तरूण भटनागर 30 जून 2007। मुंबई। रोज की मुंबई। रोज के उमसाये धीरे सरकते मुंबइय्या कपासी बादलों का धूप छाँही खेल...। रोज का, बेतरतीब और मु...
तरूण भटनागर
30 जून 2007। मुंबई। रोज की मुंबई। रोज के उमसाये धीरे सरकते मुंबइय्या कपासी बादलों का धूप छाँही खेल...। रोज का, बेतरतीब और मुंबई के मीना बाजार के शीशों में अपनी बदलती शक्लें निहारता हल्लागुल्ला। रोज का,रोज की तरह, पर एक पुराना दिन, जिसे नया समझकर मुम्बई उस दिन भी चल निकली थी।
... और रोज के मक्खियों से भिनकते आदमी - औरतों से अटे पड़े माटुंगा के रेल्वे प्लेटफार्म पर एक लंबी क멸क멸ाती सीटी की आवाज। बाबू मु멶 में उ몆ली डाल कुप्पा मु멶 फुलाकर,बरसों से यह गहरे पेंदे वाली क멸क멸ाती आवाज करता आया है। जिसे सुनकर गोलू विस्मय और खु뇲ी से चमक जाता है। हर बार और एक ही जगह पर, हमे뇲ा की एक सी आवाज हमे뇲ा के लिए बदली होती है। वह कभी भी मुंबई का 'रोज' नहीं हो पाई।
कहते हैं, गोलू जैसे लोगों को हर हाल में आवाजों को पहचानना होता है। चाहे कितना ही शोर क्यों ना हो, आवाज गुमनी नहीं चाहिए। आवाज गुमी मतलब मौत। आवाज अगर पकड़़ से छूट जाये तो जीवन दाँव पर लग जाये। जीवन याने आवाज ठीक से सुनना।
वह हड़बड़ाया सा प्लेटफार्म का फर्श टकटकाने लगता है। लोगों से अटे पड़़े फर्श पर उसे चमड़े का छोटा बटुआ दिखाई देता है। वह झपटकर अपनी टाँगे उस तरफ लपका देता है। क्षण भर को उड़ती नजर से हवा और पागल भीड़़ को टटोलता है। सिर खुजाने का नाटक करता है। नीचे झुकता है। वह बटुआ उसकी मटमैली घिसी पुरानी जेब में आ जाता है।
गोलू की आँखें और कान चौकन्ने हिरण हैं। जरा सा खतरा सूँघा नहीं कि, ये कुलाँछ, वो उछाल, ...काँटे, झाड़ी, सब पार कर किसी दूसरी दुनिया में ...वहाँ जहाँ डर नहीं। बाबू को वही आगाह करता है। बाबू ठहरा बेफिकरा। बंबइया में बोलो तो - एकदम बिंदास। सो उसको टोंचने का जिम्मा गोलू का है। आज भी उसने उसके कान में धीरे से कहा-
' बाबू देख मामा... इधरंइच्च आइंगा क्या...? '
लंबोतरे बाबू ने उचककर देखा। काले कोट और काली पैण्ट में तोंदियल ' मामा ' अपने 'चंगुओं' के साथ उसी तरफ आ रहा था। ' मामा ' याने स्टेशन मास्टर और मामा के चंगू याने ' ममेरा एक ', ' ममेरा दो ', ' ममेरा तीन '।
दोनों अपनी टाँगों से भीड़़ को खदेड़़ते हुए दूसरी तरफ लपक गये। प्लेटफार्म से लगी दीवार में भसककर बना बड़ा सा छेद है। वे दौड़़कर उससे बुलक आये। छेद के पार गरम चिटचिटाती रेल्वे लाइनें हैं। रेल्वे लाइनों पर धड़धड़ाती बेतहाशा इधर-उधर भागती, बावली ट्रेनें हैं। गिट्टी, सीमेण्ट के गर्डर, लोहे के बोल्ट, गंदे पानी के नल हैं, प्लास्टिक-पालिथिन, सड़ी गली चीजें, लैट्रिन-पेशाब, ...के बीच पसरी लंबी रेल लाइन को दोनों दौड़़कर पार कर लेते हैं।
इन दोनों की अपनी भाषा है। एक भाषा जिसे दूसरे लोग नहीं सुन सकते। अगर सुन लें तो समझ ना आये। अगर समझ आ जाये तो कयामत हो जाये। सारे जेबकट पकड़़ लिये जायें। दुनिया को जेबकटों के सारे राज समझ आ जायें। जेबकटों की अपनी बोली। पाकेटमारों की अपनी जुबान। सिर्फ माटुंगा या मुंबई ही नहीं बल्कि सारे भारत में अलग-अलग शहरों में रहने वाले जेबकटों की अपनी बोली होती है। भारत से कहीं ज्यादा, सारे संसार में जेबकतरी करने वाले लोगों के समूह हैं और वे इस काम के लिए अपनी बोली और सुनने - सुनाने के तरीकों का प्रयोग करते हैं।
इतिहास बताता है, कि आज से हजारों साल पहले हमने अपनी हिन्दी से इन पाकेटमारों को बाहर निकाल दिया था। उनके बाल पकड़़कर घसीटते हुए खदेड़़ दिया था। और वे सब इस तरह हमारी हिन्दी से निष्कासित हो गये। यह वह समय था, जब हमारी हिन्दी सभ्य लोगों की भाषा हो रही थी। इसे सभ्य लोगों की भाषा बनाने के लिए पाकेटमारों और जेबकतरों जैसे असभ्य-जाहिलों को खदेड़़ना जरूरी था। हर भाषा इसी तरह सभ्य लोगों की भाषा हो पाती है। संसार में अंग्रेजी सबसे ज्यादा सभ्य भाषा है, और हम पाते हैं कि यह इतनी सभ्यतापूर्ण है कि, ना सिर्फ पाकेटमारों जैसे छोटे पिद्दी समूह, बल्कि ज्यादा बड़े जाहिलों के समूह जैसे, मजदूर, किसान, गाँव के गँवार, शहर के गँवार, रिक्श्ेवाले, कुली, ... वगैरा इस भाषा को ना तो बोल सकते हैं और ना समझ सकते हैं। इस तरह अंग्रेजी सबसे सभ्य लोगों की भाषा हो पाई। हर भाषा सभ्य होना चाहती थी, सो हर भाषा से पाकेटमारों को खदेड़़ दिया गया।
हिन्दी से जेबकतरों को खदेड़़ना इतिहास का एक तुच्छ सा वाकया है, इतिहासकारों ने इस पर लिखना मुनासिब नहीं समझा। वे इतिहास नहीं हो सकते थे। इतिहास वे ही हो पाते हैं, जो अब तक खदेड़े नहीं गये। इतिहास में वही दर्ज हो पाया है, जो अब तक बेदखल नहीं हुआ। जो हमारे बीच है और फिर भी नहीं दिखता उसका इतिहास नहीं हो पाया है। जैसे पॉकेटमार जो हर जगह है, पर फिर भी नहीं है। जो है, पर दिखता नहीं है। रेल्वे स्टेशनों, बाजारों, बस अड्डों, नुक्कड़ चौराहों पर अक्सर कुछ - कुछ लिखा दिख जाता हैं - 'जेबकतरों से सावधान', 'अपने कीमती सामान का ध्यान खुद रखें','सावधान पॉकेटमारी हो सकती है' ...रेल्वे स्टेशनों पर एक महिला अक्सर चेताती रहती है - कृपया ध्यान दें... अपने कीमती सामान को सुरक्षित रखें... किसी अज्ञात आदमी द्वारा दी गई कोई चीज ना खायें... आपको लूटने का खतरा हो सकता है... अटेंशन प्लीज। इतने हल्ले और उनके हर जगह होने के बाद भी जेबकतरे कहीं नहीं दीखते। बावजूद इसके कि पॉकेटमार हमारे आसपास ही है। हम उनके बारे में कुछ जान नहीं पाते। जो दर्ज ही ना किया जाय उसे कैसे जाना जा सकता है। जो खदेड़़ा जा चुका है, उसे जाना नहीं जाता है। खदेड़े गये को जानने की जरूरत भी नहीं रही है। हाँ, एक बात हमें पूरे यकीन के साथ पता है, कि वे हमारे दुश्मन हैं। ऐतिहासिक दुश्मन। जिस दिन ये सब लोग खत्म हो जायेंगे, हम थोड़े और सुकून के साथ रह सकेंगे। उस दिन से हमारी जेबें और ज्यादा सुरक्षित हो जायेंगी। और यूँ सुरक्षित होकर वे और फूल सकेंगी। कुछ लोग कहते हैं, कि यह जेब और बटुआ ही है, जिसे हम हिंदी से बेदखल करने की बात या जेबकतरों के ऐतिहासिक दुश्मन होने के रूप में जानते हैं। जेब और बटुये का ही दूसरा नाम है, किसी का ऐतिहासिक दुश्मन बन जाना। जेब और बटुये ना होते तो शायद ही कभी कोई किसी भाषा से खदेड़़ा जाता। जेब और बटुये ना होते तो हिंदी को सभ्य बनाने की कवायद ही नहीं होती। हिंदी असभ्य ही रह आती।
तो, तमाम जेबकटों की तरह माटुंगा के जेबकटों की बोली बिल्कुल अलग है। शब्द हिंदी के ही हैं, पर उनके नये मतलब हैं। 'चकरी' याने रेल्वे स्टेशन। 'पाण्डू' याने थानेदार। 'कोको' याने पुलिस का बंदा। 'मामा' याने स्टेशन मास्टर। 'ढ़़क्कन' याने टी.टी.। 'लोहा' याने ट्रेन। 'फार्मूला' याने पाकेटमारी का तरीका। 'डण्डा' याने खतरा। 'शिकार' याने वह आदमी जिसकी जेब उड़ानी है। 'चूहा' याने भागो।... हजारों शब्द। हजारों नये मतलब। नयी बोली।
पर उनका काम सिर्फ शब्दों से नहीं चलता। कुछ चीजों के लिए संकेत हैं। उनके लिए कोई शब्द नहीं। 'हाथ ऊपर कर रूमाल हिलाना' याने बोगस काम, खतरे वाला काम, याने नहीं करना। 'लंबी कँपकँपाती सीटी' याने काम हो गया। 'रुक-रुक कर तीन बार सीटी' याने काम फेल आगे कुछ नहीं करना है। कुछ बातें गूढ़़ हैं। जैसे जब रेल्वे वाला पकड़़े तो कहना है- 'हम खुदा के बंदे हैं' और जब पुलिस पकड़़े तब- 'भगवान तुझे सलामत रखे', इतना कहते ही वह उन्हें छोड़ देगा।
पाकेटमारों की यह बोली बड़ी बेरहम है। इसे समझने में हुई चूक का मतलब है, खतरा। समझने में चूके कि पुलिस ने दबोचा। जरा सी लापरवाही याने पब्लिक ने पकड़़ा और बरसाये जूते और डण्डे। यह बोली फासिस्ट है। तिनका भर मुरौव्वत नहीं। इतनी खतरनाक कि इसे समझने में हुई चूक की कीमत कुछ पाकेटचोरों को मरकर चुकानी पड़ी।
गोलू सौ फीसद मुंबइ∏या है। 'आमची मुंबई' के ठप्पे के साथ। वह दिन में कई बार स्टेद्दान आता है। झुग्गी से स्टेद्दान, स्टेद्दान से फिर झुग्गी, झुग्गी से फिर स्टेद्दान, स्टेद्दान से फिर झुग्गी, ...कभी-कभी लोकल से लटककर फरफराते हुए माटुंगा से महालक्ष्मी, दादर, एलफिंग्सटन रोड, परैल, चर्नी रोड, अंधेरी, विले-पार्ले, बोरिवेली, सी.एस.टी., ग्रैंट रोड, मैरीन लाइन, थाणे, बांद्रा... तो कभी उससे भी आगे 'गेटवे आफ इण्डिया' के कबूतरों को लात मारकर उड़ाते हुए, तो कभी 'मैरीन डन्नइव' पर चट्टानों से टकराते पीले गंदले समुद्र की खारी बुंदही हवा में, तो कभी 'बैण्ड स्टैण्ड' या किसी पार्क में गहरे डूबे प्यार करते लड़के-लड़कियों को देखते हुए,तो कभी 'दादर', 'क्रिफर्ड मार्केट' या 'फैशन स्ट्रीट' में पागलों की तरह भगते-दौड़़ते, गिरते-पड़ते लोगों के बीच फुटबाल की तरह, एक पैर से दूसरे पैर पर, जूते की नोक पर 'गोल' के लिए भागमभाग में...। पर सबसे अच्छा है, लोकल ट्रेन के दरवाजे, खिड़की या कपलिंग पर लटककर झूलते हुए बे-बटन शर्ट और नारियल के बूच सी खोपड़ी को मटकाते हुए, सीटी बजाते हुए,पीछे छूटती भीड़़, स्टेशन और भागते शहर के बीच... सबसे तेज, फर्राटा तेज, गुजरते जाना...। यह गोलू का पसंदीदा टेशन है।
दोनों अब तक फुटपाथ के कोने में खड़़े हैं। बाबू को गिनती नहीं आती, सो वह गेालू से गिनने को कहता है। गोलू आठवीं तक पढ़़ा है। सारे ' गुट ' में वह सबसे ज्यादा पढ़़ा है। ' गुट ' में गोलू का पढ़़े-लिखे वाला जलवा है।
गुट ' याने माटुंगा रेल्वे स्टे’ान और आसपास के पॉकेटमारों की मण्डली। कुल जमा छह लोग। पाँच पॉकेट लेने वाले और एक ' काका '। ' काका ' याने पैसों का हिसाब रखने वाला और काम कराने वाला आदमी। पूरे गुट का सरगना। 'काका' एक ठिगना, ठस्स, काला, लाल-लाल आँखें, चौकोर हथेली, पूरे ’ारीर पर भालू की तरह बाल और बड़ी मूँछ वाला आदमी। काका का नाम किसी को नहीं पता। कहते हैं, काका के बाप दादे अमेरिका से आये थे। तभी वह कुछ-कुछ नीग्रो जैसा लगता है। पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है। पर कहते हैं, यह बात बहुत दिनों से चलती आई है। किसी ने जानना नहीं चाहा। काका ने एक दो बार पता किया कि अमेरिका क्या है और उसे यकीन हो गया कि उसके बाप दादे कभी भी अमेरिका से नहीं आये।
काका अपने पॉकेटमारों को ' पट्ठा ' कहता है। काका से सब डरते हैं। कोई पॉकेटमार जो काका के गुट में है, भाग नहीं सकता। किसी पॉकेटमार ने तीन-पाँच किया और काका ने उसकी धुलाई की। काका बुरी तरह मारता है। लात, घूँसा, डण्डा, चप्पल..., दनादन बिना रुके मशीन की तरह। बाल पकड़़कर सिर दीवार पर पटक देता है। पैरों पर डण्डे बरसाता है। पीठ पर लात मारता है। जमीन पर अपने पैर से चेहरा दबा देता है। गिरकर उठ ना पाने तक उठ्ठक-बैठक कराता है। बालों से घसीटता झुग्गी के बाहर पटक आता है। किसी की हिम्मत नहीं कि काका को रोक ले। काका बेरहमी से मारने को ' टीटमेंट ' कहता है। जब तगड़े ' टीटमेण्ट ' की जरूरत होती तो दो चार बाहरी लफंगे बुला लेता है।
'....गिन। '
बाबू ने गोलू को धकियाया। गोलू गिनने लगा... पचास, सौ, पाँच सौ, .....अरे बाप रे पूरे चार हजार रूपये।
बाबू गर्दन डुलाने लगा। जब वह खुश होता है, तब होंठ फटकाता, अपनी गर्दन डुलाता, टाँग नचाता चलता है। बाबू ने बटुये को उलट - पलटकर देखा। उसमें एक फोटो लगी थी। किसी लड़की की फोटो।
गोलू के पास बटुये से निकलने वाली चीजों का खजाना है। काका सारे पैसे रख लेता है और खाली बटुआ गोलू के हाथ आ जाता है। बटुये में फँसी फोटुयें, ट्रेन के टिकिट, विजिटिंग कार्ड, कोरे बिना सील वाले डाक टिकिट, क्रेडिट और ए.टी.एम. कार्ड, पेपर सोप, भगवान की जेबी फोटो, फोन नंबरों की छोटी डायरी, कागज के टुकड़े... हजारों हजार चीजें गोलू के खजाने में जुड़ जाती हैं। अजीबोगरीब खजाना।
गोलू यह खजाना सँभाल कर रखता है। जब इन चीजों को उलटता पलटता है, तब भटकता जाता है। जाने कौन है ? किसकी फोटो है ? कहीं कोई गोल मटोल बच्चा है, तो कहीं कोई लड़की। कागज की कोई स्लिप जिस पर लंबी फेहरिस्त होती... जाने क्या कुछ तो लिखा होता, मैगी का बड़ा पैकेट,जैल पैन की रिफिल, एल.आई.सी का प्रीमियम, मोबाइल का रिचार्ज कूपन, सॉस की बड़ी बोतल, आटे का पैकेट, धनिया पाउडर, सब्जियाँ..... तो कहीं कोई छोटी डायरी, स्पिरल नोटबुक... वर्क टू डू मीटिंग... एक, दो, तीन... तो कहीं कोई बात, तो कहीं तारीखें और ’ाब्दों का मकड़जाल, कहीं कोई शायरी, कहीं कोई आड़ा टेढ़़ा रेखांकन, कोई अश्लील चित्र, कोई अधफटा पन्ना, कोई कोरा-कोरा, कहीं कुछ लिखकर काटा गया, तो कहीं सिर्फ... राम, राम, राम... तो कहीं कोई पता, कोई फोन नंबर, कहीं कोई नाम, कहीं कोई खूब सजाकर लिखा नाम...। बटुओं और पर्स से निकले तरह-तरह के कण्डोम, गोलियाँ...। गोलू देखता रह जाता। वह उस आदमी को जानने लगता। वह आदमी उसके सामने हो जाता। वह यकीन कर लेता कि यही है वह आदमी, कि यह उसी का सामान है।
सहेजकर रखा सामान, जिसका ढ़़ेर उसके तेलहे - चीकटे बसियाये गद्दे के नीचे इकट्ठा होता रहता है। गोलू के लिए यह सब अब बेमतलब नहीं है। यूँ भी बसियाये गद्दे के नीचे रखी चीजें बेमतलब नहीं होती हैं। पर फिर भी लोग इसे कचरा जानते हैं, खासकर काका। पर गोलू नहीं। गोलू इन सब चीजों को अक्सर टटोलता रहता है। जब टटोलता है, तब कहीं कोई चीज उसके बचपन तक चली जाती है। बाबा और माँ की कोई बात जाग जाती है, वह उनसे बतियाने लगता है। कभी वह फिर से उसी जगह पहुंच जाता है, दरिया के किनारे अपने बचपन के दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलते हुए, तो कहीं और...। गोलू के बसियाये गद्दे के नीचे से हजारों हजार रास्ते फूटते हैं। कभी-कभी उसे गद्दे के नीचे रास्तों पर किसी के चलने की आवाज सुनाई देती है। आवाजें जो माटुंगा की भिनभिनाहट में गुम नहीं पाती हैं, उसके गद्दे के नीचे इधर से उधर होती रहती हैं। वह आवाजों को ठीक से पहचान जो लेता है। उसने कभी भी बाबू की सीटी की आवाज को माटुंगा कि भिनभिनाहट में गुमने नहीें दिया। पॉकेटमार के लिए वे आवाजें भी भाषा हैं, जो शब्द नहीं। बेशब्द की आवाजें इतनी भाषा हैं, कि अगर मतलब नहीं समझ आया तो जेल भी हो सकती है। चूँकि आवाजें बहरे आदमी के लिए नहीं होती हैं, इसलिए यह भी तय है, कि कोई बहरा पॉकेटमार नहीं हो सकता है।
काका को इन चीजों से चिढ़़ है।
'कितना समझाया इस छोकरे को लफड़ा वाला आइटम नहीं रखने का। स्साले का खोपड़ी में अपुन का बात एण्टर ही नहीं मारता...।'
काका उन सब चीजों को बटोरकर ले जाता और झोंपड़े के बाहर आग में फूँक आता। पर किसी को यह नहीं पता था, कि काका के पास भी एक खजाना था। गोलू के खजाने से अलग, इतना खतरनाक कि काका उसको जमीन में गाड़ कर रखता था। उसकी खोली के एक कोने में बरसों से वह जमीन में गड़ा है। कहते हैं, काका का मास्टर उसको दे गया था। और उसके मास्टर को उसका मास्टर। और उसको उसका। माटुंगा के बहुत पुराने पाकेटमारों के समय से यह सब चला आया। एक बहुत पुराना खजाना। इसको रखने और बढ़़ाने के कुछ उसूल हैं। हर चीज इस खजाने में नहीं जुड़ सकती है। काका कई बार सोचता है, कि क्यों उससे भी पुराने पाकेटमार मास्टर लोग इसको रखते आये। यह तो कभी भी उसे और पूरे गुट को पकड़वा सकता है। क्यों यह उसूल है, कि इस पुराने रद्दी टीन के बक्से को रखा ही जाय ? कभी वह सोचता है, कि एक दिन वह इसे खत्म कर देगा। हाँ वह एक दिन इन सब चीजों को खत्म ही कर देगा।
पैसे के अलावा जो कुछ और हाथ आता है, वह बहुत तुच्छ है, पर शायद हर पॉकेटमार उसे अपने पास रखना चाहता है। जेबकटी की बची कुची चीजें किसी को भी फँसवा सकती हैं, पर फिर भी लोग मोह नहीं छोड़ पाते हैं, खुद कई बार उसका ही मन हो आया। उसे लगता है, ज्यादातर लोग ये सब चीजें अपने पास इसलिए रखते हैं, ताकि जब मौका मिले वे दूसरों पर अपनी डींगें हाँक सकें कि, कब उसने वह पाकेट ली थी, कितने पैसे मिले थे, वह कितना बड़ा आदमी था, वगैरा -वगैरा। कई बार उसने छोकरों को इस तरह की शेखी बघारते और अपनी बहादुरी के किस्से सुनाते देखा है। यह भी देखा है, कि पॉकेटमारी के बटुये और उसमें बची चीजों को वे इस तरह दिखाते हैं, जैसे वह कोई बहुत बड़ा मैडल हो। खासकर नये छोकरे, जिन्हें तब तक काका की तगड़ी डाँट नहीं पड़ी होती या जिन्हें काका का ट्रीटमेंट नहीं मिला होता है। पर फिर भी डाँट, मार पीट और तमाम खतरों के बावजूद बहुत से पॉकेटमार अभी भी इस तरह का लफड़े वाला आइटम रखते हैं। काका ने टीन के उस बक्से को कभी भी ठीक से नहीं देखा... ढ़़ेर सारे पुराने धुराने फटे फटाये बटुये, चमड़े के टुकड़े, खत्म हो गये कागजों के टुकड़े, घिसे पुराने तार तार हो गये विजिटिंग कार्ड, प्लास्टिक के छोटे टुकड़े, बदबू मारते कपड़े के टुकड़े... सब कुछ कितना गंदा और घटिया। तुच्छ। काका एक दिन उसे जला ही आयेगा। उसके हर सामान को, हर चिंदी को भस्म कर देगा।
बाबू और गोलू रुक गये। सामने एक पुलिस वाला था। एक कांस्टेबल। 'कोको पांच'...। दोनों उल्टे पैर दौड़़ पड़े। कांस्टेबल के चिल्लाने की आवाज उनका पीछा करती रही और फिर कुछ गंदी गालियाँ उन पर बिल्ली होकर झपटीं। दोनों साफ बच निकले। एक खरोंच भी नहीं। उस जगह बुलक आये, जहाँ आना उन्होंने आज सोचा नहीं था। दोंनो हाँफने लगे। बाबू ने पीछे देखा और चुहल करता हँसने लगा।
भागकर दोंनो रेडीवाले के सामने खड़े हो गये। गोलू खड़े-खड़े पेट के बल झुककर हाँफ रहा था।
रेडी के ऊपर तनी बिलंग पर कई रंग-बिरंगे कपड़े लटके थे। कई रंग की टी शर्ट, कैप्री, बरमूडा, मंकी जींस, जमैका, रंग बिरंगी शर्टस, सस्ती कार्गो जींस, स्टोनवाश, बुलेटवाश, हाप्स, टाउजर्स, लोअर, नये कट वाले शार्टस.... हवा में लहराते। आजकल के चलताऊ कपड़े। गोलू भीतर से बट खाने लगता है। रेडी के ठीक सामने वह ठिठक जाता है। उसकी घिसी फटी कमीज की जेब में बटुए के अंदर के नोटों की कड़कड़ाहट उसकी हथेलियों से घुसकर उसके भीतर धुकरपुकर मचा देती है। बरसों से सिमटी-सिकुड़ी भूख लहराते कपड़ों के सामने अपनी मासूम बाँहें फैला लेती है और गोलू को कभी कुछ याद आ जाता है।
...बाबा जब गोलू के लिए कपड़े लाता था, तब गोलू मुँह बना लेता था। तब गोलू बहुत छोटा था। तब गोलू का नाम गोलू नहीं था। तब नोटों की कड़कड़ाहट का पता नहीं था और ना ही था, इस तरह कपड़ों के सामने ठिठक जाना। तब कपड़़े जादुई नहीं थे। तब कपड़ों को उकसाना नहीं आता था। गोलू बाबा के लाये नये कपड़ों पर मुँह बिगाड़ लेता था - ' बाबा तुम तो कहते थे, ट्रेन वाला खिलौना लाओगे। मुझे खिलौना चाहिए..... कपड़ा नहीं। ' गोलू पैर पटकता किनकिनाता..... ऊं, आं..... करता पूरे घर में धमकता घूमता। माँ उसे बुलाती। पर वह चिनचिनाता रहता। फिर माँ उसके पीछे-पीछे हो लेती। वह पैर पटकता भागता। माँ उसे पकड़़ लेती। धीरे से अपने पास खींचती। गोलू नहीं मानता। उसे कपड़ा नहीं चाहिए। एकदम नहीं। चाहे मां मनाये, चाहे बाबा मन्नत करे। दुनिया के सबसे रंगीन और खींचने वाले कपड़े भी उसे नहीं चाहिए थे।
...उस रेडी पर कुछ है, जो गोलू को माँ की ही तरह पकड़़कर अपने पास खींचना चाहता है। उसके बालों में गुनगुनी उँगलियाँ फेरकर पुचकारना चाहता है। शायद मरने के बाद माँ रंग बिरंगे कपड़े बन गई है। हवा में उड़-उड़कर गोलू को बुलाती है, ताकि उसे प्यार कर सके कि एक खदबद सपना होता है..... जब उसकी एकमात्र थेगड़ों वाली पैन्ट और दो घिसी पुरानी तेलही काली, मटमैली कमीजों की जगह एक जोड़ा नया कपड़ा होगा......। वह जमीन की ओर देखने लगता है। तब वह कपड़ों के लिए मचलना नहीं जानता था। तब उसे मचलना चाहिए था। काश बाबा के लाये कपड़ों पर वह कभी जोर से मचल उठता, तो फिर आज के ये दिन इस तरह नहीं होते। पर तब कपड़े इतने सपनीले भी तो नहीं थे ?... बरसों बाद कपड़े कितने बदल गये हैं, जादू से भी आगे... जैसे कोई पागलपन हो। उसे कई बार लगा कि अगर यहाँ भीड़़ नहीं होती और सिर्फ वह होता, तो वह रेडी पर डुलते, फहराते इन चलताऊ कपड़ों के सामने किसी कोने में बैठकर रो लेता। जी भरकर सुबक लेता।
वे दोंनो लौट रहे थे। बाबू खुश था। वह पैर बजाता। सिर झटकता बेपरवाही से डुलता चल रहा था।
'लोकल' तेरे को चीन्हता है। आँख गाड़कर कुत्ता माफिक देखता होइंगा। ऐ छोकरा... भेजा में एण्टर कर रहा है या नहीं। काका को लफड़ा नहीं मांगता। धंधा ठीक से करने का...? '
उस दिन काका ने गोलू से सख्ती से कहा। गोलू का चेहरा एकदम रुक गया। वह काका को टुकुरने लगा, मानो वह अभी कुछ कहेगा। पाकेटमारी में अगर लोगों ने पहचान लिया, याने सब खत्म.....। पुलिस भी हाथ खड़ा कर देती है। काका का एक मंत्र है- ' लोकल लोग ' याने जानी दुश्मन, बंबइय्या में बोले तो - भौत डेंजर बाप...। और इसी से जुड़कर थूथन उठाये दूसरा मंत्र है- ' जेबकट ' याने जिसे कोई नहीं जानता, जिसे किसी ने कभी नहीं देखा...। बंबइय्या में बोले तो - चूहा माफिक अण्डरग्राउण्ड रहने का...। ' लोकल ' अगर जान गया, तो वह फिर काका का ' पट्ठा ' नहीं रहा। जहाँ पुलिस भी सरेण्डर कर जाय, वहाँ काका की क्या औकात ? काका का फण्डा क्लियर है - ' इधर एक के खातिर धंधा बंद नहीं करेगा। ' लोकल ' अगर चीन्ह गया तो इधर से भाग जाने का। ऐसा छोकरा बनाये रखने का डेंजर काम अपुन नहीं करेगा...। '
चार साल पहले एक पॉकेटमार था, उसका ऐसा ही हुआ। ....काका उसकी कहानी कभी नहीं बताता। लड़कों के बीच फुसफुसाती, चुकी- चुकी जुबान में वह कहानी है। उस कहानी के सच का तो पता नहीं, पर उसमें डर और फुरफुरी भरी है। यह जानकर कि सच है, डर, और गहरे, पूँछ सहित घुस जाता है। इतना पता है कि,उसको लोकल लोग जानने लगे थे। रोज लोकल ट्रेन से आने जाने वाले लोग..... औरत और आदमी जो रोज भक्कम - पेल ट्रेन पर लपकते हैं और चींटी के माफिक स्टेशन पर फैलते हैं...। उनको पता चल गया था, कि वह जेबकतरा है, एक बिफरा हुआ पॉकेटमार। और फिर...। जब काका को पता चला उसे गुट से खदेड़ दिया गया। उसका फिर कुछ पता नहीं चला।
काका बड़े इत्मिनान से कहता है। ढ़ीला और थका हुआ।
'... इधर मुबई में तुम्हारा माफिक फटियल छोकरा लोगों को पब्लिक आँख गाड़कर देखता। पकड़़ ले तो गप्पा जाय। जान गया कि पॉकेटमार है, तब एक मैन दूसरा को, दूसरा तीसरा को, ... और फिर सबको बता देगा। इधर एक पॉकेटमार पकड़़ा उधर पूरा भीड़ उस पर लपका। क्या आदमी, क्या औरत ? सब एक माफिक। यह देखता है...।'
काका के बायें भौंह के ऊपर लंबा कट का निशान है।
'...सब लोग मेरे को मार रहा था। औरत का हीलवाला सैंडिल, आदमी का जूता वाला पैर, बूड्ढ़ा लोगों का छड़ी, घूसा, मुक्का..... फिर एक ने, वह क्या कहते है... रामपुरिया... निकालकर चला दिया.... इसी तरफ। पर मेरे को खलास नहीं कर पाया। इधर बहुत दम माँगता है मैन....।'
...काका मुट्ठी से अपनी छाती ठोंकता...
'इधर, मैन.... इधर...लोहे के माफिक दम, कोई लोकल घूसा दे तो साले का हाथ टूट जाये...।'
काका का चेहरा, पत्थर का चेहरा हो गया। हजारों छेद वाला झामा पत्थर।
'....तब पुलिस भी कुछ नहीं करता। उस दिन दो पुलिस वाला रहा। भीड़़ से मेरे को बचाता और जब मैं बच गया, तो उसी आदमी कू जो मेरे कू इधर चाकू मारा... उसी कू शाबासी देता। उसका पीठ ठोंकता। मेरा थोबड़ा पर खून बहता था और वो पाण्डू, उस चाकू वाला का पीठ ठोंकता था...। कुछ लोग मेरे को थूक रहा था। वह पुलिस वाला उनसे इज्जत से बात करता था। लोगों को आगे चलने को कहता था...। इनकी तो.....।'
काका के चेहरे के पत्थर के हजारों छेद खिंचकर लंबोतरे हो गये।
'तुमको मालूम, उस पाण्डू को मैं ढ़ाई सौ रूपये हफ्ता देता था....। अक्खा इलाका में सबसे बड़ा हफ्ता....। पर उस रोज, वह लोकल का पीठ ठोंक रहा था....। और ऊपर से कहता कि उसने मेरे कू बचा लिया....। मेरा जिदंगी, उसीच्च के वास्ते... उसीच्च के....। हरामी....।'
काका की आवाज दरुये की तरह डोलने लगी। अँधेरे में लड़खड़ाती गिरती - पड़ती आवाज।
'...वही पाण्डू जिसको ढ़ाई सौ रुपये देता था... हाँ वही... वही... बरोबर वही। '
मानो वह पुलिस वाला काका की उस बसियाई खोली में आ जायेगा... वो हाँ वही.. वही... और सारे छोकरे उसे देख लेंगे.. वही हाँ.. वहिच्च।
काका की उँगलियाँ अँधेरे में छिपकर झिझकती काँपती थीं। हजारों छेदों वाला झामा हथौड़े की चोट से दरारों में बिखर गया था, इस तरह कि पता नहीं चलता था, कि वह हथौड़ा काका के चेहरे पर कहाँ पड़ा था। सब ओर चुप्पी थी। बाहर का शोरगुल, आड़ी टेढ़ी बेतरतीब आवाजें, बंबइय्या शोर, गाड़ियों के एक साथ बजते और रुकते हार्न, ट्रेनों की आवाजाही, स्टेशन की चिल्ल पों... कुछ भी खोली के भीतर नहीं घुस पा रहा था। शहर का शोर डरा हुआ काका की खोली के बाहर इकट्ठा हो रहा था, खून से सना रामपुरिया चाकू अपनी नोक पर उस शोर को खोली के बाहर रोके था...। बाहर इकट्ठा होता शोर भीतर के विरानेपन और ठहराव को ललचाता रहा। पर बाद में भी वह वहाँ नहीं फटा। वह जगह हादसों के लिए प्रतिबंधित थी। साइलेंस प्लीज- इट इज ए ट्रेंक्वेलिटी जोन। हमेशा की तरह शोर बस इकट्ठा होता। अक्खा मुंबई का शोर...। घटना होने के लिए उसने कोई दूसरी जगह ईजाद की थी। पता नहीं हमारे यहाँ का हल्ला कहीं और क्यों घटता है। ऐसी जगह जहाँ सबसे ज्यादा लोग हैं और सबसे ज्यादा हल्ला है, वहाँ तो उसके घटने की, उसके घटकर कहानी होने की संभावना ही खत्म हो जाती है। मुंबई सबसे ज्यादा लोगों और हल्ले का शहर है, इसलिए उसके हिस्से की घटना कहीं और बहुत दूर होनी थी। यकीनन काका की उस बसियाई झुग्गी में नहीं, जहाँ साइलेंस प्लीज का बोर्ड देखकर हजारों दिन, दर्जनों साल चुपचाप निकल गये।... वह बहुत दूर हुआ। पूरे एशिया, अफ्रीका, यूरोप और पूरे अटलांटिक के पार, अमेरिका में।
जिन दिनों यह सब बंबई में हो रहा था, उन्हीं दिनों अमेरिका के एक नामचीन समाचार पत्र में एक खबर आई। 29 जून 2007। खबर का सार कुछ यूं था -
'...कि बरसों पहले अमेरिका के राष्ट्रपति की किसी ने जेब काट ली और किसी को कुछ पता नहीं चला। जूं तक नहीं रेंगी। चर्चित अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन का चमड़े का वैलेट जिसपर 1776 एनग्रेव्ड था, 1.67 अमेरिकी डालर, कुछ बिल और कागज पत्तरों के साथ, सरेआम तमाम सुरक्षा और लोगों के बीच किसी जेबकतरे ने उड़ा दिया। वाकया 1776 का है। यह इतनी जबरदस्त कलाकारी थी, कि मार सर पटकने के बाद भी अमेरिका का तमाम तामझाम बहुत दिनों तक यह पता नहीं लगा पाया कि वह जेबकट कौन था।'
यकीन करें अगर यह बात ना होती, तो यह कहानी भी ना होती। क्योंकि वहाँ तो कुछ घटना ही नहीं थी। वहाँ कोई कहानी नहीं होनी थी।
काका के चेहरे का पत्थर गायब हो गया।
पर हाथ अब भी काँपते थे।
काका कह रहा था, कि ' लोकल ' गोलू को चीन्हता है।
पर काका को यह बात पता नहीं थी, कि जिसने अमेरिकी राष्ट्रपति की जेब काटी थी, क्या उसे कभी कोई पहचान पाया था। पता होने का कोई तरीका भी नहीं था। पर यह तय था कि, पहचानने का मतलब है, मौत, यहाँ भी और अमेरिका में भी। दुनिया में कहीं भी जेबकतरा वह है, जिसे अब तक किसी ने नहीं पहचाना। अपहचाना ही पाकेटमारी कर सकता है।
गोलू डर गया था। काका बार-बार कह रहा था, कि लोकल उसको पहचानता है। वह काका को सुनते समय बँट गया था, बहुत थोड़ा काका की कई बार सुनी एक सी बात और बहुत ज्यादा पहली बार खुद की कही, डराती बात। गोलू एक साथ काका और खुद को सुनता रहा। फिर काका की आवाज धीरे-धीरे खत्म होती गई और उसकी खुद की आवाज रह गई।
गोलू को सब साफ-साफ दिखता है। लोकल याने सबसे कमीन और बदजात। उसी ने काका को मारा, उसी ने एक छोकरे को खलास किया, उसी ने सबके हिस्से का पैसा अपने जेब में भरा, उसने सबको डरा रखा है... पुलिस को भी, काका को भी, सब लड़कों को भी...। पर बहुत हुआ इसको सबक सिखाना ही है। पक्का सबक। गोलू ने सोच रक्खा है, वह एक दिन लोकल को सबक सिखाकर ही रहेगा। वह लोकल को पक्का सबक सिखायेगा।
.... यूँ तो लोकल की बात बरसों पहले चालू होती है। जब गोलू छोटा था। जब गोलू-गोलू नहीं था।
बरसों पहले आकाश में दही बिखरा था। थक्का - थक्का दही। बंबई के सलेटी बादलों वाले आकाश में यह विरली बात थी। उबासी थी, हँफनी थी, निचुड़-निचुड़ जाता मूड था, चिपचिप पसीना था, पसीने के साथ किर्राती धूल थी, थमता हुआ शोर था, पीला मलिन आलोक था, सुस्ताने को उतावली चिनकती आँखें थीं, ठसती बेगानी भीड़़ में परायेपन का खेल था, शोर और दौड़़ इतना कि उस रात, रात नहीं आनी थी, सांटाक्रूज से चेन छुड़ाकर आकाश पर गुर्राते लपकते जहाज थे...। आकाश में बिखरे दही के अलावा वह पूरी तरह बंबइय्या शाम थी। गोलू तब उसे इसी तरह जानता था, उसके घर के लिए बंबई की शाम ऐसी ही थी। तब बंबई मुंबई नहीं था। तब गोलू भी गोलू नहीं था। मुंबई की ही तरह, तब गोलू का नाम श्रेयांस पटवर्धन था। श्रेयांस बित्ता भर का था। आठवीं क्लास में होने के बाद भी बस बित्ता भर का। तब बाबा को खत्म हुए हफ्ता भर हुआ था। उसे लगता था, कि बाबा आ जायेगा। कि वह सुबह उठेगा और बाबा सामने बरामदे में बैठा पेपर पढ़ रहा होगा।
...बाबा फिर नहीं आया। कभी नहीं और... एक दिन मकान वाले ने श्रेयांस को मकान से बाहर कर दिया। उस दिन वह सबके घर गया, खान चाचा, श्रीमाल अंकल, स्कूल का टीचर, राधेश्याम, लाला जी, बब्बू के पापा, शानी चाचा, पण्डित दीनानाथ, पाटिल अंकल, गुरु बब्बा, छोटे काकू... यहाँ तक कि स्कूल के अपने दोस्त नमिता और शानू के घर भी... पर सबने उसे भगा दिया। वह बंद घर की सीढ़ियों पर बैठा रोता रहा। वह कई दिनों तक भटकता रहा। कि एक दिन काका ने उसे देख लिया। और अपने साथ ले आया।
काका ने उसका नया नाम रख दिया - गोलू। श्रेयांस ने नया नाम नहीं माना। पर सब उसे गोलू कहने लगे। वह सबसे कहता रहा... श्रेयांस, श्रेयांस, श्रेयांस... और सब कहते रहे... गोलू, गोलू, गोलू...। वह चीखता रहा- श्रेयांस, श्रेयांस... लोग हँसते रहे... गोलू, गोलू...। वह रोता रहा.. श्रेयांस... सिर्फ श्रेयांस... और उसका नाम हमेशा के लिए उससे छिन गया। वह सुबकता रहा... माँ ने हमेशा यही कहा, स्कूल में सब यही कहते थे... सबने बस यही तो कहा श्रेयांस, हाँ सच्ची श्रेयांस... सब हँस दिये। वह हमेशा के लिए चुप हो गया। काका चिल्ला पड़ा था-
'इधर पब्लिक अक्खा मुंबई का नाम बदल दिया... समझा क्या ? अब इसको बाम्बे नहीं, मुंबई बोलना माँगता मैन... इतना बड़ा बंबई का नाम बदल गया, तेरे को अपने नाम की पड़ी। किसी को कोई टेंशन नहीं तेरा नाम गोलू है, या वो क्या बोलता है...?'
' श्रेयांस।'
' हाँ वही। स्साला मुँह बंद करता है या दूं एक थोबड़े पर...।'
बदलने के बाद भी ' श्रेयांस ' ढ़ँकी - बुझी राख की तरह है, जो हर बारिश में और ज्यादा मिट्टी हो जाती है। काका को क्या पता बदलने के बाद भी 'बंबई' नाम आज भी, मुंबई को सोते से जगा देता है, स्मृति के किसी छोर पर इस शहर का पुराना नाम आज भी पूरे मन से धड़क जाता है... बाम्बे उर्फ बंबई... इस नाम पर कुछ लोग आज भी पैसे फेंकते हैं, एक ऐसे समय में जब पैसे नहीं फेंके जाते... जब कोई मुंबई शहर को उसके पुराने नाम से बुलाता है, तब दुनिया बदलती नहीं है, बस कुछ चीजें याद आती हैं... शायद इसलिए भी कि बंबई की यादें, मुंबई की यादों से कहीं ज्यादा हैं। काका को क्या पता ? पूरे बारह सालों के बाद भी उसे कहीं कोई 'श्रेयांस' नाम से बुलाता है और वह पाता है, कि ऐसा कोई नहीं... कोई हो भी तो नहीं सकता। ऐसे नाम बिरले ही होते हैं, जिन्हें पुकारने वाला कोई नहीं होता है और फिर भी वे पुकारे जाते रहते हैं। करोड़ों की मुंबई पर कोई नहीं, पर फिर भी जैसे इसका पुराना नाम कोई ले रहा हो, जैसे पुराने नाम कभी खत्म ही नहीं होंगे, जैसे सबकुछ खत्म होने के बाद बस पुराने नाम ही रह जायेंगे...। मुंबई और श्रेयांस ने कभी नहीं सोचा था, कि उनका नाम बदल दिया जायेगा, कि पुराने नाम से प्यार करना अपराध हो जायेगा, कि लावारिसों, पागलों और पाकेटमारों को हमेशा नये नाम दिये जाते हैं, यह खुद वे भी तो नहीं जानते। पर एक अंतर है, श्रेयांस चीखता रहा... श्रेयांस, श्रेयांस, श्रेयांस... और लोग कहते रहे गोलू, गोलू, गोलू... श्रेयांस रुआँसा हो गया था और आज भी जब वह अपने पुराने नाम को याद करता है, उसे कुछ हो जाता है... पर मुंबई ने कभी जिद नहीं की, वह कभी रुआँसी नहीं हुई, वह कभी नहीं चीखी... बंबई, बंबई, बंबई...
मुंबई में कुछ जगहों का नाम एक बार बहुत पहले भी बदला था। लगभग ढ़ाई सौ साल पहले। यह वह समय था, जब यहाँ पाकेटमारी नई-नई आई थी। कहते हैं आगे चलकर मुंबई जिन चीजों का सबसे बड़ा केंद्र बना पाकेटमारी भी उसमें से एक थी। यह यहाँ सबसे ज्यादा फली फूली। इसका श्रेय भी एक तरह से अंगरेजों को ही जाता है। पाकेटमारी की कला के बढ़ने में कुछ विदेशियों का भी हाथ था, खासकर इसके तौर तरीकों को सुधारने में।
अंगरेज जिस काम के लिए हिंदुस्तान आये थे, उसके लिए मुंबई काफी मुफीद जगह मानी गई थी। अंगरेजों का काम था, हिंदुस्तान की लगभग हर वह चीज जो दूसरे मुल्कों के बाजार में बिक सकती थी, उसको यहाँ से ले जाकर बेचना। मुंबई को आधार बनाकर वे उस चीज को बाहर के मुल्कों में ले जाते थे। इस काम के लिए यहाँ एक विशाल बंदरगाह बनाया गया था, जहां दर्जनों जहाज रोज आते जाते थे। हिंदुस्तान की तमाम चीजें यहीं से विदेश भेजी जाती थीं। इन चीजों में चाय बहुत अहम थी। दुनिया को तब नई-नई चाय की लत लगी थी। यूँ तो चाय एक पुरानी चीज थी, पर इसको लत बनाने का काम अंगरेजों ने ही किया था। लगभग 100 साल बाद याने अठारहवीं सदी के आठवें दशक तक यह चाय दुनिया में तरह-तरह के किस्से करने लगी थी। जब नेपोलियन ने अंगरेजों की आर्थिक नाकेबंदी की थी, तब कुछ देश और लोग महज इसलिए टूटने लगे कि वे चाय के बिना नहीं रह सकते थे। अंगरेजों से अगर चाय ना मिले तो यूरोप में भारी संकट खडा हो जाय। चाय एक तरह से अंगरेजों के प्रभुत्व को दिखाने वाली चीज थी। अमेरिका के लोगों ने शायद इसी वजह से एक दिन बोस्टन बंदरगाह में हिंदुस्तान से गई अंगरेजों की चाय के जहाज पर चढ़कर हंगामा खड़ा कर दिया था। यह वह समय था, जब अमेरिका अंगरेजों से मुक्त होने के लिए इंगलैण्ड से लड़ाई लड़ रहा था। अमेरिकी लोगों का सबसे चहेता नेता जार्ज वाशिंगटन था। वही जार्ज वाशिंगटन जिसके बारे में वह खबर अमेरिका के एक बेहद चर्चित अखबार में आई थी। वही जिसकी पाकेट किसी जेबकतरे ने उड़ा दी थी और इस पॉकेटमारी की जाँच दुनिया की कुछ सबसे बेहतरीन माने जानी वाली पुलिस और सुरक्षा ऐजेंसियों ने शुरू की थी। उसी ने अंगरेजों के खिलाफ एक तरह की लड़ाई छेड़ रखी थी। और कहते हैं उसी के कुछ लोगों ने बोस्टन के बंदरगाह पर भारत से पहुँचे चाय के उस जहाज पर चढ़ाई कर दी थी और चाय के बहुत सारे खोखे समुद्र में फेंक दिये थे। अमेरिकी इतिहास में इस घटना को बोस्टन टी पार्टी कहा गया और इसका महत्व इसलिए बहुत था, क्योंकि यह अंगरेजी प्रभुत्व की और अंगरेजियत की एक तरह से प्रतीक याने चाय को नकारकर अमेरिकी स्वतंत्रता की लड़ाई की मंशा और दबंगियत को दर्शाती थी। यह बात जार्ज वाशिंगटन की जेबकटने वाली घटना से चार साल पहले हुई थी।
खैर। तो यह चाय थी, जिसने भारत और अमेरिका को जोड़ा। बहुत से भारतीय चाय के जहाजों में मजदूरी करते हुए अमेरिका जा पहुँचे। ये आधुनिक भारत के लगभग पहले पहल अमेरिका पहुँचने वाले लोग थे। कुछ और बेहद कम लोग अमेरिका में बस भी गये। पर लगभग पचास साल बाद ऐसा भी हुआ कि कुछ चंद अमेरिकी अपना देश छोड़कर भारत आ गये। यह इतिहास का उतना ही तुच्छ वाकया है, जितना कि पाकेटमारों को हिंदी सरीखी सभ्य होती भाषाओं से खदेड़़ा जाना। पाकेटमारों को अमेरिकन इंगलिश से भी खदेड़ा गया। सिर्फ पॉकेटमार ही नहीं, जाहिलों के वे सभी समूह, जिनका खदेड़़ा जाना भाषा के सभ्यतापूर्ण विकास के लिए जरूरी था, वे सभी लोग खदेड़े जा रहे थे। ये लोग ज्यादातर दक्षिण अमेरिका में रहते थे। इनमें तरह तरह के लोग थे, पर ज्यादातर मजदूर। कुछ छोटा मोटा अपराध करने वाले लोग। ज्यादातर काले। नीग्रो। गरीब और लाचार। इन्हें खदेडा जाना था। अमेरिकन इंगलिश के सभ्य होने का मुद्दा था। पर इन लोगों ने जाने से मना कर दिया। भयंकर लड़ाई हुई। कई लोग मारे गये। उत्तर ने दक्षिण पर धावा बोल दिया। अमेरिकी लोग इसे गृह युद्ध कहते हैं। लोगों ने सोचा था, यह सब कुछ दिन चलेगा और खत्म हो जायेगा। पर यह काफी दिनों तक चलता रहा। कई लोग मारे गये। कई लोग अमेरिका छोड़कर चले गये, खासकर दक्षिण के अश्वेत लोग। उन्हीं दिनों ईस्ट इण्डिया कंपनी के चाय ढ़ोने वाले जहाज में बैठकर छह अमेरिकी अश्वेत बंबई चले आये थे। यह बात अमेरिकी गृह युद्ध से कुछ दिनों बाद की है, तब बंबई में बोरी बंदर पर एक नयी-नयी बिल्डिंग बनी थी। बोरी बंदर का नाम बदलकर उस नई बिल्डिंग को विक्टोरिया टर्मिनस कहा जा रहा था। उन दिनों मुंबई में महज कुछ हजार लोग रहते थे। पर कोई भी बोरी बंदर का नाम बदलने पर दुःखी नहीं हुआ। वे अंगरेजों से श्रेयांस की तरह नाम ना बदलने की जिद भी नहीं करना चाहते थे। वे आज की मुंबई की ही तरह बेहद साधारण लोग थे, उन्हें नाम बदलने पर जिद करना नहीं सुहाता था। मुंबई के लोग तब भी साधारण थे और आज भी हैं। वे श्रेयांस की तरह जिद नहीं कर सकते, उन्हें अपने शहर का नाम बदले जाने पर रोना नहीं आता। नाम बदलने की छोटी सी बात के साथ ही उन दिनों किसी विलियम स्टिवेंस की बड़ी चर्चा थी। कहते हैं, उसी ने बोरी बंदर पर यह इमारत बनायी थी। उन दिनों माटुंगा बंबई से दूर था और एक छोटे से द्वीप पर स्थित था। उस द्वीप का नाम महिमावती था, जो बाद में बदलकर माहिम हो गया। यह बंबई से इतना अलग थलग था, कि जब बड़ा ज्वार आता था, तब यह बंबई से कटकर अलग हो जाता था। उन दिनों यहां लाइट नहीं थी। चौराहों पर मुंबई मुनिस्पालिटी का आदमी घासलेट का लैंप जलाता था। उन दिनों मुनिस्पालिटी और घासलेट दोनों ही नये-नये शब्द थे। उन दिनों मुंबई में सबसे कौतूहल की चीज थी रेलगाड़ी। भाप के तीन छोटे इंजन जिनके नाम साहिब, सिंध और सुल्तान थे, रेल के चार डिब्बों को बोरी बंदर से थाणे तक खींचते थे। जब रेल गुजरती लोगों का हुजूम उसको देखने उमड़ पड़ता।
...उन्हीं दिनों वे छह काले अमेरिकी बंबई पहुँचे थे। उनमें से दो पॉकेटमारी का काम करते थे। बंबई के पॉकेटमारों और उन दोनों में एक बड़ा अंतर था। भारत में उन दिनों सिले कपड़े नहीं पहरे जाते थे, या यूँ कहें प्रचलन में नहीं थे और पैण्ट शर्ट विलायती कपड़े समझे जाते थे, जिन्हें अमूमन भारतीय नहीं पहरते थे। भारतीय या तो धोती कुर्ता या पजामा या दक्षिण भारतीय लुंगी पहरते थे। माटुंगा में ज्यादातर दक्षिण भारतीय थे और उन्होंने अंगरेजों के लिए उन दिनों कॉफी और फूलों की दुकानों की शुरुआत यहाँ की थी। हिंदुस्तानी ऐसे कपड़े पहरते थे, जिसमें पाकेटमारों की एक तरकीब जिसे कटिंग कहते हैं, नहीं हो सकती थी। वास्तव में वह उन दिनों अप्रचलित चीज थी। पर चूँकि अमेरिका में लोग इकहरी सिलाई वाले कपडे पहरते थे, इसलिए यह वहाँ पर एक बेहद प्रचलित तरीका था। इस तरह उन दिनों कटिंग नहीं थी और कहते हैं, अमेरिका से आये उन छह नीग्रो लोगों में से किसी ने इसे मुंबई में चालू किया। फिर जैसे जैसे भारतीयों के परिधान बदले और पैण्ट शर्ट जैसे सिले हुए कपड़े प्रचलन में आये पाकेटमारी का कटिंग तरीका भी पनपने लगा। उन दिनों के अंगरेज पुलिस अधिकारियों ने बाम्बे के गजेटियर में इस बात का हवाला दिया है, कि पाकेटमारी में बढ़ोत्तरी हो रही थी और जेब काटने का काम काफी होने लगा था, जो पहले नहीं होता था। मुंबई व्यापार और उद्योग का केंद्र बनकर उभर रही थी और इसे भारत का सबसे बड़ा आर्थिक मामलों का शहर बनना था, सो यहाँ कटिंग के पापुलर होने के भी भरपूर चांस थे और ऐसा हुआ भी। जेब और बटुये जो पहले प्रचलन में नहीं थे, तेजी से बढ़ने लगे। बटुओं में पैसा भी आने लगा। इस तरह पाकेटमारी चल निकली। याने अगर अंगरेज ना होते और लोगों को चाय की लत ना लगती तो शायद माटुंगा का जेबकतरों का गुट नहीं होता और ना यह कहानी होती।
खैर तो, वह दिन था, जहाँ से 'लोकल' की कहानी शुरू हुई। एक लोकल जिसने श्रेयांस पटवर्धन को गोलू हो जाने दिया, एक लोकल जिसने काका को मारा, एक लोकल जिसका शिकार लड़का आज भी जाने कहां भटकता होगा, एक लोकल जो कभी नहीं चिल्लाया कि क्यों उसके शहर का नया नाम किया गया, एक लोकल जो मुस्काराता देखता रहा एक सीधे साधे लड़के को पॉकेटमार बनते हुए, एक लोकल....। लोकल की बात शायद आगे नहीं बढ़ती। पर एक खतरनाक हादसा हो गया। लोकल ने खून - खराबा शुरू कर दिया।
गोलू और बाबू का याराना है। दाल-भात याराना। काका दोनों को एक साथ काम पर भेजता है। जेबपकड़ी में दोनों की गजब की मिली भगत रहती है। जोरदार समझ। गोलू, बाबू को और बाबू, गोलू को खूब समझता है। कहीं कोई चूक नहीं।
इधर जेबकतरी के कई तरीके हैं। गोलू जब नया-नया आया था, काका उसे सब सिखाता था। पर दो ही तरीके ज्यादा चलते हैं। पॉकेटमारों की भाषा में इसे 'फार्मूला' कहते हैं। पहला 'फार्मूला' याने 'कटिंग' और दूसरा फार्मूला याने 'पछाड़'....।
आजकल जो ' कटिंग ' है वह कई तरह की है। कुछ लड़के नाखून में ब्लेड फँसाकर इसे करते हैं, तो कुछ हाथ में बंधी पट्टी में लोहे की पत्ती रखकर, तो कुछ सीधे या लोहे की धारदार पट्टी से..... पर यह बड़ा टेढ़़ा काम है। हर जगह नहीं हो सकता। इस 'फार्मूले' के उसूल भी कड़े हैं। सलीके के कपड़े पहरो ताकि किसी को शक ना हो। चलती-फिरती और बिखरी हुई भीड़़ में कभी मत करो और ऐसी जगह ढ़़ूँढ़़ो जहाँ लोग ठसाठस अटे हों। रुके हुए हों और बेफ्रिक हों जैसे कि ट्रेन की जनरल बोगी, ऑफिस टाइम की लोकल, टॉकीज, मंदिर, मस्जिद... जहाँ लोग मगन हाते हैं। फिर ' शिकार' के पास सरककर तकनीक अजमाओ। इसमें धीरे-धीरे नहीं चलता। 'हथियार' बढ़़़़़़़़़़़़़िया धार का होना चाहिए। आजकल लोग ज्यादातर जींस की पेन्ट पहरते हैं। इससे रिस्क है। पर सफाई से और कायदे से काम हो तो सब ठीक। काका कहता है.... कमाल तो तब है, जब शिकार की पेन्ट पर जूँ तक ना रेंगे। मतलब ब्लेड या पत्ती की धार के अलावा कुछ और कपड़े तक नहीं पहुँचे और धार भी वहाँ जहाँ सबसे नाजुक सिलाई हो, दुहरी, तिहरी परत वाली मोटी सिलाई की बजाय नये फैशन की इकहरी ठीक रहती है...। यह देखना होता है, कि मुँह बटुये के माफिक ही खुले जिससे बिना किसी घिसावट के वह सट्ट से बाहर आ जाये। दुहरी सिलाई साइड से और इकहरा सीधा जोड़ ऊपर से खोला जाता है। साइड से और ऊपर से चोट के अलग- अलग तरीके हैं और यह भी कि किस तरह का हथियार कहां ठीक होगा। सारे कायदे फिट हैं, बिना किसी चूक के...। कटिंग का बेसिक फण्डा है - ' कपड़ा शरीर नहीं है और उसकी चोट से शरीर को कोई वास्ता नहीं '।
कहते हैं, जार्ज वाशिंगटन भी इकहरी सिलाई वाली पैंट पहरता था। यह भी कहते हैं कि बाद में उसको पता चला था, कि जेब के निचले हिस्से में एक मासूम दरार मुँह खोले थी। यह बात उसने किसी को नहीं बताई थी। अमेरिका में उन दिनों काफी विपन्नता थी और तरह- तरह के अपराध थे। पॉकेटमारी प्रचलित थी। और किसी चीज को खत्म करने या रोकने की बात कई तरह के विवादों को जन्म दे सकती थी। एक लंबे अरसे से वह खुद गुलामों की प्रथा के खात्मे के बारे में सोचता रहा और कुछ लोग यह मानते हैं, कि ऐसा उसने सिर्फ इसलिए नहीं किया कि इससे कहीं कोई दूसरा विवाद ना खड़ा हो जाय। शायद उसे पता था, कि कुछ लोग हमेशा समाज से बेदखल रह आते हैं। स्वतंत्रता की लंबी लड़ाई और आजादी के लिए हजारों लोगों के मारे जाने के बावजूद और 7 जुलाई 1776 को फिलाडेल्फिया में दुनिया के एक बेहद सशक्त प्रजातंत्र की नींव रखते हुए भी उसे लगा था, कि कुछ लोग आज भी इतने पराये हैं कि उन्हें पहचाना ही नहीं जा सकता है। और इससे भी कठिन बात है, उनके लिए शुरुआत करना। उनके साथ खड़ा होना ही अपने आप में एक दुरूह काम था। वह उसकी उन तमाम तलाशों में से एक थी, जो उस दिन उसने शुरू की थी, यह जानने कि वह कौन था, जिसे यह नहीं पता था, कि वह अमेरिका का राष्ट्रपति है और जो बड़ी नफासत के साथ तमाम लोगों के बीच से उसका बटुआ ले उड़ा था। उस आदमी को जानने के लिए वह बेहद उत्सुक था।
खैर, दूसरा फार्मूला याने 'पछाड़'। इसमें दो बंदे लगते हैं। ' अगड़ा ' और ' पिछड़ा'। 'अगड़े' का काम भीड़ से टकराते हुए आगे बढ़ना और जो तगड़ा ' शिकार ' हो उसको खलास करना। इसमें सारा खेल उँगली की पकड़़ का है। बाबू की बीच की तीन उँगलियो में गजब की फुर्ती है। वे शिकार के जेब में चूहे के माफिक घुसती हैें, तेज पर चौकन्नी और जब बाहर आती है, इनके बीच फँसा बटुआ एक झटके से नीचे गिर जाता है, और सीटी की लंबी कँपकँपाती आवाज आती है। ' अगड़े ' का काम खत्म, अब ' पिछड़े ' को उस माल को कनखियों से देखकर अपने पैर में दबाना है, और फिर मौका ताड़कर उठाना है। कभी -कभी इस काम के लिए पिछडा कोई चीज गिरा देता है, जैसे रूमाल, गुटखे का पाउच, गमछा,बीड़ी का गठ्ठा, मुड़ा तुड़ा कागज.... कुछ भी और उसे झुककर उठाता है। पर वास्तव में वह माल उठा लेता है, किसी को पता भी नहीं चलता। गोलू और बाबू यहीं ' फार्मूला ' लगाते है, बाबू ' अगड़ा ' और गोलू ' पिछड़ा ' और एक मिनट में सटपट निबटता ' पछाड़ '....। वे हर बार काका को कहानी बताते हैं। काका की छाती दोहरी हो जाती है।
....तो लोकल ने खून खराबा शुरू कर दिया था।
बाबू की उस ' शिकार ' पर कई दिनों से नजर थी। तोंदियल थुलथुल वह गोरा टकला आदमी, जो उस दिन सफेद पैन्ट और सफेद शर्ट में नीली टाई लगाये मांटुगा स्टेशन से चढ़ा था। बाबू ने उसे नाम दिया ' सफेद सांड'। बाबू को यकीन था, उसके जेब में खासा पैसा होगा। बंबइय्या में बोले तो - रोकडा, टंच रोकड़ा...। फिर तोंदियल लोग आलसी टाइप होते हैं, ठसाठस भीड़ में यह बड़ा हल्का-फुल्का ' शिकार ' होगा। बाबू और गोलू पहले भी एक बार इस पर ट्राई मार चुके थे, पर काम 'खल्लास'...। रुक रुककर तीन बार सीटी और बाबू को सरपट आगे दुबककर निकलना पडा। उसकी पैंट की जेब का मुँह छोटा था, बाबू की उँगलियों के करतब के लिए एक तंग संकरी जगह। फिर भी उस दिन बाबू ने दुबारा ट्राई मारा। पर फिर से गड्ढ़ा। एक के बाद एक तीन छोटी सींटिया की आवाज आई.... याने ' अगड़ा ' फेल....। ...गोलू को लगा अब, बस अब एक लंबी कँपकँपाती सीटी उसे सुनाई देगी.... पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। भीड़ में हडकंप मच गया.... पकड़़ो स्साले को, छोड़ना नही... चोर, चोर..पॉकेटमार...।
लोगों ने बाबू को पकड़़ लिया था। गोलू को काका का सबक याद आया... ऐसे में चुपके से सरक लो, और जल्दी लौटकर बताओ....। गोलू भागकर अड्डे आ गया। काका के होश उड गये। बाबू उसका नंबर एक पट्ठा और इतनी बड़ी गलती.....।
उस दिन बाबू बहुत बाद आया। उसके साथ एक कांस्टेबल था। बाबू की कमीज फटी हुई थी। उसके होंठ के किनारे से खून रिस रहा था। माथे पर दो गूमड़े निकल आये थे। फटी कमीज के नीचे उधड़ी खाल पर लाल-लाल लाइनें दिख रही थीं...। वह रो रहा था और कांस्टेबल उसके बाल पकड़कर बेरहमी से उसे मारता हुआ, घसीटता ला रहा था।
....वह पहचाना जा चुका था। वह अब पॉकेटमार नहीं रहा था। पॉकेटमार याने वह जो अब तक पहचाना नहीं गया। जो पहचाना जाना याने सब खत्म।
उसने काका के सामने झिंझोड़ते हुए बाबू को पटक दिया।
थोड़ी देर बाद सबको पता चला, काका ने बाबू को भगा दिया है- .... बाबू को 'लोकल' लोगो ने चीन्ह लिया है। पुलिस ने हाथ खड़े कर दिये हैं....। अब उसको गुट छोड़ना पड़ेगा। इधर दुबारा आया तो काका उसको खत्म कर देगा.....। उस दिन काका ने गोलू को भी दो चार जड़़ दिये - स्साला हीरो बनता है... सबको फंसायेगा हरामी...।
वह दिन था, कि फिर बाबू नहीं लौटा। काका जिसको भगा देता है, वह फिर नहीं लौटता। उसे काका और पुलिस का डर लौटने नहीं देता है। उसका नाम पुलिस के रिकार्ड में आ जाता है। उसका फोटो माटुंगा थाने में लग जाता है। वह फिर लौट नहीं सकता। उसके लिए कहीं जगह नहीं हो पाती है, ना लोगों के बीच और ना पाकेटमारों की टोली में। वह उस तरफ जाता है, जहाँ कोई नहीं होता... वह दुनिया जहाँ लोग नहीं हैं। अगर लौट नहीं सकते, तो बस वही जगह रह जाती है।
...हममें से किसी ने आज तक किसी पॉकेटमार को नहीं देखा। उसकी एक बड़ी वजह यही है। वे इतने बहिष्कृत हैं, कि सिर्फ पहचान लिये जाने पर, उनका पूरा वजूद ही खत्म हो जाता है। अपनी पहचान को छुपाना बचे रहने के लिए जरूरी है। अगर पॉकेटमार का पता चल जाय तो वह खत्म हो जाता है। पर हमारे यहाँ छिपना-छिपाना अपराध माना जाता है। अगर कोई अपनी पहचान छुपाये तो वह अपराधी होता है। कोई अगर कहीं छिपता छिपाता दिखे तो पुलिस उसे पकड़़ सकती है। कहते हैं, ऐसा कानून इसलिए है, क्योंकि पॉकेटमार आज भी पूरी तरह से खदेड़े नहीं गये हैं। लोगों को पता है, कि पॉकेटमार को खत्म करने का बस एक ही तरीका है, कि उसे पहचान लो। कहते हैं, यह तय कर लिया गया है, कि जिस दिन सारे पॉकेटमार खदेड़़ दिये जायेंगे, उस दिन से खुद को छिपाना या अपनी पहचान किसी को ना बताना अपराध नहीं रह जायेगा। कहते हैं, खुद को छिपाने वाले सबसे ज्यादा लोग एक समय में पोलैण्ड में थे। उन दिनों नाजियों ने पोलैण्ड पर कब्जा कर लिया था और बहुत से यहूदी लोग, यहाँ तक की औरतें और बच्चे भी खुद को छिपा रहे थे। उन दिनों इस तरह खुद को छिपाने वालों पर सबसे कड़ी कार्यवाही हुई थी। बताते हैं, लगभग दो करोड़ इस तरह के छिपने वाले लोगों को बेदर्दी से मार डाला गया था। इनमें से ज्यादातर लोग यहूदी थे और वे किसी तरह यह बात छिपाना चाहते थे, कि वे यहूदी नहीं हैं। ...मतलब यह कि जिस दिन सारे पॉकेटमार खत्म हो जायेंगे, उस दिन छिपना अपराध नहीं रह जायेगा।
गोलू को अक्सर लगता बाबू लौट आयेगा। वह उसे दूर-दूर तक तलाश आया, दादर, महालक्ष्मी, अंधेरी, थाणे, बांद्रा, माहिम, बोरिबेली, परेल, विले पार्ले, कोलाबा.... हर जगह, वह बेतहाशा उसे ढ़़ूँढ़़ता रहा पर वह नहीं मिला।
मुंबई में किसी को इस तरह ढ़़ूँढ़़ना पागलपन माना जाता है। पर यहाँ ऐसे बहुत से पागल टकरा जाते हैं। यहाँ लोग उसी तरह गुमते हैं, जैसे घरों में कोई तुच्छ या छोटी मोटी चीज गुम जाती है, जिनमें से ज्यादातर का पता नहीं चलता और कोई कभी अचानक मिल जाती है, घर की सफाई करते हुए या फर्नीचर इधर उधर करते समय, धूल और बाल के गुच्छों में लिपटी कोई चीज जो बहुत दिनों पहले गुमी थी और हम क्षण भर को अचकचा जाते हैं। ठीक वैसे ही, जब कोई पूरी तरह से नाउम्मीद होकर वापस लौट जाता है और रोज मर्रे के काम में लग जाता है, बस तभी कहीं से कोई प्रकट होकर उसको अचरज में डाल देता है। कोई चेहरा जिसकी उम्मीद खत्म हो चुकी होती है, किसी गुमी चीज की तरह अचानक किसी कोने में दिख जाता है।
बंबई की रोज भागती भीड़़ से कहीं ज्यादा तेज, वह मवाली की तरह उसको ढ़़ूँढ़़ता रहा। अगर तेज ना हो तो बाबू मिले ही नहीं। तेज ना हो तो वह नाउम्मीद हो जाये। जब भीड़़ ज्यादा हो तो तेज होना ही पड़ता है। सफेद मटमैली पैण्ट और घिसी पुरानी सलेटी शर्ट में, सिंगल हड्डी कंधे तक झूलते काले-भूरे बाल, ...वह बहुत दूर से बाबू को पहचान सकता है। ...और फिर उस दिन वह खबर आई...। काका ने सबको बताया। बाबू की लाश फुटपाथ पर पड़ी मिली थी, बोरिवेली स्टेशन के पास। पुलिस ने लावारिस लाश के कागज पूरे किये औेर वुहन्नमुंबई मुनिस्पालिटी का स्वीपर उसको उठा ले गया...। पुलिस ने डेढ़़ सौ रूपये स्वीपर को दिये लाश को फूँकने के लिए।
उस दिन गोलू का ऐलान और पक्का हो गया। वह लोकल लोंगो को सबक सिखायेगा। एक दो बार उसने अपने साथी लड़कों से भी कहा, कि वह लोकल को सबक सिखायेगा। लड़कों ने उसका मजाक बनाया। लड़कों की आवाज उसको चिढ़़ाती है। पर वह उस आवाज पर फुटपाथ पर थूकता है। बार-बार थूकता है। उसके गले तक थूक भरी है। और उसके सामने मुंबई का चेहरा है। वह जी भरकर पागलों की तरह उसपर थूकता है।
माटुंगा स्टेशन पर भटकते समय गोलू को अक्सर वह 'सफेद सांड' दिख जाता। वह भभक जाता। रेत डालने के बाद भी, नीचे के लाल अंगारों को समेटकर दुबकी हुई भभक। पर क्या यह बड़ा काम है? करोड़ों की मुंबई और अकेला गोलू। बड़ी जुगत लगेगी, इतनी बड़ी कि एकबारगी सिर के हांडे में ना आये। जब भी बात 'अक्खा मुंबई' तक पहुँचती, सारी मुंबई गोलू के सामने चकरघिन्नी हो जाती। कोई लड़का उसे चिढ़़ाकर भाग जाता - 'दाउद की औलाद'। तिस पर भी उसने नहीं छोड़ा। छोड़ना बदा ही नहीं था। जब बाबू याद आता उसके भीतर ढ़़ोल बजने लगता... ढ़़म्म,ढ़़म्म, ढ़़मा, ढ़़म, ...याने 'अक्खा मुंबई '।
कुछ जुगत बैठानी होगी।
कैसी जुगत ?
काका कहता है, बड़ा काम करना है तो गड्ढ़़ा ढ़़ूँढ़़ो। 'लोकल' की क्या कमजोरी है ? 'लोकल' का गड्ढ़़ा क्या है ?
फिर वह दिन आया। गोलू ने उसको नया नाम दिया था। 18 सितंबर 2007। गोलू की भाषा में 'लोकल की मौत' का दिन। गोलू ने बरसों से ताका था। वह 'लोकल' से बदला लेगा। पुराने दिनों से सुलगकर आज के मुँह तक पहुँच चुकी एक फुसफुसिया चिंगारी। लोकल की मौत। गोलू हँस पड़ता। उसे लगता, जब लोकल मरेगा तब तो वह हँस - हँसकर पागल ही हो जायेगा।
उस दिन 'सफेद सांड' ने धच्च से गोलू का हाथ पकड़़ लिया था। गोलू के चेहरे पर पहली बार शैतान उतरा था। 'लोकल' पागल हो चुके थे। गड्ढ़़े के माफिक - पागल और हड़बड़िया।
'...मारो - मारो। पॉकेटमार। चोर। जेबकट। छोड़ना नहीं साले को। यहीं कुचल दो। चोर... हरामी। पकड़़ो- पकड़़ो। '
दो कांस्टेबल भी वहाँ आ गये। 'कोको चार' और ' कोको ग्यारह '। भीड़़ ने गोलू को दबोच रखा था। गोलू का प्लान परफेक्ट चल रहा था। 'लोकल' को आने वाली मुसीबत पता नहीं थी। उसे लग ही नहीं सकता था, कि यह बदला है...। किसी बहुत पुरानी चिंगारी वाला बदला। समय की माँग वाला बदला। इतिहास के रास्ते चलकर माटुंगा के स्टेशन तक पहुँच चुका बदला। कहीं कुछ भी अपने आप नहीं था। गोलू एक हिसाब से चीजों को घटने दे रहा था। अचानक वह बिजली की फुर्ती से, भीड़़ के हाथों से फिसलकर, चीते की तरह स्टेशन में दौड़़ने लगा....।
लोकल लोग जिनमें आदमी, औरत, बूढ़़े, लड़के सब थे, उसके पीछे उसे पकड़ने को दौड़े। वे दोनों कांस्टेबल भी गोलू की और दौड़़े। लोगों को एक तगड़ा आदमखोर शिकार मिल गया था। सिंगल फ्रेम का मरगिल्ला गोलू। एक टुच्चा पाकेटमार, जिसे लोग आसानी से कुचल सकते थे। सब एकसाथ, सबकुछ कर जाना चाहते थे। चीख पुकार और हल्ला मच रहा था। आगे-आगे फटीचर, गरीब, चुरकुट गोलू और पीछे-पीछे लोकल..., पुलिस और वह 'सफेद सांड ' भी जिसका बटुआ हाथों में दबाये गोलू दौड़़ रहा था...।
तभी एक ट्रेन धड़धड़ाकर आने लगी जिसकी आवाज में शोरगुल दबने लगा ...अगले दिन के बंबई के एक समाचार पत्र के अनुसार -देहली-मुंबई अगस्त क्राति राजधानी एक्सप्रेस 2954 डाउन... एक दूसरे पेपर के अनुसार द मर्सीलेस व्हील्स आफ सुपरफास्ट एक्सप्रेस... एक अन्य के अनुसार - अपनी पूरी रफ्तार से धड़धड़ाती स्टेशन पार करती ट्रेन...। गोलू को बहुत पहले से ही पता था, कि यह देहली-मुंबई अगस्त क्रंाति राजधानी एक्सप्रेस 2954 डाउन... है। माटुंगा की हर ट्रेन उसे पता है। उसे तो बस एक ट्रेन चुननी थी और उसने इसे चुन लिया था।
गोलू प्लेटफार्म के किनारे दौड़़ने लगा...। जब उसे लगा लोग पूरी तरह पगला गये हैं, जानवरों की तरह हड़बड़ा गये हैं, उसने अपनी रफ्तार कम कर दी। लोकल लोग एकदम से उस पर झपटे... ट्रेन बिल्कुल पास आ गई थी। लोग गोलू पर झपट चुके थे। उनके धक्के से गोलू ने खुद को पटरी पर गिर जाने दिया....। धड़धड़ाती ट्रेन उसके ऊपर से निकल गई....।
चीजें एकदम से बदल गईं। विस्मय के साथ। हठात और अवाक। यू टर्न। पलटकर एकदम उल्टा।
'.... अरे बाप रे बाप। शिट्ट...। ओ माई गाड। ट्रेन के सामने धक्का दे दिया। मर्डर...। अरे कोई ट्रेन रोको। दौड़ो-दौड़ो। कोई ट्रेन रोको भाई। ...बाप रे मार ही डाला। अरे कोई तो...। '
कुछ लोग इधर उधर दौड़़ रहे थे। ट्रेन रुकने वाली नहीं थी। किसी को पता नहीं था, कि यह ट्रेन रुकने को नहीं थी। कि बहुत सोचकर, बहुत तौलकर गोलू ने इसी ट्रेन को चुना था...। देहली-मुंबई अगस्त क्रंाति राजधानी एक्सप्रेस 2954 डाउन... छोटी - तुच्छ जगहों पर ना रुकने वाली एक ट्रेन।
ना रुकने वाली ही क्यों ? किसी ने नहीं जाना। कोई जान भी नहीं सकता था,कि वही क्यों ? ट्रेन जो रुकेगी नहीं। ट्रेन जो माटुंगा पर कभी नहीें रुकी। ना लोगों ने, ना पुलिस ने, ना पेपरों ने.... किसी ने नहीं। फिर इस तरह जाना भी नहीं जाता है। मुंबई इस तरह नहीं जान पाती है। गोलू को पता था,यह ट्रेन नहीं रुकेगी। यह धोखा नहीं देगी। कुछ और भी ट्रेनें हैं। बंबई में ट्रेनों की कमी नहीं। अगर मरने का मूड हो, तो एक ढ़़ूँढ़़ो हजार मिल जायें। इनके पहिये मारने के लिए हमेशा तैय्यार रहे हैं।
यही वह ट्रेन है, जो तब आती है, जब 'सफेद सांड' और उसके साथी अपनी लोकल का इंतजार करते होते हैं। यह ट्रेन रोज उनके सामने से धड़धड़ाती निकल जाती है।
यही वह ट्रेन है, जिसे गोलू चार दिनों तक स्टेशन के कोने में बैठा देखता रहा था। वह इसके गुज़रने के ठीक पहले आता था और गुजरने के बाद चला जाता था। वह बहुत उत्सुकता से इस ट्रेन को देखता था, खड़़े होकर गर्दन उचकाकर जैसे उसने पहले कभी कोई ट्रेन नहीं देखी हो। उसके मन में एक अजीब सा खयाल आया था, कि अगर यह ट्रेन बात करती होती तो वह उससे बतिया लेता... मुंबई सेंट्रेल जाकर बतिया आता जहाँ यह देर तक खड़ी रहती है। एक दिन पहले उसने इस गुजरती ट्रेन को देखकर हाथ हिलाया था और फिर सकपकाकर इधर उधर देखने लगा था कि कहीं कोई उसे देख तो नहीें रहा...।
अगले दिन बंबई के अखबारों में एक बोर सी खबर छपी - एक आवारा पॉकेटमार माटुंगा रेल्वे स्टेशन में ट्रेन से कटकर मार दिया गया...। ए पिकपॉकेटर ट्वेन्टी थ्री किल्ड... कुछ लोगों ने उसे धक्का देकर ट्रेन के सामने गिरा दिया।
इस ट्रेन को चुनने के बाद गोलू बहुत खुश हुआ था। वह आकाश की ओर देखकर अपनी आवाज को मुंबई के फुटपाथ पर बिखर जाने दे रहा था।
इस ट्रेन को चुनकर वह बड़ा खु’ा था।
चार पाँच पुलिस वाले और आ गये। प्लेटफार्म पर हड़कंप मचा था। आसपास के लोग उसी तरफ दौड़़ रह थे। पुलिस वाले पूछ रहे थे-
'...किसने धक्का दिया... बोलो। बताओ। कौन-कौन थे ?'
भीड़़ के साथ दौड़़ने वाले लोग बताने लगे।
'...ये था। और हाँ ये भी और ये दोनों...।'
' और यह सफेद कपड़ों वाला मोटू। धक्का देने में ये सबसे आगे था...। '
मौत हो तो लोग एकदम से बदल जाते हैं। गोलू को पता था,जब बाबा मरा था,तब सब उसके घर पर इकट्ठा हो गये थे। मरने पर इकट्ठा होने का रिवाज है। फिर मरने वाला कोई भी हो, लोग उसकी तरफ हो ही जाते हैं। अगर आप कुछ लोगों को अपने पक्ष में करना चाहते हैं, तो सबसे अच्छा तरीका है कि आप मर जायें। मरने के बाद, जीवन का खतरा नहीं रह जाता है। गोलू को पता था, कि लोगों को ऐसा करना पड़ता है। मौत हो तो लोगों को मरने वाले का साथ देना पड़ता है। पता नहीं ऐसा क्यों है ? जीवित रहने पर लोग इतना तिरस्कृत क्यों रहते हैं? क्यों किसी को अपना बनाने के लिए मरना जरूरी है? पर यह है। गोलू को पक्के से पता था, कि ऐसा ही है। कि ऐसा ही होगा। जब वह मरेगा, तब शायद पेपर में भी आ जाये। उसने अक्सर सुना था, देखा था, कि ऐसा होता है।
पुलिस ने चार-पाँच लोंगो को पकड़़ लिया....।
ट्रेन धड़धड़ाती निकल चुकी थी....। ट्रेन को और ट्रेन में बैठे लोगों को कभी - भी इस हादसे के बारे में पता नहीं चला। पैसेंजर सिर्फ उन स्टेशनों के हादसे जानते हैं, जिनसे उनकी ट्रेनों का सरोकार होता है। एकदम से गुजर जाने वाले स्टेशनों की तो कोई स्मृति भी नहीं हो पाती है।
गोलू की मौत एक दहशतजदा मौत थी। गुट ने इतना ही जाना था। गुट के लिए इससे ज्यादा कुछ जानने की गुंजाइश नहीं थी। काका को भी यह एक साधारण मौत थी। पूरी मुंबई के लिए यह रोज होने वाली मौत थी। लोगों ने इस तुच्छ घटना पर ध्यान नहीं दिया। सबकुछ कोरा और सपाट था, ढ़़ूँढ़़ने के लिए बेकार सी जगह... जहाँ सब दीखता है,वहाँ क्या ढ़़ूँढ़़ना...।
गुट में कुछ दिनों के लिए एक खालीपन चला आया था, जो एक बारगी लगता था कि यहीं अपना ठौर बना लेगा और लड़के अक्सर उसे अपने पास पाकर सहम जाया करेंगे। पर वह तेज धार में घुल रहा था। बंबई की आबोहवा ऐसी है कि यहाँ सबकुछ चलने लगता है,चाहे पैर हों या ना हों,पहिये हों या ना हों... घिसटना और घिसटकर सरपट हो जाना इस शहर की घुट्टी में है। रुकने को यहाँ के लोग आउटडेटेड हो जाना कहते हैं। यहाँ रुकने को कोई जगह नहीं है। सुना है, इस शहर का मूड ऐसा है कि यहाँ मौत को भी रुकने को जगह नहीं मिलती है और वह भी इस तरह आउटडेटेड हो जाती है।
गोलू की खोली साफ कर दी गई। बटुओं से बटोरा उसका खजाना काका ने जला दिया। वह अधकटे ड्रम में जल रही आग में गोलू की हर चीज को भस्म कर रहा था।
उस दिन ऐसा पहली बार हुआ था,जब पुलिस ने लोकल लोगों को किसी पॉकेटमार के कारण गिरफ्तार किया था। पुलिस पहली बार जेबकट की तरफ थी। उसको पहली बार लगा था, कि जेबकट सही था और लोकल गलत। गोलू ने मरकर जतला दिया कि जेबकट सही है और लोकल गलत। पर किसी को कभी पता नहीं चल पाया कि यह उसका एक सुनियोजित प्लान था। लोकल से बदले का प्लान। कुछ हद तक यह सफल भी रहा। पुलिस ने उन छह लोगों पर मामला चलाया और लोगों को लगा कि जेबकट को हाथ लगाने से खतरा हो सकता है।
अगले दिन काका ने स्टेशन पर देखा कांस्टेबल याने ' कोको छह ' कुछ लोंगो को बता रहा था - कानून अपने हाथ में क्यों लेना है। अगर कोई जेबकट, उचक्का मिले तो पुलिस को देना....। उसको मारना पीटना नहीं। नहीं तो जैसे कल, छह लोंगो को पुलिस पकड़़ ले गई थी, वैसे ही ले जायेगी...।
उस दिन ट्रेन निकल चुकी थी...।
गोलू के पेट के नीचे का शरीर कुचलकर अलग हो गया था। उसकी आँते बाहर निकलकर रेल्वे ट्रैक की गिट्टी और काले गंदे पानी में पसर गई थीं। कुचले हुए मांस का एक लोथड़ा उसके हाथ तक घिसटा हुआ था। उसके दूसरे हाथ में खून से सना 'सफेद सांड' का बटुआ था, वही बटुआ जिसके कारण काका ने बाबू को भगा दिया। वही बटुआ जिसके कारण बाबू मारा गया। वही बटुआ जो अंगरेज हमारे यहाँ लाये थे। वही बटुआ जिसके बारे में कहा जाता है, कि अगर ना होता तो भाषा को सभ्य बनाने की जरूरत नहीं होती। जो ना होता तो कुछ लोग बेदखल ना होते। वही बटुआ जिसने रेडी पर लटकते कपड़ों के सामने बरसों से दबी भूख को जगा दिया था। वही बटुआ जिसके गायब होने के बाद अमेरिका के एक राष्ट्रपति ने जानना चाहा था, कि वे कौन लोग हैं, कि क्या उनकी बात की जा सकती है ? गोलू पूरी बर्बरता से उस बटुये को जकड़े था...। उसके चेहरे पर एक शैतान आकर बैठ गया था। अब जबकी वह कुछ भी अपने चाहे अनुसार नहीं कर पा रहा था, एक मुस्कान उसके चेहरे पर कसमसाने - कसमसाने को थी। उसके पूरे शरीर को अकड़ाता एक दर्द था.. मुँह बार-बार खुलता बंद होता...। आँखें जड़़वत...।
गोलू को पल भर को दीखा था, ट्रेन के मर्सीलैस पहियों के पार दिखता - छिपता, दिखता - छिपता, ....कि पुलिस उस ' सफेद सांड ' और दो चार लोकल लोंगो को पकड़़ रही है। कुछ लोग कह रहे हैं -
स्साले पूरे राक्षस हैं। डैविल्स। आदमी को कूड़ा समझते हैं..। रास्कल्स। '
गोलू को 'अक्खा मुंबई' सुनाई दी थी..। 'अक्खा मुंबई' की आवाज ट्रेन की आवाज से थोड़ा ज्यादा थी। गोलू आवाज पकडने में माहिर था। अगर ना पकड़़ पाये तो पहचान ना लिया जाय। पकड़़ा ना जाये। स्टेशन के हल्ले के बाद भी उसने अक्खा मुंबई को सुना था, पूरी तरह से सुना था। गोलू अब भी आवाज सुन सकता है, उसके मरने पर भी उसके हिस्से की आवाज यतीम नहीं हो सकती। काका कहता था, कि वह इतना पक्का पॉकेटमार है, कि उसके मरने पर भी मतलब की आवाजें, अपना मतलब नहीं खोयेंगी... उसने कभी बाबू की आवाज को गुमने नहीें दिया था।
'...पकड़़ो, पकड़़ो...।'
उसके भीतर कुछ डूबते, अपना आकार खोते शब्द, गोल गोल हो गये - ' लोकल हरामी... इसकी बहन का...।'
वह आकाश की ओर देखकर चीखना चाहता था। वह हँसना चाहता था। पर अब उसका शरीर उसका कहा नहीं मान रहा था। शैतान चेहरे से हट गया था। सफेद सांड का बटुआ उसके हाथ से फिसलकर गंदले पानी में गिर गया था...।
अचानक उसका दर्द बंद हो गया। उसकी आँखें खुली रह गईं। वह जीत चुका था। उसे मरना अच्छा लग रहा था। उसे मरने में मजा आ रहा था।
...लोग उसे पहचान चुके थे। मरते वक्त पहचाना जा सकता है। जीते जी पहचानते तो गोलू कब का मर चुका होता। पहचाने जाने से पहले का समय जीवन कहलाता है। पॉकेटमार सत्य की तरह होता है, वह तभी जाना जाता है, जब वह मर रहा होता है।
उस दिन काका ने गोलू का सारा सामान जला दिया। उसके गद्दे के नीचे से सारा कचरा निकालकर जला दिया। वह कुछ भी रखे देना नहीं चाहता था। अक्सर ये चीजें पॉकेटमार को गलत साबित करती रही हैं। वह सब कुछ जलाकर खत्म कर रहा था। खोली के सामने उसने लोहे के कटे ड्रम में आग जला रखी थी और बिना देखे गोलू का सारा सामान जलाता जा रहा था।
फिर अचानक उठा और खोली के अंदर जाकर पता नहीं दीवार में क्या खोदने लगा। वह बहुत जोर से दीवार और जमीन के बीच की मिट्टी सब्बल से खोद रहा था। उस समय रात के दो बजे थे। लड़के भी वहाँ इकट्ठा हो गये। जमीन के नीचे से एक बड़ी सी फटी पुरानी टीन की पेटी निकली। काका ने सबके सामने वह पेटी खोली। उस पेटी में कचरे के माफिक कितना कुछ पड़ा था। लड़कों को बड़ा अचरज हुआ। यह काका भी जाने क्या करता है, दूसरों को तो उपदेश देता है, कि कुछ मत इकट्ठा करो और खुद कितना अल्लम टल्लम जमीन में दबाये है। काका उस पेटी को बाहर ले आया। सारे लड़के जलते ड्रम के चारों ओर घेरा बनाकर खड़़े हो गये। काका उस कचरे में से हर चीज को बीनकर जलाता जा रहा था.... ढ़़ेर सारे पुराने धुराने फटे फटाये बटुये, चमड़े के टुकड़े, खत्म हो गये कागजों के टुकड़े, घिसे पुराने तार तार हो गये विजिटिंग कार्ड, प्लास्टिक के छोटे टुकड़े, बदबू मारते कपड़़े के टुकड़े... एक के बाद एक आग में झोंकता जा रहा था। चारों ओर उबकाई वाला बदबूदार धुँआ फैल रहा था। काका खुद भी इन सब चीजों को पहली बार देख रहा था।
....और तभी वह बटुआ उसके हाथ आया। पुराने और खत्म हो चुके चमड़े पर भी पता नहीं कैसे वह निशान अब भी रह आया था- 1776. उसके अंदर टुकड़े टुकडे हो चुके पीले कागजों को किसी ने प्लाटिक की पन्नी में करके बचाने की बेकार सी कोशिश की थी। दो सौ साल पहले जब वह सही था, तब आसानी से जाना जा सकता था, कि वह बोस्टन के एक रेस्तराँ का बिल था, जहाँ अक्सर जार्ज वाशिंगटन जाया करता था। उसमें फट चुके एपलैट जैसी कोई चीज और थी, जिसे पहचान पाना मुश्किल था। ...काका ने उसे बस एक नजर देखा और आग में फेंक दिया। वह कोई भी सबूत नहीं रखना चाहता था।
...कहते हैं अमेरिकी पुलिस और अमेरिकी राष्ट्रपति के निजी सुरक्षाकर्मी उस पॉकेटमार की तलाश बहुत समय तक करते रहे थे। वह कभी पहचाना नहीं गया। जब पहचाना जाना मौत हो तो वह अमेरिका के लिए भी आसान नहीं रह जाता है। कहते हैं, कि वह जिया था और उसके बसियाये गद्दे के नीचे वह बटुआ बरसों तक रहा था। गद्दे के नीचे से सरककर वह कई बार उसके सपनों में उतर आया था। उसने कई कई यादों को कई कई बार जगाया था। कहते हैं, जार्ज वाशिंगटन के बटुये से चलकर अक्सर एक रास्ता नींद में खुलता था। उस नींद में माँ थी, बचपन था और बीते हुए लोग थे, वहाँ अक्सर कई कई बार अनजाने पराये लोग अपनी कहानी बताते थे। वह एक बेशकल याद थी, जो खुद कुछ भी नहीं थी, पर हर बार वह कोई नई बतकही हो जाती थी। वह उन चंद चीजों में से एक थी, जो देखने में कुछ भी नहीं, पर जैसे उसके बिना कहीं कोई गहरा सुख बितरा दिया जायेगा, जैसे उसके गुम होने पर सपने और यादें खत्म हो जायेंगी। अगर वह गुम जाये तो कहीं कोई स्मृति ना बचे। बरसों का बीता समय सिर्फ इसलिए था, क्योंकि वह बटुआ बरसों तक उसके बसियाये गद्दे के नीचे था। अतीत सिर्फ इसलिए था कि उस पुराने फटे गद्दे के नीचे अब तक वह बटुआ पड़ा था। जार्ज वाशिंगटन का वह बटुआ उसे अक्सर उसकी तंद्रा में छेड़ देता और उसे मध्य अमेरिका के प्रेयरी क्षेत्र में बसा एक गाँव याद आ जाता। घास के मैदान में तितलियों के पीछे भागती अपनी बेटी को देखकर वह यकायक नींद से जाग जाता। उसे एक भ्रम होता कि बीते दिन अचानक फिर से हो जायेंगे, कि एक दिन वह अचानक जागेगा और फिर भी सपना खत्म नहीं होगा। कि एक दिन जगना सपने का अंत नहीं होगा और सपना हकीकत हो जायेगा, कि टीन के ड्रम में माँ ब्रेड पकाती होगी और उसके पास भट्टी की तपिश में वह अपना बचपन सोता होगा। कभी गहरी नींद में उसे कपड़े सुखाती और सुअरों के बाड़े को ठीक करती उसकी बीवी पैटी दीखती और वह मानता जैसे कुछ भी नहीं बदला है, पर तभी उसे लगता जैसे बरसों से वह ना जाने क्या क्या तो सोचता रहा है। किसी को पता चले तो लोग उसे पागल कहें, कि भला बचपन की माँ और बीत चुके लोग कहीं वापस आते हैं, भला कोई बटुआ यह सब वापस ला सकता है, कितनी निरी पगलाई है यह...। वह बटुआ जाने कितनी तो उम्मीदों जगाना जानता था। वह नहीं जानता था, कि वह जार्ज वाशिंगटन था। कि यह जार्ज वाशिंगटन का बटुआ था। वह उसे एक साधारण आदमी जानता था और इस तरह से उसका बटुआ उसके लिए कुछ भोली किस्म की यादें लाता रहा।
फिर भी गोलू की मौत से दो सौ साल से भी पहले अमेरिका में एक दिन जार्ज वाशिंगटन के बटुये का किस्सा हमेशा के लिए ख़त्म हो गया था। ... बरसों पहले अमेरिका की पुलिस ने यह तय कर दिया था, कि अब इस मामले में कुछ भी नहीं बचा। कि सबकुछ ख़त्म है, कि कोई बात अब बचती नहीं।
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