-शैलेन्द्र चौहान ...
-शैलेन्द्र चौहान
प्राय: सरकारी स्तर पर तथा गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा लोक शिक्षण और महिला साक्षरता के प्रयासों का बहुत जोरदार तरीके से प्रचार किया जाता है पर इस तरह के प्रचार अभियान या साक्षरता मुहिम, भारतीय पिछड़े ग्रामीण समाज की वास्तविक जरूरतों के आधार पर न किए जाकर, तथा समाज के विकास की वस्तुगत विश्लेषण की अवधारणा पर आधारित न होकर सिर्फ अक्षरज्ञान तथा पारंपरिक शिक्षण पद्धति के अत्यधिक महत्वपूर्ण होने की अवधारणा पर केंद्रित होते हैं । यह मानकर चला जाता है कि मात्र अक्षरज्ञान ग्रामीण- पिछड़े, निर्बल व्यक्तियों के सामाजिक- मानसिक स्तरों में स्वत: सुधार ले आएगा एवं भविष्य में विकास का कारण बनेगा । दुर्भाग्य से महिला साक्षरता या लोक शिक्षण की ये योजनाएँ तथा कार्यक्रम कुछ पूर्व निर्धारित आग्रहों तथा सोच पर आधारित होते हैं और ग्रामीण,पिछड़े व निर्बल समुदायों के प्रति आक्रामक व अपमानजनक रवैये से प्रारंभ किए जाते हैं । जैसे, ऐसे किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत में यह कहा जाता है कि निरक्षरता एक अभिशाप है, पढ़ा-लिखा न होना एक सामाजिक अपराध है। बिना पढ़ा- लिखा मनुष्य असभ्य व पशु तुल्य होता है । ऐसे मुहिम चलाने वाले प्राय: निरक्षरता तथा अशिक्षा को अज्ञान तथा प्रतिभाहीनता से सामान्यत: जोड़ देते हैं । इस तरह की नकारात्मक मानसिकता तथा दृष्टिकोण न केवल अशिक्षितों के प्रति अपमानजनक है बल्कि यह एक मनोगत अपराध भी है क्योंकि इस तरह के दृष्टिकोण से अशिक्षितों में कुंठा तथा अपराधभावना को और बल मिलता है।
चूँकि निर्बल और गरीब तबके में अशिक्षा बहुत अधिक है इसलिए प्राय: ही यह मान लिया जाता है कि अशिक्षा ही गरीबी का मुख्य कारण है। पढ़ा- लिखा मध्यवर्ग तथा सत्ताधारी वर्ग इस धारणा को पुष्ट करने में न केवल अपनी भूमिका निभाते हैं बल्कि इसके सशक्त वाहक भी होते हैं । वे यह बताते हैं, पढ़ने-लिखने मात्र से गरीबी मिट जाएगी, गरीबों की दुर्दशा खत्म होगी, अभाव और साधनों की कमी मिट जाएगी । जैसे मात्र शिक्षित होने भर से गरीबों के हाथों में कोई अलादीन का चिराग आ जाएगा जो उनकी संपन्नता तथा स्तरीय जीवन के विकास द्वार खुल जा सिमसिम कहते ही खोल देगा । इस तरह की अव्यवहारिक तथा मनोगत धारणाएँ न केवल बहुसंख्य समुदाय को भ्रमित करती हैं बल्कि उन्हें उस वास्तविकता से भी दूर ले जाती हैं जो उन्हें अपने हिसाब से अधिक समृद्ध तथा सशक्त जीवन शैली के विकास में सहायक हो सकती हैं ।
स्पष्ट है कि दुर्बल वर्ग में चलाए जाने वाले साक्षरता अभियान महज एक दिखावा भर हैं क्योंकि ऐसे कार्यक्रम समाजार्थिक-राजनीतिक वास्तविकताओं के वस्तुगत विश्लेषण पर आधारित न होकर भ्रामक, भावनात्मक अपेक्षाओं मात्र पर केंद्रित होते हैं । इसका एक बड़ा उदाहरण परिवार नियोजन का वह प्रोपेगेंडा है जिसमें गरीबों की गरीबी का मुख्य कारण उनके अधिक बच्चे होने को बताया जाता है । उन्हें यह नहीं बताया जाता कि भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति के ग्यारह और मुख्यमंत्री के सात बच्चे हैं फिर भी वे अत्यधिक संपन्न हैं । न जाने कितने धनिकों और उच्चवर्गीय नौकरशाहों के बड़े-बड़े परिवार हैं, कई-कई परिवार हैं फिर भी वे विपन्न नहीं हुए । इस तरह अपारंपरिक साक्षरता निवारण में दो बातें प्रमुख रूप से उभरती हैं कि - 'गरीब इसलिए गरीब है क्योंकि वह पढ़ा-लिखा नहीं है, दूसरे वह अधिक बच्चे पैदा करता है ।' क्या यही दो कारण भारत और वि·ा में गरीबी के लिए जिम्मेदार हैं ? क्या राजनीतिक अनिच्छा, ब्यूरोक्रेसी, आर्थिक संसाधनों का असमान वितरण, निर्बलों के प्रति दुर्भावनापूर्ण भेदभाव, शहरीकरण, निर्बलों और सबलों के बीच जमीन आसमान का आर्थिक अंतर, गरीबों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं है? कैसे कोई गरीब व्यक्ति महज पढ़-लिख जाने भर से साधन व सुविधा संपन्न हो सकता है ?
तब फिर सैकड़ों बेपढ़े राजनीतिक, लाखों व्यवसायी और दलाल तथा करोड़ों हेरा-फेरी मास्टर क्यों विपन्न नहीं हैं ? जब वे शिक्षित नहीं हो सके तो संपन्न कैसे हो गए ? अत: ऐसा कोई सीधा तथा तात्कालिक संबंध अशिक्षा और विपन्नता में नहीं दिखाई देता, न ही इस बात के प्रत्यक्ष सबूत हैं कि शिक्षित होने से विकास अपने आप होने लगे । फिर यह कोई एक, दो या सिर्फ दस मनुष्यों की बात नहीं है, यह एक बहुत बड़े समुदाय के जीवन परिवर्तन तथा बेहतरी की बात है । इसे चालू सरकारी लटकों-झटकों और अव्यवहारिक, भेदभाव पूर्ण योजनाओं से हासिल नहीं किया जा सकता। यह एक गंभीर उद्देश्य है अत: इसका निष्पादन भी गंभीरता और ईमानदारी से ही संभव है जो आज के राजनीतिक परिदृश्य में कहीं दिखाई नहीं देती।
समृद्ध तथा विकसित देशों में भी प्राथमिक शिक्षा तथा साक्षरता उनके सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ या बाद में ही बढ़ी है । समाजवादी देशों तथा चीन, क्यूबा, वियतनाम और पूर्व सोवियत संघ में वहाँ के नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक एवं औद्योगिक विकास के क्रम में बहुत कम समय में ही शिक्षित किया गया । शिक्षा वहाँ सामाजिक-आर्थिक विकास का एक अंग थी, कोई 'चेरिटी' अथवा सरकारी प्रगति का प्रोपेगेंडा नहीं । अत: यह तय है कि बिना सामाजिक-आर्थिक प्रगति के शिक्षा का विस्तार नहीं होता । यदि हम अपने ही देश के विकसित और अविकसित क्षेत्रों की तुलना करें तो यह स्वत: स्पष्ट हो जाएगा कि शिक्षा शहरों में अधिक 'गति' से फैलती है बनिस्बत अविकसित ग्रामीण क्षेत्रों के । अत: शिक्षा और गरीबी में जो संबंध बनता है वह यह है कि गरीब इसलिए गरीब नहीं है क्योंकि वह अशिक्षित है, बल्कि वह गरीब है इसीलिए अशिक्षित भी है।
पढ़े-लिखे होने या उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी यह आवश्यक नहीं कि लोग अधिक विवेकवान, विज्ञानसम्मत, सामाजिक रूप से जागरूक और अच्छे नागरिक के रूप में परिवर्तित हो सकें । यह आवश्यक नहीं कि उनका सोच और उनकी चिंतन प्रणाली अधिक विकसित तथा व्यापक हो, उदाहरण के तौर पर यदि अमेरिका में बेहद ज्ञानी तथा पढ़े-लिखे लोग हैं तो फिर वे अपसंस्कृति, शोषण, युद्ध और आर्थिक असमानता के पक्षधर क्यों हैं ? तीसरी दुनिया के गरीब देशों पर वे दादागीरी करके अमरीकी प्रभुत्व क्यों स्थापित करना चाहते हैं ? आज के इस 'ग्लोबल विलेज' में मनुष्यता के मुख्य शत्रु कौन हैं और वे कौन से कारक हैं जो मनुष्यता के विनाश के लिए तत्पर हैं ? यदि इस्लामी मूलवादी जो जाहिल, असभ्य और खूँखार हैं वे यह सब करते हैं तो समझ में आता है पर यदि यही काम अमेरिका, ब्रिाटेन, फ्रांस, जापान और जर्मनी करें तो ऐसी शिक्षा और ऐसी प्रगति किस काम की ? बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हों, वल्र्ड बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक हों, आई एम एफ हो या फिर गैट और डंकल समझौते हों, आणविक हथियारों के अप्रसार की बात हो, प्रकृति के दोहन और पर्यावरण के विनाश की बात हो, असमानता, रंगभेद, नस्लभेद और उपभोक्ततावादी अपसंस्कृति के विस्तार की बात हो, इस पूरे वै·िाक शोषण के लिए आखिर उत्तरदायी कौन है ? क्या दुनिया के वे गरीब जो अशिक्षित हैं ? या वे राष्ट्र जो अविकसित हैं ?
आज के भारतीय गाँवों के संदर्भ में यदि हम जानना चाहें कि उनकी दुर्दशा के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है तो यह बात हमें कतई नहीं चौंकाएगी कि तहसील और जिला कार्यालयों के राजस्व विभाग के भ्रष्ट पढ़े-लिखे लोग, पुलिस, ग्रामीण बैंक और विकास अधिकारी, सूदखोर व्यवसायी और बिचौलिये गाँवों की बदहाली के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं । इसलिए हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली जो अँग्रेजों द्वारा दी गई है उसमें आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है । ये परिवर्तन भारतीय ग्रामीण-सामाजिक संरचना तथा आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों के सम्यक मूल्यांकन एवं वस्तुपरक मूल्यांकन के पश्चात ही संभव है । दुर्भाग्य से हमारी राजनीतिक सरकारें ऐसा करना नहीं चाहतीं वे शिक्षा में, कभी आई टी तो कभी ज्योतिष के पढ़ाए जाने में ही अपना उत्तरदायित्व पूरा मान लेती हैं । उनकी पूरी राजनीति मंदिर -मस्जिद, गैरबराबरी, शोषण, धर्मोन्माद और युद्धोन्माद पर आधारित होती है । अब इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का हस्तक्षेप भी सहज ही दृष्टव्य है।
साक्षरता और पढ़ा -लिखा होना मात्र अपने आप में कोई ऐसा जादू नहीं है जो गरीबों की उन्नति की गारंटी दे सके, गरीबी मिटा सके, अंधविश्वास, कर्ज और शोषण से मुक्ति दिला सके । तब हमें यह अच्छी तरह समझना होगा कि अशिक्षा मिटाना बिना सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संघर्षों के संभव नहीं है । अशिक्षा समाप्त करने के लिए पहले गरीबी का उन्मूलन आवश्यक है । भारत जैसे विशाल देश में गरीबों और अमीरों के अंतर में लगातार बहुत तेजी से वृद्धि हो रही है । अमीर और अमीर होता जा रहा है गरीब और गरीब । दोनों के बीच तुलना करना अब न केवल अप्रासंगिक हो गया है बल्कि अप्रयोजनीय भी हो चुका है । तब फिर हमारी सरकारें अब भी अशिक्षा दूर करने की तथा गरीबी उन्मूलन की बातें क्यों करती है । जो काम अब उन्हें नहीं करना है अंतत: उसे जनता पर ही छोड़ दें । कोई पढ़े या न पढ़े, अब यह सिरदर्द सरकार क्यों मोल ले । अब न उनके पास उद्योगधंधे हैं, न रोजगार है, न रोजगार सृजित करने के अवसर हैं और न ही इस यथास्थिति को बदलने में ही उनकी कोई रुचि है तब यह ढ़ोंग, यह छद्म और यह पाखंड क्यों ? शिक्षा अब व्यवसाय बन गई है और शिक्षण संस्थाएँ दुकानें और सरकारें इस दुकानदारी को प्रश्रय दे रही है।
निर्बल वर्गों में एवं पिछड़े इलाकों में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, महिला शिक्षण या साक्षरता का कोई भी अभियान छेड़ने से पहले यह आवश्यक है कि समाज के ऐसे वर्गों का एक संरचनात्मक विश्लेषण वास्तविक आधार पर किया जाए। गरीबी और सामाजिक एवं लैंगिक गैरबराबरी के चलते, निर्बल वर्ग और ग्रामीण भागों की पचहत्तर प्रतिशत महिलाएँ न केवल साक्षरता या पढ़ाई से वंचित रहती हैं बल्कि बीमारी, कुपोषण, मानसिक कुंठा तथा तरह- तरह के शोषणों का शिकार भी होती हैं । जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि साक्षरता स्वयं अपने आप में गरीबी मिटाने का कोई जादुई समाधान नहीं हो सकता न ही अशिक्षा को समाप्त करना बहुत आसान है जब तक कि गरीबी और गैरबराबरी को नष्ट करने के लिए यथार्थपरक आर्थिक- सामाजिक कार्यक्रम नहीं बनाए जाते । इसके लिए एक दृढ़ इच्छाशक्ति और लंबे संघर्ष की आवश्यकता है ।
चूँकि सरकारों ने ऐसी इच्छा-शक्ति खो दी है और गैरसरकारी संस्थाएँ अपने निहित स्वार्थी-मंतव्यों और पश्चिमायातित पूँजीवादी, भोगवादी (उपभोक्तावादी) सोच के मकड़जाल में फँसती जा रही हैं, तब निर्बल वर्ग और पिछड़े क्षेत्रों के विकास और उन्नति की परवाह वैश्वीकृत समाज को अब कहाँ रह गई हैं ? जब मनुष्य एक संसाधन एवं उपभोग वस्तु मात्र (कमोडिटी) हो तब उसके वास्तविक शिक्षण और बेहतरी की चिंता किसे होगी और क्यों होगी ? महिलाओं के संदर्भ में बात करते समय हमें कुछ और गंभीर प्रश्नों पर भी सोचना आवश्यक हो जाता है । क्या हम महिला और पुरुषों के बीच व्याप्त असमानता को समाप्त करने की सोचते हैं ? क्या हम आधिपत्य और पितृ सत्ता को खत्म करने पर बल देते हैं ? क्या हमारे साक्षरता अभियान इन बुनियादी प्रश्नों को अपने उद्देश्यों में समाहित करके चलते हैं ?
संपर्क: 34/242, प्रताप नगर, सैक्टर-3, जयपुर- 302033
मो. 7838897877
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