संदर्भः- सामाजिक, आर्थिक एवं जातीय जनगण्ना-2011की रिपोर्ट बदलते भारत की बदरंग तस्वीर प्रमोद भार्गव एक तरफ विश्व बैंक के मुताबिक भारत ...
संदर्भः- सामाजिक, आर्थिक एवं जातीय जनगण्ना-2011की रिपोर्ट
बदलते भारत की बदरंग तस्वीर
प्रमोद भार्गव
एक तरफ विश्व बैंक के मुताबिक भारत की अर्थव्यस्था 1268 खरब रूपए की हो गई है। एक खाती-पीती-डकारती आबादी स्मार्ट और डिजिटल होने को आतुर है। वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार द्वारा सामाजिक,आर्थिक और जातीय जनगणना-2011 के जो आंकड़े जारी किए गए हैं,उनमें ग्रामीण भारत की तस्वीर न केवल बदरंग दिखाई दे रही है, बल्कि भयभीत करने वाली भी है। इन आंकड़ों से साफ हुआ है कि नवउदारवादी आर्थिक दौर में शहरी और ग्रामीण भारत के बीच विसंगति की जो खाई मौजूद है, उसमें चौड़ी होने की निरंतरता बनी हुई है। केंद्र में राजग सरकार के गठन के बाद उम्मीद थी कि अब समावेशी व समतामूलक विकास के उपाय होंगे,लेकिन 14 माह के कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार विषमता की खाई और बढ़ाने वाले उपायों का ही पोषण करती दिख रही है।
संप्रग सरकार ने सामाजिक,आर्थिक व जातीय आधार पर जनगणना करने का फैसला किया था। इस गणना की प्रबल पैरवी पिछड़े वर्ग के नेताओं, लालू, मुलायम तथा शरद यादव ने की थी। ताकि पिछड़ी जातियों की वास्तविक जनसंख्या का पता चल सके। 1931 के बाद पहली बार हुई इस गिनती में समुदाय व जाति के स्तर पर व्यापक जानकारियां हैं, लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली और ग्रामीण विकास मंत्री वीरेंद्र सिंह द्वारा दी गई जानकारी में जाति आधारित जनसंख्या के आंकड़े नहीं दिए गए। इन आंकड़ों को देने की जवाबदेही जनसंख्या महानिदेशक पर छोड़ दी गई है। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा देश के 640 जिलों में यह जनगणना पहली बार कागजों की बजाय इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के माध्यम से की गई है,इसलिए इसे विश्वसनीय माना जा रहा है।
इस गणना से ग्रामीण समाज की आवास,अर्थ और शिक्षा से जुड़े जो आंकड़े सामने आए हैं,वे हैरान करने वाले हैं। प्रत्येक तीन से एक परिवार भूमिहीन है,लिहाजा शारीरिक श्रम करके पेट भरने को मजबूर हैं। चंडीगढ़ में 91.61 फीसदी लोगों के पास मोबाइल फोन हैं,जबकि छत्तीसगढ़ के 70.88 फीसदी परिवारों के पास कोई फोन नहीं है। कई दशक से ग्रामीण भारत में चल रही इंदिरा आवास कुटीर योजना लागू होने के बावजूद 2.37 करोड़ परिवार,मसलन 13.25 फीसदी आबादी एक कमरे के घर में रहने को लाचार है। जिनकी दीवारें मिट्टी की और छतें कच्ची हैं। गांव के 5.37 करोड़ परिवार मसलन 29.97 फीसदी आबादी के पास कोई भूमि नहीं है। उन्हें आजीविका के लिए दिहाड़ी मजदूरी पर ही निर्भर रहना पड़ता है। साक्षरता अभियान में अरबों रूपए फूंक दिए जाने के बाद भी 25 साल की उम्र पार कर चुके 23.52 प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। यही नहीं सबसे ज्यादा डर पैदा करने वाले आंकड़े ये हैं कि देश में 4.08 लाख परिवार कचरा बीनकर और 6.68 लाख परिवार भीख मांगकर गुजारा करते हैं।
देश में कुल 24.39 करोड़ परिवार हैं,जिनमें से 17.91 करोड़ परिवार गांव में रहते हैं। यानी करीब 60 फीसदी आबादी गांव में रहती है। इनमें से महज 4.6 प्रतिशत नागरिकों को ही आयकरदाता होने का सौभाग्य प्राप्त है। जहां तक आय के स्रोत का प्रश्न है तो 9.16 करोड़ परिवार गरीबी की बद्तर हालत में रहने को विवश हैं। इनमें 51.14 फीसदी श्रमिक हैं तथा 30.10 फीसदी छोटी जोत की खेती करते हैं। 2.5 करोड़ परिवार,मसलन 14.01 प्रतिशत लोग निजी या सरकारी क्षेत्रों में नौकरी करते हैं। सरकार देश में एक अरब फोन होने का दावे के ढिंढोरा पीटती है, जबकि हकीकत यह है कि सिर्फ 2.72 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास ही फोन हैं। इस संचार सुविधा से अभी भी 28 फीसदी ग्रामीण परिवार वंचित हैं। ऐसे में डिजिटल इंडिया दिन में दिखाया जा रहा कोरा सपना है।
ग्रामीण भारत की यह तथ्यात्मक जानकारी एक ऐसी ठोस हकीकत है,जो विकास से वंचित गांव और उनकी आबादी की बदरंग तस्वीर खींचती है। इसी सूरत का बयान हाल ही में अर्थव्यवस्था का आकलन करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था मूडीज इंवेस्टर्स सर्विस ने भी किया है। इस एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत की आय न केवल गिर रही है,बल्कि एकल अंकों पर टिकी हुई है। आर्थिक विकास का यह आंकड़ा 2011 में 20 फीसदी से अधिक था,किंतु नबंवर 2014 में घटकर 3.8 फीसदी रह गया है। आर्थिक विकास दर के गिरने के कारणों में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा ग्राम से जुड़ी विकास व लोकल्याणकारी योजनाओं के मद-खर्च में की गई बड़ी कटौतियां हैं। इनमें स्वास्थ्य और परिवार कल्याण तथा मनरेगा जैसी योजनाएं शामिल हैं। 2014 के बजट की तुलना में 2015 में 4.39 लाख करोड़ रूपए से ज्यादा की कटौती हुई है। इसका असर उस ग्रामीण भारत पर पड़ा है, जहां देश की 60 प्रतिशत से भी ज्यादा आबादी रहती है। यहां यह रेखांकित भी करने की जरूरत है कि हमारे गांव केवल फसल और फल-सब्जी उत्पादक ही नहीं हैं, वरन पशुपालक भी हैं। मसलन दूध और दूध के सह-उत्पादों की आपूर्ती ग्रामीणों से ही संभव हो पा रही है। इन उत्पादों को बेचने से जो उन्हें धन मिलता है, उससे वे उपभोक्ता सामग्री खरीदते हैं। वस्त्र और जूतों-चप्पलों के अलावा 40 फीसदी सीमेंट की खपत भी गांव में हो रही है। ट्रेक्टर और अन्य कृषि उपकरण व खाद-बीज की खपत भी इन्हीं गांवों में होती है। बावजूद 7.05 करोड़ परिवार या 39.39 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ऐसी है,जिनकी आय 10 हजार रूपए प्रतिमाह से भी कम है और इनमें से ज्यादातर के पास दोपहिया वाहन, मत्सय नौका या किसान क्रेडिट कार्ड भी नहीं हैं।
सामाजिक-आर्थिक जनगणना के इन आंकड़ों से इस बात की पुष्टि हुई है कि अधिकांश विकास से वंचित गरीब आबादी निम्न पहचान वाली जातियों की है। इस गिनती के मुताबिक ग्रामीण भारत में जो एक तिहाई परिवार गरीब हैं,उनमें से हरेक पांचवा परिवार अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग से जुड़ा है। ज्यादातर यही वे सवा तेरह फीसदी परिवार हैं,जो एक कमरे के कच्चे घर में रहते हैं। ग्रामीण भारत में गरीबों की सबसे ज्यादा संख्या मध्य-प्रदेश में और फिर छत्तीसगढ़ में है। इनके बाद बिहार और उत्तर प्रदेश हैं। भाजपा शाषित मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारें बीमारू राज्य के दर्जे से उभरने का ढोल खूब पीटती रही हैं,लेकिन इन आंकड़ों से साबित हुआ है कि बद्हाली इन राज्यों में और बद्तर ही हुई है। क्योंकि इस गणना के आकलन में रोजगार शिक्षा, आय एवं आय के स्रोत, घर, भूमि, पशुधन जैसे बिंदुओं पर जानकारी जुटाई गई है और इनकी औसत उपलब्धि के पैमाने पर ये दोनों राज्य सबसे ज्यादा पिछड़े हैं। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों के उदरपूर्ति के चलाई जा रही योजनाएं भी इस जनगणना में ढाक के तीन पात साबित हुई हैं।
इस गिनती के ताजा आंकड़े संप्रग सरकार में गरीबी रेखा तय करने के लिए गठित की गई रंगराजन समिति के निष्कर्षों से मेल खाते हैं। रंगराजन ने तय किया था कि अगर किसी ग्रामीण व्यक्ति की आमदानी 32 रूपए से अधिक है तो उसे गरीब नहीं माना जाएगा। जबकि महंगाई के वर्तमान दौर में इस राशि से दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल है। हकीकत में तो गरीबी-रेखा को भुखमरी की रेखा माना जाना चाहिए। दरअसल सरकार किसी भी दल की हो, सत्ता पर काबिज होने के बाद नीति-निर्माताओं की कोशिश यह रहती है कि गरीबी कम और घटते क्रम में दिखाई जाए, ताकि अमल में आ रही नीतियों की सार्थकता बनी रहे। यही वजह है कि सत्ताधीश गरीबी पर पर्दा डालने की कोशिश तो करते हैं,लेकिन प्रति व्यक्ति रोजाना खर्च का गरीबी के परिप्रेक्ष्य में एक डॉलर खर्चने का जो पैमाना है,उसे अमल में नहीं लाते। यही वजह है कि सरकारी मंत्रालय द्वारा ग्रामीण भारत के जो आंकड़े तैयार किए गए हैं,उनमें भी गरीबी की व्यापकता और वास्तविक बदहाली की तस्वीर उभर कर पेश आई है।
बहरहाल,इन आंकड़ों को गंभीरता से लेते हुए यदि सरकार ग्रामीण और शहरी भारत तथा अमीरी-गरीबी की असमानता दूर करने के लिए प्रतिबद्ध है तो उसे समतामूलक नीतियों को अपनाना होगा। कुछ सेवाओं, कुछ सुविधाओं, कुछ संस्थानों और कुछ शहरों को विश्वस्तरीय बनाने की बजाय, ग्रामीणों की आमदनी बढ़ाने के उपाय करने होंगे, जिससे वे बेहतर जीवन-यापन कर सकें। अन्यथा ग्रामीण भारत की अर्थव्यस्था जनगणना के आय आंकड़ों के अनुसार ही बदस्तूर रही तो सकल घरेलू उत्पाद दर बढ़ाने और उच्च विकास दर हासिल कर लेने के दावे महज ख्याली पुलाव ही साबित होंगे और बदलते भारत की सुंदर तस्वीर की परिकल्पना आगे भी बदरंग ही बनी रहेंगी।
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प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492 232007
लेखक वरिष्ठ कथाकार और पत्रकार हैं।
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