तातसुहारू कोडामा अनुवादः अरविन्द गुप्ता ये एक ऐसी कहानी है जो बच्चों के दिलों में, हमेशा-हमेशा के लिए जंग और लड़ाई के खिलाफ नफरत पैदा क...
तातसुहारू कोडामा
अनुवादः अरविन्द गुप्ता
ये एक ऐसी कहानी है जो बच्चों के दिलों में, हमेशा-हमेशा के लिए जंग और लड़ाई के खिलाफ नफरत पैदा करेगी। लड़ाई में बड़े-बड़े नेता और फौज के जनरल नहीं मरते हैं। उसमें मरते हैं शिन जैसे तीन साल के निरीह बच्चे। शिन अपनी तिपहिया साइकिल चला रहा था जब हिरोशिमा पर अमरीका ने ऍटम-बम फेंका। ये कहानी हमें हमेशा जंग के विनाश की याद दिलाएगी।
हर साल जब अगस्त आती है तो मुझे फिर वही पुरानी यादें सताती हैं। मुझे बार-बार अपने पुत्र शिन का चेहरा याद आता है। वो एक लाल तिपहिया साइकिल चला रहा होता है। उसका सपना था कि यह साइकिल उसे जन्मदिन पर मिले। परंतु जल्द ही खुशी की यह तस्वीर, धुएं और राख के बादलों में छिप जाती है। उस अगस्त के दिन, हमारे सारे सपने चकनाचूर हो गए और सदा के लिए मेरे हृदय पर एक काला बादल छा गया।
पचास साल पहले शिन केवल तीन साल का था। हम जापान के हिरोशिमा शहर में रहते थे। शिन की दो बहनें थीं - मिचिका और योको। परंतु उसकी सबसे प्रिय मित्र थी किमी। वो पड़ोस के घर में रहती थी। दोनों दिन भर लकड़ी के गुटकों से घर बनाते रहते या फिर सचित्र पुस्तकों के पन्ने निहारते - खासकर एक किताब के - जिसमें एक तीन पहियों वाली साइकिल का चित्र बना था। शिन वैसी ही साइकिल चाहता था। उसे पता था कि उसका यह सपना कभी भी पूरा नहीं होगा।
उस समय जापान में तीन पहियों वाली साइकिल का मिलना बहुत मुश्किल बात थी। 1941 में, जापान ने अमरीका और कुछ अन्य देशों पर लड़ाई छेड़ी थी। चार साल के युद्ध के दौरान सारी साइकिलों, मंदिरों की घंटियों और रसोईघर के बर्तनों को गलाकर, उनसे लड़ाई के टैंक और बंदूकें बना दी गईं थीं। बच्चों के खिलौनों का मिलना बहुत मुश्किल हो गया था।
परंतु शिन था कि बस साइकिल की रट लगाए था। साइकिल नहीं मिलने के गुस्से में उसने खाना ही नहीं खाया था। वो मेरे करीब आया और विनती करने लगा, ‘पापा आप मेरे लिए साइकिल लाएंगे ना? जरूर लाना, भूलना नहीं!’ शिन की मां ने उसके कंधे पर हल्के से हाथ रखा और उससे कहा, ‘शिन हमें माफ कर दो। तुम्हें धीरज रखना होगा। ऐसी कई चीजें हैं जिनकी हमें जरूरत है जो अभी हमें मिल नहीं रही हैं। हमें उनके बगैर काम चलाना होगा।’ शिन के दिल को यह बात अच्छी नहीं लगी। परंतु उसे पता था कि मां जो कह रही हैं वो ठीक है।
फिर एक दिन शिन के चाचा उससे मिलने आए। चाचा, जापान की नौ-सेना में काम करते थे।
‘ शिन इधर आओ,’ उन्होंने कहा, ‘देखो मैं तुम्हारे लिए कुछ लाया हूं।’
‘ क्या है?’ शिन ने उत्सुकतावश पूछा। वो बड़ी-बड़ी आंखों से चाचा के हाथ के पैकिट को निहार रहा था।
‘ तुम कुछ अंदाज लगाओ,’ चाचा ने कहा, ‘इसमें वो चीज है जिसे तुम बहुत-बहुत पाना चाहते हो।’
यह कहते ही चाचा ने उपहार को अपनी पीठ के पीछे छिपा लिया। शिन खुशी के मारे कूदने लगा और पैकिट को पकड़ने के लिए लपकने लगा। परंतु चाचा ने, हंसते हुए उपहार को शिन की पकड़ से दूर रखा।
तभी शिन को पैकिट में से बाहर निकलता हुआ एक लाल रंग का हैंडिल दिखाई दिया। ‘इसमें तीन पहियों वाली साइकिल है!’ वो जोर से चिल्लाया।
उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। पैकिट खोलते वक्त उसकी आंखों में आंसू छलक उठे। ‘चाचा, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। आपको यह साइकिल कहां से मिली?’
‘यह साइकिल मुझे अपने कमरे में अल्मारी में पड़ी मिली,’ उन्होंने कहा, ‘तुम्हारे जन्मदिन से पहले ही मुझे वापस जाना है, इसलिए मैंने सोचा यह उपहार तुम्हें पहले ही दे दूं।’
शिन कूद कर अपनी लाल साइकिल पर बैठ गया और गर्व से मेरी ओर देखकर कहने लगा, ‘देखो पापा, मेरा सपना सच हो गया!’
6 अगस्त को सुबह बहुत सुंदर थी। पेड़ों से झींगुरों के पैरों के रगड़ने की आवाजें सुनाई पड़ रही हैं।
सुबह की शांति, सायरन की तेज गूंज से भंग हुई। यह अमरीकी हमलों की चेतावनी थी। सायरन की आवाज बंद होते ही, शिन और किमी दौड़ते हुए पीछे के आंगन में गए और हंसते हुए साइकिल पर सवार होकर उसे चलाने लगे।
मैं भी हंसते हुए घर के अंदर गया। तभी वो हुआ जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
दिल को हिला देने वाला एक जोरदार धमाका हुआ और आंखों को चौंधिया देने वाली बिजली चमकी। मुझे तो लगा जैसे दुनिया का अंत हो गया हो। फिर अचानक, सुबह के समय आसमान में घोर अंधेरा छा गया।
जब मैं उठा तो मेरे चारों ओर घुप्प अंधेरा था। मेरा हिलना-डुलना भी मुश्किल था। ऐसा लगता था जैसे कि मैं कहीं फंस गया हूं - पर कहां?
फिर मुझे ऊपर एक छेद में से हल्की सी रोशनी आती दिखाई पड़ी। मैंने सावधानी से अपने हाथों से लकड़ी की उन बल्लियों को हटाने की कोशिश की जिनके नीचे मैं दबा हुआ था। मैंने खड़े होकर किसी चिकनी सतह को छुआ। यह हमारे घर की छत थी। पूरा घर ढह कर मुझ पर आ गिरा था।
धीरे-धीरे मैं रोशनी की ओर बढ़ा और छत के ऊपर चढ़ा। चारों ओर बदन को झुलसाने वाली काली आंधी बह रही थी। यह सब देखकर पहले तो मुझे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ। सब कुछ ध्वस्त हो गया - कुछ भी नहीं बचा था। किमी का घर, मंदिर, लोग, यहां तक कि पूरा हिरोशिमा तबाह हो गया था।
उस तेज आंधी में मैं जोर से चिल्लाया, ‘क्या कोई है?’
‘मदद करो,’ शिन की मां की आवाज आई, ‘नोबू, मेरी मदद करो।’
मैं टूटे हुए घर से बाहर निकला। वहां मैंने शिन की मां को घर के मलबे में कुछ खोदते हुए पाया। शिन वहां एक भारी लकड़ी की बल्ली के नीचे दबा हुआ था।
मैंने जल्दी से बल्ली को उठाया और मां ने दबे शिन को खींच कर बाहर निकाला। उसका चेहरा सूजा था और उसमें से खून बह रहा था। कमजोरी के कारण वो बोल नहीं पा रहा था। परंतु अभी भी उसने एक हाथ से अपनी तीन पहियों वाली साइकिल के हैंडिल को कस कर पकड़ा था। किमी का कोई नामोंनिशां नहीं था। वो शायद, घर ने नीचे कहीं दबी पड़ी थी।
फिर मुझे छत के नीचे पड़े दो कपड़ों के टुकड़े दिखाई दिए। घर का एक कोना आग में दहक रहा था। आग की एक दीवार मेरे सामने खड़ी थी।
‘मिचिको! योको!’ मैं चिल्लाया, ‘मैं आ रहा हूं।’
मैंने अपनी पूरी ताकत लगाकर छत की भारी बल्लियों को उठाने की कोशिश की, परंतु मैं इसमें असफल रहा। आग अब मेरे बहुत करीब आ चुकी थी। इतनी भयंकर गर्मी थी कि मेरे कपड़ों में आग लग सकती थी। तभी मिचिको और योको के ऊपर पड़ी लकड़ी की बल्ली से आग की लपटें उठने लगीं।
‘मिचिको! योको!’ मैं कांपते हुए चिल्लाया। मैं एकदम लाचार था - अपनी बच्चियों की जान बचाने में असमर्थ था। परंतु शिन के बचने की अभी भी उम्मीद थी। इसलिए मां, धधकती आग से बचने के लिए शिन को लेकर नदी की ओर दौड़ी।
सभी बचे लोग नदी के किनारे ही इकट्ठे हुए थे। उस भयानक दृश्य को देख पाना भी मुश्किल था। सभी लोग बुरी तरह जल गए थे। वे बिलख-बिलख कर रो रहे थे और पानी मांग रहे थे।
‘ पानी मुझे पानी चाहिए!’ शिन हल्की आवाज में कह रहा था। मैं उसकी मदद करना चाहता था। परंतु मेरे आसपास लोग पानी पीकर मर रहे थे। इसलिए शिन को पानी देने की मेरी हिम्मत नहीं हुई।
‘पापा,’ शिन इतनी धीमी आवाज में फुसफुसा रहा था कि उसे सुन पाना भी मुश्किल था, ‘मेरी…. मेरी ….. साइकिल …. ।’
मैंने उसकी हथेली को दबाया जिसमें वो अभी भी साइकिल के हैंडिल का प्लास्टिक कवर पकड़े था। ‘शिन,’ मैंने कहा, ‘तुम अभी भी साइकिल के हैंडिल को पकड़े हो।’
उसके सूजे चेहरे पर अचानक एक चमक आ गई और मुंह पर हल्की सी मुस्कराहट झलकने लगी। परंतु उसी रात को शिन चल बसा। दस दिनों बाद उसका चौथा जन्मदिन था।
अगले दिन मैं अपने घर वापस गया। वहां मुझे मिचिको और योको की हड्डियां एक ही जगह पर पड़ी हुई मिलीं। उन्हें देखकर मैं सुबक-सुबक कर रोने लगा, ‘मुझे माफ कर दो। मेरे प्यारे बच्चों मुझे माफ कर दो।’
उन्हें दफनाने के बाद मैं काफी देर तक रोता रहा। एक दिन पहले वे कितनी खुश थीं? मैं सोचने लगा।
अगले दिन घर के आंगन में शिन को दफनाने के लिए मैंने एक कब्र खोदी। परंतु उसी समय किमी के मृत शरीर को उसकी मां अपने हाथों से उठाकर लाईं। ‘ये दोनों इतने अच्छे दोस्त थे,’ उन्होंनें दुखी स्वर में कहा, ‘नोबू, हम इन्हें इकट्ठे ही दफनाएंगे।’
जब किमी और शिन को दफनाया गया तो वे एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए थे। साथ में हमने शिन की लाल, तीन पहियों वाली साइकिल को भी दफनाया, जो हमें पास ही मलबे में पड़ी हुई मिली थी।
उस दिन के बाद हम रोजाना शाम को नदी के किनारे खड़े होकर अपने बच्चों का नाम पुकारते ‘शिन! मिचिको! योको!’
उस ऍटम-बम ने हिरोशिमा को एक रेगिस्तान में बदल दिया। पर अब इस हादसे को गुजरे चालीस साल बीत गए हैं। इस बीच, शहर दुबारा आबाद हुआ है। अब यहां जीवन में एक नई उमंग है। शुरू में लोगों ने सोचा कि अब वहां मिट्टी में कभी भी कुछ पैदा नहीं होगा। परंतु अब जमीन पर सभी जगह घास है और पेड़ फूलों से लदे हैं। पार्क में हंसते और खेलते बच्चे हैं।
मुझे अभी भी अपने बच्चों की मुस्कराहट याद है। और यह स्मृति मेरे दिल को अभी भी दुखाती है।
बहुत सालों तक, मैं और मेरी पत्नी इस बात से आश्वास्त थे कि बच्चे हमारे करीब ही हैं। परंतु हम चाहते थे कि उन्हें सही तरह से किसी कब्रिस्तान में जाकर दफनाएं। एक दिन हमने यह करने की सोची। किमी की मां ने भी इसमें हमारा हाथ बंटाया।
कुछ मिनटों तक खोदने के बाद मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मेरा फावड़ा किसी लोहे की चीज से जाकर टकराया हो। जब मैंने पास जाकर देखा तो मुझे वहां मिट्टी में एक जंग लगा पाइॅप का टुकड़ा नजर आया।
‘देखो,’ मैंने अपनी पत्नी से कहा, ‘इस तीन पहियों वाली साइकिल को! इसके बारे में तो मैं भूल ही गया था।’
इससे पहले कि मुझे कुछ पता चले, मैं फूट-फूट कर रोने लगा। मैंने अपना मुंह मोड़ लिया। उस साइकिल को देखने की मुझ में हिम्मत नहीं हुई।
‘देखो, यहां कुछ सफेद हड्डियां जैसी दिखती हैं,’ मेरी पत्नी ने कहा।
हम लोग देर तक किमी और शिन की हड्डियों को घूरते रहे। दोनों, एक-दूसरे का हाथ थामे थे - बिल्कुल उसी तरह से जैसे हमने उन्हें दफनाया था।
युद्ध में हमेशा तबाही ही होती है। लड़ाई किसने शुरू की इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। लड़ाई में हमेशा निर्दोष लोग ही मरते हैं। - शिन जैसे बच्चे।
मेरी आंखें आंसुओं से भीगीं थीं। मैंने हिम्मत बटोर कर आहिस्ता से शिन की साइकिल को उठाया। ऐसा अत्याचार बच्चों के साथ दुबारा कभी न हो, मैंने कहा, ‘अगर बहुत से लोग शिन की साइकिल को देखेंगे तो वे दुनिया में शांति के महत्व को समझेंगे। तब वे एक ऐसी दुनिया की कल्पना करेंगे जिसमें बच्चे हंस सकें और खेल सकें।
अगले दिन मैं शिन की साइकिल को हिराशिमा के ‘शांति संग्रहालय’ में ले गया। जिससे कि शिन की कहानी, दुनिया भर के बच्चों के लिए शांति का एक नया संदेश बन सके।
अंत
(अनुमति से साभार प्रकाशित)
COMMENTS