ऎसा कुछ करें जो पीढ़ियों तक काम आए

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  डॉ. दीपक आचार्य   सभी लोग हमेशा यह सोचते हैं कि वे ऎसा कुछ करें कि अधिक से अधिक लोग जानने-पहचानने लग जाएँ, लोकप्रियता का चरम शिखर हासिल...

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डॉ. दीपक आचार्य

 

सभी लोग हमेशा यह सोचते हैं कि वे ऎसा कुछ करें कि अधिक से अधिक लोग जानने-पहचानने लग जाएँ, लोकप्रियता का चरम शिखर हासिल कर लें और समाज, क्षेत्र तथा परिवेश में वे बहुत बड़ी वैभवशाली, सम्माननीय और महत्वपूर्ण हस्ती के रूप में स्वीकारे जाने लगें।

हर कोई इसी महत्त्वाकांक्षा या उच्चाकांक्षा को लेकर काम करता है और विभिन्न प्रवृत्तियों में रमा रहता हुआ अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने की जी तोड़ कोशिश करता है।

इसके लिए उसे समाज-जीवन और क्षेत्र की जाने कितनी विषम परिस्थितियों के दौर से होकर गुजरना पड़ता है और बहुत सारी स्पर्धाओं के लिए मेहनत करते हुए आगे बढ़ने की मजबूरी सामने होती है।

यह प्रतिस्पर्धा दोनों तरफ समानान्तर चलती रहती है। बहुत सारे लोग शुचिता और सात्ति्वकता भरे मार्ग को अंगीकार करते हुए तरक्की के रास्ते बढ़ने की कोशिशें करते रहते हैं।

दूसरे सारे लोग उन आसान मार्गों को तलाश लेते हैं जो समझौतों और समीकरणों से होकर गुजरते हैं और इनमें न कोई शुचिता का ख्याल रखा जाता है, न किसी भी प्रकार की सात्ति्वकता या परिशुद्धता का। 

जो जैसा है उसका अपने हक में शोषण की सीमा तक भरपूर उपयोग करते हुए दूसरों को पछाड़ते हुए आगे से आगे बढ़कर लपक कर पा जाने की प्रवृत्तियों का खुला प्रयोग होता है और इस मामले में सब कुछ फ्रीस्टाईल ही है।

इन तमाम द्वन्द्वों-अन्तद्र्वन्द्वों और भागदौड़ के बीच सभी क्षेत्रों में रचनात्मक गतिविधियों का दौर हमेशा न्यूनाधिक रूप में चलता ही रहता है। यह अपने आप में बहुआयामी गतिविधियों से इस कदर भरा होता है कि इससे जुड़े हुए खूब सारे लोग उस समय की मुख्य धारा में होते हैं।

हर इलाके में रचनात्मक कार्यकताओं की एक बड़ी फौज हुआ करती है जिनका नाम भी चलता है और सिक्के भी, क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों में ऎसे लोग होते हैं जिन्हें इस किस्म के लोगों की तलाश बनी रहती है जो उनके काम ओढ़ लिया करें और जिम्मेदार मूल लोग मस्ती मारते रहें।

कई क्षेत्रों में निष्काम कर्मयोगियों की भी कोई कमी नहीं होती मगर वे लोकप्रियता की मुख्य धारा में होने की बजाय जन-मन में बसे हुए होते हैं।

आम तौर पर लोग किसी भी रचनात्मक कर्मयोग को अधिक से अधिक दस-पन्द्रह वर्ष तक ही चला पाते हैं और इस अवधि में ही अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं और ऊर्जाओं का उपयोग करते हुए अपने आपको ही सर्वत्र स्थापित और प्रचारित-प्रतिष्ठित  करने और पूज्यपाद होने के कर्म में जुटे रहते हैं।

इनमें भी खूब सारे लोग तो ऎसे होते हैं जो अपनी ही मान-बड़ाई में लगे रहते हैं। चाहे इसके लिए दूसरों का गला ही क्यों न घोंटना पड़े या उन्हें दरकिनार करने के लिए ही कुछ भी क्यों न करना पड़े।

हर तरह के गोरखधंधों और षड़यंत्रों को अपनाने में इन लोगों को अपने स्वार्थों के सिवा कुछ नहीं दिखता। यही कारण है कि बहुत सारे लोग अपने वजूद को बनाए रखने के लिए प्रतिभाओं का विस्तार नहीं करते, और न ही रचनात्मकता का घनत्व बढ़ाते हैं बल्कि ये लोग अपनी शक्ति दूसरों को पछाड़ने और टाँग खिंचने में ही लगाए रखते हैं।

इनके साथ ही ऎसे लोग अपने आपको मुख्य धारा में रखे रखने के लिए प्रभावशाली लोगों के आगे-पीछे घूमने से लेकर सारे करतब करने में माहिर हैं जो सज्जनों के दायरों से बाहर होते हैं।

हर कोई इसी फिराक में रहने लगा है कि जब तक वो रहे तब तक उसकी तूती बोलती रहे, बाद में जो कुछ हो, उससे हमारा क्या लेना-देना। अधिकांश समाजसेवी, रचनात्मक कार्यकर्ता और रचनात्मक क्षेत्रों से जुड़े लोग इसी मनोवृत्ति के होते हैं।

इनकी सोच सीमित होती है और यही वजह है कि इनका रचनात्मक कर्मयोग कुछ बरस तक के लिए ही चलता है। यही क्रम बना रहता है। कुछ-कुछ बरस मुख्य धारा में रहने के बाद लोग हाशिये पर चले आते हैं और उनकी जगह दूसरे लोग आ जाते हैं।

रचनात्मक कर्मयोगियों की इस सनातन धारा में कुछ ही लोग ऎसे होते हैं जो दस-बीस साल की नहीं बल्कि सदियों की सोचते हैं। ये लोग अपने कर्मयोग को दो-तीन दशकों तक सीमित नहीं रखते बल्कि आने वाली पीढ़ियाें के लिए ऎसा कुछ कर जाते हैं कि ये इतिहास में अमर हो जाते हैं। असल में रचनात्मकता इसी को कहते हैं।

लोग उन्हें ही याद रखते हैं जो आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ कर जाते हैं वरना हजारों-लाखों लोग हैं जो कुछ बरस ही याद किए जाते हैंं। इसके बाद इनका नामलेवा कोई नहीं होता। 

अधिकांश तो ऎसे ही हैं जो अपने समय में खुद के लिए ही जीते हुए आत्म प्रतिष्ठा प्राप्त करने में लगे रहते हैं और खुद की छवि निर्माण या बरकरार रखने की फिक्र में ही डूबे रहते हैं। इन लोगों के यश की आयु एक-दो दशक में समाप्त हो जाती है लेकिन इन लोगों की अपने ही अपने लिए जीने और यशस्वी बने रहने की फितरत से समाज को ज्यादा कुछ प्राप्त नहीं हो पाता सिवाय चंद लोगों के प्रचार के।

हर कहीं देखा जाता है कि यही एक समूह बार-बार छाया रहता है और छाये रहने के लिए सभी प्रकार के हथकण्डे अपनाता रहता है। इस चक्कर में खूब सारे मेधावी और बहुआयामी हुनरमंद लोग इनकी नालायकियों के कारण पिछड़ कर रह जाते हैं।

इसके साथ ही हमारा दुर्भाग्य यह भी है कि हम लोग सम सामयिक काल खण्ड के लिए ही अपने रचनात्मक कर्मयोग को आकार देते हैं, दूर की, और दूसरों की कभी नहीं सोचते। एक बार भी यदि हम औरों के बारे में सोचें तथा आने वाली पीढ़ियों से संबंधित कर्मों की ओर ध्यान दें तो वर्तमान का तो भला होगा ही, आने वाले पीढ़ियों को भी इसका लाभ पहुंचेगा ही।

हम सभी को इस पर ध्यान देना चाहिए कि काम ऎसे स्थायी महत्त्व के हों कि इसका लाभ लम्बे समय तक समाज को प्राप्त होता रहे। इनसे सामाजिक और आर्थिक विकास गतिविधियों को भी बल मिलेगा और बेकारी भी दूरी होगी। इन कामों में तरजीह उन कारकों को दी जानी चाहिए जिनकी कि समाज को आज सर्वाधिक आवश्यकता है।

असल में याद उन्हें ही किया जाता है जो आज के साथ ही आने वाले कल के लिए दूरदर्शिता अपनाते हुए काम कर जाते हैं। वे लोग तो चंद दिनों में भुला दिए जाते हैं जो आत्मप्रचार के लिए रचनात्मक गतिविधियों का सहारा लिया करते हैं। करें कुछ ऎसा जो पीढ़ियों तक के लिए काम आए।

 

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- डॉ. दीपक आचार्य

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dr.deepakaacharya@gmail.com

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ऎसा कुछ करें जो पीढ़ियों तक काम आए
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