प्रो0 अरूणेश 'नीरन' भो जपुरी के लोकसाहित्य या सर्जनात्मक साहित्य में न तो मानव की, न ही उसके अधिकारों की चर्चा अलग से है। सच तो यह...
प्रो0 अरूणेश 'नीरन'
भोजपुरी के लोकसाहित्य या सर्जनात्मक साहित्य में न तो मानव की, न ही उसके अधिकारों की चर्चा अलग से है। सच तो यह है कि 'कुछ भी' को अलग अपने अनुभव में लाना लोक के स्वभाव में ही नहीं है। मनुष्य, लोक में पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी-पहाड़ सब के साथ है, सब का साझेदार है। उसके अधिकार इन सबके अधिकारों को काट कर नहीं है, इन सबके साथ बाँट कर है। लोक में चर-अचर सब आते हैं। सबके साथ साझेदारी की भावना लोक दृष्टि है। सबको साथ लेकर चलना लोक-संग्रह है और इन सब के बीच जीना लोक यात्रा है।
वह एक फुदकती हुई चिड़िया है जो 'का खाऊँ का पीऊँ, का लेके परदेस जाऊँ' के सवाल के साथ अपने अधिकारों के रास्ते में अड़े बढ़ई, राजा, रानी, साँप, लाठी, आग, सागर, भँवर, हाथी, चूहे- सबसे टकराती है, किसलिए ? दाल के सिर्फ एक दाने के लिए, जो उसका हिस्सा है, जिसे जाँते (चक्की) ने चुरा लिया है जिस चोरी के खिलाफ कोई उसके साथ खड़ा नही होता, क्योंकि किसी की नजर में वह उस चिड़िया का अधिकार नहीं है- महज एक दाना है। बढ़ई, राजा-रानी, सांप, लाठी-व्यवस्था की यह जो समझ है, कि चिड़िया जैसे किसी कमजोर के लिए, एक दाना दाल जितने कम जिन्स के लिए उठ खड़े होने में उनकी हेठी है- इसे मानवाधिकार के बुनियाद सूत्र के रूप में समझ जा सकता है।
यह एक पक्ष है। एक दूसरा पक्ष यह है कि नीम की डाल पर झूला झूलती शीतला माँ को प्यास लगती है तो पानी पीने वे मालिन के पास पहुँचती हैं। पहुँच कर अपने देवी-देवता होने के ताव में पानी नहीं मांगती, मांगती हैं बड़े मनुहार से :-
सूतल बाडू कि जागल ए मालिन
बून एकऽ पानिया पियावऽ ए मालिन
उधर मालिन पर मइया के माइया होने का कोई रोब नहीं पड़ता :-
कइसे हम पनिया पियाई ए सीतल मइया
मोरे गोदिया, दीहल बलका तोहार हो
जल से तृप्त मइया से अपने लिए कुछ भी मांग लेने का एक दुर्लभ अवसर है मालिन के पास, लेकिन इसका उपयोग वह पूरे नगर कर कुशल-कामना के लिए करती है :-
पनिया तऽ पियलू मइया, पाटे चढ़ि बइठड
कि बोलऽ मइया, ई नगरिया कुसलात हो
और तब मालिन को जो मिलता है, बिना मांगे मिलता है। लेकिन ऐसा तब होता है और तभी है जब मइया ऐसी मइया हो और मालिन ऐसी मालिन हो। मइया 'मिनरल वाटर' लेकर किसी पंच- सितारा के लॉन में न झूलती हो और मालिन को हाकिम हुक्काम आहट पाते ही गोद से बच्चे को उतार कर दौड़ पड़ने की आदत न हो।
एक पक्ष यह भी है कि सामंतवादियों का अपने अधिकारों का ऐसा मद है कि वह उसके सामने किसी का कद नहीं देखता। कौशल्या और हिरणी वाले प्रसिद्ध सोहर में कौशल्या की पुत्र-प्राप्ति के सुख के सामने हिरणी के प्रिय के वध के दुख का कोई मूल्य नहीं। हिरणी को अपने प्रिय की 'खलदी' पाने का भी अधिकार नहीं है। राजा के बेटे का छट्ठिहार है। हिरनी अपने हिरन के संभावित वध को लेकर चिन्तित है। रात्रि भोज में अतिथियों के मांसाहार के लिए उसका हिरन भी पकड़ लिया गया है। कौशल्या उसकी उदासी का कारण पूछती हैं तो वह कारण बता कर हिरण को प्राणदान देने की प्रार्थना करती है। कौशल्या के न मानने पर वह हिरन की खाल मांगती है। कौशल्या इस प्रार्थना को अस्वीकार करती हुई कहती हैं :-
जाहु हरिनी घर अपने, खलरइया नाहीं देइब हो
हरिनी खलदी के खजरी मढ़इबो
ललन मोर खेलिहनि हो ......
तब हरिणी के मुहँ से शाप घहराता हुआ आता है, किसी अमोघ मंत्र की तरह, और पूरा का पूरा तंत्र धराशायी हो जाता है :-
जइसे मोर सून मधुबनवा त एक रे हरिन बिनु
रानी तइसे सून होइहें अजुधवा त एक रे रमइया बिनु
हम कहना चाहते हैं कि वह शाप आज भी कायम है। आयोध्या आज भी अभिशप्त है। सच पूछा जाय तो इस प्रतीक कथा में जो अंतर्कथा है वह संकेत करती है कि सामंती व्यवस्था श्रमजीवी वर्ग का इस सीमा तक शोषण करती है कि उसका अस्तित्व ही मिट जाता है। यही नहीं; वह व्यवस्था उसके बचे-खुचे अवशेषों का भी उपयोग करना चाहती है। यह शाप केवल हिरणी का शाप नहीं हैं बल्कि निरंकुश राजसत्ता के विरोध में उठा हुआ प्रतिरोध का स्वर है।
एक पक्ष यह भी है कि अधिकारों की बात ही न करें, कर्तव्यों का पालन करते चलें। भोजपुरी लोक का मानना है कि इस आदर्श से भी काम नहीं चलता कुएँ खुदवा दिये, बाग लगवा दिये और इस तरह हो गया कर्त्तव्य का पालन और मिल गया अधिकार-जिसको जो मिलना था, ऐसा नहीं है :-
कुँअवा खनवले कवन फल, सुनऽ हो राजा दशरथ
झोंझवन भरे पनिहारिन, तबही फल होइहें
बगिया लगवले कवन फल, सुनऽ हो राजा दशरथ
राहे-बाटे अमवा जे खइहें, तबही फल होइहें
फल की इस चिंता को 'मा फलेषु कदाचन' के पलटपाठ के रूप में स्थापित करने के उत्साह के बजाय सह-पाठ के रूप में आयोजित करने का उद्योग होना चाहिए। यह वेद के पूरक के रूप में लोक का पक्ष हैं। एक फल की चिन्ता से बरी रहने को कहता है, दूसरा फल की चिन्ता को गहे रखने को कहता है। यही चेतना अधिकार के प्रति सचेत करती है :-
कमवा करत तोर गोड़वा पिरइलें
रुपया के मुँह नाही देखले रे पियवा
यही चेतना प्रतिरोध का मन बनाती है, उसका बल घटाती है। यह प्रतिरोध किसी के, किसी तरह के दुख को अनकहा नहीं रह जाने देने तक के मन्सूबे में व्यक्त होता है।
शब्द से भाषा बनती है लेकिन शब्द भाषा नहीं है। इसी प्रकार भाषा में साहित्य लिखा जाता है, पर भाषा साहित्य नहीं है। तब वह कौन-सी चीज जो भाषा को साहित्य बना देती है ? वह है अपनी समस्याओं से लड़ता हुआ मनुष्य। जब मनुष्य अपनी वेदना संवेदना और प्रार्थना के साथ भाषा में प्रवेश करता है, तब भाषा साहित्य बनती है। भोजपुरी की एक लोककथा का नायक 'सुआ' पेड़ पर रहता है, जिसमें किसी का हृदय बसता है। और ऐसा बसता है कि एक को छूने पर दूसरा तड़पने लगता है- तब भाषा साहित्य बनती है, भोजपुरी अभिजन की भाषा नहीं, जन की बानी है। भाषा में दार्शनिक बोलता है, संत बोल में गाता है। दार्शनिक से संत महान होता है। क्योंकि तर्क के प्रभाव से दर्शन ऊपर की ओर बढ़ता है जबकि संतों की बानी लहर की तरह फैल कर ढाई आखर वाले प्रेम को अपनी अंकवार में भर लेती है। गोरख, भरथरी, कबीर, रैदास, सुंदरदास, धरमदास, धरनीदास दरिया साहब, गुलाल साहब, भीखा साहब और लक्ष्मी सखी जैसे संत्तों की परम्परा भोजपुरी की परम्परा है। जहाँ अन्त्यज जातियों से आये हुए ये संत अनपढ़ जरूर हैं लेकिन ज्ञानी हैं और पूरी शक्ति के साथ वेदमत के विरूद्ध लोकमत के साथ खड़े हैं और अभिजन के विरूद्ध जन की लड़ाई लड़ रहे हैं।
इनके साथ खड़ा है वह लोक काव्य जो जनकाव्य है, जिसमें लोकजीवन के उल्लास, उछाह, हूक, हुलास, संस्कृति-बोध, प्रेम, विरह यथार्थ, संघर्ष आदि की मार्मिक व्यंजना मिलती है। विरहा, कजरी, चैता, फगुआ, कहरवा, बारहमासा जैसे पुरूष प्रधान गीतों के साथ-साथ सोहर, झूमर, संझापराती, जेवनाट, जँतसार, गारी, छठ, बहुरा, पिड़िया नागपंचमी और संस्कारों में गाये जाने वाले नारी प्रधान गीत लोक जीवन का समग्र रूप प्रस्तुत करते हैं। ये गीत प्रतिरोध के गीत है।, मनुष्य की सत्ता- उसके अधिकारों की रक्षा करने वाले गीत हैं। जँतसार गीत इसके उदाहरण हैं। एक गीत में बहन भाई को बुलाती है। भाई के पास रास्ते के भयानक होने का बहाना है। बहन तलवार लेकर आने का उपाय सुझती है। भाई से कौर नहीं उठता जब वह देखता है कि अत्याचारों से त्रस्त चांद-सूरज जैसी उसकी बहन कोयले जैसी हो गयी है। बहन एकांत में ले जाती है उसे, अपने सारे दुख कह देने के लिए :-
भइया! मन भर कूटी; मन पीसे ला हो ना
भइया! मन भर दीन्हीं-ला रसोइया हो ना
सासु खांची भर बर्त्तनवा मंजावेली हो ना
सासु पनिया पात्ताल से भरावेली हो ना
भइया! सबके खियाई के पियाई के हो ना
भइया! बांचि जाला पिछली टिकरिया हो ना
भइया, ओहू में से ननदी के कलेडवा हो ना
भइया, ओहू में से गोरख चखहवा हो ना
भइया, ओहू में से कुकुरा बिलरिया हो ना
भइया, ओहू में से देवरा कलेउआ हो ना!
ढेर सारे दुख और कुछ नहीं, सिर्फ भाई से कह देना है। भाई बस इतना करे कि इन दुखों की मोटरी बाँधे और नदी में प्रवाहित कर दे। साथ में यह भी, कि किस-किस से यह दुख नहीं कहता है। भऊजी से नहीं; क्योंकि वह दो-चार घर जाकर कह आयेगी। माँ से भी नहीं; क्योंकि उसकी छाती फट जायेगी। चाची से नही; क्योंकि वह ताने देगी। बहन से नहीं; क्योंकि वह ससुराल जाने का नाम नहीं लेगी। पिता से भी नहीं; क्योंकि वह सभा-बीच रोने लगेंगे। लेकिन ऐसा भी नहीं कि किसी से भी नहीं कहना है। अगुआ से जरूर जिसमें मेरे विवाह की अगुवाई की। ब्राह्मण से जरूर कहना जिसने ऐसे विवाह का लग्र-विचार किया और वर-वधू की कुण्डली मिलाई।
भोजपुरी लोक के पास अधिकार की जो चेतना है, वह अँखमुँद कतई नहीं है। वह भीड़-भाड़ वाली भी नहीं है। उसके पास यह समझ है कि कहाँ, कैसे, किससे और क्यों कहना है, कहाँ, किससे और क्यों नहीं कहना है ? भोजपुरी साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण बड़ा और असरदार तत्व है प्रतिरोध। भोजपुरी संस्कृति प्रतिरोध की संस्कृति है वह बोलती भी है, चुप भी रहती है। प्रतिरोध सत्ता से, शक्ति से, व्यवस्था से, गैर से, स्वयं से। भोजपुरी का लोक साहित्य और सर्जनात्मक साहित्य प्रतिरोध की इसी संस्कृति से सृजित और विकसित हुआ है।
सन् 1914 में पटना के हीरा डोम की अछूत की शिकायत कविता 'सरस्वती' में प्रकाशित हुई। इस भोजपुरी कविता ने संत्तों द्वारा चलाये गये दलित विमर्श की परम्परा को आगे बढ़ाया। मानवाधिकार से वंचित हीरा डोम का यह प्रतिरोध उस धार्मिक-समाजिक व्यवस्था से है जिसमे मनुष्य से उसके जीने का अधिकार छीन लिया है। हीरा डोम सीधे आस्था-पुरूष से शिकायत करते हैं :-
हड़वा मसुइया के देहिया ह हमनी के
ओकरे के देहिया बभनओ के बानी
ओकरा के घर-घर पुजवा होखत बाजे
सारे इलकवा भइलें जजमानी।
हमनी के इनरा के निगिचे न जाइले जां
पाँके में से भरि-भरि पियतानी पानी
पनही से पीटि-पीटि हाथ-गोड़ तरि देले
हमनी के एतनी काहे के हलकानी।
भोजपुरी के आधुनिक काल के महानतम कवि-नाटककार भिखारी ठाकुर स्वयं दलित थे नाई जाति के/निरक्षर और अध्ययनशून्य। लेकिन समाज की पाठशाला से निकले अक्षर पुरूष निरक्षर/साक्षर भिखारी ठाकुर ने विभिन्न लोकनाटकों की रचना की तो उनके सामने समाज का वही दलित, अशिक्षित, उपेक्षित, अधिकारविहीन वर्ग था, जिस वर्ग से वे आये थे। उन्होने जो लोक-मंडली बनायी उसके अधिकांश सदस्य दलित और पिछड़े वर्ग के थे। उनके पात्रों के नाम भी ऐसे हैं जो दलित वर्ग में ही पाये जाते हैं जैसे उपदर, उदवास, चेथरू, चटक, अखजो, लोभा आदि। बाल विवाह, अनमेल विवाह, संयुक्त परिवार का विघटन, अपराध, चोरी, जुआ, मद्यपान, बहुविवाह आदि समस्याओं से दलित वर्ग घिरा हुआ था। इसलिए उनमें यह चेतना विकसित नहीं हुई थी कि अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करें। वे एक शैली बन गये और भोजपुरी क्षेत्र के सांस्कृतिक पुनर्जागरण के महा नायक। अपने वजूद की रक्षा के लिए, मनुष्य के अधिकारों को छीनने वाले हाथों को चुनौती देने के लिए/भोजपुरी स्त्री और दलित विमर्श का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि भोजपुरी में स्त्री की बात ने स्त्री उठाई है और दलित की बात दलितों ने। लोकसाहित्य और सर्जनात्मक साहित्य, दोनों में, यह परम्परा समानान्तर चलती है। भोजपुरी में दलित -विमर्श कबीर से शुरू होता है और स्त्री-विमर्श तब से, जब से लोक गीतों का आरम्भ हुआ। भारतीय भाषाओं में मनुष्य के अधिकारों की लड़ाई लड़ने का सर्जनात्मक हस्तक्षेप भोजपुरी में सात सौ साल पुराना है।
एक लोक कथा पर आपका ध्यान आकृष्ट कर करते हुए अपनी बात समाप्त करने की अनुमति चाहता हूँ -एक बुढ़िया थी। वह हाथ-गोड़ जला कर रसोई बना रही थी। एक चूहा आया। देखा गीली लकड़ी से खाना नहीं बन पा रहा है। वह दौड़ कर गया और सूखी लकड़ी लाकर बुढ़िया को दे गया। बुढ़िया ने चाँद-सी रोटी बनायी। चूहे ने एक रोटी माँग ली और वहां से चला। रास्ते में कुम्हार मिला। वह भूखा था। चूहे ने रोटी दी और कुम्हार ने मटका दिया। ग्वालिन मिली, उसे मटका देकर मक्खन लिया। सूखी रोटी खा रहे चरवाहे को मक्खन दिया और उसके बैल पर बैठ कर चल दिया। बोझ ढोते धोबी को देखकर उसे बैल देकर कपड़े ले लिये और कुरता-धोती-टोपी पहन कर राजा के महल में पहुँचा। राजा उस समय हजामत बनवा रहा था। चूहा बोला, 'हमरे माथे पर टोपी! राजा बाटे मुण्डा?' राजा ने नाराज होकर हुक्म दिया; 'उतार ले टोपी'। चूहा बोला ' राजा भिख मंगा, ले लिहलस हमार टोपी।' इस कथा में हाथ-गोड़ जरा कर रसोई बनाने वाली बुढ़िया, कुम्हार, ग्वालिन, चरवाहा, धोबी-सब मजदूर वर्ग से आते हैं और सभी देते हैं। केवल राजा छीनता है गरीब की टोपी! कौशल्या की हिरनी हो जिसे हिरन की खाल भी नहीं मिलती या चूहे का राजा जो गरीब कर टोपी उतार लेता है, दोनों उस सामंतवाद से लड़ते हैं जो मनुष्य के अधिकारों को छीनता है। तब इसी लोक के शाप से अयोध्या उदास हो जाती है और आज तक उदास है।
(मानवाधिकार संचयिका, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से साभार)
बहुत ही सारगर्भित और गंभीर लेख। भोजपुरी साहित्य में मानवाधिकारों के सम्बन्ध में नई दृष्टि।
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