हास्य-व्यंग्य : दीनू की किस्मत

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  - हनुमान मुक्त   दीनदयाल अपने बूते अनुसार पढ़ लिखने के बावजूद जब किसी सरकारी महकमे में जगह ढूंढने में नाकामयाब रहा तो आखिर उसने असर-कार...

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- हनुमान मुक्त

 

दीनदयाल अपने बूते अनुसार पढ़ लिखने के बावजूद जब किसी सरकारी महकमे में जगह ढूंढने में नाकामयाब रहा तो आखिर उसने असर-कारी स्कूल में देश के भविष्य निर्माता बनाने का कार्य शुरू कर दिया।

असरकारी स्कूल मास्टर की तनख्वाह से काम चलना मुश्किल था, साइड इनकम करना लाजिमी था, दीनदयाल जी ने होम ट्यूशन स्कूल समय से पहले और बाद में करने में कोई बुराई नहीं समझी।

तीस बरस की उम्र पार कर गए दीनदयाल जी, लेकिन क्या मजाल जो कोई नवयौवना का पिता अपनी पुत्री का हाथ उनके हाथों में देने का मानस बनाता।

इधर-उधर ताकते-ताकते आंखों को भी अब शर्म आने लगी थी। यार-दोस्त जब अपने बीबी-बच्चों के साथ हंसते-बतियाते निकलते तो दिल पर सांप लौट जाते, मन ही मन अपनी किस्मत पर रोना आता।

इसी मोहल्ले का होने के कारण बचपन का नाम ‘दीनू’ ही अधिक प्रचलन में था, दीनदयाल जी, दीनू मारसाब के नाम से आस-पास के घरों में प्रसिद्धि प्राप्त करते जा रहे थे।

निश्चित रूप से पढ़ाने लिखाने में उनका मन कितना लगता होगा, यह तो नहीं पता लेकिन उनके द्वारा घर पर पढ़ाए गए बच्चों में से एक भी बच्चा आज तक प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण नहीं हुआ। प्रथम श्रेणी से तो वे खुद भी पास नहीं हुए लेकिन दीनू मारसाब द्वारा जिस विषय की कॉपी जांच की जाती उसमें वह बच्चा अवश्य ही प्रथम श्रेणी प्राप्त कर लेता।

बेचारा दीनू जैसे-तैसे अपना जीवन बसर कर रहा था।

पिछले कुछ दीनों से वह उनकी ही बिरादरी के एक अफसर के घर पर ट्यूशन पढ़ाने के कार्य को अंजाम देने लगा था, अन्य ट्यूशनों के घर पर वह एक घंटे से अधिक खराब नहीं करता, लेकिन यहां तो वह दो-दो घंटे तक खराब करने में कोताही नहीं बरतता। पढ़ाने के अलावा भी साहब के पर्सनल कामों को दीनू पूरी मुस्तैदी से पूरा करता।

साहब, साहिबा और बच्चे पूरी तरह दीनू की वफादारी और मेहनत से खुश थे, आखिर दीनू ने पिछले दो बरसों से अपनी पगार तक जो नहीं मांगी थी।

साहब भी आखिरी साहब थे, साहबों जैसा उनका बड़ा दिल, साहबों जैसे उनके काम और साहबों को हो सकने वाले पहुंच तक उनकी पहुंच।

साहब भला दीनू की मेहनत को वैसे ही कैसे जाने देते आखिर उनका भी कोई कैडर था। एक दिन शाम को साहब कुछ अधिक ही मेहरबान हो गए। दीनू को एक अखबार थमाते हुए बोले, दीनू इस अखबार में हमारे महकमे में बाबू की जगह के लिए विज्ञप्ति छपी है, तुम फार्म भर दो।

दीनू भी आखिर दीनू ही था। अखबार को इधर-उधर पलटते हुए बोला, साहब इस नाम का अखबार तो पहली बार देखा है।

साहब के चेहरे पर एक मुस्कान सी आ गई, बोले जब यह बाजार में आएगा ही नहीं तो तुम देखोगे कहां से? इसकी प्रसारण संख्या हम जैसे कुछेक अधिकारियों तक ही सीमित है।

तुम्हें आम खाने या पेड़ गिनने है। जैसा कहा है वैसा करो, कल शाम तक फार्म तैयार कर दे जाना, अत्यन्त गोपनीय काम है, किसी से कुछ कहना मत।

दीनू को आम ही खाने थे। अपने ट्यूशन के काम को और अधिक निष्ठा से करने का मन ही मन निर्णय लिया, साथ ही साहब के निर्देशानुसार अपना भविष्य संवारने का भी।

कुछ दिनों बाद ही साहब ने परीक्षा में बैठने का बुलावा पत्र दीनू को थमा दिया और ठीक समय पर परीक्षा स्थल पर पहुंचने का आदेश भी कुछ गोपनीय निर्देशों के साथ।

सभी काम ठीक-ठाक ढंग से संपन्न हो गया। परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों की कुंजी पेपर मिलने के आधा घंटे बाद ही दीनू के पास पहुंच गई और दीनू परीक्षा में पास हो गया।

अब आ गई टाइप टेस्ट की समस्या। परीक्षा तो टीप-टाप कर पास कर ली, लेकिन जब टाइप करना आता तक नहीं, फिर टाइप की स्पीड में पास कैसे होता दीनू।

साहब अंकल खुद अलादीन के चिराग थे, उन्होंने टाइप टेस्ट वाले दिन दीनू को दिनभर उनके घर पर ही रहने का निर्देश दे डाला, कि वह आज घर से बिल्कुल ना निकले, साथ में स्कूल से भी आज की छुट्टी ले ले।

 

गतांक से...

दीनू साहब के गोरखधंधे के बारे में सोचता, उससे पहले ही पेड़ गिनने के बेवकूफी भरे प्रयास के बजाय उसने आम खाना श्रेयस्कर समझा।

कुछ दिन बाद परीक्षा परिणाम आया और दीनू बिना टाइप किए ही टाइप टेस्ट में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया, उसे बाद में पता चला कि उसकी टाइप टेस्ट की परीक्षा, साहब के आफिस का काम करने वाले टाईपिस्ट ने दी थी।

ईश्वर ने दीनू की सुन ली। बारह बरस बाद घूरे के भी दिन फिरते हैं, सो दीनू के भी फिरे। अब दीनू साहब के ऑफिस में ही सरकारी बाबू बन गया। उसकी बरसों की आस और साध सब साहब की मेहरबानी से पूरी हो गई, जिस सरकारी नौकरी मिलने की उम्मीद उसने सपने में भी करना छोड़ दिया वह अनायास ही पूरी हो गई। दीनू धन्य हो गया, उसका रोम-रोम साहब अंकल का ऋणी हो गया।

अब दीनू मास्साब, स्वमेव ही धीरे-धीरे दीनदयाल जी बाबू जी बनते चले गए। एक ही झटके में दीनू की मार्केट वेल्यू बढ़ गई, सोशल स्टेटस यहां से वहां पहुंच गया।

दीनू से दीनदयाल जी बनने की खबर जंगल में आग की तरह यौवनाओं के पिताओं तक फैल गई। सब के सब जैसे तैसे अपनी पुत्री को दीनदयाल जी को देने को लालायित हो उठे।

आखिर दीनदयाल जी सरकारी महकमे के रेवेन्यू विभाग में बाबू थे कोई सरकारी स्कूल मास्टर नहीं, जहां उन्हें अपनी पुत्री के भविष्य के बारे में सोचना पड़ता।

सुबह से शाम तक लाइन लगने लग गई, रिश्तेदार बनने के इच्छुकों की, जाने कितने बायोडेटा और फिल्मी अभिनेत्रियों की मुद्राओं में फोटोज इकट्ठे हो चले थे, दीनदयाल जी के पास।

ऑफिस में तो चाय-पानी की कोई समस्या नहीं थी लेकिन घर पर तो अपनी कमाई में से ही करानी पड़ती। खूब कोशिश करते, दीनदयाल जी घर से ऑफिस टरकाने की, कुछ टरक भी जाते।

जैसे-तैसे दीनदयाल जी ऑफिस की कार्य पद्धति के बारे में समझते जाते, उसी के अनुरूप अपने में सुधार कर अपनी वेल्यूशन बढ़ाते जाते। शून्य से शुरू होने वाले दीनदयाल जी में कुछ ही महीनों में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। पेन्ट की कमर और बुशर्ट का सीना बढ़ गया। चेहरे से झुर्रिया का स्थान एक अनोखी चमक ने ले लिया, जो दोस्त लोग पहले कन्नी काटकर चले जाया करते थे, अब दीनदयाल जी को आगे से झुककर सलाम करने लगे।

जिस तेजी से परदे पर कपड़े उतारने का ग्राफ बढ़ रहा है, उसी तेजी से दीनदयालजी के स्टेटस का ग्राफ भी बढ़ने लगा था।

ढाई लाख तक देने वाले सुन्दरियों के पिता उनके लिए तैयार बैठ़े थे, बस हां करने की देर थी। पर दीनदयाल जी सुन्दरियों का इन्टरव्यू पर इन्टरव्यू किए जा रहे थे, वे अपनी जीवन संगिनी में किसी प्रकार की कोई कमी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।

बायोडेटा के मुताबिक लंबाई, चौड़ाई, मोटाई, चेस्ट, ब्रेस्ट, कमर, बुलर इत्यादि का बारीक ढंग से मुआयना जारी था।

पहले जहां दर्शन करने तक के लाले पड़ गए थे, अब पूरी बेहयाई से इस काम को अंजाम दिए हुए थे, सुन्दरियों के पिताओं की मर्जी से, आखिर दीनदयाल जी सरकारी महकमे के कुंवारे बाबू थे।

बढ़ते स्टेटस और आमदनी के चौतरफे रास्ते से मदहोशी सवार हो गई उन पर और मदहोशी में लापरवाही होना स्वाभाविक था।

एक दिन जब चार-छः पुलिस कर्मियों के साथ धड़ाधड एक अफसर ने उनके कमरे में प्रवेश किया और दीनदयाल जी द्वारा कुछ ही समय पूर्व वसूले पांच सौ रुपए को उनकी जेब से सबके सामने निकाल कर पंचनामा तैयार कर वसूला तो सारी मदहोशी काफूर हो गई।

लगा एक साथ किसी ने ऊपर से नीचे धक्का दे दिया उन्हें और वे औंधे मुंह नीचे गिर पड़े।

सबको एक ही लाठी हांकने की कीमत चुकानी पड़ गई, गच्चा खा गए और पकड़े गए। जैसे-तैसे जमानत तो हो गई उनकी, लेकिन दो दिन में ही सारा संसार सूना हो गया, घर पर लोगों की लाइन लगना तो दूर, संवेदना के दो शब्द प्रगट करने वालों तक का अकाल पड़ गया। जीवन संगिनी बनाने के लिए कहां तो इंटरव्यू पर इन्टरव्यू लिए जा रहे थे और कहां खुद ही इन्टरव्यू हो गए।

समाप्त

 

Hanuman Mukt

93, Kanti Nagar

Behind head post office

Gangapur City(Raj.)

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रचनाकार: हास्य-व्यंग्य : दीनू की किस्मत
हास्य-व्यंग्य : दीनू की किस्मत
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2015/06/blog-post_932.html
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