोई संकोच नहीं करती।
ऎसा महा संयोग दुनिया में और कहाँ मिलेगा, जैसा कि अपने यहाँ सदियों से चला आ रहा है। सच तो यही है कि हम सभी को ये मदारी और जमूरे ही हाँक रहे हैं। हमने इन्हें रोल मॉडल ही मान लिया है। जिसे जहाँ मौका मिलता है औरों को चलाने लगता है और खुद दूसरों के कंधों पर चढ़कर आगे, इतना आगे निकल जाता है कि पता ही नहीं चलता कि कौन हमारे कंधों से होकर आसमान की ऊँचाइयों को छू गया।
और हम हैं कि छीले हुए घायल कंधों पर मरहम लगाते हुए सेवा और परोपकार का स्मरण कर धन्य होते हैं और अपने आपको परम भाग्यशाली और पुण्यमान मानकर इतराने से नहीं चूकते।
इंसान के रूप में कोई कितने किरदार जी सकता है उसका ठीक-ठीक अनुमान अब कोई नहीं लगा सकता। इन तमाम स्थितियों ने इंसान के वजूद पर बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न लगा दिया है। अब हम सभी के सामने यही यक्ष प्रश्न है कि हम अपने आपको इंसान तो मानते हैं लेकिन कितने फीसदी। हम तमाशबीन ही बने रहेंगे या कुछ कर पाने का माद्दा पैदा कर पाएंगे कभी।
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- डॉ. दीपक आचार्य
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