अमेरिकन कहानी पछतावा एक मसखरे का मोंटियरो लोबातो हंटर मोंटियरो जोस लोबातो हंटर का जन्म 18 अप्रैल, 1882 में ताउबेत में हुआ था. उनका बचपन ...
अमेरिकन कहानी
पछतावा एक मसखरे का
मोंटियरो लोबातो हंटर
मोंटियरो जोस लोबातो हंटर का जन्म 18 अप्रैल, 1882 में ताउबेत में हुआ था. उनका बचपन देहात में गुजरा. लोबातो को बचपन से ही चित्रकारी और तरह-तरह की चीजों से खिलौने बनाने का शौक था. शायद यही वजह है कि उन्होंने बच्चों के लिए खूब लिखा. उन्हें ब्राजील के सर्वाधिक महान साहित्यकार के रूप में अपार ख्याति मिली. बाल साहित्य से जुड़ी उनकी रचनाएं 17 खंडों में संकलित हैं.
लोबातो ने आधुनिक समाज में लोगों के मानसिक विकास की जटिल स्थितियों और नैतिकता के सवालों को अपने लेखन में उठाया है.
विशाल बागान के मालिक सूजा पोंटिस का नाजायज वारिस फांसिस्को टिक्सेरा डिसूजा पोंटिस जब बत्तीस बरस का हुआ तो अपने जीवन के बारे में संजीदा होकर सोचने लगा.
पैदाइशी मसखरा-खुदा ने उसे हंसाने की आसाधारण प्रतिभा बख्शी थी. अपने इसी हुनर के बूते अब तक वह अपना गुजर-बसर करता चला आ रहा था. खाने-पीने, कपड़े-लत्ते, रहन-सहन के लिए वह इसी हुनर को भुनाता. इसके बदले वह ऊटपटांग हरकतें करता, चेहरे बनाता, चुटकुले और अंग्रेजों के किस्से सुनाता. सब कुछ इतना नपा-तुला कि मनुष्य नामक हंसने वाले प्राणी की मांसपेशियों पर भरपूर असर पड़ता और वे हंसते-हंसते लोट-पोट होने लगते.
फुआओ पेचिंचा के ‘‘हास्य विनोद विश्वकोष’’ का एक-एक हर्फ उसे जुबानी याद था. पोंटिस के विचार में उस जैसा नीरस लेखक दुनिया में शायद ही कोई और हो. पोंटिस अपने हुनर में इस कदर माहिर था कि बेसिर-पैर के किस्से भी वह ऐसी खूबी से सुनाता कि सुनने वालों के हंसी के मारे पेट में बल पड़ जाते.
मनुष्य हो या पशु किसी की भी नकल उतारने में पोंटिस का जवाब नहीं था. कुत्तों की झुंड में सामूहिक भौंक हो या जंगली सूअर के पीछे भागते कुत्ते की भौंक ऐसी हर किस्म की आवाजें उसके मुंह में इस खूबी से ढली हुई थीं कि खुद कुत्ते या शायद चन्द्रमा भी चकरा जाएं...
वह सूअर की तरह घुरघुरा सकता था. मुर्गी की तरह कुकड़ू-कूं कर सकता था, मेंढक की तरह टर्रा सकता था, बुढ़िया की तरह घुड़की दे सकता था. और तो और रोंदू बालक की तरह बिसूरना हो या भीड़ को शांत रहने की नेता की गुहार या किसी मचान पर खड़े होकर किसी देशभक्त का जोशीला भाषण. मुनासिब श्रोता सामने हो तो क्या दोपाया, क्या चौपाया, किसी की भी नकल करना उसके बूते से बाहर नहीं था.
कुछ अन्य मौकों पर वह प्रागैतिहासिक काल में भी पहुंच जाता. उसने थोड़ी बहुत शिक्षा हासिल की थी, सामने गर पढ़े-लिखे श्रोता हों तो वह विलुप्त हो चुके विशालकाय प्राणियों की प्राक् जैविक गर्जना, शंकुदंत यानी एक विलुप्तप्राय हाथी की गुर्राहट की पुर्नसंरचना करता, पेड़ों पर उछल-कूद मचाते वानरनुमा रोमिल मनुष्य की पहली झलक मिलते ही जंगलों में रहने वाले भीमकाय पशु की चीत्कार की भी हूबहू नकल करता. प्रसिद्ध विद्वान बरोस बरैटो के जीवाश्म विषयक व्याख्यान के वक्त यदि पोंटिस को इन प्राणियों की नकल करने के लिए रखा जाता तो यकीनन उन भाषणों का मजा ही कुछ और होता.
नुक्कड़ पर जब कभी मित्रों की टोली जमा होती तो वह नजरें बचाकर उनके पीछे जा पहुंचता और उनमें से किसी एक की टंगड़ी पर कोहनी से जोरदार वार करता. अनजाने में अचानक पड़ी इस मार से बेचारे बौखलाए शख्स की सूरत देखते ही बनती और बाकी सब लोगों के जोरदार ठहाके गूंज पड़ते. उन सबके बीच पोंटिस एकदम निराले ढंग से ठहाके लगाता-ऑफनबाक के ऑपेरा की तरह एक ही साथ प्रचंड और संगीतमय! दरअसल पोटिंस की हंसी आम आदमी के स्वतः स्फूर्त ठहाकों की पैरोडी होती. संभवतः वही एक शख्स था जो इस तरह की आवाजें निकाल सकता था. आम ढंग से धीरे-धीरे हंसी रोकने की बजाय वह गंभीरता जबर्दस्त हास्य पैदा करती.
अपने हर हाव-भाव, हर अंदाज, चलने-फिरने, पढ़ने-लिखने, खाने-पीने, उठने-बैठने, जीवन की मामूली-सी-मामूली हरकत में भी वह कमबख्त दूसरों से इतना निराला था कि उसका सब कुछ बेहद हास्यस्प्र्रद लगता था. अब तो हालत यह हो गयी थी कि उसके महज मुंह खोलने या हल्की सी हरकत करने भर से आस-पास खड़े लोग हंसते-हंसते दोहरे होने लगते. उसकी मौजूदगी ही काफी थी, उस पर नजर पड़ी नहीं कि लोगों के होंठ चौड़े हो जाते. वह चेष्ठा भर करता कि ठहाके गूंज पड़ते, वह ज्यूं ही मुंह खोलता तो कुछ अट्हास कर उठते, कुछ अपनी पैन्टों, तो कुछ अपने कोट के बटन ढीले करने लगते. या खुदा उसके मुंह की टोंटी खुलने भर की देर होती और लोगों के ठहाके, अट्ठहास और किलकारियां निकल पड़तीं, उनकी सांस फूलने लगती जिसे थामने के लिए उन्हें खासी मशक्कत करनी पड़ती.
‘‘वाकई पोंटिस का जवाब नहीं.’’
‘‘अम्मा बस भी करो, क्या मार ही डालोगे?’’
पर मसखरे के सपाट मुख पर निपट नादानी ही टपकती. ‘‘मैं तो कुछ भी नहीं कर रहा हूं, मैंने तो अपना मुंह तक नहीं खोला है.
हा! हा! हा! कर सभी लोग खिलखिलाकर हंस पड़ते, हंसी से बेकाबू उन लोगों के गालों पर आंसू लुढ़क पड़ते.
कुछ वक्त के बाद तो उसका नाम ही काफी होता और लोगों का मनोरंजन हो जाता. जुबान पर ‘पोंटिस’ शब्द आते ही ठहाकों की झड़ी लग जाती जिसका शोर देर तक गूंजता रहता जो उन्हें पशुओं से श्रेष्ठ बनाता, क्योंकि वे हंस नहीं सकते.
यही करते-करते उसके जीवन के करीब बत्तीस वसंत गुजर गये. यूं देखा जाए तो हंसने व हंसाने के सिवाय उसने किया ही क्या था? गंभीरता से कभी नहीं सोचा-एक मुफ्तखोर, परजीवी-जो ऊटपटांग हरकतें कर अपना पेट पालता था. चुटकुले सुनाकर छोटे-मोटे कर्जे चुकाता था.
एक व्यापारी जिससे उसने थोड़ा सा कर्जा ले रखा था, एक दिन हंसते-हंसते यूं ही उसने बोला, ‘‘तुम कम-अज-कम मनोरंजन तो करते ही मेजर सोर्पुस की तरह तो नहीं जो त्यौरियां भी चढ़ाये रहता है और उधार भी नहीं चुकाता.’’
यह द्विअर्थी तारीफ सुन हमारा मसखरा तिलमिला उठा, हालांकि इस कटाक्ष को चुपचाप सह जाना ही उसने उचित समझा, क्योंकि उस व्यापारी से पन्द्रह मिलरिस का कर्जा जो ले रखा था. फिर भी देर तक इस कटाक्ष की कचोट जेहन में बनी रही और उसके आत्म-सम्मान को कुरेदती रही. बाद में तो इस तरह की तारीफों से उसकी चुभन बढ़ती ही गयी. कुछ कटाक्ष हल्के होते पर कुछ देर तक दिलोदिमाग को सालते रहते.
आखिरकार यह सब झेलना उसके बस से बाहर हो गया. हंसोड़ के रूप में अपने जीवन से उकताकर हमारा मसखरा खुद को गंभीरता से लिए जाने पर विचार करने लगा. मुंह की मांसपेशियां चौड़ी किये बिना वह लोगों से बोले और वे उसे सुने. मसखरी किये बिना, लोट-पोट हुए बिना, इत्मीनान से वह दोस्तों से मिल-जुल सके. सड़क पर चलते वक्त हर गली मुहल्ले से यह सामूहिक पुकार न सुनाई दे कि ‘‘लो आ गया पोंटिस’’ और उसे देखते ही लोगों के ठहाके न गूंजे और वे पेट पकड़कर दुहरे न होने लगें.
इस तरह पोंटिस अब गंभीर रहने लगा. बस यहीं अनर्थ हो गया.
पोंटिस अब मनोरंजन के हल्के-फुल्के पल जुटाता, जो अंग्रेजी किस्म के हास्य में गिने जाते हैं. पहले वह ध्यान खींचने वाला मसखरा थापर अब उसका यह गंभीर अवतार लोगों को और ज्यादा मजेदार लगने लगा.
उसके इस नये अंदाज की चर्चा चारों ओर फैल गयी और लोगों ने उसकी इस गंभीरता को मसखरी कला का एक नया आयाम समझा. यह देख हमारा मसखरा पहले से भी ज्यादा हताश हो गया. तो क्या वह कभी पुरानी राह को छोड़ नये ढंग से जी सकेगा? क्या जीवन भर उसे इसी तरह एक मसखरा बनकर जीना होगा, खासकर अब जब उसे इस सबसे नफरत हो गयी थी. ‘‘हंसो, मसखरे हंसी, तुम्हारी नियति में यही बदा है.’’
वयस्क उम्र के कुछ तकाजे होते हैं. यह उम्र गंभीरता और शालीनता की मांग करती है जो लड़कपन में उतना जरूरी नहीं लगता. दफ्तर का साधारण से साधारण पद हो या नगर परिषद का एक सदस्यीय पद, चेहरे पर ऐसी भंगिमा की मांग करता है जिसे देखकर हर वक्त हंसी न आए. गंभीर पद पर किसी मसखरे को कैसे बिठाया जा सकता है?
उम्र बढ़ने के साथ उसके फैसले परिपक्व होने लगे, आत्म-सम्मान की दरकार बढ़ने लगी और मुफ्तखोरी या दूसरों की दया पर जीना अखरने लगा. पोंटिस के लिए अब फर्राटे से चुटकुले सुनाना मुश्किल होने लगा. अब पहले की ही सहजता और ताजगी से लतीफे गढ़ना आसान नहीं था. क्योंकि अब वह इसका इस्तेमाल पहले की तरह महज मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि अपनी आजीविका के लिए कर रहा था. मन ही मन वह खुद की तुलना बीमार और बूढ़े हो चुके सर्कस के जोकर से करता जिसे गरीबी गठिया के दर्द के मारे अजीबोगरीब मुद्राएं बनाने पर मजबूर करती है, क्योंकि पैसे देने वाली जनता इसे पसंद करती है.
वह लोगों से कतराने लगा. कई महीनों तक एक सम्मानजनक नौकरी पाने के लिए जो बदलाव खुद में करने जरूरी थे उसके अध्ययन-मनन में लगा रहा. उसने किसी दुकान में सेल्समैन बन जाने या फैक्टरी में मजदूरी करने की सोची. किसी बागान में फोरमैन बन जाना या बॉर खोलना तक उसे मंजूर था, क्योंकि अब तक की अपनी मूर्खतापूर्ण मसखरी छोड़ हर काम उसे बेहतर जान पड़ता था.
इस तरह बखूबी सोच-विचारने के बाद उसने अपने जीवन की दिशा बदलने की ठान ली. वह अपने एक कारोबारी मित्र के पास गया. अपना काम बदलने की जबर्दस्त इच्छा जाहिर की. बात को खत्म करने से पहले अपने किसी फार्म पर नौकरी पर रख लेने की गुजारिश की. वह कुछ भी करने, जमादार तक बनने के लिए तैयार था, पोंटिस ने अभी अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि उसका पुर्तगाली मित्र और मजेदार किस्सा सुनने के इंतजार में आस-पास खड़े लोग खिलखिलाकार यूं हंसने लगे मानों उन्हें कोई गुदगुदी कर रहा हो.
‘‘बहुत बढ़िया! वाकई यह अब तक का सबसे बेजोड़ मजाक है. भाई तुम तो हमें मार ही डालोगे हा...हा...हा. अगर तुम तम्बाकू का उधार चुकाने की सोच रहे हो तो भूल जाओ. मेरा पैसा तो वसूल हो गया. भई मान गये, पोंटिस का वाकई जवाब नहीं. इसे तो एक से एक उम्दा मजाक सूझते हैं’’
और फिर क्लर्क, ग्राहक, काउंटर पर काम करने वाले और निठल्ले खड़े लोग जो चुटुकुला सुनने के लिए रुक गए थे, सभी जोर-जोर से हंसने लगे.
बेचारा हैरान परेशान पोंटिस उन्हें समझाने की भरसक कोशिश करने लगा कि वे उसे गलत समझ रहे हैं.
‘‘मैं वाकई गंभीर हूं, आप लोगों को इस तरह मुझ पर हंसने का कोई हक नहीं. खुदा के लिए मुझ जैसे गरीब का इस तरह तमाशा मत बनाओे, मैं आपसे एक अदद नौकरी की दरियाफ्त कर रहा हूं. तुम्हें हंसा नहीं रहा.’’
कारोबारी दोस्त का हंसते-हंसते बुरा हाल था, वह पैन्ट की बेल्ट ढीली करने लगा. ‘‘सुना भाई, यह गंभीरता से कह रहा है! हा! हा! हा! भाई ! तुम भी पोंटिस...’’ उसकी बात पूरी होने से पहले ही पोंटिस उठा और बाहर निकल गया, गुस्से और निराशा से उसकी आत्मा छलनी हो चुकी थी. हद हो गयी, तो क्या समाज से उसे बेदखल किया जा रहा है? क्या जीवन भर उसे मसखरा बनकर जीना होगा, क्या इस अभिशाप से वह कभी मुक्त नहीं हो पायेगा.
नौकरी की तलाश में उसने कई फर्मों के चक्कर काटे, अपना हाल बताया, नौकरी के लिए मिन्नतें कीं, पर हर जगह उसकी इस हरकत को सभी ने एक मत से हंसाने की सबसे बेजोड़ तरकीब के रूप में ही लिया. सबकी यही राय थी कि वह कभी न सुधरने वाला मसखरा है. कइयों ने अपना वही जुमला दोहरा दिया कि ‘‘यह पाजी अपनी हरकतों से कभी बाज नहीं आ सकता. अब वह कोई बच्चा तो नहीं रहा.’’
व्यवसाय में नौकरी पाने में नाकाम होने के बाद पोंटिस ने कृषि की तरफ रुख किया. वह एक पशु फार्म के मालिक से मिला जिसने कुछ दिन पहले ही अपने फौरमैन को बर्खास्त किया था. पोंटिस ने उसे अपनी हालत बयां की.
उसने इत्मीनान से पूरी बात सुनी. पर जैसे ही आखिर में पोंटिस ने फौरमैन की जगह उसे रख लेने की गुजारिश की तो कर्नल का हंसी के मारे बुरा हाल था.
‘‘पोंटिस और फौरमैन...हा! हा! हा!’’
‘‘पर’’
‘‘अरे यार मुझे खुलकर हंसने दो. यूं भी इस वीरान जगह पर हंसने को कहां मौका मिलता है. भई वाह तुमने कमाल की बात की. मैं तो हमेशा से कहता रहा हूं कि मजाक करने में पोंटिस का कोई सानी नहीं.’’
और घर की तरफ मुंह कर उसने आवाज लगायी, ‘‘अरी, मारीकोटा जरा बाहर आओ, पोंटिस का यह नया चुटकुला सुनो, वाकई लाजवाब है.’’ और वह ठहाकर हंसने लगा.
उस दिन हमारा दुःखी मसखरा रो पड़ा. उस दिन उसे यकीन हो गया कि बरसों से बनायी छवि को यूं पल भर में मिटाना नामुमकिन है, हर महफिल की शान और एक बेजोड़ मसखरे के रूप में उसकी ख्याति ईंट, गारे और सीमेंट से बनी इमारत की तरह इतनी मजबूत और चिरस्थायी हो चुकी है कि उसे इस तरह ढहाना बेहद मुश्किल था.
फिर भी अपने जीवन की धारा बदलना उसे जरूरी लगा. पोंटिस ने अब अपना ध्यान सरकारी नौकरी की तलाश में लगा दिया. उसे लगा कि ऐसी परिस्थिति में सरकारी काम करना ही उचित होगा, क्योंकि सरकार किसी एक व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं और न ही उसे हंसने-हंसाने से कोई मतलब है. सरकार में अलग-अलग विभाग अपने-अपने ढंग से काम करते रहते हैं जिनका एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं होता. ऐसा नियोक्ता जरूर उसकी बातों पर गौर करेगा और उसे गभीरता से लेगा. हां मेरी मुक्ति का यही मार्ग हो सकता है.
उसने डाकघर, न्यायालय, टैक्स कलेक्टर और ऐसी कई जगहों पर काम करने की संभावनाओं पर गौर किया. अच्छी-बुरी सभी बातों पर पूरे एहतियात से विचार करने के बाद उसने संघीय राजस्व विभाग में नौकरी करने की ठान ली. इस विभाग के प्रमुख मेजर बेंटीज की उम्र और दिल की बीमारी के वजह से ज्यादा दिन जिन्दा रहने की संभावना नहीं थी. पीठ पीछे लोगों का यही कहना था कि उसकी धमनी में ट्यूमर है जो कभी भी फट सकता है.
इस नौकरी को हथियाने के लिए पोंटिस के पास एक तुरुप का पत्ता भी था. रिओ में उसको एक रिश्तेदार रहता था जो अमीर होने के साथ काफी पहुंच वाला आदमी था. उसका दिल जीतने के लिए पोंटिस उसके आगे-पीछे चक्कर काटने लगा. आखिर उसे कामयाबी मिल गयी. रिश्तेदार ने उसे औपचारिक आश्वासन दे दिया कि काम हो जाएगा.
‘‘चिंता मत करो. अगर मुझे सरकार में ब्रेक मिल गया जिसकी मुझे उम्मीद है और उसी समय गर तुम्हारे इस कलेक्टर की ट्यूमर फटने से मृत्यु हो जाती हे, तो उसके बाद से तुम पर कभी कोेई हंस नहीं पाएगा. अब जाओ और उसके मरते ही मुझे फौरन खबर कर दो. देखो उसकी लाश ठंडी होने की भी देर मत करना’’.
उम्मीद से लबालब पोंटिस घर लौट आया. बड़े धीरज से हालात में अनुकूल परिवर्तन होने का इंतजार करने लगाा. उसकी एक आंख राजनैतिक घटनाक्रम तो दूसरी कर्नल के ट्यूमर पर टिकी थी, जो उसे मुक्ति दिलाने वाली थी.
राजनैतिक तब्दीलियां पहले हुईं. सरकार गिर गयी और नये मंत्री चुने गये. उनमें एक बड़े विभाग में उसके अमीर रिश्तेदार का करीबी मंत्री भी था. आधा रास्ता पार हो चुका था. बस अब आधा बाकी था. बदकिस्मती से मेजर की हालत स्थिर बनी हुई थी. उसके जल्दी मरने के कोई आसार ही नजर नहीं आ रहे थे. एलोपैथिक इलाज से मरीजों को मारने वाले डॉक्टरों का कहना था कि ट्यूमर बड़ा ही खतरनाक था जो हल्की सी उत्तेजना से फट सकता है. उस चिड़चिड़े व बदमिजाज बूढ़े टैक्स कलेक्टर को इस बाबत सावधानी बरतने की चेतावनी दी गयी थी. लगता था जैसे दुनिया के तमाम ऐशो-आराम, जो नसीब ने उसे मुहैया कराए थे. उन्हें छोड़ दूसरी बेहतर दुनिया में जाने की कोई जल्दी नहीं थी. इसलिए अपनी इस लाइलाज बीमारी को उसने बेहद संयमित और नियमित दिनचर्या अपनाकर काबू कर रखा था. चूंकि कोई भी उत्तेजक काम उसका खात्मा कर सकता है इसलिए उसने भूले से भी ऐसा कोई काम न करने की ठान रखी थी. फिर क्या चिंता?
ऐसी हालत में पोंटिस जिसने मन ही मन खुद के उस पद पर आसीन कर लिया था, मंसूबों पर पानी फिरते देख बेसब्र होने लगा, अपने मार्ग के इस रोड़े को वह कैसे हटाए? उसने शेर्नोक्सि के चिकित्सीय ग्रंथों में ट्यूमर से जुड़े सारे अध्याय पढ़ डाले, दरअसल कंठस्थ कर लिये, इस विषय पर जितना लिखा या कहा गया था उसकी तह तक जाकर सारी जानकारी हासिल कर ली...अब तो इस विषय पर उसे रोग के स्थानीय चिकित्सक से कहीं ज्यादा जानकारी थी. पते की बात यह कि कई बातें चिकित्सक को जीवन भर पता नहीं चल सकती थीं.
इस तरह विज्ञान का यह ललचाने वाला फल चखने के बाद पोंटिस को अब यह विश्वास हो चला था कि वह चाहे तो ट्यूमर फटने में मदद कर उस व्यक्ति की मौत को जल्दी बुला सकता है. किसी भी किस्म की उत्तेजना उसे खत्म कर सकती है? तो फिर ठीक है, सूजा पोंटिस उसे ऐसी उत्तेजना महसूस कराएगा.
हंसी का एक जोरदार ठहाका इस तरह की उत्तेजना व थकान ला सकता है. कुटिलता से उसने मन ही मन सोचा. एक ठहाका उसे खत्म करने के लिए काफी होगा. फिर मेरे लिए लोगों को हंसाना क्या मुश्किल है.
पोंटिस ने कई दिन अकेले रहकर इसी कश्मकश में गुजारे. लालच रूपी सर्प उसे डसता रहा. अच्छे-बुरे ख्याल लगातार उसे मंथते रहे.
क्या यह जुर्म है? नहीं! कानून की किस किताब में लिखा है कि हंसाना कोई जुर्म है और यदि इस वजह से कोई मर जाता है तो दोष उसकी कमजोर धमनी का है.
हमारे इस दुष्ट मसखरे का दिमाग जंग का मैदान बन गया था, जहां जमीर से बस मंसूबे के खिलाफ उठने वाली हर आपत्ति के साथ द्वन्द्व चलता रहा. उसकी कुटिल ख्वायिश जज के पद पर आसीन हो चुकी थी, जिसने न जाने कितनी बार विरोधी पक्ष के हर एतराज को बड़ी सफाई और शर्मनाक तरफदारी से खारिज कर दिया. जैसी आशा थी लाालच के सर्प की जीत हुई. पोंटिस अब एकान्त से निकलकर लोगों से मिलने-जुलने लगा, हालांकि वह थोड़ा कमजोर हो गया था, आंखें अंदर धंस गयी थीं पर उनमें एक विजयी संकल्प की चमक साफ झलक रही थी. गौर से देखने पर कोई भी उसमें तब्दीली और घबराहट को भांप सकता था पर उससे मिलने-जुलने वालो में ऐसे बहुत कम लोग थे जो उसमें आये बदलाव पर गौर करते. यूं भी पोंटिस की मानसिक उधेड़बुन की किसे परवाह थी...पोंटिस तो पोंटिस था-महज एक मसखरा!
‘‘जहां तक पोंटिस का सवाल था...’’
भावी टैक्स कलेक्टर ने अपने अभियान के लिए पूरी
सावधानी से योजना पर अमल करना शुरू कर दिया. सबसे पहले मेजर से संपर्क साधना जरूरी था जो अपना ज्यादातर वक्त एकांतवास में ही गुजारता था. फिजूल की बातों में उसकी कतई दिलचस्पी नहीं थी. उसके बाद धीरे-धीरे उसके दिल में जगह बनानी थी. उसकी पसंद-नापसंद को जाननी थी, ताकि मालूम पड़ सके कि उसके शरीर के किस हिस्से में वह घातक ट्यूमर मौजूद है.
बस फिर क्या था उसने रोजाना नये-नये बहानों से टैक्स कलेक्टर के दफ्तर के चक्कर काटने शुरू कर दिये. कभी दस्तावेजों पर स्टैम्प लगवाने तो कभी करों के बारे में जानकारी हासिल करने पहुंच जाता. मेजर के साथ चालाकी व सूझबूझ भरी बातचीत करने का कोई मौका वह चूकना नहीं चाहता था, ताकि वह जान सके कि ऐसी कौन सी बातें हैं जो मेजर को उत्तेजित कर सकती हैं.
वह दूसरे लोगों के काम लेकर भी कहीं जाने लगा, सीमा शुल्क अदा करने, परमिट लेने, या इसी तरह के छोटे-मोटे काम. ट्रेजरी विभाग के साथ आये दिन लेन-देन करने वाले अपने मित्रों के लिए तो वह बड़े काम का आदमी बन गया.
आये दिन उसके इन चक्करों को देख मेजर खुद भी हैरान था. उसने पोंटिस से इसका जिक्र भी किया. पर बड़ी होशियारी से बहाने बना कर पोंटिस ने उसकी बात को टाल दिया. सो कमजोर दिल मेजर से जान-पहचान बढ़ाने के अपने सुनियोजित मंसूबो में बगैर कोई जल्दबाजी किये वह इत्मीनान से जुटा रहा.
इस तरह दो महीने पूरे होते-होते पोंटिस उस खुशदिल मिजाज ‘गिलहरी’ से भली-भांति वाकिफ हो गया. पोंटिस का उसने यही नाम रखा था. पोंटिस उसे भला आदमी लगा जो दूसरों की सेवा करने के लिए तत्पर रहता और किसी बात का जल्दी से बुरा भी नहीं मानता था. इस अरसे में उसे एक बड़ी कामयाबी तब मिली जब काम का बोझ बहुत ज्यादा बढ़ जाने पर उसने पोंटिस से एक दिन मदद मांगी. उसके बाद यह सिलसिला चलता रहा. आये दिन वह काम निपटाने के लिए पोंटिस से मदद लेने लगा. धीरे-धीरे पोंटिस ने एक तरह से उसके विभाग में सहयोगी की हैसियत अख्तियार कर ली. कुछ कामों में तो पोंटिस का कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता था. कमाल का मेहनती था. बड़ी बारीकी और हुनर से काम निपटाता. एक मर्तबा अपने क्लर्कों को फटकारते हुए मेजर ने उन्हें पोंटिस की कार्य-कुशलता की मिसाल देकर सीखने की सलाह दी-
‘‘तुम लोग निरे मूर्ख हो. पोंटिस से कुछ सीखो. हर काम तो खूबी से निपटाता ही है साथ ही कितना हाजिरजवाब है.
उसी शाम मेजर ने उसे रात के भोजन पर आमंत्रित किया. पोंटिस का दिल बल्लियों उछलने लगा. किले के द्वार उसके लिए खुल रहे थे.
उस दिन का भोजन ‘गिलहरी’ के लिए फतह करने की शुरुआत साबित हुआ. अब तो वह मेजर के हर काम का अनिवार्य हिस्सा बन गया था. उसके बाद तो अपनी चाल को कामयाब करने के कई मौके हाथ आने लगे जिनका वह भरपूर फायदा उठाने लगा.
फिर भी मेजर को अपने इरादे से डिगाना आसान नहीं था. भूले से भी वह उत्तेजित होने या हंसने की गलती नहीं करता था. अपने उल्लास का इजहार वह बस व्यंगपूर्ण मुस्कान से कर देता. जिस मजाक को सुनकर उसके साथी हंसी रोकने के लिए कुर्सियों से उछल पड़ते और मुंह में रूमाल ठूंस लेते उस पर मेजर महज हल्के से होंठ टेढ़े कर देता. मजाक यदि आसाधारण किस्म का नहीं होता वह बड़ी बेरहमी से सुनाने वाले का यह कह हौसला पस्त कर देता-
‘‘भई पोंटिस, यह तो बड़ा पुराना लतीफा है. 1850 की फलां-फलां पत्रिका में यह तुम्हें दिख जाएगा. मुझे याद है मैं इसे पढ़ चुका हूं.’’
पोंटिस विनम्रता से मुस्करा भर देता, पर मन ही मन यह सोच खुद को तसल्ली देता कि इस बार वह जरूर पकड़ में आ जाएगा.
उसने अपनी समूची दूरदर्शिता बस मेजर की कमजोरी पकड़ने पर लगा रखी थी.
हर व्यक्ति की किसी खास किस्म के हास्य-व्यंग्य में दिलचस्पी होती है. किसी को मोटे ईसाई सन्यासियों के कामुक किस्से पसंद होते हैं, तो किसी को जर्मन लोक गीतों से जुड़े लतीफे. कुछ ऐसे भी होते हैं जो फ्रांसीसी किस्से-कहानियां सुनने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं. ब्राजीलवासियों को पुर्तगाल या अजोरी के रहने वालों के मूर्खतापूर्ण किस्से पसंद आते हैं.
पर मेजर? उसे तो किसी भी किस्म के हास्य-विनोद पर हंसी नहीं आती थी, न अंग्रेज-न जर्मन, न फ्रांसीसियों और न ही ब्राजीलवासियों की पसंद के किस्से उसे पसंद थे. न जाने उसे क्या पसंद था?
हंसाने के जब सारे तरीके बेअसर साबित हुए तो पोंटिस ने उन्हें छोड़ दिया. सूझ-बूझ से बाकायदा जांच-पड़ताल करने पर पोंटिस को अपने इस दुसाध्य अड़ियल प्रतिद्वन्द्वी की एक खास कमजोरी का पता चला. मेजर अंग्रेजों और ईसाई संन्यासियों के किस्से को बड़े चाव से सुनता था. इन दोनों को अलग-अलग नहीं बल्कि मिलाकर पेश करना जरूरी था. अलग-अलग सुनाने पर मेजर को मजा नहीं आता था, इस बुढ़ऊ की यही खासियत थी. जब किसी किस्से में चैक वाला सूट, हेलमेट और भारी बूट पहने किसी मांसाहारी, स्वस्थ, गुलाबी गोरे अंग्रेज के किस्से के साथ किसी नशेड़ी व कामुक मुटल्ले ईसाई साधु का जिक्र आता तो मेजर का मुंह खुला का खुला रह जाता. होंठ चबाना छोड़ देता. बिल्कुल किसी बालक की तरह दिखता जिसे मानो उसकी पसंद की टॉफी थमा दी हो, और जब लतीफे में क्लाइमेक्स आता तो वह उल्लास से भर खिलखिलाता, पर इतना जोर से या ज्यादा भी नहीं कि उसके स्वास्थ्य पर खतरा पैदा हो जाए.
असीम धैर्य के साथ पोंटिस इसी एक किस्म के हास्य से जुड़े लतीफे गढ़ने में जुटा रहा. दूसरे हर किस्म के किस्सों और लतीफों को दरकिनार कर दिया. धीरे-धीरे ऐसे किस्सों का भंडार बढ़ता गया. वह अपनी हाजिर जवाबी और दुर्भावना की खुराक को मिलाकर बड़ी होशियारी से परोसता ताकि मेजर की धमनी पर वांछित दबाव पड़ सके.
कई मर्तबा पोंटिस किस्से को लम्बा खींचता, जानबूझकर रुक-रुक कर सुनाता, अंत को छुपा जाता ताकि उसका असर बढ़ जाए. ऐसे वक्त बुढऊ की दिलचस्पी बढ़ जाती. जानबूझकर लाए गये विराम के बीच वह अधीर हो उठता. किस्से का खुलासा करने या बाकी हिस्सा सुनाने की दरकार करता-
‘‘भई आखिर उस सुअर का मांस खाने वाले शैतान का क्या हुआ?आगे की बात बताओ.’’
हांलाकि कि वह जानलेवा ठहाका आने में काफी विलम्ब हो रहा था. पर हमारा भावी टैक्स कलेक्टर नाउम्मीद नहीं हुआ. उसे इस कहावत पर पूरा भरोसा था कि पानी में बार-बार डुबाने पर मिट्टी का घड़ा आज नहीं तो कल फूटेगा ही. यूं उसकी चाल उतनी बुरी भी नहीं थी. मनोविज्ञान उसके पक्ष में था.
कार्निवल के आखिर में एक खास मौके पर मेजर ने अपने सभी मित्रों को आमंत्रित किया. मसालों से भरी एक भारी-भरकम मछली के इर्द-गिर्द जमा सभी मेहमानों और साथ ही मेजबान का मूड भी कार्निवल की मौज मस्ती से खिल उठा था. मेजबान खास तौर पर उस दिन खुद से और दुनिया से वाकई संतुष्ट मानों आसाधारण चीज उसके हाथ लग गयी हो. रसोईघर में पकने वाले भोजन की खुशबू भूख बढ़ाने वाले पेय का काम कर रही थी. सभी के चेहरों पर बढ़िया व्यंजनों के इंतजार में चटोरेपन का भाव था.
जब मछली लायी गयी तो मेजर की आंखें चमक उठीं. वह उस शानदार मछली का मुरीद हो गया, खासकर इसलिए भी कि उसे उसकी वफादार रसोईदारिन ने पकाया था. उस दावत में उसने अपनी समूची पाक कला उड़ेलकर बेहद लजीज मसालों से मछली को सजाया था. वाह! क्या मछली थी. तेज पर घटिया शराब के घूंट भरते हुए मछली के टुकड़े चटकारे लेते मेहमानों के पेट में उतरने लगे. सभी इस लजीज मछली को खाने में इतने मस्त थे कि एक अजीब सी खामोशी पसर गयी थी जिसे तोड़ने की किसी को फुर्सत नहीं थी .
पोंटिस को लगा कि अंतिम निशाना साधने का यह सबसे बढिया मौका है. उसने एक अंग्रेज, उसकी बीवी और दो फ्रांसीसी साधुओं का एक किस्सा अपने समूचे बौद्धिक कौशल से कई रातों की नींद हराम कर बड़ी मेहनत से गढ़ा था.
कई दिनों से उसने अपना यह जाल तैयार रखा था बस सही मौके का इंतजार था ताकि निशाना चूकने की कोई गुंजाइश न रहे.
हमारे खलनायक की यह आखिरी उम्मीद थी तरकश का आखरी तीर. यह तीर चूक जाता है तो उसने खुद की कनपटी पर दो गोलियां दागने का फैसला कर लिया था. वह जानता था कि इससे बढ़िया व विस्फोटक किस्सा गढ़ना नामुमकिन है. यदि उसकी धमनी इससे नहीं फटती है तो वह मान लेगा कि मेजर को ट्यूमर है ही नहीं. सब कोरी बकवास है. सारी चिकित्सा और वह डॉक्टर भी निरा गधा है. वह खुद यानी पोंटिस इस धरती पर सांस लेता निपट मूर्ख है इसलिए जीने के नाकाबिल.
इस तरह पोंटिस ने अपना पूरा ध्यान एकाग्र किया और मनोवैज्ञानिक नजरों से अपने शिकार को निहारने लगा, तभी मेजर की नजरें उससे टकरायीं उसने आंख मारी जिसका मतलब था कि वह सुनने के लिए पूरी तरह तैयार है.
‘‘तो हो जा शुरू’’ कातिल ने मन ही मन सोचा और भरसक सहजता से पास रखी सॉस की बोतल यूं उठायी मानो यह महज इत्तफाक हो और उसका लेबल पढ़ने लगा-
‘‘पेरिन्सः ली एण्ड पेरिन्स’’ मैं नहीं जानता कि यह पेरिन्स उसी लार्ड पेरिन्स का कोई रिश्तेदार है या नहीं जिसने दो फ्रांसीसी संन्यासियों को फांस लिया था?’’
प्लीज मछली के स्वाद में पूरी तरह मस्त मेजर की आंखें किसी रसभरे किस्से की लालसा से चमक उठीं.
‘‘दो साधु और एक लार्ड, किस्सा वाकई अव्वल दर्जे का होगा, गिलहरी चलो, जल्दी सुनाओ’’
और अनजाने में मुंह चबाते हुए वह जानलेवा किस्सा सुनने में रम गया.
किस्सा बड़ी कुशलताा से गढ़ा गया था, उसमें घटनाचक्र को अंत तक बड़ी बारीकी से बुना गया था. बेजोड़ महारत के साथ उसका एक-एक शब्द उस्तादी कला, कौशल और सहजता से सुनाया जा रहा था. किस्से के समाप्ति के निकट पहुंचते-पहुंचते बुढ़ऊ इस कदर मंत्र-मुग्ध हो चुका था कि क्लाइमेक्स जानने की जिज्ञासा से उसका मुंह आधा खुला रह गया था और गोश्त फंसा कांटा बीच हवा में रुक गया था. एक जोरदार ठहाका, हालांकि रोक रखा था, पर छूटने के लिए बेताब था. अब हंसा कि तब. हंसी की इस मुद्रा से उसका चेहरा खिल उठा था.
पोंटिस पल भर झिझका. उसे धमनी फटती दिखाई दे रही थी. क्षण भर के लिए उसकी अन्तर्रात्मा ने जीभ को पकड़ लिया पर पोंटिस न भीतर की पुकार को परे धकेल दिया और सधी आवाज में निशाना दाग दिया.
मेजर एन्ओलियो परेरा डिसल्वा बेंटीस ने अपने जीवन का पहला ठहाका लगाया-उन्मुक्त व जोरदार ठहाका जिसकी आवाज सड़क के छोर तक सुनी जा सकती थी. यकीनन यह मेजर के जीवन का पहला ही नहीं, अंतिम ठहाका भी था, क्योंकि अगले ही पल ठहाके बीच उसके भौंचक साथियों ने उसका चेहरा प्लेट पर लुढ़कते ओर मेजपोश को सूर्ख लाल खून से रंगते हुए देखा.
हत्यारा उठ खड़ा हुआ. आवाक्. अफरा-तफरी का फायदा उठाते हुए एक गली में से बाहर खिसक लिया और घर जाकर छुप गया. कमरे के दरवाजे की सिटकनी लगा ली, रात भर भय से थरथराता रहा, शरीर सर्द पसीने से भीगता रहा. हल्की सी आवाज से वह चौंक उठता कि पुलिस तो नहीं आ गयी है.
आत्मा की ग्लानि से उबरने में उसको कई हफ्ते लगे. लोगों को लगता रहा कि मित्र की मौत के दुःख में उसकी यह हालत हो गयी है. उसकी आंखों के सामने हर वक्त वही दृश्य घूमता रहता-कलेक्टर का औंधे मुंह प्लेट पर लुढ़कना, खून का फव्वारा छूटना और हवा में उसके अंतिम ठहाके की चीख.
अपनी हताशा से अभी वह उबर भी नहीं पाया था कि रियो का उसे रिश्तेदार को खत मिला. पहुंच वाले उस प्रभावशाली व्यक्ति ने लिखा था ‘‘हमारे बीच हुई बातचीत के मुताबिक तुमने मुझे मेजर के मरने की खबर वक्त पर नहीं दी. अखबारों के मार्फत मुझे उसकी मौत का समाचार मिला. मैं मंत्री के पास गया पर चूंकि काफी देर हो चुकी थी उसके पद के उत्तराधिकारी का नाम तय हो चुका था. अपनी इस लापरवाही की वजह से तुमने जीवन में एक बेहतरीन अवसर गंवा दिया. आगे यह लातीनी मुहावरा हमेशा याद रखना, ‘‘जो देर से आते हैं, उन्हें केवल हड्डियां ही नसीब होती हैं. भविष्य में सतर्क रहना.’’
महीने भर बाद ही पोंटिस का शव घर के खंभे से लटका पाया गया. बुरी तरह अकड़ चुका था, जीभ बाहर निकल आयी थी.
उसने जांघिये की मदद से खुद का गला घोट लिया था.
शहर में जब यह खबर फैली तो उसके मरने के तरीके को सुन लोग हंसने लगे. पुर्तगाली डिपार्टमेंट स्टोर के मालिक ने अपने क्लर्क से कहा भी-
‘‘वाकई कितना मजाकिया था वह! मरते वक्त भी मजाक करने से बाज नहीं आया. अपने ही जांघिये से फांसी लगा ली. ऐसा मजाक तो सिर्फ पोेंटिस ही कर सकता है.’’
और उसके इर्द-गिर्द जमा आधा दर्जन लोग खिलखिलाकर हंसने लगे, हा...हा...हा! अभागे पोंटिस को समाज ने बस यही एकमात्र श्रद्धांजलि अर्पित की.
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